अमरकंटक से पेन्ड्रा विहार में
अचानक आचार्यश्री के पाँव में
होने लगा असहनीय दर्द,
कुछ दूरी पर बैठ गये शिष्य
इसीलिए कि- गुरु के ध्यान में न आये कोई विघ्न,
निस्पृही संत हुए स्वयं में लीन
तभी एक व्यक्ति आया।
हाथ में छोटी-सी लकड़ी लिए
सिर पर पगड़ी बाँधे हुए करने लगा हठ
“गुरु भगवंत के दर्शन करके ही जाऊँगा
किसी प्रकार का विघ्न नहीं करूंगा
मात्र इस लकड़ी से पैर को छूने दो
इतनी-सी भावना पूरी कर लेने दो।”
शिष्यों ने सोचा
लाया है जड़ी-बूटी,
सोचा... इसे जाने दो
जाकर किया भावों से प्रणाम
ज्यों ही लकड़ी पैर से स्पर्श की
तत्काल गायब हुआ दर्द ही!
बाहर आया, देखा सबने
लेकिन अदृश्य हो गया पल में,
ढूँढा आसपास हर जगह
लेकिन कहीं मिला नहीं वह…
समझ गये सब
मनुज नहीं, था देव वह!
“अहो! व्रतमिदं जैनं देवानामपि पूजितम्”
चाहते जिन्हें देव मनुज सभी,
किंतु गुरु की कुछ चाहत नहीं
तन-मन से परे
निज चेतन की भी चाहत नहीं,
जो अपना ही है उसकी चाह क्या?
और जो अपना है नहीं उसे अपनाना क्या?
क्योंकि जान रहे हैं ये
कि तन पराधीन है
हवा, पानी, भोजन चाहिए इसे,
चेतन स्वाधीन है
वीतराग विज्ञान चाहिए इसे,
मन स्वाधीन भी है पराधीन भी
यदि है चेतन के पक्ष में
तो स्वाधीन है
यदि है तन के पक्ष में
तो पराधीन है
इसीलिए तो मन को चेतन में लगाये रखते
स्वयं ज्ञायक की धुन में लगे रहते
स्वात्मनिष्ठ होने से अहर्निश
अंतर में चिन्मय चेतना की
चिदाभा दिव्य होती जा रही...