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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 122

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    भले ही महावीर नाम हो बच्चे का,

    किंतु देखते ही छिपकली को

    भाग जाये तो वीर कैसा?

    भले ही अर्थ नाम हो पैसे का,

    किंतु अनर्थ के गर्त तक ले जाये

    तो अर्थ का अर्थ कैसा?

    जीवन के अर्थ से ही कर दे वंचित

    वह व्यर्थ है पैसा;

     

    क्योंकि अर्थ बढ़ने से...

    नींद कम, बेचैनी ज्यादा बढ़ती है

    पवित्रता कम, कल्मषता ज्यादा बढ़ती है

    नैतिकता कम, विलासिता ज्यादा बढ़ती है

    सुविधा कम, दुविधा ज्यादा बढ़ती है

    मित्रता कम, शत्रुता ज्यादा बढ़ती है

    निडरता कम, भयभीतता ज्यादा बढ़ती है,

    किंतु वीतरागता के बढ़ने से बढ़ती है सहजता!

    अध्यात्म के बढ़ने से बढ़ती है समता!!

     

    अंतस् को भिगो देती है यह वार्ता...

    तारंगा क्षेत्र की है यह घटना

    गुरूवर आसीन थे गुफा में

    नयन आर्द्र थे करूणा के जल से,

    लीन थे किसी गहन चिंतन में

    तभी दीक्षित शिष्याओं ने गुफा में प्रवेश कर

    त्रियोग से नमन कर

    निहारा आचार्य श्री को…

     

    शुद्धोपयोग दशा में करते आत्म क्रीड़ा,

    लेकिन

    शुभोपयोग में आते ही देख जीवों की दशा

    गुरू मन में भर आयी पीड़ा।

     

    शिष्या ने सोचा मन ही मन...

    हे दयानिधान!
    आपकी चेतना क्यों है आज चिंतित?

    आत्मा क्यों है इतनी व्यथित?

    कुछ क्षण बनी रही स्तब्धता…

    पूरी तरह नीरवता…

     

    कहाँ से बात करें प्रारंभ

    कुछ समझ में नहीं आ रहा?

    तभी गुरु के खुले नयन,

    शिष्या ने किया निवेदन

    सुनना चाहते हैं गुरूदेव!

    आपश्री का गहन चिंतन,

    तभी गुफा की तरफ संकेत कर

    बोले गुरुवर

     

    इन सब पृथ्वीकायिक जीवों का क्या होगा?
    वहीं पर छोटे-छोटे पौधों की तरफ

    करके इशारा कहने लगे यतिवर

    इन जीवों का उद्धार कैसे होगा?

    नहीं है इनके पास समझने को मन

    चाहे कितना भी सोचूँ मैं इनके बारे में,

    पर नहीं जानते ये...

    कैसे हो अपना कल्याण?

     

    मंदिर बन भी गया पृथ्वी पे

    अभिषेक भी हो गया जल से

    दीया जल भी गया अनल से

     

    वायुकायिक संत को छू भी रहा,

    लेकिन वे तो जानते नहीं कुछ

    एक ही इंद्रिय है पास इनके

    तोड़ते-काटते मसाला भरते

    आग पर रखते तो कभी तलते

    वनस्पति की वेदना जान सकते हैं सर्वज्ञ भगवंत।

    कब होगा इनके दुःखों का अंत??

    कहते-कहते नयनों में भर आया जल...

    आगे कुछ बोल नहीं पाये संत।

     

    पर-पीड़ा में भीगे गुरु को

    देख यूं प्रथम बार... आँखें सबकी भर आयीं

    शिष्या बोली करके नमस्कार

    हे दयासिंधु यतिराज!

    ऐसी करूणा भाव से ही

    आप श्री पहुँच जायेंगे मोक्षनगर
    सुनते ही कहा गुरू ने

     

    मुझे चिंता नहीं अपने मोक्ष की
    चिंतित हैं- क्या होगा इन जीवों का?
    कब होगी पहचान इन्हें निजातम की?

    कब टूटेंगे बंधन इनके

    मिटेंगे भ्रमण भव-भव के?

    तुम सुन सकते हो बात यह,

    किंतु ये तो सुन भी सकते नहीं

    तुम कह सकते हो बात अपनी,

    किंतु ये तो कुछ कह भी सकते नहीं।

     

    कहते-कहते दयालु गुरू हो गये मौन...

    गला रूंध-सा गया

     

    सोचती रही शिष्या आखिर ये हैं कौन

    संत हैं या भगवंत?

    प्राणी मात्र के प्रति

    दया से भीगा है समूचा जिनका मन,

    ऐसे ही संत करते

    तीर्थंकर प्रकृति का बंधन

    उनके श्रीचरण में अगणित वंदन…

     

    समता के धनी संत को पा .

    प्रकृति में उमड़ आयी अपूर्व पुलकन...

    समय था दोपहर का

    गढ़ाकोटा से विहार हुआ गुरूवर का,

    ज्यों ही पुल तक आया संघ

    पाँच फीट पानी पुल पर देख

    रह गये दंग

    कैसे होगा रास्ता पार?

    दिख नहीं रहा मार्ग

    शिष्यगण सोच रहे मन में…

     

    कि

    सहजता से मुस्कुराते हुए बोले गुरूवर

    विषय-कषायों के मैले जल से।

    भरा हुआ है संसार-समंदर

    उसे पार करने का संकल्प है जब

    तो इतने से जल से क्या डर!

     

    सभी कर लीजिए एक सामायिक

    आदेश मान गुरू का

    हुए शिष्य ध्यान में लीन

    ज्यों-ज्यों मन चेतन में रमने लगा,

     

    नयन खुले तो पाया

    पानी पुल के नीचे आ गया

    अजब करिश्मा हुआ...

    प्रकृति ने भी गुरू आदेश का पालन किया।

     

    हँसते हुए शिष्यों से कहकर

    चल दिये गुरुराज

    रूको मत, चलिये साथ

    अभी तो करना है भवसागर पार!!

     

    शिवपथगामी महासंत

    चले जा रहे कदम दर कदम

    आज पुलक उठी है प्रकृति,

    जो हैं आध्यात्मिक यति

    करके उनसे रति।

    महिमा जिनकी दिनोंदिन बढ़ती जा रही

    कीर्ति स्वयं गुरू का गुण-कथन कर रही

    विज्ञान की देन है भौतिक प्रगति

    जबकि धर्म की देन है सन्मति,

    गति-सन्मति दोनों हैं पास जिनके

    वह क्यों न करे प्रगति?

     

    वास्तव में

    गति ही प्रगति को संभव कर सकती

    सम्यक् मति ही चुनौती स्वीकार कर सकती

    इसीलिए

    अंतर्यात्रा की ओर पल-पल गतिमान हैं जो

    उनके गुणों से हो जाती सहज रति!


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