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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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Blog Comments posted by MeenajainDG

  1. गुरुवर के चरणो मे शत शत नमन

    गुरुवर के सभी कार्य बहुत दूर की सोचते हुए 

    और भविष्य कॉ  कर किये जताए हैं 

  2. बहुत अदभुत भग्ति भावो से गुरुदेव के प्रति समर्पित सभी साधर्मि बंधुओ की भारत से दूर अमेरिका जैसे देश में ये 

    प्रस्तुतीकरण सरहनीय है 

  3. प्रत्येक शब्द का अर्थ होता है प्रतिफल भी होगा निश्चित है। संसार मे प्रत्येक वस्तु लौट कर आती है। शब्द भी ।तो क्यो न बोलते हुए ध्यान रखा जाये जिसे प्रायोगिक भाषा मे विवेक कहा जाता है। 
    संयमित भाषा का प्रयोग आप के ज्ञान को और आप की परवरिश को दर्शाता है। 
    इसलिये जब भी बोले सार्थक शब्दो का प्रयोग करे। साधक के लिये परम आवश्यक है जितना जरुरी है उतना ही बोले।शब्दो का चयन और प्रयोग उत्तम साधना के फलीभूत होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसलिये साधक की साधना की सफलता शब्दो के चयन पर निर्भर करती है। सो बात को कह देना कोई छोटी बात नही है अर्थ क्या है पहले से विचार कर कहना ही साधना है। यह नियम साधक और गृहस्थ दोनो पर समान रूप से लागू होता है। सो विचार किजीये तभी शब्दो को कहिये।

  4. हर घटना और सभी बातो के दो पहलु होते हैं एक अच्छा और दुसरा बुरा ।
    आम तौर से संसारिक मनुष्य आलोचना से बुरा मान जाता है। किन्तु साधना के पथ पर भीतरी और बाहरी दोनो ही प्रकारकी आलोचला साधक के जीवन को निखार कर और अधिक उज्जवल बनाती है। यदि लोगों द्वारा की गई है तो जीवन में सकारात्मकता और साधना के प्रति दृढता को बढाती है और भीतर से गल्तियों की आलोचना होती है तो वह दृष्टिकोण को निखार देती है जो भीतरी लोचन जिसे आम भाषा मे तीसरा नेत्र कहते हैं को खोल देने मे सहायक बनती है। सो आलोचना का साधक अपने जीवन में स्वागत करता है जीवन मे और साधना मे निखार लाने के लिये।

  5. टिमटिमाते दीप को भी पीठ दिखाना रात्रि के लिये क्यो है मुश्किल क्या एक ऐसा दिया जो बुझने की और अग्रसर है उससे रात्रि सामना नही कर पाती है और भागने के लिये मजबुर हो गई है या यु कहे कि स्वयं को विपरित परिस्थितयो मे भी संभाले रखने के दृड इरादो और बुलन्द हौंसलो की वजह से ही नकरात्मक उर्जा से भरी स्याह रात्रि जिसके पास देने के लिये भय और अन्धकार के अलावा और कुछ नही  होता एक छोटे से दिये के प्रकाश फेलाने के उसके मजबुत इरादो के सामने हार मान लेती है। ये सच है कि पाप का अन्धकार कितना भी घना क्यु न हो परन्तु धर्म के उजाले के समक्ष कभी टिक नही सकता है। अन्यथा इतनी बडी आबादी को आटे में नमक के समान मुनिराज की संख्या ही बहुत अच्छे से सम्भाल रही है।

  6. घर की बात जो घर की हसीं कराती है,घर के सदस्यो को दूर कर सकती है, हो सकता है किसी बडे नुक्सान के लिये जिम्मेदार बने अथवा घर के कलह का कारण बने लेकिन कैसे ?हानिकारक तब बनती है जब घर के ही किसी सदस्य द्वारा कोई बात बेघर कर दी जाये अथारथ घर के सदस्यो के अलावा किसी पडोसी को या जाने अनजाने व्यक्ति को या फिर दूर या पास के किसी रिश्तेदार को बात साँझा की जाये।ऐसा हम तब करते है जब हमे लगता है कि हमारी बात को माना नही जा रहा है या ऐसा लगता है कि घर के बडे सदस्य भेद भाव करने लगे हैं या अन्य प्रकार से दिल को ठेस पहुंचती है तब हम भीतर से बाहर की ओर रुख करते है। क्या ये सही है की किसी छोटी या थोडा बडी मान लेते हैं बात पर नाराज हो कर और गलतफहमी के शिकार बन कर हम घर की बात बेघर कर दे ?

  7. संगत के दिये गए उदाहरण पर गौर किया जाये तो एक कॉमन बात सामने आती है जो ज्यादतर सभी किस्सो और कहानियों मे घटित होती है की बुरी संगत मे मनुष्य कितना भी समय व्यतीत कर ले परन्तु अच्छी संगत का पल भर भी जीवन मे बडा बदलाव ला देता है बेशक लखनऊ के अस्पताल मे लाया गया भेडिय जैसा मनुष्य 14 साल जंगली बन कर रहा परन्तु सही संगत के कुछ ही महिने उसके जीवन को बदलने के लिये प्रयाप्त रहे।

  8. जय जिनेंदर 
    चलिये कुछ नये तरीके से सोचते है। कुछ ऐसा जो ज्ञान वर्धक हो। 
    हम बुरे व्यक्ति और बुरी बात से हमेशा दूर रहना चाहते है। 
    ऐसा क्यो? हमे ये अहसास की क्या बुरा है और क्या सही है ,अच्छा है कैसे होता हैं 
    किसी बुरी घटना या बुरे व्यक्ति से मिल कर 
    विचार करने की बात है संसार मे सामान्य मनुष्य की संख्या ही अधिक है बुरे या बहुत बुरे और अच्छे या बहुत अच्छे मनुष्य कम संख्या मे होते है। लेकिन दोनो ही तरह के मनुष्य साधरण व्यक्तियो पर बहुत प्रभाव डालते है। यदि बुरे लोग ना हो तो अच्छाई की कोई किमत नही रह जायगी किसी के खराब काम से दूर रहने की प्रेरणा हमे अच्छाई की और ले जाती है। ऐसा नही है की बुराई होनी ही चाहिये परन्तु इस संसार मे सभी कुछ पहले से ही विध्मान्ं है। ये मनुष्यों पर निर्भर करता है कि वे मिले हुए मौके को कैसे जीवन मे उतारते हैं।ल

  9. कितना सरल है स्वयं एक स्थान पर बेठ कर किसी अनय से दूर रखी वस्तु उठा कर लाने की आज्ञा देना।आज्ञा पालन करने वाले की आज्ञा देने वाले के प्रति श्रध्दा और लगन ही उस जीव को कार्य करने के लिये प्रेरित करती है। आज्ञा पालन से कठिनतम है आथार्थ आज्ञा का पालन करना मुश्किल काम है। आज्ञा देना सरल होता है पर उसका पालन कठिनतम कार्य है। धार्मिक व्यक्ति गृहस्थ के समान आज्ञा नही देता अपितु आज्ञा पालन को सरल मानता है। जबकि आज्ञा देना कठिन दिखाई देता है। आज्ञा देने के जो परिणाम फल स्वरुप प्राप्त होंगे उसकी जानकारी धार्मिक जीव को सतत स्वाध्याय से होती है। ऐसी स्थिति में आज्ञा का देना कठिन मानना चाहिए।

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  10. जीव अरुपी और ज्ञानमय है शरीर रुपी और जड़ है। मिथ्यातवी हमेशा यही मानता है कि जीव और देह एक ही है। लेकिन जैसे जैसे जीव का उपयोग अशुभ से शुभ की और परिनमन करता है तो सन्देह होता है जीव और काया के एकरूप पर धीरे-धीरे सन्देह के बादल छँट जाते है और जो देह देहाती लगती है वो विदेशी अथार्थ पराई दिखने लगती है। अब देह से मोह छूट कर भीतर की और दृष्टि होने लगी है। जीव का लक्षण उपओग है। वह निरन्तर अशुभ , शुभ और शुद्ध रुप से परिनमन करता है। कहना न होगा अब विदेह हो जा अथार्थ देह से परे शुभ उपयोग मे समय बिता जो शुद्ध उपयोग मे परिवर्तित हो जाए।

  11. मीठा कब बोलते हैं जब स्वार्थ हो। सभी को प्राय मालूम होता है कि कटु शब्दों का प्रयोग करने से या रूक्ष भाषा के प्रयोग से किसी से कभी भी कोई काम नही लिया जा सकता। तो क्या स्वार्थ वश मीठा बोल कर काम लेना सही है ? मान लिजिये किसी गुरु ने अपने पास शिष्य को रोक कर रखने के लिये सदा मीठे और स्वार्थ पूर्ण वचनो का ही प्रयोग किया तो क्या कभी शिष्य की कमियाँ दूर हो पायेंगी?  कभी नही अथार्थ बिना कटु वचन और कठोर दंड के गलती मे सुधार करना मुश्किल है। सो क्यो ना मात्रा में सुधार कर दिया जाये और जीवन मे निस्वार्थ भावना का संचरण किया जाये।जब स्वार्थ से निस्वार्थ की और कदम बढ़ाते है तो जीवन में सकारत्मक परिवर्तन आने लगता है। दूसरो को बात समझाने के लिए छल का सहारा लेने की जरुरत नही पड़ती।

  12. जरा सोचियें मनुष्य जीवन मे सिर्फ कमी हि कि बात की जाती है ऐसा नही है। नर भव मे मिले सुख भी देखे जाते हैं। दुखो को दूर करने के लिये जो कोशिशें की जाती है वह भोग की और ही तो ले जाती हैं। और सुख मिलने पर???
    सुख की प्राप्ति हमे उन सुखो को बनाय रखने के लिये प्रेरित करती है।योगी दोनो ही भावो से दूर रहते हुए तटस्थ भाव से जीवन के सत्य की अनुभुति करते हैं।सत्य का अनुभव योगी को सहज ही मौन कर देता है।

  13. साधना यु ही तो नही की जाती है। हो सकता है कि बहुत से भवो के संचित पुनय कर्म हमे साधना की और ले जाये या फिर एक दो भव की गहरी आस्था और भगति ही वर्तमान मे साधना के लिये प्रेरित करे। कौन जानता है आत्मा के भीतरी प्रकोष्ठ मे क्या अंकित है। समय आने पर भाग्य उदय होता है। और ये चंचल मन साधना की और उन्मुख होता है। संसार मे आटे में नमक के समान मात्रा है साधको की।जाहिर सी बात है संसार के आकर्षण से विरले ही बच पाते है। ऐसे मे साधना के लिये कड़े अभ्यास की जरुरत होती है। जल्दबाजी हर क्षेत्र मे बुरी होती है। साधना के क्षेत्र में भी ऐसा ही है। स्वाभाविक है कि तैयारी यदि अधुरी है तो आप साधना के क्षेत्र में ज्यादा समय टिक नही पाय गे। भीतर की और दृष्टि और इन्द्रियो का सयम  का निरन्तर अभ्यास ही साधना की और पहला कदम है। साधना का अर्थ है मोक्ष सुख ,निरन्तर सुख, अकल्पनीय सुख,श्ब्दातित सुख।लेकिन साधक को ये एक ही बार के अभ्यास से नही मिलता लम्बे और कड़े अभ्यास से ही ये सम्भव है। लेकिन मानव दुर्बलता और इच्छाओ से भरा पुंज है। इतना जल्दी और आसानी से संसार छोड़ना नही चाहता। थोडी सी विपरित परिस्थितयों का सामना होते ही देह सुख की और लौट जाना ही तो अभ्यास की कमी है। प्राकृतिक विपरित परिस्थितय और त्रियंच या देव परिषय से घबरा कर कोई कायर हि तो अपनी नश्वर देह की सुरक्षा के लिये मोक्ष सुख प्रदाता साधना को छोड देने की सोचेगा

  14. हँसना शब्द चेहरे की मुस्कान या खिलखिला ती हसीं की और  ध्यान आकर्षित करता है। हसो अथार्थ सभी दुख और सुख को श्रनिक मान कर समता भाव मे लीन हो जाओ ।अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचान लेने पर चेहरे पर स्वत ही हसीं खिल उठती है। अपने से जुडे हर प्राणी को राग द्वेष के तीव्र परिणामो से बचाने का प्रयास ही उनके जीवन को आत्मिक सुख की और  ले जाने मे सहायक बन सकता है। यही तो है सभी को हंसाना। ऐसे ही प्रयासो को याद रखा भी जाता है और याद किया भी जाता है। क्योकि आमतौर से मनुष्य अपने ही ताने बाने में इतना उलझा रहता है कि जिस पत्थर से राह पर ठोकर लगती है वह तक एक तरफ रखने की उस को फुर्सत नही होती। ऐसे मे किसी की आंखो के आंसू पोंछ कर चेहरे पर मुसकान सजा देने से बडी कोई मानवता नही है। धरम को जीवन में उतार लेने से ही किसी के दुख के प्रति स्वेद्ना जागृत हो सकती है। वेसे भी हसीं किसी की जागीर नही है इस पर तो सभी का समान अधिकार है परंतु अज्ञानता वश सभी इस अधिकार का ठीक से उपयोग और प्रयोग नही कर पाते। और जो करते हैं वो इतिहास मे अमर हो जाते हैं।

  15. दुस्सन्गती जो आत्मा के स्वाभविक गुणो को ढक दे ।जो पथ हीन बना दे।जो चारित्रिक पतन का कारण बनती है। बचना शब्द किसके लिये प्रयोग मे आया है। जो जागृत अवस्था मे है और अपना भला बुरा समझता है। तो उसे तो दुस्सन्गती के परिणाम भली भांति पता होंगे। निस्सन्देह हा ऐसे ज्ञानी के लिये ये सावधानी बरतने की जरूरत नहीं पडती।जरुरत ऐसे मनुष्यो को है जो अल्प ज्ञानी है। जो अपने अच्छे बुरे का फैसला नही कर पाते।उदाहरण के तौर पर समझते हैं- मान लिजिये राम के पिता बहुत धनवान हैं। राम के पास खर्च करने के लिये बहुत धन होता हैं। उसके पास इतना धन देख कर उसके कुछ लोभी दोस्त उसे बुरी आदतों का आदी बना देते है। जो उसके जीवन के साथ घर के भी नष्ट होने का कारण बनती है। यदि समय रहते राम को सत्सन्ग्ती मिल जाती तो वह समय रहते संभल जाता। इसलिये कहा भी गया है कि सत्सन्ग्ती मे रहो न रहो दुसन्गती मे। सत्सन्ग्ती के प्रभाव से हमारा चरित्र हमारा धन हमारा शरीर आदि सभी की रक्षा होती है सो सत्सन्गती का मतलब जीवन को उच्चता की और ले जाने का प्रयास।

  16. गुण रहते हैं जहाँ ऐसा पवित्र स्थान क्या हो सकता है जीव के सिवाय। गुणों की प्राप्ति के लिये की गई कठोर तपस्या क्या केवल गुण प्राप्ति  में ही सहायक बनती है या मान कषाय  आदि रहित सम्पूर्णता को पा लिया जाना इतना आसान दिखाई देता हैं । सत्य वचन है मान की मन मे उठने वाली हल्की सी भी तरंग गुण युक्त जीव में तिल के सामान अखरती है। जिस प्रकार चाँद पर उभरी हल्की काली रेखायें उसी प्रकार नर तन पर एक  छोटा सा तिल सुंदरता को नष्ट करता प्रतीत होता है ठीक उसी प्रकार भव सागर से पार उतरने के लिये की गईं कठोर परिश्रम की कमाई हल्के से मान से धूमिल होती प्रतीत होती है तब कहना न होगा कि अभी पूर्व संस्कारो को मिटाने के लिये और अधिक गहन ध्यान की आवश्यकता है।

  17. वृक्ष साधारण भाषा मे हम वृक्षों को छाया , फल और औषधी प्रदाता मानते है। धर्म की दृष्टि से ये स्थावर एक इन्द्री जीव हैं।सात तत्वों में विपरीत श्रद्धान और असंयमित जीवन ही इस पर्याय का कारण बनती हैं। इससे विपरीत साधु जीवन सात तत्वों में दृढ़ श्रद्धान और संयमित जीवन के कारण मिलता है। परंतु उदाहरण के तौर पर जैसे वृक्ष एक स्थान पर स्थिर रहते हुए अनुकूल,प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना परोपकारी स्वभाव नही छोड़ते अपनी शरण मे आये सभी पथिक को समान छाया और फल प्रदान करते हैं ठीक उसी प्रकार साधु भी अपने ज्ञान को समान रूप से सभी को बांटते हैं

  18. ज्ञान का सागर अथार्थ केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद और अरिहंत पद को प्राप्त करने से पहले केवली प्रभु की समोशरण में दी गई देशना आज काल के प्रभाव से लिपिबद्ध की गई है जो जिनवाणी के रूप में हमें उपलब्ध है।यही जिनवाणी ज्ञान सागर है। जिनवाणी के शब्दों में एकरूप होना ही ज्ञान सागर में डूब जाने के समान है ।पृष्ठ बदलते हुए एक  तैराक की भांति एक विषय से दूसरे विषय की और जाना तैरने के समान प्रतीत होता है। समय बीत रहा है। धीरे धीरे आयु कर्म  शीर्ण हो रहा है। स्वाध्याय को जीवन की आवश्यकता बनाइये। ज्ञान सागर में डुबकी लगाइये यकीन मानिये इस सागर से बाहर निकलना नही चाहेंगे आप सो अब तो डुबो अर्थात स्वाध्याय की रुचि पूर्वक शुरुआत कीजिये।

  19. पुदगल परमाणुओं के बीस भेदो में उलझ कर जीव द्रव्य कर्म,भाव कर्म,नो कर्म द्रव्य इन तीन कर्म मल से सहित संसार के बाहर के रूप में मोहित है अथार्त बाहर देखेगे तो संसार का रूप धर्म विरुद्ध है टेड़ा है।बिल में सीधा होता अथार्त चेतना लक्षण युक्त,ज्ञान दर्शन युक्त पदार्थ जीव है जो पुदगल गुण रहित है जो इन्द्रियों से नही जाना जाता है।भीतर जाओ अथार्त अपनी आत्मा जिसे जीव भी कहते हैं पर दृढ़ विश्वास ही निशचय मोक्ष मार्ग है जो अभेद है।

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  20. Gurudev ke pavan shri charno me koti koti vandana

     

    तेरी दो आंखे अथार्त जीव में दो ज्ञान सामान्यतः होते हैं मति और श्रुत ज्ञान।कर्म करते समय जीव इन्ही दो ज्ञान का सहारा लेता है। वैसे ज्ञान के चार प्रकार हैं मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनपर्याय ज्ञान।सर्व अवधि ज्ञान ही केवल ज्ञान है जो केवली भगवान के ज्ञान चक्षु को कई हज़ार गुना बना देता है हमारे द्वारा किये भाव , और कर्म केवली भगवान के ज्ञान में झलकते हैं। इसलिये सदैव केवली प्रभु का समरण करते हुए सदैव सतर्क रहते हुए ही कर्म करना चाहिये।

     

  21. हम जब तक स्वयं समर्थ नही हो जाते तब तक हम श्री जी का सहारा लेते हैं भव सागर से पार होने के लिये सो श्री जी से जुडो न जोड़ो सांसारिक बंधनो को और अगर जोड़ा है तो छोड़ो ।और जोड़ना है तो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र को जोड़ो जो बेजोड़ है।

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