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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. हम सभी का सौभाग्य है जो जीवन्त तिर्थंकर के समान आचर्य श्री विध्यासागर जी महामनीषी महामुनिराज महावीर शासन के गौरव शरद पूर्णिमा के उज्जवल चन्द्रमा के समान उज्जवल चरित्र के धारी आज हमारे बीच मे मौजूद हैं और हम सभी उनके सानिधय में धरम पालन कर रहे हैं आज गुरदेव का पावन अवतरण दिवस है आइये आज कुछ न कुछ त्याग कर के ये पावन दिवस मनाये
  2. गुरुवर के चरणो मे शत शत नमन गुरुवर के सभी कार्य बहुत दूर की सोचते हुए और भविष्य कॉ कर किये जताए हैं
  3. क्या ये भजन और भी लय में गाया जा सकता है कुछ instruments के साथ गुरुदेव का कथन स्वयं को कर्मो की दास्ता से मुक्त करके सवय्ं के स्वामी बन कर रहे नमोस्तु गुरुवर
  4. साधु जीवन की पवित्रता केवल स्त्री सम्बन्धी ही है ऐसा nhi है। जो साधु कमरा बंद करके बात करते है वह भी विचारणीय है। हमारे समाज के कुछ श्रावक भी स्वार्थ वश ये कार्य करते है ।यदि समय रहते इन कार्यो पर रोक लगा दी जाये तो nishchit मानिये जैन धर्म की उन्नति आवशय होगी। केवल आचार्य श्री विध्यासागर जी और उनका संघ ही आज की भौतिक चमक से अछुता है। जो हमे चतुर्थ काल का आभास पंचम काल में भी क र रहे है। गुरुदेव के श्री चरणो में कोटि कोटि प्रणाम।
  5. बहुत अदभुत भग्ति भावो से गुरुदेव के प्रति समर्पित सभी साधर्मि बंधुओ की भारत से दूर अमेरिका जैसे देश में ये प्रस्तुतीकरण सरहनीय है
  6. हर घटना और सभी बातो के दो पहलु होते हैं एक अच्छा और दुसरा बुरा । आम तौर से संसारिक मनुष्य आलोचना से बुरा मान जाता है। किन्तु साधना के पथ पर भीतरी और बाहरी दोनो ही प्रकारकी आलोचला साधक के जीवन को निखार कर और अधिक उज्जवल बनाती है। यदि लोगों द्वारा की गई है तो जीवन में सकारात्मकता और साधना के प्रति दृढता को बढाती है और भीतर से गल्तियों की आलोचना होती है तो वह दृष्टिकोण को निखार देती है जो भीतरी लोचन जिसे आम भाषा मे तीसरा नेत्र कहते हैं को खोल देने मे सहायक बनती है। सो आलोचना का साधक अपने जीवन में स्वागत करता है जीवन मे और साधना मे निखार लाने के लिये।
  7. ये दृश्य बेहद प्यारा और अदभुत है हमारा जन्म धनय है जो इस युग के महावीर विध्यासागर जी के समय मे जनम लिया वन्दे गुरुवरं वन्दे गुरुवरं वन्दे गुरुवरं ???
  8. टिमटिमाते दीप को भी पीठ दिखाना रात्रि के लिये क्यो है मुश्किल क्या एक ऐसा दिया जो बुझने की और अग्रसर है उससे रात्रि सामना नही कर पाती है और भागने के लिये मजबुर हो गई है या यु कहे कि स्वयं को विपरित परिस्थितयो मे भी संभाले रखने के दृड इरादो और बुलन्द हौंसलो की वजह से ही नकरात्मक उर्जा से भरी स्याह रात्रि जिसके पास देने के लिये भय और अन्धकार के अलावा और कुछ नही होता एक छोटे से दिये के प्रकाश फेलाने के उसके मजबुत इरादो के सामने हार मान लेती है। ये सच है कि पाप का अन्धकार कितना भी घना क्यु न हो परन्तु धर्म के उजाले के समक्ष कभी टिक नही सकता है। अन्यथा इतनी बडी आबादी को आटे में नमक के समान मुनिराज की संख्या ही बहुत अच्छे से सम्भाल रही है।
  9. क्या कहुँ शबदो की कमी सी हो रही है भावो की अभिव्यक्ति और भीतरीअनुभुति को लिख पाना सम्भव नही है गायक शान्ं को ये भजन गाने का मौका मिलना उन्के सद्कर्मो को दर्शाता है धनय है अजैन जो हमारे कुल गुरु की महिमा का बखान अपने मुख से कर रहे हैं ???
  10. ??? हमे अद्भुत ज्ञान समुद्र विध्यसागर जी जैसे आचार्य को देने वाले दादा गुरु ज्ञान सागर जी के चरण कमलो मे कोटि कोटि नमोसतु
  11. क्या महानता को शब्दो मे पिरोया जा सकता है? जी नहीं। तो शायद आंखो से देखने का विषय है ? ऐसा भी नही है। न यह आँखें देख सकती है न कान सुन कर महसूस कर सकते है ये तो अन्तरमन की अनुभुति का विषय है। अनुभुति किसी को भी हो सकती है? नही ऐसा नही है। महान जीव को पहचानने की शक्ती या तो वेरगी मे होती है , साधक में होती है या जो महान जीव के पूर्ण विरोधी होते हैं । विरोधी जीव अहंकार वश महानता को स्वीकार नही कर पाते हैं। ऐसे ही वेरागी और महान साधक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने पावन और पवित्र जीव विध्याधर के भीतर की महानता को महसूस किया और उन्हे अपना शिष्य बना लिया।गुरु महान थे जो अपनी साधना के बल पर सही निर्णय कर पाये और शिष्य ने भी अपनी कठोर साधना से गुरु को सही साबित कर दिखाया नमन है ऐसे पारखी गुरु को ???और नमन है ऐसे अनुशासित शिष्य पर???इस युग के महावीर के चरणो मे शत शत नमन???
    जय जिनेन्द्र गुरुदेव के विषय मे कितना कुछ कहा जाता है कि गुरुदेव बहुत अच्छे कार्य कर रहे हैं। समाज सिर्फ जैन समाज नही अपितु अजैन समाज का भी कल्याण हो सके ऐसी कुछ योजनाये हम सभी के सन्मुख लाये हैं परन्तु हमारा योगदान इन योजनाओ को आगे बड़ाने मे नगणय हैं। सिर्फ गुरुदेव की प्रशंसा से ही बात नही बनेगी आगे आ कर अपने दायित्व को सम्भाले अपने करने योग्य कार्य करने से ही गुरुदेव के सपनो को साकार किया जा सकता है।
  12. संगत के दिये गए उदाहरण पर गौर किया जाये तो एक कॉमन बात सामने आती है जो ज्यादतर सभी किस्सो और कहानियों मे घटित होती है की बुरी संगत मे मनुष्य कितना भी समय व्यतीत कर ले परन्तु अच्छी संगत का पल भर भी जीवन मे बडा बदलाव ला देता है बेशक लखनऊ के अस्पताल मे लाया गया भेडिय जैसा मनुष्य 14 साल जंगली बन कर रहा परन्तु सही संगत के कुछ ही महिने उसके जीवन को बदलने के लिये प्रयाप्त रहे।
  13. जय जिनेंदर चलिये कुछ नये तरीके से सोचते है। कुछ ऐसा जो ज्ञान वर्धक हो। हम बुरे व्यक्ति और बुरी बात से हमेशा दूर रहना चाहते है। ऐसा क्यो? हमे ये अहसास की क्या बुरा है और क्या सही है ,अच्छा है कैसे होता हैं किसी बुरी घटना या बुरे व्यक्ति से मिल कर विचार करने की बात है संसार मे सामान्य मनुष्य की संख्या ही अधिक है बुरे या बहुत बुरे और अच्छे या बहुत अच्छे मनुष्य कम संख्या मे होते है। लेकिन दोनो ही तरह के मनुष्य साधरण व्यक्तियो पर बहुत प्रभाव डालते है। यदि बुरे लोग ना हो तो अच्छाई की कोई किमत नही रह जायगी किसी के खराब काम से दूर रहने की प्रेरणा हमे अच्छाई की और ले जाती है। ऐसा नही है की बुराई होनी ही चाहिये परन्तु इस संसार मे सभी कुछ पहले से ही विध्मान्ं है। ये मनुष्यों पर निर्भर करता है कि वे मिले हुए मौके को कैसे जीवन मे उतारते हैं।ल
  14. गुण रहते हैं जहाँ ऐसा पवित्र स्थान क्या हो सकता है जीव के सिवाय। गुणों की प्राप्ति के लिये की गई कठोर तपस्या क्या केवल गुण प्राप्ति में ही सहायक बनती है या मान कषाय आदि रहित सम्पूर्णता को पा लिया जाना इतना आसान दिखाई देता हैं । सत्य वचन है मान की मन मे उठने वाली हल्की सी भी तरंग गुण युक्त जीव में तिल के सामान अखरती है। जिस प्रकार चाँद पर उभरी हल्की काली रेखायें उसी प्रकार नर तन पर एक छोटा सा तिल सुंदरता को नष्ट करता प्रतीत होता है ठीक उसी प्रकार भव सागर से पार उतरने के लिये की गईं कठोर परिश्रम की कमाई हल्के से मान से धूमिल होती प्रतीत होती है तब कहना न होगा कि अभी पूर्व संस्कारो को मिटाने के लिये और अधिक गहन ध्यान की आवश्यकता है।
  15. वृक्ष साधारण भाषा मे हम वृक्षों को छाया , फल और औषधी प्रदाता मानते है। धर्म की दृष्टि से ये स्थावर एक इन्द्री जीव हैं।सात तत्वों में विपरीत श्रद्धान और असंयमित जीवन ही इस पर्याय का कारण बनती हैं। इससे विपरीत साधु जीवन सात तत्वों में दृढ़ श्रद्धान और संयमित जीवन के कारण मिलता है। परंतु उदाहरण के तौर पर जैसे वृक्ष एक स्थान पर स्थिर रहते हुए अनुकूल,प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना परोपकारी स्वभाव नही छोड़ते अपनी शरण मे आये सभी पथिक को समान छाया और फल प्रदान करते हैं ठीक उसी प्रकार साधु भी अपने ज्ञान को समान रूप से सभी को बांटते हैं
  16. ज्ञान का सागर अथार्थ केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद और अरिहंत पद को प्राप्त करने से पहले केवली प्रभु की समोशरण में दी गई देशना आज काल के प्रभाव से लिपिबद्ध की गई है जो जिनवाणी के रूप में हमें उपलब्ध है।यही जिनवाणी ज्ञान सागर है। जिनवाणी के शब्दों में एकरूप होना ही ज्ञान सागर में डूब जाने के समान है ।पृष्ठ बदलते हुए एक तैराक की भांति एक विषय से दूसरे विषय की और जाना तैरने के समान प्रतीत होता है। समय बीत रहा है। धीरे धीरे आयु कर्म शीर्ण हो रहा है। स्वाध्याय को जीवन की आवश्यकता बनाइये। ज्ञान सागर में डुबकी लगाइये यकीन मानिये इस सागर से बाहर निकलना नही चाहेंगे आप सो अब तो डुबो अर्थात स्वाध्याय की रुचि पूर्वक शुरुआत कीजिये।
  17. पुदगल परमाणुओं के बीस भेदो में उलझ कर जीव द्रव्य कर्म,भाव कर्म,नो कर्म द्रव्य इन तीन कर्म मल से सहित संसार के बाहर के रूप में मोहित है अथार्त बाहर देखेगे तो संसार का रूप धर्म विरुद्ध है टेड़ा है।बिल में सीधा होता अथार्त चेतना लक्षण युक्त,ज्ञान दर्शन युक्त पदार्थ जीव है जो पुदगल गुण रहित है जो इन्द्रियों से नही जाना जाता है।भीतर जाओ अथार्त अपनी आत्मा जिसे जीव भी कहते हैं पर दृढ़ विश्वास ही निशचय मोक्ष मार्ग है जो अभेद है।
  18. Gurudev ke pavan shri charno me koti koti vandana तेरी दो आंखे अथार्त जीव में दो ज्ञान सामान्यतः होते हैं मति और श्रुत ज्ञान।कर्म करते समय जीव इन्ही दो ज्ञान का सहारा लेता है। वैसे ज्ञान के चार प्रकार हैं मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनपर्याय ज्ञान।सर्व अवधि ज्ञान ही केवल ज्ञान है जो केवली भगवान के ज्ञान चक्षु को कई हज़ार गुना बना देता है हमारे द्वारा किये भाव , और कर्म केवली भगवान के ज्ञान में झलकते हैं। इसलिये सदैव केवली प्रभु का समरण करते हुए सदैव सतर्क रहते हुए ही कर्म करना चाहिये।
  19. हम जब तक स्वयं समर्थ नही हो जाते तब तक हम श्री जी का सहारा लेते हैं भव सागर से पार होने के लिये सो श्री जी से जुडो न जोड़ो सांसारिक बंधनो को और अगर जोड़ा है तो छोड़ो ।और जोड़ना है तो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र को जोड़ो जो बेजोड़ है।
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