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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जिसका कभी नाश नहीं होता वह द्रव्य है। लोकाकाश सभी द्रव्यों से भरा है, ये द्रव्य कितने होते हैं, इनका क्या लक्षण है, इनका क्या उपकार है। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. द्रव्य किसे कहते हैं ? जो गुण और पर्याय वाला होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। जैसे-स्वर्ण पुद्गल द्रव्य है, रूपवान होना उसका गुण है। हार, मुकुट, कंगन आदि द्रव्य की पर्याय हैं तथा पीलापन उसके रूप गुण की पर्याय है। द्रव्य के बिना गुण और पर्याय नहीं होती है, उसी प्रकार गुण व पर्याय के बिना द्रव्य भी नहीं होता है। जो पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। 2. वर्तमान विज्ञान द्रव्य को किस रूप में मानता है ? वर्तमान विज्ञान कहता है कि हम किसी पदार्थ को न बना सकते हैं और न मिटा सकते हैं, इस सिद्धान्त को अविनाशता के सिद्धान्त से जाना जाता है। 3. द्रव्य कितने होते हैं ? द्रव्य छ: होते हैं -जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। 4. जीव द्रव्य किसे कहते हैं ? जिसमें दर्शन, ज्ञान रूप चेतना पाई जाती है, वह जीव द्रव्य है। अथवा जो जीता था, जी रहा है एवं जिएगा, उसे जीव कहते हैं। 5. पुद्गल द्रव्य किसे कहते हैं ? जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाए जाते हैं, जो संवेदन से रहित है, पूरण और गलन स्वभाव वाला है, (पूरण अर्थात् मिलने वाला तथा गलन अर्थात् मिटने वाला है) उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। 6. पुद्गल को विज्ञान की भाषा में क्या कहते हैं ? जिस पदार्थ का फ्यूजन एवं फिशन होता है, उसे पुद्गल कहते हैं। फ्यूजन का अर्थ है-एकरूप होना, संयोग पाना और फिशन का अर्थ है-टूटकर फैलना। फ्जूयन एवं फिशन को क्रम से इन्टीग्रेशन और डिसइन्टीग्रेशन भी कहते हैं। इसे मेटर भी कहते हैं। 7. पुद्गल के कितने भेद हैं ? पुद्गल के 2 भेद हैं -अणु और स्कन्ध। अणु - अविभागी 1 प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को अणु या परमाणु कहते हैं। अणु 1 प्रदेशी होने से काय नहीं है, अत: शुद्ध अस्तिकाय तो 4 हैं। पुद्गल परमाणु को उपचार से अस्तिकाय कहा है। इस प्रकार अस्तिकाय 5 होते हैं। अस्ति का अर्थ ‘है' और काय का अर्थ 'बहु प्रदेशी'। स्कन्ध - 2, 3, 4, 8, संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त परमाणुओं के पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं।स्कन्ध के 6 भेद हैं। बादर-बादर - जो पदार्थ छिन्न-भिन्न कर देने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते, वे बादर-बादर हैं। जैसे पत्थर, लकड़ी, धातु, कपड़ा आदि। बादर - जो पदार्थ छिन्न-भिन्न कर देने पर स्वयं जुड़ जाते हैं, वे बादर कहलाते हैं। जैसे-जल, दूध,पारा आदि। बादर-सूक्ष्म - जो नेत्रों के द्वारा देखा तो जा सके, किन्तु पकड़ में न आ सके, वह बादर-सूक्ष्म है।जैसे-छाया, प्रकाश, अन्धकार, चाँदनी आदि। सूक्ष्म-बादर - जो नेत्रों से नहीं दिखते किन्तु शेष इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किए जाते हैं, वे सूक्ष्म बादर हैं। जैसे-हवा, गन्ध आदि। सूक्ष्म - जो किसी भी इन्द्रिय का विषय न हो। जैसे-कार्मण स्कन्ध। सूक्ष्म-सूक्ष्म - अत्यन्त सूक्ष्म द्वि अणुक को सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कन्ध कहते हैं। यह स्कन्ध की अंतिम इकाई है। 8. धर्म द्रव्य किसे कहते हैं ? जो गतिशील जीव और पुद्गल के गमन, हलन, चलन, आगमन में सहकारी कारण है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। यह उदासीन रहता है। यह अमूर्त तथा संवेदन शून्य है। यह किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं बनता है, मात्र केवलज्ञानी जानते हैं। जैसे- मछली के तैरने में जल सहायक होता है। हवाई जहाज के चलने में आकाश सहायक है एवं रेल के चलने में पटरी सहायक है। 9. धर्म द्रव्य के बारे में वैज्ञानिकों की क्या मान्यता है ? विज्ञान इसे ईथर के रूप में स्वीकार करता है। ईथर को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य के साथसाथ उसे गति का आवश्यक माध्यम मानता है। आइंस्टीन ने भी गति हेतुत्व को स्वीकार करते हुए कहा है'लोक परिमित है, लोक से अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती, लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है, जो गति में सहायक होती है।” 10.अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं ? जो ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को रुकने में सहायक है, वह अधर्म द्रव्य है। यह भी उदासीन, अमूर्त, संवेदन शून्य एवं लोकव्यापी है। जैसे-वृक्ष बटोही (पथिक) को रुकने में सहायक है। 11. धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्य उदासीन न होते तो क्या होता ? धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्य उदासीन न होते तो आपस में झगड़ा प्रारम्भ हो जाता, क्योंकि धर्म द्रव्य तो जीव तथा पुद्गल को चलने के लिए प्रेरित करता और अधर्म द्रव्य रुकने के लिए प्रेरित करता। इससे व्यवस्था बिगड़ जाती और फिर हम सब न चल पाते, न रुक पाते। अच्छा है, ये उदासीन हैं। कोई चलना चाहे तो धर्म द्रव्य सहायक है। कोई रुकना चाहे तो अधर्म द्रव्य सहायक है। 12. धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कहाँ रहते हैं ? धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। जैसे-तिल में तेल, दूध में घी सर्वत्र ही पाया जाता है, वैसे ही दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में पाए जाते हैं। 13. आकाश द्रव्य किसे कहते हैं ? जो जीवादि सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है, वह आकाश द्रव्य है। यह भी अमूर्तिक, संवेदन शून्य एवं निष्क्रिय है। यद्यपि जीव और पुद्गल भी एक दूसरे को अवकाश देते हैं, किन्तु उन सबका आधार आकाश ही है। नोट - ऊपर दिखने वाला नीला-नीला यह आकाश नहीं, यह तो पुद्गलों का संचय बादल है। 14. अन्य दर्शन एवं विज्ञान ने आकाश द्रव्य माना कि नहीं ? अन्य दर्शनों ने भी आकाश द्रव्य को स्वीकार किया है, किन्तु वे उसके लोक, अलोक का भेद नहीं मानते हैं, इसी कारण से उनके यहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य की भी मान्यता नहीं है। आधुनिक विज्ञान ने भी आकाश द्रव्य के दोनों भेदों को माना है। जैसे कि धर्म द्रव्य के कथन में आइंस्टीन का दृष्टांत दिया गया है। 15. आकाश के कितने भेद हैं ? आकाश के दो भेद हैं लोकाकाश - जहाँ पर छ: द्रव्य रहते हैं। अलोकाकाश - जहाँ मात्र एक आकाश द्रव्य है। 16. काल द्रव्य किसे कहते हैं ? वर्तना (परिवर्तन) जिसका प्रमुख लक्षण है। अर्थात् जो स्वयं परिणमन करते हुए अन्य द्रव्यों के परिणमन में उदासीन रूप से सहकारी कारण होता है। पदार्थों में परिवर्तन यह जबरदस्ती नहीं कराता, बल्कि इसकी उपस्थिति में पदार्थ स्वयं परिवर्तित होते हैं। यह तो कुम्हार के चाक के नीचे रहने वाली कील के समान है,जो स्वयं नहीं चलती, न ही चाक को चलाती है, फिर भी कील के अभाव में चाक घूम नहीं सकता है।इसी प्रकार दूसरा उदाहरण भी है-पंखे (सीलिंग फेन) में हेन्डिल जो स्वयं नहीं चलता, न वह पंखे को चलाता है, किन्तु उसके बिना भी पंखा नहीं चलता है। यह भी उदासीन, अमूर्त, संवेदनशून्य एवं लोकव्यापी है। 17. काल के कितने भेद हैं ? काल के दो भेद हैं - व्यवहार काल - मिनट, घंटा, दिन आदि व्यवहार काल हैं। निश्चय काल - जो प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय परिणमन कराने में सहकारी कारण है, उस द्रव्य को निश्चय काल कहते हैं। 18. समय किसे कहते हैं ? काल की सबसे छोटी इकाई को समय कहते हैं अथवा एक परमाणु मंदगति से एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जो काल लगता है, उसे समय कहते हैं। 19. समय तो सत्य है किन्तु निश्चय काल कुछ प्रतीत नहीं होता है ? यदि समय ही समय मानते तो वह शाश्वत नहीं है, वह उत्पन्न होता है और दूसरे क्षण नष्ट होता है अत: समय पर्याय सिद्ध हुई। अब वह समय नामक पर्याय जिस द्रव्य की है, उसी द्रव्य का नाम निश्चयकाल है। 20. प्रत्येक द्रव्य की संख्या एवं प्रदेश कितने हैं ? जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं एवं एक जीव असंख्यात प्रदेशी होता है। पुद्गल द्रव्य भी अनन्तानन्त हैं किन्तु जीव द्रव्य से अनन्त गुने होते हैं। पुद्गल द्रव्य संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त प्रदेशी भी होते हैं। धर्म द्रव्य एक है वह असंख्यात प्रदेशी है। अधर्म द्रव्य एक है यह भी असंख्यात प्रदेशी है। आकाश द्रव्य एक अखण्ड द्रव्य है। यह अनन्त प्रदेशी है किन्तु लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं। यह लोकाकाश में रत्नों की राशि के समान एक-एक प्रदेश पर एक-एक व्याप्त होकर रहते हैं। यह स्वयं एक प्रदेशी है। 21. प्रदेश किसे कहते हैं ? एक परमाणु आकाश का जितना स्थान घेरता है, वह प्रदेश कहलाता है। द्रव्यों की संख्या एवं उनके प्रदेशों के लिए तालिका देखें - द्रव्य संख्या प्रदेश जीव अनन्तानन्त असंख्यात प्रदेशी पुद्गल अनन्तानन्त संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त प्रदेशी धर्म एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म एक असंख्यात प्रदेशी आकाश एक (अखण्ड द्रव्य ) अनन्त प्रदेशी काल असंख्यात एक प्रदेशी आकाश के भेद अलोकाकाश एक अनन्त प्रदेशी लोकाकाश एक असंख्यात प्रदेशी 22. जीव द्रव्य का क्या उपकार है ? जीव परस्पर में उपकार करते हैं। आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने तत्वार्थसूत्र में कहा है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैसे-मालिक मुनीम को वेतन देकर उपकार करता है, मुनीम भी ईमानदारी से काम करता है तो दुकान में चार चाँद लग जाते हैं अर्थात् सेठ को ज्यादा लाभ होता है, यह मुनीम का उपकार सेठ के ऊपर है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य। भगवान्-भत में भी परस्पर उपकार होता है एवं अंधा-लंगड़ा भी आपस में उपकार करते हैं। 23. पुद्गल द्रव्य के उपकार क्या हैं ? जीव को सुख-दु:ख, जीवन-मरण, शरीर, मन, वचन, प्राण और अपान। ये सब पुद्गल द्रव्य के उपकार जीव के ऊपर हैं। पुद्गल का उपकार पुद्गल के ऊपर जैसे-साबुन से कपड़े धोना, राख से बर्तन साफ करना आदि। शेष चार द्रव्यों के लक्षण ही उनके उपकार हैं। 24. लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्तानन्त जीव और अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं ? लोकाकाश में अवगाहन शक्ति होने एवं पुद्गल के अणुओं में सूक्ष्म रूप से परिणमन होने के कारण। जैसे-दूध से भरा बर्तन है, उसमें एक बूंद भी दूध डालेंगे तो दूध बाहर आ जायेगा, किन्तु उसमें थोड़ीथोड़ी शक्कर डालें तो वह घुल जाती है अब उसमें धीरे-धीरे राजगिर के दाने डालें तो वह भी समाहित हो जाएंगे। इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोक में अनन्तानन्त जीव, पुद्गल समाहित हो जाते हैं। उदाहरण दूसरा - एक कमरे में एक बल्ब का प्रकाश रहता है, वहाँ हजारों बल्बों का प्रकाश भी समाहित हो जाता है। 25. पुद्गल द्रव्य की पर्याय कौन-कौन सी हैं ? पुद्गल द्रव्य की निम्न पर्याय हैं- शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत आदि हैं।
  2. जो जन्म लेता है उसका मरण निश्चित है क्योंकि यह जीवन की एक अनिवार्य घटना है, किन्तु सल्लेखना के साथ मरण करने वाला शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है। उसी सल्लेखना का वर्णन इस अध्याय में है। 1. सल्लेखना क्या है ? अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। बाहरी शरीर को और भीतरी कषायों के उत्तरोत्तर पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। (स.सि., 7/22/705) 2. सल्लेखना की क्या आवश्यकता है ? मरण किसी को इष्ट नहीं है। प्रधानमंत्री भी चाहता है कि हमारी सीट पाँच वर्ष तक सुरक्षित रहे, मुख्यमंत्री भी यही चाहता है, एक व्यापारी भी यही चाहता है कि मेरी दुकान का मरण न हो, अर्थात् वह चलती रहे। सर्विस करने वाला भी यही चाहता है मेरी सर्विस 60 वर्ष तक चलती रहे। उसी प्रकार संयमी भी चाहता है कि मेरा रत्नत्रय सुरक्षित रहे किन्तु रत्नत्रय भावों के साथ शरीर का भी साथ चाहता है। अब शरीर कहता है कि मुझे अस्पताल ले चलो, किन्तु संयमी कहता है, भाई तुम्हें मेरा साथ नहीं देना तो मत दो, मैं परलोक तो जा सकता हूँ किन्तु तुम्हें (शरीर) अस्पताल नहीं भेज सकता हूँ। शरीर साथ देना बंद कर देता है, तो वह शरीर को भी धीरे-धीरे आहार-पानी देना बंद कर देता है अर्थात् काय और कषाय का लेखन अर्थात् कृश करना प्रारम्भ कर देता है और एक दिन वह अपने रत्नत्रय को न छोड़कर शरीर को ही छोड़कर यहाँ से विदा ले लेता है। 3. किन-किन कारणों के उपस्थित होने पर सल्लेखना ली जाती है ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सल्लेखना के निम्न कारणों का उल्लेख किया है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ 122॥ अर्थ - उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष आने पर, बुढ़ापा आने पर और असाध्य रोग आने पर, धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना ली जाती है। उपसर्ग - उपसर्ग हो गया, जीवित रहने की संभावना नहीं है, तब चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जैसे-मुनि सुकौशल, मुनि सुकुमाल आदि ने किया था। एक संक्षेप प्रत्याख्यान भी होता है, कोई उपसर्ग हो गया, जब तक दूर नहीं होगा, तब तक के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग। जैसे-अकम्पनाचार्य आदि 700 मुनिराजों ने किया था। दुर्भिक्ष - अकाल के समय। जब श्रावकों को ही खाने के लिए नहीं है तब वह साधु को कैसे देगा। जब बारह वर्ष का अकाल पड़ा तब 12,000 मुनिराजों का संघ दक्षिण भारत चला गया। उनका वहाँ निर्वाह हो गया किन्तु जो यहाँ रहे थे, उन्हें सल्लेखना लेनी थी। नहीं ली तो क्या हुआ। दिगम्बर संघ से एक अर्धफलक संघ का जन्म हुआ जो कालान्तर में श्वेताम्बर संघ में विलीन हो गया। जरसि - जरसि अर्थात् बुढ़ापा में शरीर शिथिल पड़ गया। जब दिखाई नहीं देता, न चला जाता, न खड़े हो सकते हैं। ऐसे मरणान्त उपस्थित होने पर सल्लेखना ग्रहण कर लेनी चाहिए। असाध्य रोग होने पर - असाध्य रोग होने पर जो ठीक हो ही नहीं सकता, तब सल्लेखना ग्रहण कर लेनी चाहिए। 4. सल्लेखना करने की क्या विधि है ? जो सल्लेखना धारण करता है, वह क्षपक कहलाता है। वह क्षपक सबसे राग, द्वेष, मोह और परिग्रह को छोड़कर प्रियवचनों से स्वजन, परिजन, सबसे क्षमा माँगे एवं सबको क्षमा कर दे। अपने सम्पूर्ण जीवन के पापों की आलोचना करके, आजीवन के लिए पाँचों पापों का त्याग करे। शोक, भय, विषाद आदि को छोड़कर श्रुत रूपी अमृत का पान करे और क्रमश: इस प्रकार कषायों को कृश करता हुआ अपनी काया को कृश करने के लिए सर्वप्रथम इष्ट रस, इष्ट वस्तु का त्याग करे, पुन: गरिष्ठ रसों का त्याग करके, मोटे (ठोस) अनाज का त्याग करके पेय को बढ़ाए, फिर छाछ एवं गरम जल को ग्रहण करे, ऐसा करता हुआ जल का भी त्याग करके उपवास धारण करे एवं पञ्च नमस्कार का जाप, पाठ, ध्यान करते हुए देह का विसर्जन करे। 5. शरीर कितने प्रकार से छूटता है ? शरीर तीन प्रकार से छूटता है च्युत - कारण के बिना केवल आयु पूर्ण होने पर जो शरीर छूटता है, उसे च्युत कहते हैं। च्यावित - विष भक्षण, शस्त्रघात, श्वास निरोध आदि अकाल मरण के कारण मिलने से आयु पूर्ण होने से पहले संन्यास विधि से रहित जो शरीर छूटता है, उसे च्यावित कहते हैं। त्यक्त - अकालमरण अथवा अकाल मरण के बिना, संन्यास विधि से शरीर छूटना उसे त्यक्त कहते हैं। 6. संन्यास मरण के कितने भेद हैं ? संन्यास मरण के तीन भेद हैं भक्त प्रत्याख्यान - आहार का त्याग करके इसमें वैयावृत्ति स्वयं भी करता है एवं दूसरों से भी कराता है। इंगिनीमरण - इसमें वैयावृत्ति स्वयं करता है, दूसरों से नहीं कराता है। प्रायोपगमन - इसमें वैयावृत्ति न स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं। जिस आसन में बैठता है,उसी आसन से शरीर को छोड़ देता है। (गोक, 60-61) नोट - इंगिनीमरण, प्रायोपगमन हीन संहनन वालों के नहीं होता है। अत: इस पञ्चम काल में मात्र भक्त प्रत्याख्यान संन्यास मरण ही होता है। 7. पाँच प्रकार के मरण कौन-कौन से होते हैं ? बाल - बाल मरण, बाल मरण, बाल-पण्डित मरण, पण्डित मरण, पण्डित-पण्डित मरण । मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के मरण को बाल-बाल मरण कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण को बाल मरण कहते हैं। देशव्रती श्रावक के मरण को बाल - पण्डित मरण कहते हैं। मुनि (6 वें गुणस्थान से 11वें गुणस्थान तक) के मरण को पण्डित मरण कहते हैं। अयोगकेवली भगवान् के मरण को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। 8. बारह वर्ष की सल्लेखना का क्रम बताइए ? निमित्तज्ञान के ज्ञाता, आयु का निर्धारण करके बारह वर्ष की सल्लेखना देते हैं। चार वर्ष तक कायक्लेश तप करता है। चार वर्ष तक दूध आदि रसों का त्याग करता है। दो वर्ष तक आचाम्ल (चावल एवं इमली का पानी ) और निर्विकृति (छाछ) लेता है। एक वर्ष तक आचाम्ल। छ: माह तक मध्यम तप करता है। छ: माह तक उत्कृष्ट तप करता है। (भ.आ, 254–256) 9. सल्लेखना एवं आत्महत्या में क्या अन्तर है ? आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है। 10. सल्लेखना के अतिचार कौन-कौन से हैं ? आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में सल्लेखना के पाँच अतिचार कहे हैं जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्ध निदानानि ॥ 7/37॥ अर्थ - जीवितआशंसा, मरणआशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान । जीवितआशंसा - समाधि लेने के बाद अधिक जीने की इच्छा करना । कई बार ऐसा होता है कि असाध्य रोग था, सल्लेखना में आहार की मात्रा घटने से रोग थोड़ा-थोड़ा ठीक होने लगता है, तब लगता है, समाधि क्यों ले ली अभी तो और भी जी सकते हैं। मरणआशंसा - सल्लेखना के समय विशेष वेदना होती है, तब जल्दी-जल्दी मरण हो जाए ऐसी इच्छा करना। मित्रानुराग - अपना बचपना याद करना। जैसे-मेरे ऐसे मित्र थे, जिनके साथ में क्रिकेट, व्हॉलीबाल,हॉकी, वीडियो गेम, बैडमिंटन और टेबिल टेनिस आदि खेला करता था। सुखानुबंध - पूर्व में अनुभव किए हुए स्त्री, पुत्र, वैभव, नेता और अभिनेता जनित विविध सुखों का पुन:-पुन: स्मरण करना सुखानुबंध है। निदान - इस तप का फल मुझे आगामी भव में भोग आदि मिले ऐसी आकांक्षा रखना। (स सि,7/27/24) 11. सल्लेखना का फल क्या है ? अतिचार से रहित सल्लेखना करने वाला नियम से स्वर्ग जाता है, वहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। जिसने एक बार सल्लेखना धारण कर मरण किया है, वह अधिक -से-अधिक 7-8 भव में एवं जघन्य से 2-3 भव में नियम से मोक्ष चला जाता है। (र.क.श्रा, 130) 12. कितनी गति के जीव सल्लेखना ले सकते हैं ? दो गति के जीव सल्लेखना ले सकते हैं-मनुष्य एवं तिर्यज्चगति। सिंह, सर्प, गज आदि भी सल्लेखना लेकर स्वर्ग सम्पदा को प्राप्त करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण आगम में भी मिलते हैं। 13. एक मुनि की सल्लेखना कितने मुनि कराते हैं ? एक मुनि की सल्लेखना को 48 मुनि कराते हैं 4 मुनि क्षपक के हाथ-पैर दबाना, सुलाना, बैठाना, खड़ा करना आदि कार्य करते हैं। 4 मुनि विकथाओं का त्याग कराकर धर्मोपदेश देते हैं। 4 मुनि क्षपक के योग्य श्रावकों के यहाँ से आहार लेकर आते हैं। 4 मुनि क्षपक के योग्य श्रावकों के यहाँ से पीने योग्य पेय लेकर आते हैं। 4 मुनि उस आहार की रक्षा करते हैं। 4 मुनि क्षपक को मल-मूत्र कराने तथा उसकी वसतिका संस्तर उपकरणों को शोधने का कार्य करते हैं। 4 मुनि वसतिका के द्वार का रक्षण करते हैं, जिससे वहाँ असंयमी प्रवेश न कर सकें। 4 मुनि क्षपक के पास रात्रि में जागरण करते हैं। 4 मुनि उस नगर की शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते हैं। 4 मुनि धर्मोपदेश देने के मण्डप के द्वार की रक्षा करते हैं। 4 मुनि श्रोताओं को सभामण्डप में आक्षेपणी आदि कथाओं का तथा स्व-पर मत का सावधानी पूर्वक उपदेश देते हैं। 4 मुनि जो वादी मुनियों की रक्षार्थ सभा में इधर-उधर घूमते रहते हैं। (भ.आ. 648–669) नोट - अधिकतम 48 मुनि और कम-से-कम 2 मुनि भी सल्लेखना करा सकते हैं। 14. आचार्य एवं उपाध्याय परमेष्ठी सल्लेखना लेने के पूर्व सर्वप्रथम क्या करते हैं ? आचार्य एवं उपाध्याय पद का त्याग करते हैं, क्योंकि साधुपद से ही मुक्ति होती है। आचार्य एवं उपाध्याय विशेष पद हैं, संघ की व्यवस्था के लिए आवश्यक हैं। कषाय कृश करने का अर्थ यह भी है कि इन पदों का त्याग करे और संघ को छोड़कर अन्यत्र समाधि के लिए जाए, क्योंकि शिष्यों को राग तो रहेगा ही, अत: समाधि में बाधा आ सकती है या संग को वहाँ से अन्यत्र विहार करा दें जैसा कि आचार्य श्री धरसेनजी ने किया था। आगम के निर्माता तीर्थंकर भी आगम की आज्ञा का पालन करते हैं। अर्थात् वे भी योग निरोध के लिए समवसरण का त्याग कर देते हैं। उसी प्रकार आचार्य एवं उपाध्याय भी पद एवं संघ का त्याग कर देते हैं। आचार्य श्री विद्यासागरजी के गुरुआचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने भी सल्लेखना के पूर्व आचार्य पद का त्याग कर अपने ही शिष्य को अपना आचार्य पद देकर उन्हें अपना गुरु(आचार्य) माना और उन्हें ही निर्यापक आचार्य बनाकर समाधिमरण किया। यह इतिहास की विशेष घटना थी। 15. जो आचार्य समाधि कराते हैं, उन्हें क्या बोलते हैं ? समाधि कराने वाले आचार्य को निर्यापक आचार्य कहते हैं।
  3. मानव जीवन बिना भोजन के नहीं चलता। अत: भोजन करना अनिवाय है, किन्तु जो भोजन धार्मिक एवं शारीरिक दूष्टि से ठीक नहीं है ऐसा अभक्ष्य भोजन कदापि नहीं करना चाहिए। उसी अभक्ष्य भोजन के बारे में इस अध्याय में उसका वर्णन है। 1. अभक्ष्य किसे कहते हैं ? जो पदार्थ खाने (भक्षण करने) योग्य नहीं होता, उसे अभक्ष्य कहते हैं। 2. अभक्ष्य कितने प्रकार के होते हैं ? अभक्ष्य 5 प्रकार के होते हैं। त्रसघातकारक, प्रमादवर्धक, बहुघातकारक, अनिष्टकारक और अनुपसेव्य। त्रसघात कारक - जिस पदार्थ के खाने से त्रसजीवों का घात हो। जैसे-बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कटूमर,माँस, मधु, अमर्यादित भोजन और घुना अन्न आदि। प्रमादवर्धक - जिस पदार्थ के खाने-पीने से प्रमाद और आलस्य आता है। जैसे-शराब, गाँजा, भाँग पदार्थ। नोट- बीयर आदि भी शराब हैं। बहुघातकारक - जिसमें फल तो अल्प हो और बहुत त्रसजीवों का घात हो। जैसे-गीला अदरक,मूली, नीम के फूल, केवड़े के फूल, मक्खन एवं समस्त जमीकंद आदि। अनिष्टकारक - जो आपकी प्रकृति-विरुद्ध हैं। जैसे-खाँसी में दही का सेवन, बुखार में घी का सेवन, हृदय रोग में घी और तेल का सेवन, डायबिटीज में शक्कर का सेवन, मोतीझिरा बुखार में अन्न का सेवन और ब्लडप्रेशर बढ़ने पर नमक का सेवन करना आदि अनिष्टकारक हैं। अनुपसेव्य - जो सजन पुरुषों के सेवन करने योग्य नहीं हैं। जैसे-गोमूत्र, ऊँटनी का दूध, शंकचूर्ण, पान का उगाल, लार, मूत्र, पुरीष और खकार आदि। 3. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अभक्ष्य किसे कहते हैं ? द्रव्य - जैसे-किसी ने प्रासुक भोजन बनाया और उस भोजन को कुत्ता, बिल्ली आदि ने जूठा कर दिया तो वह अभक्ष्य हो गया या उसमें कोई अशुद्ध पदार्थ गिर गया। क्षेत्र - अपवित्र स्थान पर बैठकर भोजन करना क्षेत्र अभक्ष्य है। काल - काल की अपेक्षा तो स्पष्ट है मर्यादा के बाद वह पदार्थ अभक्ष्य है। लीस्टर देश में 8 घंटे के बाद मिठाई फेंक देते हैं। भाव - भोजन करते समय यह भोज्य वस्तु माँस, रुधिर और मदिरा के सदृश है, ऐसा स्मरण होते ही वह भोजन भाव अभक्ष्य है। 4. चलित रस अभक्ष्य किसे कहते हैं ? जो पदार्थ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से चलायमान हो गए हैं, ऐसे पदार्थों को भी नहीं खाना चाहिए, क्योंकि ऐसे पदार्थों में अनेक त्रस जीवों की और अनन्त निगोद राशि की उत्पत्ति अवश्य हो जाती है। (प्लाटी संहिता, 56) 5. पञ्च उदुम्बरों के त्यागी को क्या-क्या त्याग कर देना चाहिए ? जिसने पञ्च उदुम्बरों का त्याग किया है, उसे समस्त प्रकार के अज्ञात (अजान) फलों का त्याग कर देना चाहिए।' अजान फलों (वस्तुओं) के खाने से पूर्व में अनेक व्यक्तियों के मरण हो चुके हैं। 6. दही भक्ष्य है या अभक्ष्य ? दही भक्ष्य है। जो दही इस विधि से तैयार किया है, वह भक्ष्य है-दूध दुहने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त के अंदर उबाल लिया है, ऐसे दूध में 24 घंटे के अन्दर चाँदी का सिक्का, बादाम, खड़ी लाल-मिर्च, अमचूर आदि डालकर दही जमाया जाता है, ऐसे दही में बैक्टेरिया नहीं होते हैं, यह दही भक्ष्य है। 7. नवनीत (मक्खन) भक्ष्य है या अभक्ष्य ? मद्य, माँस, मधु एवं नवनीत को महाविकृति कहा है। अत: यह अभक्ष्य है। नवनीत की मर्यादा अन्तर्मुहूर्त एवं पंडित आशाधरजी ने दो मुहूर्त कहा है। वह घी बनाने के उद्देश्य से कहा है, खाने के उद्देश्य से नहीं।' 8. अष्टपाहुड की टीका करने वाले आचार्य श्रुतसागरजी सूरि ने चारित्रपाहुड की टीका 21 में द्विदल अभक्ष्य किसे कहा है ? द्विदलान मिश्र दधितक्र स्वादितं सम्यक्त्वमपि मलिनयेत्-द्विदलान के साथ मिलाकर खाए हुए दही और तक्र (छाछ) सम्यक् दर्शन को भी मलिन कर देता है, अत: इनका त्याग कर देना चाहिए। 9. अभक्ष्य इतने ही हैं कि और भी हैं ? वर्तमान में विवाह और जन्मदिन आदि की पार्टियों में दाल बाफले, तंदूरी, छोले-भटूरे आदि चलते हैं, इनमें दही मिलाया जाता है, अत: द्विदल है तथा बाजार में मिलने वाले पदार्थों में बहुत से पदार्थ अभक्ष्य हैं। जैसे-बन्द डिब्बों की आइसक्रीम, जिलेटिन, चाँदी का वर्क, अजीनोमोटो, साबूदाना, नींबू का सत्व (टाटरी) और मैगी आदि।
  4. जिस प्रकार विद्यार्थी एक-एक कक्षा पास करके आगे बढ़ता जाता है। उसी प्रकार श्रावक भी क्रमश: प्रतिमाओं का पालन करके आगे बढ़ता जाता है। इस अध्याय में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है | 1. श्रावक किसे कहते हैं ? श्रद्धावान, विवेकवान एवं क्रियावान को श्रावक कहते हैं। 2. श्रावक के कितने भेद हैं ? श्रावक के तीन भेद हैं - पाक्षिक श्रावक, नैष्ठिक श्रावक एवं साधक श्रावक। पाक्षिक श्रावक - जो श्रावक के षट् आवश्यक का पालन करता हो, स्थूल रूप से अष्ट मूलगुणधारी हो और सप्तव्यसन का त्यागी हो। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् का पक्ष लेने वाला पाक्षिक श्रावक कहलाता है। यह रात्रिभोजन का त्यागी होता है। नैष्ठिक श्रावक - दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमाओं वाला श्रावक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। साधक श्रावक - (अ) जो समाधिमरण की साधना में लगा है, वह साधक श्रावक कहलाता है। (ब) जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु के समय शरीर, भोजन और मन, वचन, काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि के लिए साधना करता है, वह साधक श्रावक है। (सा.ध, 1/20) 3. नैष्ठिक श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के नाम क्या है ? उद्विष्ट त्याग प्रतिमा। (रक.श्रा., 136) 4. प्रतिमा किसे कहते हैं ? श्रावक के विकासशील चारित्र का नाम प्रतिमा है। 5. दर्शन प्रतिमा किसे कहते हैं ? जो सम्यक् दर्शन से शुद्ध है, संसार, शरीर और भोगों से उदास है, पञ्च परमेठियों के चरणों की शरण जिसे प्राप्त हुई है तथा धारण किए हुए अष्ट मूलगुण एवं सप्त व्यसन के त्याग में अतिचार नहीं लगाता है। उसके दर्शन प्रतिमा होती है। यह शल्यों से रहित होता है। मर्यादा का भोजन नियम से प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिमाधारी श्रावक सूर्य अस्त के दो घड़ी पहले भोजन कर लेता है एवं सूर्योदय के दो घड़ी बाद से भोजन प्रारम्भ कर सकता है। 6. शल्य किसे कहते हैं एवं कितनी होती हैं ? जो आत्मा में काँटे की तरह चुभती हैं, दु:ख देती हैं, उसे शल्य कहते हैं। शल्य तीन होती हैं - मिथ्या शल्य, माया शल्य और निदान शल्य । (स.सि. 7/18/697) मिथ्या शल्य - अतत्वों का श्रद्धान मिथ्या शल्य है। माया शल्य - मेरे अपध्यान को कोई नहीं जानता, इस अभिप्राय से बाह्य वेश का आचरण करके लोगों को आकर्षित करते हुए चित्त की मलिनता रखने को माया शल्य कहते हैं। निदान शल्य - व्रतों के फलस्वरूप आगामी विषय भोगों की आकांक्षा रखना, निदान शल्य है। 7. व्रत प्रतिमा किसे कहते हैं ? निरतिचार पूर्वक पाँच अणुव्रतों और सात शीलों का पालन करता है, वह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। 8. अणुव्रत एवं शीलव्रत किसे कहते हैं ? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 पापों का स्थूल रूप से त्याग करने को अणुव्रत कहते हैं तथा 3 गुणव्रत एवं 4 शिक्षाव्रत का पालन करना शीलव्रत है। 9. 5 अणुव्रत और 7 शीलव्रत के नाम बताइए ? अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण व्रत तथा 7 शील अर्थात् 3 गुणव्रत और 4 शिक्षाव्रत। 10. अहिंसाणुव्रत किसे कहते हैं ? जो मन, वचन व काय से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों का घात न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और न करने वाले की अनुमोदना करता है तथा निष्प्रयोजन पञ्चस्थावरों की हिंसा नहीं करता है, उसका अहिंसाणुव्रत कहलाता है। (र.क.श्रा, 53) 11. अतिचार एवं अनाचार किसे कहते हैं ? व्रतों का एक देश भंग हो जाना, अतिचार है और व्रतों का सर्वथा भंग हो जाना, अनाचार है। 12. अहिंसाणुव्रत के कितने अतिचार हैं ? अहिंसाणुव्रत 5 अतिचार हैं बंध - मानव, पशु, पक्षियों को ऐसा बाँधना जिससे वह इच्छानुसार विचरण न कर सकें। वध - हन्टर, चाबुक, छड़ी, हाथ-पैर आदि से पीटना। यहाँ वध से आशय प्राणों के वियोग से नहीं है, वह तो अनाचार है। छेद - कषाय वश किसी के अंग-उपान्ड़ो का छेदन करना। श्रृंगार के लिए बालिकाओं के नाक कान भी छेदे जाते हैं, वह इसमें नहीं आते हैं। अतिभारारोपण - पशुओं पर शक्ति से ज्यादा भार लादना। नौकरों से ज्यादा काम लेना। अन्नपान निरोध - समय पर पशुओं को भोजन नहीं देना। नौकरों को भी समय से भोजन के लिए नहीं जाने देना (ससि, 7/25/711) एवं महिलाएँ समय से भोजन नहीं बनाती तो यह भी अन्नपान निरोध है। 13. सत्याणुव्रत किसे कहते हैं ? स्थूल झूठ स्वयं नहीं बोलता और न दूसरों से बुलवाता है तथा ऐसा सत्य भी नहीं बोलता, जिससे कोई विपत्ति में आ जाएँ, उसे सत्याणुव्रत कहते हैं। (र.क.श्रा, 55) 14. स्थूल झूठ किसे कहते हैं ? जिसे लोक व्यवहार में अच्छा नहीं माना जाता है। जैसे शपथ लेकर अन्यथा कथन करना। पञ्च या जज के पद पर प्रतिष्ठित होकर झूठ बोलना। जैसे-राजा वसु ने किया था। धर्मोपदेष्टा बनकर अन्यथा उपदेश देना। जैसे-पञ्चमकाल में मुनि नहीं होते और आज एक भी प्रतिमा का पालन नहीं हो सकता। विश्वास देकर झूठ बोलना। जैसे—सत्यघोष ने किया था। 15. सत्याणुव्रत के कितने अतिचार हैं ? सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं मिथ्या उपदेश - झूठा उपदेश देना। रहोभ्याख्यान - स्त्री-पुरुष द्वारा एकान्त में किए गए आचरण विशेष का प्रकट कर देना। कूटलेख क्रिया - नकली दस्तावेज रखना। कोरे कागज पर साइन करवाना। झूठे लेख लिखना। न्यासापहार - किसी की धरोहर का अपहरण करना। साकार मंत्रभेद - कोई आपस में चर्चा कर रहे थे, उनकी मुख की आकृति से जानकर, यह क्या बात कर रहे थे, कह देना जिससे उनकी बदनामी हो इसे चुगली भी कह सकते हैं। (स सि,7/26/712) 16.अचौर्याणुव्रत किसे कहते हैं ? सार्वजनिक जल एवं मिट्टी के अलावा दूसरों की रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई अथवा नहीं दी हुई वस्तु को न तो स्वयं ग्रहण करता है। न दूसरों को देता है, वह अचौर्याणुव्रत कहलाता है। 17. अचौर्याणुव्रत के कितने अतिचार हैं ? अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं स्तेनप्रयोग - चोरी के लिए प्रेरित करना तथा चोरी का तरीका बताना। तदाहृतादान - चोरी का माल खरीदना। विरुद्ध राज्यातिक्रम - राज्य नियम के विरुद्ध टैक्स चोरी करना, अधिक स्टॉक रखकर काला बाजारी करना आदि। हीनाधिक मानोन्मान - तौलने के बाँट को मान कहते हैं, तराजू को उन्मान कहते हैं। बाँट तराजू दो प्रकार के रखना। कम से देना, अधिक से लेना। प्रतिरूपक व्यवहार - एक-सी दिखने वाली सस्ती वस्तु को मिलाकर महंगे भाव में बेचना। जैसेखसखस में सूजी, कालीमिर्च में पपीते के बीज, हल्दी में ज्वार का आटा। आज शास्त्रों में भी मिलावट आ गई है, ऊपर आचार्यों के नाम ज्यों-के-त्यों रहते हैं और हिन्दी टीका, भावार्थ एवं विशेषार्थों में अपने अर्थों को समाहित कर दिया जाता है। 18. ब्रह्मचर्याणुव्रत किसे कहते हैं ? जिससे विवाह हुआ उस स्त्री के अलावा वह अन्य स्त्रियों को माता, बहिन एवं बेटी के समान समझता है अर्थात् सबसे विरत रहता है, उसके इस व्रत को स्वदार संतोष या ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं। अथवा जो पाप के भय से दूसरे की स्त्री को नहीं चाहता और न दूसरों को ऐसा करने के लिए कहता है। अपनी स्त्री में ही संतुष्ट रहता है, उसे स्वदार संतोष व्रत या ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं। (र.क.श्रा, 59) 19. ब्रह्मचर्याणुव्रत के कितने अतिचार हैं ? ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं परविवाहकरण - अपनी या अपने आश्रित भाई आदि की संतान को छोड़कर अन्य लोगों की संतानों का विवाह प्रमुख बनकर करना। दलाली करना, कुण्डली मिलवाना आदि। इत्वरिकाअपरिगृहीतगमन - पति रहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, लेन-देन रखना। इत्वरिकापरिगृहीतगमन - पति सहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, लेन-देन रखना। अनंगक्रीड़ा - कामसेवन के निश्चित अंगो को छोड़कर अन्य अंगो से काम सेवन करना। कामतीव्राभिनिवेश - हमेशा काम की तीव्र लालसा रखना। (स.सि. 7/28/714) 20. परिग्रह परिमाणव्रत किसे कहते हैं ? धन, धान्य आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का प्रमाण करके उससे अधिक में इच्छा रहित होना, परिग्रह परिमाणव्रत है। इसका दूसरा नाम इच्छा परिमाणव्रत भी है। 21.परिग्रह परिमाणव्रत के कितने अतिचार हैं ? दस प्रकार के परिग्रह के प्रमाण का उल्लंघन करना। क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम, धनधान्य प्रमाणातिक्रम, दासीदास प्रमाणातिक्रम और कुप्यभाण्ड प्रमाणातिक्रम। 22. पाँच अणुव्रतों के धारण करने का फल क्या है ? कर्मों की निर्जरा होती है एवं वह नियम से देवगति में ही जाता है, वहाँ के वैभव को प्राप्त करता है। 23. पाँच अणुव्रतों में कौन-कौन प्रसिद्ध हुए हैं ? क्रमशः यमपाल चाण्डाल, धनदेव सेठ, वारिषेण राजकुमार, नीली और जयकुमार राजा।। (रक.श्रा., 64) 24. गुणव्रत किसे कहते हैं एवं कितने होते हैं ? जिससे अणुव्रतों में वृद्धि हो वह गुणव्रत हैं। जैसे-खेती की रक्षा के लिए जो बाड़ का स्थान है, वही पाँच अणुव्रतों की रक्षा के लिए गुणव्रत का स्थान है। गुणव्रत तीन होते हैं। दिग्विरति व्रत, देशविरति व्रत और अनर्थदण्डविरति व्रत। (तसू, 7/21) 25. दिग्विरति व्रत किसे कहते हैं एवं उसके कितने अतिचार हैं ? सूक्ष्म पापों से बचने के लिए मरणपर्यन्त दसों दिशाओं में सीमा कर लेना और उससे आगे न जाना दिग्विरति व्रत है। जैसे-पूर्व में कलकत्ता, दक्षिण में मद्रास, पश्चिम में मुम्बई और उत्तर में काश्मीर। इसके पाँच अतिचार हैं। ऊध्र्वव्यतिक्रम - अज्ञान, प्रमाद अथवा लोभ के वश ऊपर की सीमा का उल्लंगन करना। अधोव्यतिक्रम - अज्ञान, प्रमाद अथवा लोभ के वश नीचे की सीमा का उल्लंगन करना। तिर्यग्व्यतिक्रम - अज्ञान, प्रमाद अथवा लोभ के वश तिर्यग्सीमा का उल्लंगन करना। क्षेत्रवृद्धि - लोभ के कारण सीमा की वृद्धि करने का अभिप्राय रखना। विस्मरण - निर्धारित सीमा को भूल जाना। (स.सि.,7/30/717) 26. देश विरति व्रत किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ? जीवन पर्यन्त के लिए किए हुए दिग्व्रत में और भी संकोच करके घड़ी, घंटा, दिन, महीना आदि तक किसी मुहल्ले, चौराहे आदि तक सीमा रखना, यह देश विरति व्रत कहलाता है। (र.क.श्रा, 68) इसके पाँच अतिचार होते हैं - आनयन - सीमा से बाहर की वस्तु को किसी से मंगवाना। प्रेष्यप्रयोग - सीमा से बाहर क्षेत्र में किसी को भेजकर काम कराना। शब्दानुपात - सीमा के बाहर क्षेत्र में किसी को खाँसी, चुटकी, ताली, फोन, फैक्स आदि से इशारा करके बुलाना। रूपानुपात - सीमा के बाहर अपना रूप, शरीर, हाथ, वस्त्र आदि दिखाकर इशारा करना। पुद्गलक्षेप - सीमा के बाहर कंकड़, पत्थर आदि फेंककर बुलाना।। (स सि, 7/31/718) 27. अनर्थदण्डविरति व्रत किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ? जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सिद्ध न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता है ऐसे कार्यों को अनर्थदण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थदण्डविरति व्रत कहते हैं। इसके पाँच अतिचार हैं कन्दर्प - राग की अधिकता होने से हास्य के साथ अशिष्ट वचन बोलना। कौत्कुच्य - हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना। मौखर्य - धृष्टता पूर्वक बहुत बकवास करना। असमीक्ष्याधिकरण - बिना विचारे अधिक कार्य करना। उपभोग - परिभोग अनर्थक्य - अधिक उपभोग - परिभोग सामग्री का संग्रह करना। (ससि.7/32/719) 28. अनर्थदण्ड के कितने भेद हैं ? अनर्थदण्ड के 5 भेद हैं पापोपदेश - खोटे व्यापार आदि पाप क्रियाओं का उपदेश देना। जैसे-मछली की खेती करो, बूचड़खाने खोलो आदि। ऐसी चर्चा करना कि अमुक जंगल में हिरण बहुत अच्छे थे, कसाई ने सुन लिया तो क्या हुआ वह वहाँ गया और सारे हिरणों का वध कर दिया। हिंसादान - हिंसक उपकरणों का देना, व्यापार करना। जैसे-बम, पिस्तौल, फरसा, पटाखा, जे.सी.बी. मिट्टी खोदने की मशीन, क्रेशर, ब्लास्टिग के उपकरणों को लेना-देना एवं हिंसक पशुओं का पालन करना। जैसे-बिल्ली, कुत्ता, मुर्गा, सर्प आदि। अपध्यान - पर के दोषों को ग्रहण करना, पर की लक्ष्मी को चाहना, पर की स्त्री को चाहना आदि। द्वेष के कारण वह मर जाए, उसकी दुकान नष्ट हो जाए, उसकी खेती जल जाए, वह चुनाव में हार जाए, उसके यहाँ डाका पड़ जाए आदि। प्रमादचर्या - बिना प्रयोजन के जमीन खोदना, जल फेंकना, अग्नि जलाना, हवा करना, वनस्पति तोड़ना, घूमना, घुमाना आदि। दुःश्रुति - चित्त को कलुषित करने वाला अश्लील साहित्य पढ्ना, सुनना, गीत सुनना, नाटक,टेलीविजन एवं सिनेमा आदि देखना दु:श्रुति नामक अनर्थदण्ड है। 29. शिक्षाव्रत किसे कहते हैं एवं कितने होते हैं ? जिससे मुनि, आर्यिका बनने की शिक्षा मिले, वह शिक्षाव्रत है। शिक्षाव्रत चार होते हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण एवं अतिथि संविभाग। 30. सामायिक शिक्षाव्रत किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार होते हैं ? समता भाव धारण करना सामायिक है। मुनि हमेशा समता धारण करते हैं। किन्तु श्रावक हमेशा समता धारण नहीं रख सकता,अतः वह श्रावक स्वयं समय की सीमा रखकर निश्चित समय तक मन-वचनकाय एवं कृत-कारित-अनुमोदना से पाँचों पापों का त्याग करके परमात्म स्वरूप चिन्तन करना सामायिक है, इस व्रत का धारी, दिन में दो बार अथवा तीन बार सामायिक करता है। इसके पाँच अतिचार हैं मन:दुष्प्रणिधान - सामायिक करते हुए मन में अशुभ संकल्प-विकल्प करना। वचन दुष्प्रणिधान - मन्त्र, सामायिक आदि पाठ का अशुद्ध उच्चारण करना, जल्दी-जल्दी पढ़ना अादि । काय दुष्प्रणिधान - सामायिक में हाथ-पैर हिलाना, यहाँ-वहाँ देखना आदि। अनादर - उत्साह रहित हो, मात्र नियम की पूर्ति करना। स्मृत्यनुपस्थान - सामायिक का काल ही भूल जाना एवं सामायिक पाठ पढ़ते-पढ़ते भक्तामर का पाठ पढ़ने लगना।। (स.सि., 7/33/720) 31. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ? प्रोषध का अर्थ पर्व के दिन से है। पर्व के दिन उपवास करना, प्रोषधोपवास कहलाता है। उपवास के दिन समस्त आरम्भ का त्याग कर वन में या मंदिर में रहकर धम्र्यध्यान करना चाहिए। उस दिन मंजन, स्नान भी नहीं करना चाहिए। शिक्षा ले रहे हैं तो पूरी शिक्षा लें। मुनि मंजन, स्नान नहीं करते तो श्रावक भी उपवास के दिन न करे। (र.क.श्रा,106-109) यह शिक्षाव्रत तीन प्रकार का होता है। उत्कृष्ट सप्तमी एकाशन अष्टमी उपवास नवमी एकाशन त्रयोदशी एकाशन चतुर्दशी उपवास अमा./पूर्णमासी एकाशन मध्यम सप्तमी दो बार भोजन अष्टमी उपवास नवमी दो बार भोजन त्रयोदशी दो बार भोजन चतुर्दशी उपवास अमा./पूर्णमासी दो बार भोजन जघन्य सप्तमी दो बार भोजन अष्टमी एकाशन नवमी दो बार भोजन त्रयोदशी दो बार भोजन चतुर्दशी एकाशन अमा./पूर्णमासी दो बार भोजन नोट - उपवास में चारों प्रकार के (खाद्य, पेय, लेह्य और स्वाद्य)आहार का त्याग होता है। इसके पाँच अतिचार हैं - अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग - बिना देखी और बिना शोधी हुई जमीन में मल-मूत्र आदि करना। अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान - बिना देखे-बिना शोधे उपकरण आदि ग्रहण करना। अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण - बिना देखी बिना शोधी भूमि पर संस्तर आदि बिछाना। अनादर - उपवास के कारण भूख-प्यास से पीड़ित होने से आवश्यक क्रियाओं में उत्साह न होना। स्मृत्यनुपस्थान - आवश्यक क्रियाओं को ही भूल जाना।। (स.सि., 7/24/721) 32. उपभोग-परिभोग परिमाण किसे कहते हैं एवं इससे मुनि बनने के लिए क्या शिक्षा मिलती है ? परिग्रह परिमाण व्रत में आजीवन के लिए नियम किया था। उन वस्तुओं से राग घटाने के लिए प्रतिदिन उस नियम के ही अंतर्गत यह नियम करना, मैं आज इतनी वस्तुओं का उपभोग एवं परिभोग करूंगा। उपभोग - जो वस्तु एक बार भोगने में आती है। जैसे-भोजन, पानी आदि। परिभोग - जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है। जैसे-वस्त्र, आभूषण, वाहन, यान आदि। (स सि,7/21/03) इससे यह शिक्षा मिलती है कि जब मुनि बनेंगे तो मौसम के अनुकूल, स्वास्थ्य के अनुकूल आहार, पानी नहीं मिलता हो तो पहले से ही अभ्यास रहना चाहिए। 33. क्या भक्ष्य-अभक्ष्य दोनों का नियम किया जाता है ? भक्ष्य का नियम किया जाता है। अभक्ष्य का तो वह त्यागी ही होता है। 34. अभक्ष्य कितने प्रकार के होते हैं ? अभक्ष्य 5 प्रकार के होते हैं। इसका वर्णन अभक्ष्य पदार्थ अध्याय में किया गया है। 35. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के कितने अतिचार हैं ? उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के 5 अतिचार होते हैं सचित आहार - सचेतन हरे फल, फूल, पत्र आदि का सेवन करना। सचित्त सम्बन्ध आहार - सचित पदार्थों से सम्बन्धित आहार का सेवन करना। सचित्त सम्मिश्र आहार - सचित पदार्थ से मिले हुए पदार्थ आदि का सेवन करना। अभिषव आहार - इन्द्रियों को मद उत्पन्न करने वाले गरिष्ठ पदार्थों आदि का सेवन करना। दु:पक्वाहार - अधपके, अधिक पके एवं जले हुए पदार्थों आदि का सेवन करना।। (ससि,7/25/722) 36. अतिथि संविभाग व्रत किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ? संयम की विराधना न करते हुए जो गमन करता है, उसे अतिथि कहते हैं या जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं। ऐसे साधुओं को आहार, औषधि, उपकरण एवं वसतिका देना यह अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। इसके पाँच अतिचार हैं सचित निक्षेप - सचित कमल के पते आदि पर रखा आहार देना। सचित अपिधान - सचित पते आदि से ढका आहार देना। पर व्यपदेश - स्वयं न देकर दूसरों से दिलवाना अथवा दूसरे की वस्तु का दान देना। मात्सर्य - दूसरे दाताओं से ईष्य रखना। कालातिक्रम - आहार के काल का उल्लंघन कर देना। (स.सि.,7/36/723) 37. सामायिक प्रतिमा किसे कहते हैं ? अपने स्वरूप का, जिनबिम्ब का, पञ्चपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों का अथवा बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए ध्यान करता है, उसके सामायिक प्रतिमा होती है। 38. सामायिक करने की क्या विधि है ? सर्वप्रथम पूर्व दिशा में खड़े होकर नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर फिर दोनों हाथ जोड़कर बाएँ से दाएँ की ओर तीन बार घुमाना (प्रदक्षिणा रूप)आवर्त कहलाता है। इसे चारों दिशाओं में क्रमश: (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में ) किया जाता है। आवर्त करने के बाद खडे-खडे ही नमस्कार करना प्रणाम है, यह भी चारों दिशाओं में किया जाता है। पूर्व दिशा में आवर्त, प्रणाम के बाद बैठकर नमस्कार (गवासन से) करना निषद्य है। यह पूर्व एवं उत्तर दिशा में किया जाता है। आवर्त करते समय यह बोलना चाहिए कि पूर्व दिशा और इसकी विदिशा में जितने केवली, जिन, सिद्ध, साधु एवं ऋद्धिधारी मुनि हैं, उन सबको मेरा मन से, वचन से और काय से नमस्कार हो। दक्षिण आदि दिशा में आवर्त करते समय उस दिशा और उसकी विदिशा में बोलना चाहिए। ऐसा चारों दिशाओं में करने के बाद उत्तर मुख या पूर्व मुख बैठकर सामायिक प्रारम्भ करें। इसी प्रकार सामायिक का समापन भी करना चाहिए। 39. सामायिक के लिए आसन, स्थान कैसा हो ? सामायिक के लिए दो आसन बताए हैं, पद्मासन एवं खड्गासन। स्थान एकान्त हो, एकान्त के अनेक अर्थ हैं, जहाँ कोई भी न हो। दूसरा अर्थ जहाँस्त्री, पशु, नपुंसक न हों और जहाँ कोलाहल, डाँस, मच्छर, बिच्छू आदि न हों। सामायिक के लिए वन, नदी का तट अच्छा माना गया है। वह न हो तो घर, मंदिर आदि में भी कर सकते हैं। 40. सामायिक में क्या करें ? शत्रु-मित्र, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण में समता रखने का नाम सामायिक है। श्रावक भी सामायिक के समय समता रखें । उपसर्ग होते हैं, सर्दी-गर्मी लगती है, उसे समता से सहन करें। सामायिक में संसार, शरीर, भोग के बारे में चिन्तन करें, बारह भावनाओं का चिन्तन करें, पञ्च नमस्कार मंत्र का जाप करें। जाप करते-करते मन भटकता है तो दूसरे क्रम में जाप करें। उल्टे क्रम से भी कर सकते हैं। जैसे-णमो लोए सव्वसाहूर्ण। मध्य में से भी कर सकते हैं जैसे- णमो आइरियाण। जहाँ की आपने तीर्थयात्रा की है, उसका चिन्तन करें आदि। एक, दो, तीन क्या होते हैं। जैसे-एक आत्मा, दो जीव, तीन रत्नत्रय आदि करके जहाँ तक बने चिंतन करते जाएं। 41. सामायिक कैसे करें ? कैसे से आशय हमारी सामायिक निरवद्य हो। अवद्य का अर्थ पाप होता है। निर् उपसर्ग रहित के अर्थ में है। अर्थात् पाप से रहित सामायिक हो। सामायिक करते समय पंखा, टी.व्ही., कूलर, हीटर, सिगड़ी चालू करके न बैठे एवं टेपरिकार्ड भी न चलाएं। 42. सामायिक का काल (समय) क्या है तथा कितनी बार करनी चाहिए ? सूर्योदय के तीन घडी (1:12 मिनट) पहले से तीन घडी बाद तक । मध्याहू में भी तीन घडी पूर्व से तीन घडी पश्चात्तक इसी प्रकार सन्ध्या में भी सूर्यास्त से तीन घडी पूर्व से तीन घडी पश्चात्तक सामायिक का उत्कृष्ट काल है। मध्यम काल 2-2 घड़ी और जघन्यकाल 1-1 घड़ी है। इस प्रतिमाधारी को तीनों कालों में सामायिक करना आवश्यक होता है। 43. सामायिक का मध्याह्न काल कैसे निकालते हैं ? जैसे-सूर्योदय 6 बजे एवं सूर्यास्त 6 बजे होता है, तब सामायिक का मध्याह्न काल उत्कृष्ट होगा 10:48 से 1:12 तक। जघन्य निकालना है तो 11:36 से 12:24 तक 48 मिनट । 44. सामायिक शिक्षाव्रत एवं सामयिक प्रतिमा में क्या अंतर है ? सामायिक शिक्षाव्रत में वह सामायिक दिन में दो बार भी कर सकता है, किन्तु सामायिक प्रतिमा में सामायिक तीन बार का नियम है। सामायिक शिक्षाव्रत में सामायिक अतिचार सहित भी होती है किन्तु सामायिक प्रतिमा में सामायिक अतिचार रहित होती है। सामायिक शिक्षाव्रत में सामायिक 24 मिनट भी कर सकता है। किन्तु सामायिक प्रतिमा में सामायिक कम-से-कम 48 मिनट तो अवश्य ही करेगा। सामायिक शिक्षाव्रत में आवर्त आदि का नियम नहीं है। किन्तु सामायिक प्रतिमा में सामायिक में बैठते समय आवर्त आदि का नियम है। 45. प्रोषधोपवास प्रतिमा किसे कहते हैं ? जो प्रत्येक माह की अष्टमी व चतुर्दशी को अपनी शक्ति न छिपाकर नियम पूर्वक प्रोषधोपवास करता है वह प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी श्रावक है। 46. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत व प्रोषधोपवास प्रतिमा में क्या अंतर है ? व्रत प्रतिमा वाला श्रावक कभी प्रोषधोपवास करता तथा कभी नहीं भी करता है किन्तु प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी श्रावक नियम से प्रोषधोपवास करता है। (र.क.श्रा, 140) 47. सचित त्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? चित्त का अर्थ जीव होता है अर्थात् सचित्त त्याग प्रतिमा का धारी वनस्पति आदि को जीव रहित करके ही खाता है। वह श्रावक अब कच्चा जल, कच्ची वनस्पति आदि नहीं खाता है। वह पानी भी प्रासुक करके ही प्रयोग में लेता है एवं वनस्पति भी अग्नि पक्व या यन्त्र से पेलित अर्थात् रस को लेता है। यद्यपि सचित्त को अचित करके खाने में प्राणिसंयम नहीं पलता, किन्तु इन्द्रिय संयम पालने की दृष्टि से सचित त्याग आवश्यक है। यह प्रतिमा भी शिक्षाव्रत के रूप में है, क्योंकि मुनि प्रासुक (अचित) भोजन ही करते हैं। अत: इस श्रावक ने अभी से साधना करना प्रारम्भ कर दी है। (र.क.श्रा, 141) 48. रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? रात्रि भोजन का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है, किन्तु अब वह श्रावक रात्रि में चारों प्रकार का आहार दूसरों को भी नहीं खिलाता और न ही खाने वालों की अनुमोदना करता है। (का.आ,382) इस प्रतिमा का अपर नाम दिवा मैथुन त्याग भी है, अत: वह दिन में मैथुन भी नहीं करता है। 49. ब्रह्मचर्य प्रतिमा किसे कहते हैं ? मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से जो श्रावक मैथुन का त्याग करता है, उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं। (का.आ, 383) ब्रह्मचर्याणु व्रत में स्व स्त्री से सम्बन्ध रहता है किन्तु ब्रह्मचर्य प्रतिमा में स्व स्त्री से भी विरत हो जाता है। 50. आरम्भ त्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? इस प्रतिमा में खेती, व्यापार, नौकरी सम्बन्धी समस्त आरम्भ का त्याग हो जाता है। (र.क.श्रा, 144) किन्तु वह पूजन, अभिषेक एवं भोजन बनाने के आरम्भ का त्यागी नहीं होता है। आरम्भ त्यागी बैंक बैलेंस नहीं रखता है किन्तु वह मकान का किराया एवं पेन्शन ले सकता है। 51. आरम्भ किसे कहते हैं ? जिस कार्य के करने से षट्काय जीवों की हिंसा होती है, उसे आरम्भ कहते हैं। 52. परिग्रहत्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? जो पूजन के बर्तन, शौच उपकरण एवं वस्त्रों का परिग्रह रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है उस श्रावक की परिग्रह त्याग प्रतिमा कहलाती है। 53. अनुमति त्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? इस प्रतिमा का धारी श्रावक अब किसी भी सांसारिक कार्य की अनुमति नहीं देता है। (रक श्रा, 146) घर में रहकर घर के कार्यों में अनुमति नहीं देना यही उसकी परीक्षा है, अनुमति त्याग की परीक्षा घर में होती है, जंगल में नहीं। यह प्रतिमा भी शिक्षाव्रत के रूप में है। आगे मुनि होने के बाद सांसारिक कार्य के उपदेश में मौन रहता है। उसी प्रकार वह श्रावक भी अभी से साधना कर रहा है। दस प्रतिमाधारी श्रावक भी घर में रह सकता है। 54. उद्विष्टत्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? यह प्रतिमाधारी श्रावक सम्पूर्ण रूप से घर का त्यागकर मुनियों के समूह में जाकर व्रतों को ग्रहण कर तपस्या करता हुआ भिक्षा भोजन करने वाला होता है एवं एक खण्ड वस्त्र धारण करता है। (रक श्रा, 147) इस प्रतिमा के दो भेद हैं- एलक एवं क्षुल्लक। एलक करपात्र में ही आहार करते हैं, केशलोंच करते हैं, किन्तु केशलोंच उपवास के साथ करे यह नियम नहीं है। मात्र वे एक लंगोट (कोपीन) धारण करते हैं। क्षुल्लक लंगोट के साथ एक चादर या दुपट्टा भी रखते हैं वह चादर या दुपट्टा खण्ड होता है, अर्थात् सिर ढके तो पैर न ढके, पैर ढके तो सिर न ढके। वे भोजन पात्र में भी कर सकते हैं एवं कर पात्र में भी कर सकते हैं। केशलोंच करने का नियम नहीं है। वे मुण्डन भी करा सकते हैं। प्राचीन समय में इनकी आहार चर्या ऐसी थी कि सात घरों से अपने पात्र में आहार माँगकर लेते थे एवं कोई श्रावक कह दे कि यहीं बैठकर आहार कर लीजिए तो वहीं पर बैठकर कर लेते थे। नहीं कहा तो वे अपनी वसतिका में भी कर सकते हैं, किन्तु वर्तमान में ऐसी परम्परा नहीं है, वे भी मुनियों के समान आहार चर्या को निकलते हैं। 55. कौन से प्रतिमाधारी श्रावक जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट कहलाते हैं ? प्रथम प्रतिमाधारी से छठवीं प्रतिमा तक जघन्य श्रावक, सातवीं से नवमी प्रतिमा तक मध्यम श्रावक तथा दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमा वाला उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। 56. ग्यारह प्रतिमाधारी स्त्रियों को क्या कहते हैं ? ग्यारह प्रतिमाधारी स्त्रियों को क्षुल्लिका कहते हैं, यह एक सफेद साड़ी और एक खण्ड वस्त्र रखती हैं, शेष चर्या क्षुल्लक के समान है। 57. श्रावक को कितने स्थानों पर मौन रखना चाहिए ? श्रावक को सात स्थानों पर मौन रखना चाहिए। भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मल-मूत्र क्षेपण, जिनपूजा आदि छ: आवश्यक करते समय और जहाँ पाप कार्य की संभावना हो, वहाँ पर मौन रखना चाहिए । 58. किसे क्या कहकर वन्दना करनी चाहिए ? मुनिराज को नमोस्तु, आर्यिकाओं को वन्दामि, एलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं दशमी प्रतिमाधारी श्रावक को इच्छामि तथा अन्य प्रतिमाधारी श्रावक को वन्दना करना चाहिए। साधमी जनों से जयजिनेन्द्र कहना चाहिए।
  5. स्वाध्याय को परम तप कहा है, द्वसके कितने भेद हैं तथा स्वाध्याय करने से क्या-क्या लाभ हैं। इसका वर्णन द्वस अध्याय में है। 1. स्वाध्याय किसे कहते हैं ? सत् शास्त्र का पढ़ना, मनन करना या उपदेश देना आदि स्वाध्याय माना जाता है, इसे परम तप कहा है। 2. स्वाध्याय के कितने भेद हैं ? स्वाध्याय के दो भेद हैं - निश्चय स्वाध्याय और व्यवहार स्वाध्याय। 3. निश्चय स्वाध्याय किसे कहते हैं ? ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः- अालस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना निशश्चय स्वाध्याय है । 4. व्यवहार स्वाध्याय किसे कहते हैं ? अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश करना व्यवहार स्वाध्याय है। तत्वज्ञान को पढ़ना, स्मरण करना आदि व्यवहार स्वाध्याय है। 5. व्यवहार स्वाध्याय के कितने भेद हैं ? स्वाध्याय के पाँच भेद हैं वाचना - निर्दोष ग्रन्थ (अक्षर) और अर्थ दोनों को प्रदान करना वाचना स्वाध्याय है। पृच्छना - संशय को दूर करने के लिए अथवा जाने हुए पदार्थ को दृढ़ करने के लिए पूछना सो पृच्छना है। परीक्षा (पढ़ाने वाले की) के लिए या अपना ज्ञान बताने के लिए पूछना, पृच्छना नहीं है। वह तो पढ़ाने वाले का उपहास करना या अपने को ज्ञानी बतलाना है। अनुप्रेक्षा - जाने हुए पदार्थ का बारम्बार चिंतन करना सो अनुप्रेक्षा है। जैसा कि किसी ने कहा है बाटी जली क्यों, पान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों, विद्या भूली क्यों ? सबका एक ही उत्तर है, पलटा नहीं था। आम्नाय - शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ को पुन:-पुनः दोहराना आम्नाय स्वाध्याय है और पाठ को याद करना भी आम्नाय है। भक्तामर, णमोकार मंत्र आदि के पाठ इसी में गर्भित हैं। धर्मोपदेश - आत्मकल्याण के लिए, मिथ्यामार्ग व संदेह दूर करने के लिए, पदार्थ का स्वरूप, श्रोताओं में रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश है। (तसू, 9/25) 6. कौन-कौन सी गति के जीव स्वाध्याय करते हैं ? मात्र दो गति के जीव स्वाध्याय करते हैं - मनुष्य और देव। 7. कौन-कौन सी गति के जीव धर्मोपदेश देते हैं ? मनुष्य और देवगति के जीव धर्मोपदेश देते हैं। 8. कौन-कौन सी गति के जीव धर्मोपदेश सुनते हैं ? चारों गतियों के जीव धर्मोपदेश सुनते हैं। 9. क्या नारकी भी धर्मोपदेश सुनते हैं ? हाँ, सोलहवें स्वर्ग तक के देव तीसरे नरक तक धर्मोपदेश देने जा सकते हैं। जैसे - सीता का जीव लक्ष्मण के जीव को सम्बोधने के लिए तीसरे नरक गया था। (प्रथमानुयोग की अपेक्षा) 10. ज्ञान के कितने अंग हैं परिभाषा बताइए ? ज्ञान के 8 अंग हैं व्यञ्जनाचार - व्याकरण के अनुसार अक्षर, पद, मात्रा का शुद्ध पढ़ना, पढ़ाना व्यञ्जनाचार है। अर्थाचार - सही-सही अर्थ समझकर पढ़ना-पढ़ाना अर्थाचार है। उभयाचार - शुद्ध शब्द और अर्थ सहित आगम को पढ़ना-पढ़ाना उभयाचार है। कालाचार - शास्त्र पढ़ने योग्य काल में ही पढ़ना-पढ़ाना। अयोग्य काल में सूत्र ग्रन्थ (सिद्धान्त ग्रन्थ) पढ़ने का निषेध है। जैसे- नंदीश्वर श्रेष्ठ महिम दिवसों में, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या,पूर्णिमा तीनों संध्याकालों में, अपर रात्रि में, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उल्कापात आदि में गणधर देवों द्वारा और ग्यारह अंग, 10 पूर्वधारियों के द्वारा रचित शास्त्र, श्रुतकेवली के द्वारा रचित शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना वर्जित है। भावना ग्रन्थ, प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग पढ़ने का निषेध नहीं है। विनयाचार - द्रव्य शुद्धि अर्थात् वस्त्र शुद्धि, काय शुद्धि एवं क्षेत्र शुद्धि के साथ विनयपूर्वक पढ़ना पढ़ाना विनयाचार है। उपधानाचार - धारणा सहित आराधना करना, स्मरण सहित स्वाध्याय करना भूलना नहीं अथवा नियम पूर्वक अर्थात् कुछ त्यागकर स्वाध्याय करना। बहुमानाचार - ज्ञान का, ग्रन्थ का और पढ़ाने वालों का आदर करना, आगम को उच्चासन पर रख कर मंगलाचरण पूर्वक पढ़ना, समाप्ति पर भी भक्ति (जिनवाणी स्तुति) करना आदि। अनिह्नवाचार - जिस शास्त्र से, या जिन गुरु से आगम का ज्ञान हुआ है, उनके नाम को नहीं छुपाना। जैसे - किसी अल्प ज्ञानी गुरु से पढ़े तो उनका नाम लेने से हमारा महत्व घट जाएगा। इससे विशेष ज्ञानी या प्रसिद्ध गुरु का नाम लेना यह निह्नव है और ऐसा नहीं करना अनिह्नवाचार है। (मू,269) 11. स्वाध्याय से कौन-कौन से लाभ हैं ? स्वाध्याय करने से प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। ज्ञान एवं स्मरण शक्ति बढ़ती है। सहनशीलता आती है। अज्ञान का नाश होता है। उलझे हुए प्रश्न सुलझ जाते हैं। मन की चंचलता दूर होती है। ज्ञान से चारित्र की प्राप्ति होती है, प्रत्याख्यान नामक 9 वें पूर्व का अध्ययन तीर्थंकर के पादमूल में वर्ष पृथक्त्व तक करता है तब उसे परिहार विशुद्धि संयम की प्राप्ति होती है। देवों द्वारा पूजा भी होती है। जब आचार्य श्री धरसेनजी ने मुनि नरवाहनजी और मुनि सुबुद्धिजी को अध्ययन कराया, अध्ययन की समाप्ति पर भूत जाति के देवों ने पूजन की थी और एक महाराज की दंत पंक्ति सीधी की थी। इसके कारण उनका मुनि भूतबलीजी एवं मुनि पुष्पदन्तजी नाम आचार्य श्री धरसेनजी ने रखा था। ज्ञान के कारण ही मुनि माघनन्दिजी का स्थितिकरण हुआ था। अर्थात् वह पुनः मुनि बन गए। तत्व चिंतन के लिए नए-नए विषय प्राप्त होते हैं। शास्त्र स्वाध्याय सुनते-सुनते एक अजैन बालक कालान्तर में क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी बने थे। नोट:- मंगलाचरण तीन बार किया जाता है - आदि, मध्य और अन्त में।
  6. तीर्थंकर की वाणी को जिनवाणी कहते हैं, इसे कितने भागों में विभक्त किया है, इसमें क्या - क्या विषय है| इन सबका वर्णन इन अध्याय में है 1. जिनवाणी किसे कहते हैं एवं जिनवाणी के अपर नाम कौन-कौन से हैं ? ‘जयति इति जिन:' जिन्होंने इन्द्रिय एवं कषायों को जीता है, उन्हें जिन कहते हैं तथा जिन की वाणी (वचन) को जिनवाणी कहते हैं। अपर नाम-आगम, ग्रन्थ, सिद्धान्त, श्रुतज्ञान, प्रवचन, शास्त्र आदि। 2. सच्चे शास्त्र का स्वरूप क्या है ? आप्त अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी का कहा हुआ हो। वादी-प्रतिवादी के खण्डन से रहित हो। प्रत्यक्ष व अनुमान से विरोध को प्राप्त न हो। तत्वों का निरूपण करने वाला हो। प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला हो। मिथ्यामार्ग का खण्डन करने वाला हो। अहिंसा का उपदेश देने वाला हो। (र.क.श्रा., 9) 3. शास्त्र सच्चे देव का कहा हुआ ही क्यों होना चाहिए ? अज्ञान और राग-द्वेष के कारण ही तत्वों का मिथ्या कथन होता है। जिन भगवान् अज्ञान और राग-द्वेष से रहित होते हैं। इससे वह जो कुछ भी कहते हैं, सत्य ही कहते हैं। जैसे - आप जंगल से गुजर (निकल) रहे थे, रास्ता भटक गए, आपने किसी से पूछा भाई शहर का रास्ता कौन-सा है, उस सजन को ज्ञात नहीं है तो वह आपको सही रास्ता नहीं बता सकता है और उस व्यक्ति को आपसे राग है तो कहेगा रास्ता यहाँ से नहीं यहाँ से है और वह आपको अपने नगर ले जाएगा एवं आपसे द्वेष है तो आपको विपरीत रास्ता बता देगा भटकने दो इसे। यदि आपसे राग-द्वेष नहीं है और उसे रास्ते का ज्ञान है, तो कहेगा श्रीमान् जी यह शहर का रास्ता है। 4. जिनागम को कितने भागों में विभक्त किया गया है ? जिनागम को 4 भागों में विभक्त किया गया है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग। 5. प्रथमानुयोग किसे कहते हैं ? जिसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन हो। 169 महापुरुषों का वर्णन, उनके आदर्श जीवन एवं पुण्य-पाप के फल को बताने वाला है। यह बोधि अर्थात् रत्नत्रय, समाधि अर्थात् समाधिमरण का निधान (खजाना) है। इसमें कथाओं के माध्यम से कठिन-से-कठिन विषय को भी सरल बनाया जाता है। इस कारण आबाल-वृद्ध सभी समझ जाते हैं। प्रथम का अर्थ प्रधान भी होता है। अत: पहले रखा है। (रक श्रा.43) 6. प्रथमानुयोग में कौन-कौन से ग्रन्थ आते हैं ? प्रथमानुयोग के प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं - हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, श्रेणिकचरित्र, उत्तरपुराण, महापुराण अादि । 7. करणानुयोग किसे कहते हैं ? जो लोक - आलोक के विभाग को, कल्पकालों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों के जानने में दर्पण के समान है, उसको करणानुयोग कहते हैं। (र.क.श्रा, 44) 8. करणानुयोग के अपर नाम क्या हैं ? करणानुयोग के अपर नाम दो हैं - गणितानुयोग और लोकानुयोग। 9. करणानुयोग में कौन-कौन से ग्रन्थ आते हैं ? करणानुयोग के प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं - तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूदीवपण्णत्ति अादि । 10. चरणानुयोग किसे कहते हैं ? जिसमें श्रावक व मुनियों के चारित्र की उत्पति एवं वृद्धि कैसे होती है, किन-किन कारणों से होती है एवं चारित्र की रक्षा किन-किन कारणों से होती है एवं कौन-कौन से व्रतों की भावनाएँ कौन-कौन सी हैं, उसका विस्तार से वर्णन मिलता है। (र.क.श्रा, 45) 11. चरणानुयोग में कौन-कौन से ग्रंथ आते हैं ? चरणानुयोग के प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं - मूलाचार, मूलाचारप्रदीप, अनगारधर्मामृत, सागारधर्मामृत, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि। 12. द्रव्यानुयोग किसे कहते हैं ? जिसमें जीव-अजीव तत्वों का, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष का वर्णन हो एवं जिसमें मात्र आत्मा-आत्मा का कथन हो वह द्रव्यानुयोग है। प्राय: विद्वान् कर्म सिद्धान्त को करणानुयोग का विषय मानते हैं, जबकि वह द्रव्यानुयोग का विषय है। द्रव्यानुयोग को निम्न प्रकार विभक्त कर सकते हैं। (रक श्रा, 46) 13. क्या जिनवाणी को माँ भी कहा है ? हाँ। जिस प्रकार माँ हमेशा-हमेशा बेटे का हित चाहती है, उसे कष्टों से बचाकर सुख प्रदान करती है। उसी प्रकार जिनवाणी माँ भी अपने बेटों अर्थात् मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं को दु:खों से बचाकर सुख प्रदान करती है, किन्तु कब, जब हम उस माँ की आज्ञा का पालन करें। 14. क्या जिनवाणी को औषध भी कहा है ? हाँ। जैसे औषध के सेवन से रोग नष्ट हो जाते हैं। वैसे ही जिनवाणी के सेवन से अर्थात् जैसा जिनवाणी में कहा है, वैसा आचरण करने से, जन्म, जरा, मृत्यु जो बड़े भयानक रोग हैं, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। 15. जिनवाणी स्तुति लिखिए ? जिनवाणी मोक्ष नसैनी है, जिनवाणी ॥ टेक॥ जीव कर्म के जुदा करन को, ये ही पैनी छेनी है। जिनवाणी ॥ 1 ॥ जो जिनवाणी नित अभ्यासे, वो ही सच्चा जैनी है। जिनवाणी ॥ 2॥ जो जिनवाणी उर न धरत है, सैनी हो के असैनी है। जिनवाणी ॥ 3 ॥ पढ़ो लिखो ध्यावो जिनवाणी, यदि सुख शांति लेनी है।॥ जिनवाणी ॥4॥
  7. *गुरुवर के समक्ष* भारत की जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री *सुश्री उमा भारती* महाकवि पंडित भूरामल सामाजिक सहकार न्यास के हथकरघा केंद्रों द्वारा निर्मीत वस्त्रों की सराहना करते हुए। गौरव भैया उन्हें प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी देते हुए।
  8. जो वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं, उन्हें आप्त कहते हैं, आप्त को देव भी कहते हैं। ऐसे सच्चे देवकी श्रावक पूजन करता है। अत: इस अध्याय में देवपूजन विधि का वर्णन है। 1. पूजन का शाब्दिक अर्थ क्या है ? 'पू' धातु से पूजा शब्द बना है। पू का अर्थ अर्चना करना है। पज्चपरमेष्ठियों के गुणों का गुणानुवाद करना पूजा कहलाती है। 2. पूजा के कितने भेद हैं ? पूजा के दो भेद हैं द्रव्य पूजा - जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ चढ़ाकर भगवान् का गुणानुवाद करना द्रव्य पूजा है। भाव पूजा - अष्ट द्रव्य के बिना परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र भगवान् के अनन्तचतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करना भाव पूजा है। 3. दर्शन, पूजन, अभिषेक आदि क्यों करते हैं ? तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण के अन्तिम पद में कहा है "वन्दे तद्गुणलब्धये" हे भगवान्! जैसे गुण आप में हैं, वैसे गुणों की प्राप्ति मुझे भी हो। इससे आपके दर्शन, पूजन, अभिषेक आदि करते हैं। 4. द्रव्य पूजा और भाव पूजा के अधिकारी कौन हैं ? द्रव्य पूजा एवं भाव पूजा दोनों का अधिकारी गृहस्थ श्रावक है एवं भाव पूजा के अधिकारी मात्र श्रमण (आचार्य, उपाध्याय और साधु) आर्यिका, एलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका हैं। 5. पूजन के और कितने भेद हैं ? पूजा के पाँच भेद हैं नित्यमह पूजा - प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, चैत्य और चैत्यालय बनवाकर उनकी पूजा के लिए जमीन, जायदाद देना तथा मुनियों की पूजा करना नित्यमह पूजा है। चतुर्मुख पूजा - मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, क्योंकि चतुर्मुख बिम्ब विराजमान करके चारों ही दिशा में पूजा की जाती है। बड़ी होने से इसे महापूजा भी कहते हैं। ये सब जीवों के कल्याण के लिए की जाती है, इसलिए इसे सर्वतोभद्र भी कहते हैं। कल्पवृक्ष पूजा - याचकों को उनकी इच्छानुसार दान देने के पश्चात् चक्रवर्ती अर्हन्त भगवान् की जो पूजन करता है, उसे कल्पवृक्ष पूजा कहते हैं। अष्टाहिका पूजा - अष्टाहिका पर्व में जो जिनपूजा की जाती है, वह अष्टाहिका पूजा है। इन्द्रध्वज पूजा - इन्द्रादिक के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है, वह इन्द्रध्वज पूजा है। (का.अ.टी., 391) 6. पूजा के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ? याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह। ये सब पूजा के पर्यायवाची नाम हैं। 7. पूजा के कितने अंग हैं ? पूजा के छ: अंग हैं - अभिषेक, आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन। 8. अभिषेक किसे कहते हैं ? "अभिमुख्यरूपेण सिंचयति इति अभिषेकः"। सम्पूर्ण प्रतिमा जल से सिञ्चित हो। इस प्रकार प्रासुक जल की धारा जिन प्रतिमा के ऊपर से करना अभिषेक है। 9. अभिषेक कितने प्रकार का होता है ? अभिषेक चार प्रकार का होता है - जन्माभिषेक - सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक को पाण्डुक शिला पर ले जाकर करता है। राज्याभिषेक - जो तीर्थंकर राजकुमार को राज्यतिलक के समय किया जाता है। दीक्षाभिषेक - यह तीर्थंकर वैराग्य होने पर दीक्षा लेने के पूर्व किया जाता है। चतुर्थाभिषेक - जिनबिम्ब प्रतिष्ठा में ज्ञान कल्याणक के पश्चात् किया जाता है, इस चतुर्थाभिषेक को ही जिनप्रतिमा अभिषेक कहते हैं। जो पूजन से पूर्व में किया जाता है। विशेष :- ये चारों अभिषेक मनुष्य गति की अपेक्षा से हैं। 10. जिन प्रतिमा अभिषेक कब से चल रहा है ? जिन प्रतिमा अभिषेक अनादिकाल से चल रहा है, क्योंकि तिर्थंकरो के पञ्चकल्याणक एवं अकृत्रिम चैत्यालय अनादिनिधन हैं। अनादिकाल से चतुर्निकाय के देव अष्टाहिका पर्व में नंदीश्वरद्वीप जाकर अभिषेक एवं पूजन करते हैं। इस प्रकार अभिषेक की परम्परा अनादिनिधन है। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी नंदीश्वरभक्ति में लिखते हैं - भेदेन वर्णना का सौधर्म: स्नपनकर्नुतामापन्नः। परिचारकभावमिताः शेषेन्द्रारुन्द्रचन्द्र निर्मलयशसः ॥ 15॥ अर्थ :- उस पूजा में सौधर्म इन्द्र प्रमुख रहता है, वही जिन प्रतिमाओं का अभिषेक करता है। शेष इन्द्र सौधर्म इन्द्र के द्वारा बताए गए कार्य करते हैं। 11. अभिषेक में वैज्ञानिक कारण क्या हैं ? प्रत्येक धातु की अलग-अलग चालकता होती है। अत: जब धातु की प्रतिमा पर जल की धारा छोड़ते हैं तब धातु के सम्पर्क से जल का आयनीकरण होता है, उस आयनीकरण से युक्त जल अर्थात् गन्धोदक को उत्तमांग में लगाने से शरीर में स्थित हीमोग्लोबिन में वृद्धि करते हैं। 12. अभिषेक का फल बताइए ? मैनासुंदरी ने गंधोदक से अपने पति श्रीपाल सहित 700 कोढ़ियों का कोढ़ दूर किया था। जो मनुष्य जिनेन्द्र देव का अभिषेक क्षीर सागर के जल से करता है, वह स्वर्ग विमान में उत्पन्न होता है। जो भाव पूर्वक जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करते हैं, वे मोक्ष के परम सुख को प्राप्त करते हैं। जब विशल्या नामक कन्या के स्नान के जल से लक्ष्मण को लगी शक्ति दूर हो सकती है तब क्या जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक के जल से प्राप्त गंधोदक से अष्टकर्मों की शक्ति दूर नहीं हो सकती ? अवश्य ही होगी। 13. गंधोदक वंदनीय क्यों है ? जिनबिम्ब प्रतिष्ठा की विधि में, पञ्चकल्याणक के माध्यम से, तप कल्याणक के दिन, अंगन्यास एवं ज्ञान कल्याणक के दिन बीजाक्षरों का आरोपण एवं मन्त्रन्यास विधि में प्रतिमा में मन्त्रों का आरोपण दिगम्बर मुनि के द्वारा किया जाता है। जलाभिषेक की धारा से जो जल प्रतिमा पर गिरता है, उन मन्त्रों एवं अभिषेक के समय उच्चारित मन्त्रों का प्रभाव जल में आ जाता है, इससे वह वंदनीय हो जाता है। (पु.) 14. आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण क्या है एवं किस प्रकार किया जाता है ? आह्वान - भगवान् के स्वरूप को दृष्टि के समक्ष लाने का प्रयास करना आह्वान है। स्थापना - उनके स्वरूप को हृदय में विराजमान करना स्थापना है। सन्निधिकरण - हृदय में विराजे भगवान् के स्वरूप के साथ एकाकार होना सन्निधिकरण है। सीधे दोनों हाथों को सही मिलाएं और अनामिका अज़ुली के मूल भाग में अंगूठा रखकर आह्वान किया जाता है, उन्हीं हाथों को पलट लेना स्थापना है एवं अंगूठा ऊपर रखकर मुट्ठी बांध लें और दोनों अंगूठों को हृदय पर लगाना इसके बाद ठोना पर पुष्प क्षेपण करना चाहिए। आह्वान, स्थापना के बाद पुष्प क्षेपण नहीं करना चाहिए। पुष्पों की संख्या निश्चित नहीं है, जितने चाहें, बिना गिने क्षेपण कर सकते हैं। 15. ठोना की आवश्यकता क्यों है ? पूजा का संकल्प किया है, उसको पूर्ण करने के लिए जब तक पूजा पूर्ण नहीं होगी, तब तक नहीं उठेगे अर्थात् ठोना पूजा के संकल्प को याद दिलाता रहता है। पावर हाउस से करेंट डायरेक्ट घर में नहीं आता है, ट्रांसफार्मर से आता है। उच्च शक्ति से निम्न शक्ति में परिवर्तित होकर आता है। ऐसे ही भगवान् से सम्बन्ध जोड़ना है तब ठोना को माध्यम बनाया जाता है। ठोना याद दिलाने के लिए है कि हमने भगवान् से सम्बन्ध जोड़ा है। 16. ठोना में क्या बनाना चाहिए ? ठोना में स्वस्तिक या अष्ट पांखुड़ी वाला कमल बनाना चाहिए। 17. पूजन में अष्ट द्रव्य क्यों चढ़ाते हैं एवं वह हमें क्या संदेश देते हैं ? जल - जल बाहरी गंदगी को दूर करने वाला है किन्तु आपके गुण रूपी जल मेरे राग-द्वेष रूपी मल को दूर करने वाले हैं। आत्मा में लगे ज्ञानावरणादि कर्म की रज को धोने के लिए चढ़ाया जाता है। जल हमें यह संदेश देता है कि हम उसकी तरह सभी के साथ घुल-मिलकर जीना सीखें एवं जल की तरह तरल एवं निर्मल होना सीखें। चंदन - इस चंदन से तो तात्कालिक शांति होती है किन्तु आपकी अमृत वाणी शारीरिक और मानसिक दाह को सदा-सदा के लिए नष्ट कर देती है। मिलावट के इस युग में आज चंदन के स्थान पर हल्दी चल रही है, जो गर्म होती है, इससे संसार रूपी ताप का नाश नहीं हो रहा है अत: चंदन के स्थान पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए। चंदन हमें यह संदेश देता है कि उसकी तरह सभी के प्रति शीतलता अपनाएं एवं चंदन के वृक्ष को कोई काटे तो वह सुगंध ही देता है। वैसे हम भी हो जाएँ। कोई मुझे मारे तो उसे सुगंध के समान मीठे वचन दे सके। अक्षत - हे भगवान् मुझे यह क्षत-विक्षत पद नहीं चाहिए मुझे तो आप जैसा शाश्वत पद प्राप्त हो जाए जिससे मुझे चौरासी लाख योनियों में न भटकना पड़े। अक्षत (चावल) यह संदेश देता है कि धान का छिलका हटाए बिना अक्षत प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार बाहरी परिग्रह छोड़े बिना हमें आत्मतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। पुष्प - हे भगवान् ! इस काम दाह से सारा संसार पीड़ित है किन्तु आपने ऐसे काम रूपी विजेता को भी जीत लिया है इसलिए मैं भी उस काम भाव पर विजय प्राप्त करने के लिए आपके चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, आप अवश्य ही मेरी भावना साकार करें। पुष्प यह संदेश देता है कि उसका जीवन दो दिन का है फिर उसे मुरझा जाना है। टूट कर गिर जाना है। हमारा जीवन भी दो दिन का है फिर यह देह मुरझाकर गिर जाएगी। यदि दो दिन के जीवन को शरीरगत क्षणिक कामवासनाओं में चला जाने देंगे तो मुरझाने और टूटकर गिर जाने के अलावा हमारे हाथ में कुछ भी नहीं रहेगा। इसलिए स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि की सभी वासनाओं से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। नैवेद्य - मैंने इस क्षुधारोग का नाश करने के लिए दिन-रात भक्ष्य-अभक्ष्य पदार्थों का सेवन किया। फिर भी इस तन की भूख शांत नहीं हुई। यह तो अग्नि में घी डालने के समान दिनों-दिन बढ़ती जाती है किन्तु ऐसे क्षुधा रोग को आपने नष्ट कर दिया है। ऐसी शक्ति मुझे भी प्राप्त हो, जिससे मैं भी हमेशा के लिए क्षुधा रोग नष्ट कर सकूं। नैवेद्य यह संदेश देता है कि मैं स्वयं नष्ट होकर दूसरों को जीवन देता हूँ। हम इतना कर लें कि दूसरे प्राणी भी जीवन जी सकें। हम उनके लिए बाधक न बनें। दीप - यह जड़ दीपक तो बाह्य जगत् के अंधकार को नष्ट करता है, इसमें तो बार-बार तेल-बत्ती की आवश्यकता होती है और दिया तले अंधेरा ही रहता है। लेकिन आपका केवलज्ञान रूपी दीपक स्वपर प्रकाशी, तेल और बत्ती से रहित, अखण्ड शाश्वत प्रकाशवान है। मेरे घट में भी केवलज्ञान की ज्योति जल जाए इसलिए मैं यह नश्वर दीप चढ़ा रहा हूँ। दीप यह संदेश देता है कि मैं जलकर भी दुनिया को प्रकाश देता हूँ तो हम भी यह शिक्षा लें कि कष्ट सहन कर दूसरों को सेवा प्रदान करें। धूप - यह धूप तो बाह्य जगत् के वातावरण को स्वच्छ करती है। परन्तु प्रभो आपने तो अष्ट कर्मों की धूप को ही नष्ट कर दिया है। मेरे भी अष्ट कर्म नष्ट हो जाएं मुझे भी वह अष्ट कर्मों से रहित अवस्था प्राप्त हो। इससे धूप चढ़ाता हूँ। धूप से संदेश ले सकते हैं कि धूप अपनी सुगंध अमीर-गरीब और छोटे-बड़े का भेद किए बिना सभी के पास समान रूप से पहुँचाती है। ऐसे ही हम अपने जीवन में भेदभाव को छोड़कर सर्वप्रेम, सर्वमैत्री की सुगन्ध फैलाते रहें। फल - हे प्रभु! इस संसार के सारे फल तो नश्वर हैं, अस्थिर हैं, छूट जाने वाले हैं। इन फलों को खाने से तात्कालिक आनंद आने के उपरान्त दु:ख ही हाथ लगता है। मुझे शाश्वत मोक्ष रूपी फल प्राप्त हो जाए इसलिए आपके चरणों में फल चढ़ाता हूँ। फल यह संदेश देता है कि सांसारिक फल की आकांक्षाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि वे तो कर्माश्रित हैं। अच्छे का अच्छा, बुरे का बुरा फल मिलता है। ध्यान रहे फल कभी भी फल नहीं चाहता है, वह कर्तव्य करता है। हम भी कोई कार्य करें तो कर्तव्य समझकर करें, फल की अपेक्षा न करें। अर्घ - उस अनर्घ पद के सामने इस अर्घ का क्या मूल्य है, फिर भी भक्ति वशात् मैं उस अनर्घ पद को प्राप्त करने के लिए यह अर्घ चढ़ा रहा हूँ। अर्घ हमें एकता का संदेश देता है, उसमें आठों द्रव्य एक हैं हम सब भी एक हो जाएँ तो बड़े-से-बड़ा कार्य भी शीघ्र हो जाता है। जयमाल - पञ्च परमेष्ठी, नवदेवताओं की अष्ट द्रव्य से पूजा के बाद विशेष भक्ति व श्रद्धा युक्त हो गुणों का स्मरण करना एवं गुणानुवाद करना, जयमाल है। 18. अष्ट द्रव्य हमें कैसे चढ़ाना चाहिए ? जन्म, जरा, मृत्यु का नाश करने के लिए जल की तीन धारा छोड़ना चाहिए। चंदन चढ़ाते समय एक धारा छोड़ना चाहिए। अक्षत दोनों मुट्ठी बाँधकर अंगूठा अंदर रखकर चढ़ाना चाहिए। पुष्प दोनों हाथों की अंजुलि मिलाकर नीचे गिराते हुए छोड़ना चाहिए। नैवेद्य प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। दीप प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। धूप मध्यमा, अनामिका और अंगुष्ठ मिलाकर धूप घट में ही छोड़ना चाहिए। फल प्लेट में रखकर चढ़ाना चाहिए। अर्घ प्लेट में रखकर दोनों हाथ लगाकर चढ़ाना चाहिए। 19. द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में क्या बनाना चाहिए ? थाली में ऊपर अर्धचंद्राकार बिन्दु सहित उसके नीचे तीन बिन्दु तथा उसके नीचे स्वस्तिक बनाना चाहिए। स्वस्तिक में प्रथम नीचे से ऊपर रेखा ऊध्र्वगति प्राप्ति की भावना से लोक नाड़ी या संसाररेखा मानकर खीचें। आड़ी रेखा जन्म-मरण की रेखा के रूप में खींचे। चारों मोड चार गतियों के एक --> प्रतीक हैं। अर्थात् लोक नाड़ी में जन्म मरण करके चारों गतियों में परिभ्रमण कर रहे है हैं। चार बिन्दु चारों अनुयोग के प्रतीक हैं, जिससे ज्ञान प्राप्त करके मोक्षमार्ग रत्नत्रय रूप में तीन बिन्दु बनाते हैं। इस रत्नत्रय धारण की भावना के साथ सिद्धशिला की : प्राप्ति की भावना से सिद्ध शिला एवं बिन्दु (बिन्दु सिद्ध भगवान् के प्रतीक) बनाते हैं। 20. विसर्जन क्या है ? विश्वशान्ति की मंगल भावना के साथ शान्ति पाठ पढ़कर विसर्जन किया जाता है। विसर्जन का तात्पर्य पूजन के पश्चात् भगवान् का विसर्जन नहीं है। बल्कि पूजन में होने वाली त्रुटि (गलती) के प्रति क्षमायाचना करना है। पूजन समाप्ति पर विसर्जन पाठ पढ़ें-बिन जाने वा जानके --------- करहुँ राखहुँ मुझे देहु चरण की सेव, पढ़ना चाहिए। अन्त में निम्न पद पढ़कर ठोने में पुष्प क्षेपण करें। यहाँ पुष्पों की संख्या निश्चित नहीं हैं, जितना चडाना हो, चड़ा सकते है | श्रद्धा से आराध्य पद, पूजे शक्ति प्रमाण। पूजा विसर्जन मैं करूं, होय सतत कल्याण॥ नोट - संकल्पों के पुष्पों को निर्माल्य की थाली में क्षेपण कर दें, उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए। 21. रात्रि में पूजन करना चाहिए या नहीं ? जिस प्रकार रात्रिभोजन का निषेध है, उसी प्रकार रात्रि पूजन का भी निषेध है। 22. क्या देव रात्रि में पूजन करते हैं ? स्वर्गों में दिन-रात का भेद नहीं है, किन्तु वे ही देव, जहाँ दिन-रात का भेद है, वहाँ पर रात्रि में जाकर पूजन नहीं करते हैं। दो सशत्त दृष्टान्त धवला पुस्तक 9 के हैं, जो इस प्रकार हैं। चौदह पूर्व का ज्ञान होते ही उन मुनिराज की पूजन एवं श्रुत की पूजन करने देव आते हैं। चौदह पूर्व का ज्ञान संध्या के समय हो गया और मुनिराज रात्रि में कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। किन्तु उस समय देव पूजन करने नहीं आए। दूसरे दिन प्रभात के समय में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों द्वारा शंख, काहला और तूर्य के शब्द से व्याप्त महापूजा की गई। (धपु,9/13/71) तीर्थंकर महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि में हुआ था। किन्तु देव निर्वाण महोत्सव मनाने रात्रि में नहीं आए। सौधर्म इन्द्र ने अमावस्या के प्रात: आकर परिनिर्वाण पूजा की थी। (ध.पु., 9/44/125) जब भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र में आकर देव भी रात्रि में पूजन नहीं करते तब श्रावक कैसे करेगा ? अत: रात्रि में पूजन नहीं करना चाहिए। इसके अलावा अनेक ग्रन्थों में रात्रिपूजन का निषेध किया गया है। 1. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के श्लोक 210 में कहा है - त्रिकालं-जिननाथान् ये, पूजयंति नरोत्तमाः। लोकत्रयभवं शर्म, भुक्त्वा यांति परं पदम्॥ अर्थ - जो उत्तम पुरुष प्रात:, दोपहर एवं सायंकाल के समय भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं। वे तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाले समस्त भोगों को भोगकर मोक्षपद में जा विराजमान होते हैं। 2. गुणभूषण श्रावकाचार के श्लोक 65 में इस प्रकार कहा है - प्रातः पुनः शुचीभूय निर्माप्याप्ता आदि पूजनम | सोत्साहस्तदहोरात्रं सद ध्याना ध्यय नेर्नयेत || अर्थ - पुन: प्रात:काल पवित्र होकर देव-शास्त्र-गुरु आदि का पूजन करके उत्साह के साथ उत्तम ध्यान और अध्ययन करते हुए उस दिन और रात्रि को व्यतीत करें। विशेष - यहाँ प्रात:काल पूजन करना कहा गया है और रात्रि को ध्यान एवं अध्ययन करने का विधान किया है। 3. धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार के श्लोक 73 में कहा है - रात्री स्नान विवर्जन। अर्थ - रात्रि में स्नान करने का त्याग करें। क्योंकि स्नान बिना पूजन संभव नहीं है, अतः रात्रि में पूजन का निषेध प्राप्त होता है। 4. लाटी संहिता के 5/186 श्लोक में कहा है- (प्रसंग - तीनों संधि कालों अर्थात् प्रात:, दोपहर तथा सायंकाल भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करें परन्तु) आधी रात्रि के समय भगवान् अरिहंत देव की पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रात्रि में पूजा करने से जीवों की हिंसा अवश्य होती है, अतः रात्रि पूजा करने का निषेध है। 23. कितने गति के जीव पूजन करते हैं ? तीन गति के जीव पूजन करते हैं - मनुष्यगति, देवगति एवं तिर्यच्चगति। 24. पूजा को वैयावृत्य और अतिथि संविभाग में किस आचार्य ने रखा है ? पूजा भगवान् की सेवा है, जिसका लक्ष्य आत्मतत्व की प्राप्ति है। इसलिए आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने पूजा को वैयावृत्य में शामिल किया है। पूजा अतिथि का स्वागत है, इसलिए आचार्य श्री रविषेण स्वामी ने अतिथि संविभाग में रखा है। 25. किस ग्रन्थ में पूजा को सामायिक व्रत व ध्यान कहा है ? पूजा गहरी तल्लीनता और आत्मोपलब्धि में कारण बनती है। इसलिए उपासकाध्ययन में इसे सामायिक व्रत में रखा है। पूजा ध्यान है, ऐसा भावसंग्रह में आचार्य देवसेनजी ने कहा है। इसलिए इसे पदस्थ ध्यान में शामिल किया है। 26. पूजा के छ: प्रकार कौन से हैं बताइए ? नाम पूजा - अरिहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, वह नाम पूजा है। स्थापना पूजा - आकारवान पाषाण आदि में अरिहंत आदि के गुणों का आरोपण करके पूजा करना स्थापना पूजा है। द्रव्य पूजा - अरिहंतादि के उद्देश्य से जल, गंध, अक्षत आदि समर्पण करना द्रव्य पूजा है। क्षेत्र पूजा - जिनेन्द्र भगवान् के जन्म कल्याणक आदि पवित्र भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना क्षेत्र पूजा है। काल पूजा - तिर्थंकरो के कल्याणकों की तिथियों में भगवान् का अभिषेक, पूजा आदि करना काल पूजा है। भाव पूजा - मन से अरिहंतादि के गुणों का चिन्तन करना भाव पूजा है। 27. पूजन के लाभ बताइए? आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि पूजन सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली और काम विकार को भस्म करने वाली तथा समस्त दुख को दूर करने वाली है।
  9. धार्मिकदूष्टि से, वैज्ञानिक द्रष्टि से जल छानकर पीना चाहिए। अत: हृस अध्याय में जल छानने की विधि का वर्णन है। 1. जल क्यों छाना जाता है ? जल में जो अनेक सूक्ष्म (त्रस) जीव रहते हैं, उनकी रक्षा के लिए जल को छाना जाता है। बिना छने जल का प्रयोग करने से उसमें रहने वाले जीवों का अवसान (मरण) होता है एवं जीव पेट में जाकर रोग भी उत्पन्न करते हैं। इससे छने पानी का प्रयोग करना चाहिए। 2. पानी स्वयं जीव है, तो छानने से जीव कैसे बचेंगे ? पानी छानने से त्रस जीवों की रक्षा होती है। जलकायिक की नहीं। 3. एक बूंद जल में जैनधर्म के अनुसार कितने जीव हैं ? एक बूंद जल में जैनधर्म के अनुसार संख्यात त्रस जीव एवं असंख्यात जलकायिक जीव हैं, जो कबूतर के बराबर होकर उड़ें तो पूरा जम्बूद्वीप भर जाएगा | 4. वैज्ञानिक कैप्टन स्ववोर्सवी के अनुसार एक बूंद जल में कितने जीव हैं ? वैज्ञानिक कैप्टन स्ववोर्सवी के अनुसार 36,450 त्रस जीव हैं। 5. जल छानने की विधि क्या है ? कुएँ में बालटी या कोई भी बरतन जोर से नहीं पटकते हुए पानी खीचें। वह बालटी फूटी भी न हो, और पानी गिरे भी नहीं। बालटी ऊपर लाने के बाद एक सूती छन्ने से छानना, वह छन्ना इतना मोटा हो कि उसमें से सूर्य की किरणें आर-पार न हो सकें। छन्ना इतना बड़ा हो कि जिस बरतन में पानी छाना जा रहा है,उसके मुख से बड़ा हो। इतनी सावधानी अवश्य रहे कि अनछना एक भी बूंद जल जमीन पर न गिरे। पानी छानने के बाद जिवानी को छने जल से धोकर ही, जहाँ की जिवानी हो उसी जगह डालना चाहिए। जिवानी ऊपर से नहीं फेंकना चाहिए, बल्कि बालटी में नीचे कड़ा होना चाहिए। जिससे जल की सतह पर जाकर जिवानी पहुँचे। अत: कड़े वाली बालटी का प्रयोग करना चाहिए। 6. जेट, हैंडपप आदि से पानी आने में घर्षण से जीव मर जाते हैं। फिर पानी छानने से क्या लाभ है ? जेट, हैंडपंप से पानी आता है तो घर्षण से जीव मर तो जाते हैं किन्तु बिना छने जल में प्रतिसमय जीव उत्पन्न होते रहते हैं। अत: पानी छानना चाहिए। 7. हैंडपंप की जिवानी कहाँ डालना चाहिए ? हैंडपंप में जिवानी तो जा नहीं सकती। घर में टंकी, हौज आदि में जल हो तो उसमें डाल सकते हैं। जब तक उसमें जल रहेगा, तब तक जीव सुरक्षित रहेंगे। यह विधि ठीक नहीं है फिर भी जितनी रक्षा हो सके उतनी करें, जिससे पानी छानने के संस्कार बने रहेंगे। 8. छने जल की मर्यादा कितनी है ? एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनट। इसके बाद उसमें पुनः त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। अत: पुनः छानना चाहिए। 9. छने जल को लौंग, सौंफ आदि से प्रासुक किया जाता है तो उसकी मर्यादा कितनी है ? छने जल को लौंग, सौंफ आदि से प्रासुक किया जाता है तो उसकी मर्यादा छः घंटे हो जाती है, किन्तु छ: घंटे के बाद वह अमर्यादित हो जाता है। अर्थात् उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाती है। 10. उबले (Boiled) जल की मर्यादा कितनी है ? 24 घंटे। इसके बाद वह अमर्यादित हो जाता है। इसे दुबारा गर्म भी नहीं करना चाहिए। 11. नल में कपड़े की थैली दिन भर लगी रहती है, क्या यह उचित है ? नहीं। थैली नल में लगी-लगी ही सूख जाती है तो उसमें रहने वाले जीव मर जाते हैं। 12. वर्षा का जल क्या शुद्ध है ? वर्षा का जल अन्तर्मुहूर्त तक तो शुद्ध है, उसमें जीव नहीं रहते हैं। अन्तर्मुहूर्त के बाद उसमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं। 13. जैनधर्म के अलावा और कहीं भी पानी छानने के बारे में कहा है ? हाँ। मनुस्मृति में लिखा है - अपनी दृष्टि से धरती को अच्छी तरह देखकर पैर रखे तथा जल को वस्त्र से छानकर पीना चाहिए। यथा- दृष्टि पूतं न्यसेत् पादं, वस्त्र पूर्त जलम् पिबेत्। 14. पानी छानने के बारे में आज विज्ञान क्या कहता है ? पानी को छानकर फिर उबालकर (Boiled)ही पीना चाहिए। 15. छना पानी पीने से क्या लाभ हैं ? छना पानी पीने से मुख्य लाभ हैं - अहिंसा धर्म का पालन होता है। अनेक प्रकार की बीमारियों से स्वत: बच जाते हैं। 16. गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज के शब्दों में अनछना जल पीने से क्या होता है ? जिस प्रकार स्टोव में बिना छना तेल डालते हैं तो वह भभकता है, जिससे उसमें पिन करना पड़ती है। उसी प्रकार पेट में बिना छना जल डालते हैं तो उसमें पिन करना पड़ती है अर्थात् इंजेक्शन लगवाना पड़ता है, क्योंकि बीमार पड़ जाते हैं। 17. भगवान् महावीर जैनी किसे कह गए ? महावीर कह गए सभी से जैनी वह कहलाएगा। दिन में भोजन, छान के पानी, नित्य जिनालय जाएगा।
  10. मानव शरीर अन्न का कीड़ा है, मानव अन्न के बिना जीवित नहीं रह सकता है। अत: मनुष्य को भोजन करना अनिवार्य है, किन्तु कब करना, कब नहीं करना, कितना करना, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. भोजन क्यों करते हैं ? क्षुधा की वेदना को दूर करने के लिए। अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए। जिससे हम जीवित रह सकें। दूसरों की सेवा करने के लिए। संयम पालन करने के लिए। दस धर्मों का पालन करने के लिए। (मू., 479) 2. भोजन कब करना चाहिए? भोजन दिन में करना चाहिए। 3. रात्रि में भोजन क्यों नहीं करना चाहिए? सूर्य की किरणों में Ultraviolet (अल्ट्रावायलेट) एवं Infrared (इन्फ्रारेड) नाम की किरणें रहती हैं। इन किरणों के कारण दिन में सूक्ष्म जीवों की उत्पति नहीं होती है। सूर्य के अस्त होते ही रात्रि में जीवों की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाती है। यदि रात्रि में भोजन करते हैं, तब उन जीवों का घात हो जाता है, जिससे हमारा अहिंसा धर्म समाप्त हो जाता है एवं पेट में भोजन के साथ छोटे-छोटे जीव-जन्तु पहुँच जाते हैं, जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। 4. क्या रात्रि में लाईट जलाकर भोजन कर सकते हैं ? नहीं। क्योंकि यदि दिन में लाईट जलाते हैं, तो लाईट के आसपास कीडे दिखाई नहीं देते हैं, क्योंकि दिन में कीड़े कम उत्पन्न होते हैं और वे सूर्य प्रकाश के कारण यहाँ-वहाँ छिप जाते हैं। रात्रि में लाईट जलाते हैं तब और भी ज्यादा कीड़े उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार रात्रि में लाईट जला कर भी भोजन नहीं करना चाहिए। दिन में लाईट अर्थात् सनलाईट Sunlight (सूर्य प्रकाश) में ही भोजन करना चाहिए। 5. वर्तमान विज्ञान रात्रिभोजन न करने के बारे में क्या कहता है ? वर्तमान विज्ञान का कहता है कि सूर्य प्रकाश में ही भोजन का पाचन होता है। अत: दिन में ही भोजन करना चाहिए। भोजन करके शयन करने से भोजन का पाचन सही नहीं होता है। इससे शयन के 3 या 4 घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए। 6. आयुर्वेद रात्रिभोजन करने का समर्थन करता है कि नहीं ? नहीं। आयुर्वेद में लंघन (उपवास) भी कराते हैं, तब उसकी पारणा भी दिन में ही कराते हैं एवं वैद्य भी औषध दिन में तीन बार लेने के लिए कहता है, प्रात:, मध्याह्न एवं संध्या की। रात्रि में नहीं। 7. प्राकृतिक चिकित्सा में रात्रिभोजन का समर्थन है कि नहीं ? प्राकृतिक चिकित्सा में रात्रि में मात्र पेय आहार देते हैं अन्न आदि नहीं। 8. जैनधर्म के अलावा अन्य धमों में रात्रिभोजन का निषेध है या नहीं ? जैनधर्म के अलावा अन्य धर्मो में रात्रिभोजन का निषेध किया है 1. महाभारत के शान्तिपर्व में कहा है - चत्वारि नरक द्वारं प्रथमं रात्रि भोजनम्॥ परस्त्री गमनं चैव सन्धानानन्तकायिकम्॥ अर्थ - नरक जाने के चार द्वार हैं - पहला रात्रिभोजन, दूसरा परस्त्री सेवन, तीसरा सन्धान अर्थात् अमर्यादित अचार का सेवन करना एवं चौथा अनन्तकायिक अर्थात् जमीकंद खाना। 2. मार्कण्डेय पुराण में कहा है - अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिर मुच्यते। अन्नं मांस समं प्रोक्ततं मार्कण्डेय महिषर्षणा ॥ अर्थ - सूर्य के अस्त होने के बाद जल के सेवन को खून के समान एवं अन्न के सेवन को माँस के समान कहा है। 3. मार्कण्डेय पुराण में और भी कहा है - मृते स्वजन मात्रेऽपि सूतकं जायते किल। अस्तंगते दिवानाथे भोजन कथ क्रियते॥ अर्थ - स्वजन का अवसान हो जाता है तो सूतक लग जाता है, जब तक शव का संस्कार नहीं होता तो भोजन नहीं करते हैं। जब सूर्यनारायण अस्त हो गया तो सूतक लग गया अब क्यों भोजन करेंगे। अर्थात् नहीं करेंगे, नहीं करना चाहिए। 4. ऋषीश्वर भारत में कहा है - मद्यमाँसाशनं रात्रौ भोजनं कंद भक्षणम्। ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तपः॥ वृथा एकादशी प्रोत्ता वृथा जागरणं हरे: ।। वृथा च पुष्करी यात्रा वृथा चान्द्रायणं तपः ॥ अर्थ - मद्य, माँस का सेवन, रात्रि में भोजन एवं कंदमूल भक्षण करने वाले के तप, एकादशीव्रत, रात्रिजागरण, पुष्कर यात्रा तथा चन्द्रायण व्रतादि निष्फल हैं। 9. रात्रि भोजन के त्याग में अन्न का त्याग है या सभी पदार्थों का ? रात्रि भोजन के त्याग का अर्थ रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग अर्थात् खाद्य, पेय, लेह्य और स्वाद्य। खाद्य - रोटी, बाटी, मोदक आदि। पेय - दूध, पानी, शर्बत, ठंडाई आदि। लेह्य - रबड़ी, आम का रस, कुल्फी आदि। स्वाद्य - लौग, इलायची, सौफ आदि। 10. जिसका रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग है, उसे क्या फल मिलता है ? जो रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है उसे एक वर्ष में छ: माह के उपवास का फल मिलता है। 11. भोजन कितना करना चाहिए ? सभी डॉक्टर, वैद्य यही कहते हैं कि खूब भूख लगने पर, भूख से कम खाना चाहिए। मूलाचार ग्रन्थ में आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी ने कहा है कि आधा पेट तो भोजन से भर लेना चाहिए। तीसरा भाग जल से भर लेना चाहिए एवं एक भाग खाली रखना चाहिए। इसी प्रकार गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने मूकमाटी में कहा है- आधा भोजन कीजिए, दुगुणा पानी पीव। तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी, वर्ष सवा सौ जीव॥ 12. रात्रि में भोजन न करने से क्या लाभ हैं ? रात्रि में भोजन न करने से अनेक लाभ हैं रात्रि में भोजन न करने से जीवों का घात नहीं होता है, अत: हम पाप से बच जाते हैं। अनेक प्रकार की बीमारियाँ नहीं होती हैं, जिससे आपका धन भी बच जाता है, क्योंकि बीमार होने से आपका धन डॉक्टर एवं दवा विक्रेता या दवा निर्माता के यहाँ जाता है। घर में शांति रहती है, क्योंकि आप रात्रि में भोजन करेंगे तो महिला वर्ग को रात्रि में बनाना पडेगा और उसके बाद बरतन आदि साफ करने पड़ेंगे। अधिक रात्रि होने से निद्रा भी आने लगती है, अत: गुस्सा आना स्वाभाविक है। अब वह गुस्सा कहाँ उतरेगा ? आपके ऊपर या बच्चों के ऊपर या फिर घर की सामग्री के ऊपर। अत: घर में शांति चाहते हो तो दिन में भोजन करना चाहिए। 13. रात्रि में भोजन करने से क्या-क्या हानियाँ होती हैं ? पेट में अनेक प्रकार के जीव पहुँच जाते हैं, जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं। जैसे - मक्खी जाने से वमन हो जाता है। मकड़ी का अंश भी जाने से कोढ़ हो जाता है। जू (जुआँ) जाने से जलोदर रोग हो जाता है। बाल जाने से स्वर भंग हो जाता है। बिच्छू जाने से तालु भंग हो जाता है। 14. जैनधर्म के अनुसार रात्रि में भोजन करने वाले कहाँ जाते हैं ? उलूक - काक - माजरि, - गृध - शम्वर - सूकरा:। अहि - वृश्चिक - गोधाश्च, जायन्ते निशिभोजनात्॥ अर्थ - रात्रि में भोजन करने वाले उल्लू, कौआ, बिल्ली, गृध्र (गिद्ध), भेड़िया, सुअर, सर्प, बिच्छू, मगरमच्छ आदि पर्याय में जाते हैं। 15. रात्रि भोजन त्याग के दोष (अतिचार) कौन-कौन से हैं ? रात्रि भोजन त्याग के दोष निम्नलिखित हैं - दिन के समय अंधकार में बना भोजन करना। रात्रि का बना भोजन दिन में करना। रात्रि भोजन का त्याग करके, समय पर भोजन न मिलने से मन में सोचना कि मैंने क्यों रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग नहीं करना। रात्रि में पीसा, कूटा, छना हुआ पदार्थ खाना। दिन के प्रथम और अंतिम घडी (24 मिनट) में भोजन करना।
  11. जैन श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करने मन्दिर जाता है। अत: मन्दिर जाने की विधि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. मन्दिर जाने की विधि क्या है ? देवदर्शन हेतु प्रात:काल स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर शुद्ध धुले हुए स्वच्छ वस्त्र (धोती-दुपट्टा अथवा कुर्ता-पायजामा) पहनकर तथा हाथ में धुली हुई स्वच्छ अष्ट द्रव्य लेकर मन में प्रभुदर्शन की तीव्र भावना से युक्त, नंगे पैर नीचे देखकर जीवों को बचाते हुए घर से निकलकर मन्दिर की ओर जाना चाहिए। रास्ते में अन्य किसी कार्य का विकल्प नहीं करना चाहिए । दूर से ही मन्दिर जी का शिखर दिखने पर सिर झुकाकर जिन मन्दिर को नमस्कार करना चाहिए, फिर मन्दिर के द्वार पर पहुँचकर शुद्ध छने जल से दोनों पैर धोना चाहिए । मन्दिर के दरवाजे में प्रवेश करते ही हैं जय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु बोलना चाहिए, फिर मन्दिर जी में लगे घंटे को बजाना चाहिए। इसके पश्चात् भगवान के सामने जाते ही हाथ जोड़कर सिर झुकावें, एवं बैठकर गवासन से तीन बार नमस्कार कर तथा खड़े होकर णमोकार मंत्र पढ़कर कोई स्तुति, स्तोत्र पाठ पढ़कर भगवान् की मूर्ति को एकटक होकर देखकर भावना से निर्लिप्त हैं, वैसे ही मैं भी संसार से निर्लिप्त रहूँ, साथ में लाए पुञ्ज बंधी मुट्ठी से अंगूठा भीतर करके अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ऐसे पाँच पदों को बोलते हुए बीच में, ऊपर, दाहिने, नीचे, बाएँ तरफ ऐसे पाँच पुञ्ज चढ़ावें। फिर जमीन पर गवासन से बैठकर, जुड़े हुए हाथों को तथा मस्तक को जमीन से लगावें तीन बार नमस्कार कर तत्पश्चात् हाथ जोड़कर खड़े हो जावें और मधुर स्वर में स्पष्ट उच्चारण के साथ स्तुति आदि पढ़ते हुए अपनी बाई ओर से चलकर वेदी की तीन परिक्रमा करें। तदनन्तर स्तोत्र पूरा होने पर बैठकर गवासन से तीन बार नमस्कार करें। परिक्रमा देते समय ख्याल रखें कोई नमस्कार कर रहा हो तो उसके आगे से न निकलकर, पीछे की ओर से निकलें। दर्शन करने इस तरह खड़े हों तथा इस तरह पाठ करें जिससे अन्य किसी को बाधा न हो। दर्शन कर लेने के बाद अपने दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अर्जुलियों को गंधोदक के पास रखे शुद्ध जल से शुद्ध कर लेने पर अर्जुलियों से गंधोदक लेकर उत्तमाङ्ग पर लगाएं फिर गंधोदक वाली अर्जुलियों को पास में रखे जल में धो लेवें। गंधोदक लेते समय निम्न पंक्तियाँ बोलें - निर्मलं निर्मलीकरण, पवित्र पाप नाशनम्। जिन गंधोदकं वंदे, अष्टकर्म विनाशनम्॥ इसके पश्चात् नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ते हुए कायोत्सर्ग करें। फिर जिनवाणी के समक्ष ‘प्रथमं करण चरण द्रव्यं नम:।' ऐसा बोलते हुए चार पुञ्ज चढ़ावें। तथा गुरु के समक्ष ‘सम्यक् दर्शन-सम्यक् ज्ञान-सम्यक् चारित्रेभ्यो नम:', ऐसा बोलकर तीन पुञ्ज चढ़ावें। तदुपरान्त शास्त्र स्वाध्याय करें एवं मंत्र जाप करें, फिर भगवान् को पीठ न पड़े ऐसे विनय पूर्वक अस्सहि, अस्सहि, अस्सहि बोलते हुए मन्दिर से बाहर निकलें। 2. देवदर्शन किसे कहते हैं ? देव का अर्थ वीतरागी 18 दोषों से रहित देव और दर्शन का सामान्य अर्थ होता है देखना, किन्तु यहाँ पूज्यता के साथ देखने का नाम दर्शन है। अत: पूज्य दृष्टि से देव को देखने का नाम देवदर्शन है। 3. मन्दिर जी आने से पहले स्नान क्यों आवश्यक है ? गृहस्थ जीवन में पञ्च पाप होते रहते हैं, जिससे शरीर अशुद्ध हो जाता है। अत: शरीर की शुद्धि के लिए स्नान आवश्यक है। 4. मन्दिर जी में प्रवेश करते समय पैर धोना क्यों आवश्यक है ? पैरों का सम्बन्ध सीधा मस्तिष्क से होता है, आँखों में दर्द, पेट में दर्द, अधिक थकावट से विश्राम पाने के लिए पैर के तलवे दबाये जाते हैं। जिन्हें रात्रि में स्वप्न आते हैं, उन्हें पैर धोकर सोना चाहिए। श्रावक जब मुनि महाराज की वैयावृत्ति करना चाहता है, तब अनेक मुनि महाराज कहते हैं कि तुम्हें घी, तेल लगाना हो तो मात्र पैर के तलवे में लगा दो वह मस्तिष्क तक आ जाता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि पैरों का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। यदि पैरों में अशुद्धि रहेगी तब मन में भी अशुद्धि रहेगी। अत: मन्दिर जी प्रवेश से पूर्व पैर धोना आवश्यक है। 5. मन्दिर जी में प्रवेश करते समय निस्सहि-निस्सहि-निस्सहि क्यों बोलना चाहिए ? प्रथम कारण तो यह है कि मैं दर्शन करने आ रहा हूँ, अत: वहाँ कोई श्रावक या अदृश्य देव, दर्शन कर रहे हैं, वे मुझे दर्शन करने के लिए स्थान दें। दूसरा कारण यह है कि मैं शरीर पर वस्त्रों के अलावा शेष परिग्रह का निस्सहि अर्थात् निषिद्ध करके या ममत्व छोड़ करके पवित्र स्थान में प्रवेश कर रहा हूँ। तीसरा कारण यह है कि इस जिनालय को नमस्कार हो। 6. मन्दिर जी में घंटा क्यों बजाते हैं ? मन्दिर जी में घंटा बजाने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं - घंटा समवसरण में बजने वाली देव बुंदुभि का प्रतीक है। जैसे ही घंटा बजाते हैं और घंटे के नीचे खड़े हो जाते हैं जिससे उसकी ध्वनि तरंगें एकत्रित हो जाती हैं, जिससे मन में शांति मिलती है एवं मन में अपने आप सात्विक विचार आने लगते हैं। घंटा पिरामिड के आकार का होता है। आज मन को शांत करने के लिए पिरामिड का बहुत प्रयोग किया जा रहा है। अभिषेक करते समय घंटा बजाते हैं जो आस-पास के लोगों को जगाने का कार्य भी करता है कि अभिषेक प्रारम्भ हो गया है। मुझे मन्दिर जी जाना है। अत: घंटा समय का सूचक है। 7. मन्दिर जी में चावल ही क्यों चढ़ाते हैं ? चावल ऊगता नहीं है, धान (छिलका सहित चावल) ऊगता है। अत: आगे हम भी न ऊगे अर्थात् हमारा भी जन्म न हो इसलिए चावल चढ़ाते हैं। 8. प्रदक्षिणा किसकी दी जाती है एवं कितनी दी जाती है ? वीतरागी देव, तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र एवं निग्रंथ गुरु की तीन-तीन प्रदक्षिणा दी जाती हैं। 9. प्रदक्षिणा क्यों देते हैं ? वेदी में विराजमान भगवान समवसरण का प्रतीक है। समवसरण में भगवान के मुख चार दिशाओं में अलग-अलग दिखते हैं। अत: चार दिशाओं में भगवान के दर्शन के उद्देश्य से प्रदक्षिणा (परिक्रमा) देते हैं। तीन रत्नत्रय का प्रतीक है, अत: रत्नत्रय की प्राप्ति हो, इसलिए तीन प्रदक्षिणा देते हैं। 10. प्रदक्षिणा बाई (Left) ओर से क्यों लगाते हैं ? हमारे जो आराध्य हैं, पूज्य हैं, बड़े हैं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से अपने दाहिने (Right) हाथ की ओर रखा जाता है। इसलिए प्रदक्षिणा बाई ओर से लगाते हैं। 11. मन्दिर जी से वापस आते समय अस्सहि-अस्सहि-अस्सहि क्यों बोलते हैं ? अस्सहि का अर्थ है कि अब मैं दर्शन करके वापस जा रहा हूँ देव आदि जिनने दर्शन करने के लिए स्थान दिया था वे अब अपना स्थान ग्रहण कर लें। 12. भगवान के दर्शन करते समय किन-किन भावनाओं को भाना चाहिए ? भगवान के दर्शन करते समय निम्न भावनाओं को भाना चाहिए मैं भी आप जैसा बनूँ। मेरे पाप कर्म शीघ्र नष्ट हों। मुझे मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। संसार के सारे जीव सुखी रहें। संसार के सभी जीव धम्र्यध्यान करें। सारे नरक खाली हो जाएँ, सारे अस्पताल बंद हो जाएँ अर्थात् कोई बीमार ही न पड़े। सारे जेल बंद हो जाएँ अर्थात् कोई ऐसा कार्य न करे जिससे जेल जाना पड़े। ओम् नम: सबसे क्षमा, सबको क्षमा, सभी आत्मा परमात्मा बनें। 13.भगवान के दर्शन करते समय किस प्रकार के भावों का त्याग करना चाहिए ? भगवान के दर्शन करते समय निम्न प्रकार के भावों का त्याग करना चाहिए धन-वैभव, पद आदि की प्राप्ति के भावों का त्याग करना चाहिए। स्त्री, पुत्र, आदि की प्राप्ति के भावों का त्याग करना चाहिए। उसका मरण हो जाए, वह चुनाव में हार जाए, उसकी दुकान नष्ट हो जाए, उसकी नौकरी छूट जाए,वह परीक्षा में फेल हो जाए आदि बुरे भावों का त्याग करना चाहिए। 14. पाषाण या धातु की मूर्ति में पूज्यता कैसे आती है ? पञ्चम काल में भरत और ऐरावत क्षेत्रों में अरिहंत परमेष्ठी नहीं होते हैं। उन अरिहंतों के गुणों की स्थापना पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य अथवा उपाध्याय, साधु परमेष्ठी सूरि मंत्र देकर करते हैं। अत: इससे मूर्ति में पूज्यता आ जाती है। जैसे-178 से.मी. लंबे, 73 से.मी.चौड़े कागज का मूल्य अधिकतम 50 पैसा होगा उसी कागज में गर्वनर (GOVERNOR) के हस्ताक्षर (SIGN) होने से उसका मूल्य 1000 रुपए हो जाता है वैसे ही कम मूल्य की धातु या पाषाण की मूर्ति, सूरि मंत्र पाते ही अमूल्य हो जाती है, अर्थात् पूज्य हो जाती है। 15. मन्दिर जी में कौन-कौन से कार्य नहीं करना चाहिए ? मन्दिर जी में निम्न कार्य नहीं करना चाहिए - देव-शास्त्र-गुरु से ऊँचे स्थान पर नहीं बैठना चाहिए। कोई श्रावक दर्शन कर रहा हो तो उसके सामने से नहीं निकलना चाहिए। पूजन, भजन, मंत्र इतनी जोर से नहीं पढ़ना चाहिए कि दूसरा जो पूजन, भजन, मंत्र कर रहा है वह अपना पाठ ही भूल जाए। नाक, कान, आँख आदि का मैल नहीं निकालना चाहिए। शौच आदि को पहनकर गए हुए वस्त्र पहनकर नहीं जाना चाहिए। अशुद्ध पदार्थ लिपिस्टिक, नेलपालिश, क्रीम, सेन्ट आदि लगाकर नहीं जाना चाहिए। क्रोध, अहंकार नहीं करना चाहिए। किसी को गाली नहीं देना चाहिए। सगाई, विवाह, खाने, पीने आदि की चर्चा नहीं करना चाहिए। दुकान, आफिस, राजनीति आदि की चर्चा नहीं करना चाहिए। जूठे मुख नहीं जाना चाहिए। चमड़े तथा रेशम की वस्तुएँ पहनकर नहीं जाना चाहिए। काले, नीले, लाल, भड़कीले वस्त्र पहनकर नहीं जाना चाहिए। मोबाइल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 16. दर्शन करने से कौन-कौन से लाभ होते हैं ? दर्शन करने से निम्न लाभ होते हैं - सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है, यदि सम्यक् दर्शन है तो वह और दृढ़ होता है। अनेक उपवासों का फल मिलता है। असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। पुण्य का आस्रव होता है। मन के अशुभ भाव नष्ट हो जाते हैं। प्रात:काल दर्शन-पूजन करने से दिन अच्छी तरह व्यतीत होता है। 17. देवदर्शन करने से कितने उपवास का फल मिलता है ? देवदर्शन करने का फल निम्न प्रकार है जिन प्रतिमा के दर्शन का विचार करने से 2 उपवास का दर्शन करने की तैयारी की इच्छा से 3 उपवास का जाने की तैयारी करने से 4 उपवास का घर से जाने लगता उसे 5 उपवास का जो कुछ दूर पहुँच जाता है उसे 12 उपवास का जो बीच में पहुँच जाता है उस 15 उपवास का जो मन्दिर के दर्शन करता है उसे 1 माह के उपवास का जो मन्दिर के अाँगन में प्रवेश करता है उसे 6 माह के उपवासका जो द्वार में प्रवेश करता है उसे 1 वर्ष के उपवासका जो प्रदक्षिणा देता है उसे 1oo वर्ष के उपवास का जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है उसे 1000 वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से अर्थात् निष्कामभाव से स्तुति करता है उसे अनन्त उपवास का फल मिलता है।
  12. सम्यक् दृष्टि की आस्था का केन्द्र मन्दिर है, उसकी तुलना अनेक प्रकार से की गई है। उसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. मन्दिर किसे कहते हैं ? जहाँ जिन प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है, उस स्थान को मन्दिर कहते हैं। 2. मन्दिर किसका प्रतीक है ? मन्दिर - समवसरण, नदी, चिकित्सालय, विद्यालय, जीवन बीमा निगम, टिकट घर, बैंक, धन की फैक्ट्री एवं संचार के साधन का प्रतीक है। समवसरण - जिस प्रकार समवसरण में तीर्थकर का उपदेश प्राप्त होता है ठीक उसी प्रकार मन्दिर जी में जिन प्रतिमा के माध्यम से मौन उपदेश मिलता है, अत: मन्दिर समवसरण का प्रतीक है। नदी - जैसे नदी सबकी प्यास बुझाती है, चाहे गरीब हो या अमीर, पापी हो या पुण्यात्मा, हिंसक हो या अहिंसक सभी को भेदभाव से रहित होकर शांति प्रदान करती है। ऐसे ही संसार में भटकते हुए प्राणियों के लिए जिनमंदिर गरीब-अमीर, पापी-पुण्यात्मा के भेदभाव से रहित जन्म-जन्म के शारीरिक-मानसिक तपन को मिटा देता है। चिकित्सालय - जब मानव बीमार होता है तब डॉक्टर के यहाँ जाता है। डॉक्टर रोग को ठीक करना चाहता है। कुछ रोग तो ठीक हो जाते हैं , किन्तु कुछ रोग ठीक नहीं हो पाते और रोगी का अवसान हो जाता है, किन्तु मन्दिर के माध्यम से ऐसे रोग ठीक होते हैं, जो कहीं पर भी ठीक नहीं हो सकते हैं। वे रोग हैं-जन्म, जरा, मृत्यु। मन्दिर रोग के मूल स्रोत जन्म, जरा, मृत्यु को नष्ट कर देता है, फिर ये बाहरी रोग तो होते ही नहीं हैं। विद्यालय - जैसे-आप अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल, कॉलेज आदि भेजते हैं कि मेरा बेटा पढ़कर एम.बी.ए, इंजीनियर, डॉक्टर आदि की डिग्री प्राप्त कर ले। उसी प्रकार संस्कृति-संस्कार को जीवित रखने के लिए मन्दिर में पाठशाला रहती है, जहाँ पर आत्मा को परमात्मा बनाने की विधि सिखाई जाती है। लौकिक डिग्री तो एक भव के लिए रहती है किन्तु पाठशाला से प्राप्त ज्ञान परम्परा से केवलज्ञान की डिग्री को प्राप्त करा देता है, जो डिग्री अनंत भवों के लिए हो जाती है। जीवन बीमा निगम - एक किस्त भरने के बाद किसी का मरण हो जाता है, तब वह धन (जितने का बीमा था उतना) परिवार वालों को मिल जाता है, किसी वस्तु का बीमा भी होता है। एक किस्त (Policy) जमा करने के बाद वह वस्तु नष्ट हो जाती है तो नई वस्तु मिल जाती है। उसी प्रकार देवदर्शन करने से एक बार भी सम्यकदर्शन प्राप्त हो गया है और शरीर नष्ट भी हो जाता है तो नया वैक्रियिक (देव का) शरीर प्राप्त हो जाता है। जिससे अर्धपुद्गल परावर्तन के अन्दर ही परम औदारिक शरीर को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। टिकट घर - टिकट लेकर विश्व का भ्रमण कर सकते हैं। वैसे ही सम्यक्त्व रूपी टिकट से केवलज्ञान को प्राप्त कर बैठे-बैठे ही तीन लोक की यात्रा हो जाती है। बैंक - बैंक में धन जमा करने से वह पाँच वर्ष में दूना होता है। किन्तु मन्दिर (दान) में जमा करने से वह वटवृक्ष के समान सहस्र गुना हो जाता है। कुछ बैंक तो रातों रात फेल हो जाते हैं। किन्तु यह बैंक कभी भी फेल नहीं होता है। धन की फैक्ट्री - जिन्हें मन्दिर के दर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि के धार्मिक संस्कार नहीं रहते हैं, वे दिन भर दुकान, फैक्ट्री में धन कमाते हैं और रात्रि में सीधे मधुशाला या क्लब जाते हैं, वहाँ जाकर धन और चारित्र दोनों को नष्ट कर देते हैं और जिन्हें मन्दिर के दर्शन, पूजन, स्वाध्याय के धार्मिक संस्कार रहते हैं। वे भी दिन भर दुकान, फैक्ट्री में धन कमाते हैं और रात्रि में सीधे घर आते हैं, जिससे घर में धन की वृद्धि होती है, अत: मन्दिर धन की फैक्ट्री है। संचार के साधन - जिस प्रकार संचार के साधनों से देश-विदेश के समाचार ज्ञात हो जाते हैं। उसी प्रकार मन्दिर में रखे शास्त्रों से तीन लोक का ज्ञान प्राप्त होता है और मन्दिरजी में अनेक स्थानों की पत्रिकाओं के माध्यम से ज्ञात हो जाता है, कौन से महाराज किस नगर में हैं एवं किस नगर में कौन-सा धार्मिक कार्य हो रहा है। 3. भगवान को वेदी पर विराजमान क्यों करते हैं ? समवसरण में तीन पीठ के ऊपर गंधकुटी होती है। गंधकुटी वह स्थान है, जहाँ पर तीर्थकर का सिंहासन होता है। जिस पर तीर्थकर चार अज़ुल ऊपर अधर में विराजमान रहते हैं। अतः वेदी भी समवसरण की तीन पीठ का प्रतीक है, इसी कारण से भगवान को वेदी में विराजमान करते हैं। 4. तीर्थकर की प्रतिमा के ऊपर कितने छत्र लगते हैं और क्यों ? तीर्थकर की प्रतिमा के ऊपर तीन छत्र लगते हैं, क्योंकि तीर्थकर भगवान तीन लोक के स्वामी हैं। नीचे बड़ा छत्र, बीच में उससे छोटा छत्र एवं सबसे ऊपर सबसे छोटा छत्र रहता है, क्योंकि अधोलोक के अंत में लोक की चौड़ाई 7 राजू, ब्रह्मस्वर्ग में लोक की चौड़ाई 5 राजू एवं लोक के शीर्ष में चौड़ाई 1 राजू है। 5. तीर्थकर की प्रतिमा के दोनों तरफ चँवर क्यों लगाते हैं ? समवसरण में 64 चँवर दुराए जाते हैं। इसलिए तीर्थकर की प्रतिमा के दोनों तरफ एक-एक या दो-दो चँवर प्रतीक रूप लगाए जाते हैं। 6. तीर्थकर की प्रतिमा के पीछे भामण्डल क्यों लगाते हैं ? समवसरण में तीर्थकर भगवान के मस्तक के चारों ओर आभामण्डल रहता है, जिसमें प्रत्येक जीव को 3 पूर्व के,1 वर्तमान का और 3 भविष्य के कुल 7 भव दिखाई देते हैं। उसी दृष्टि को सामने रखकर तीर्थकर की प्रतिमा के पीछे भामण्डल लगाते हैं। 7. मन्दिर में शिखर क्यों बनाते हैं ? जो वस्तु विशेष होती है, उसे विशेष रूप से व्यक्त किया जाता है। मकान सामान्य होता है एवं मन्दिर विशेष। मकान और मन्दिर में अंतर दिखाने के लिए शिखर बनाए जाते हैं। शिखर का आकार पिरामिड के समान होता है, जिससे ध्वनि तरंगें एकत्रित होती हैं, जिससे स्वभावत: मन में शांति मिलती है एवं सात्विक विचार उत्पन्न होने लगते हैं। मन्दिर का उतुंग शिखर देखने से मनुष्यों का मान खण्डित होता है। जिस स्थान पर भगवान विराजमान होते हैं, उसके ऊपर किसी का पैर न पड़े। शिखर के कारण जिनमन्दिर का ज्ञान दूर से ही हो जाता है। 8. मन्दिर के शिखर पर कलश क्यों चढ़ाते हैं ? कलश के बिना मन्दिर अधूरा माना जाता है उसके बिना मंदिर की शोभा नहीं बनती, इसी कारण से कलश चढ़ाते हैं। 9. मन्दिर के शिखर पर कलश के ऊपर ध्वजा क्यों फहराते हैं ? यदि मन्दिर के शिखर पर कलश के ऊपर ध्वजा न फहराई जाए तो मन्दिर में राक्षस देवों का आवास हो जाता है, इसलिए ध्वजा फहराते हैं। जिस प्रकार देश की पहचान ध्वज से होती है, उसी प्रकार अपने आयतनों की पहचान धर्म ध्वज के माध्यम से होती है। 10. मन्दिर के बाहर मानस्तम्भ क्यों बनाते हैं ? समवसरण के बाहरी भाग में चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तम्भ होता है। जिसे देखकर मानी व्यक्ति का मान गलित हो जाता है। उसी दृष्टि को सामने रखकर मन्दिर के सामने एक ही दिशा में एक मानस्तम्भ बनाया जाता है, जिसमें अरिहंत परमेष्ठी की मूर्ति चारों दिशाओं में एक-एक रहती है। 11. मन्दिर एवं चैत्यालय में क्या अंतर है ? दोनों का शाब्दिक अर्थ एक ही है। जिन प्रतिमाओं के स्थापना के स्थान को मन्दिर या चैत्यालय कहते हैं। किन्तु वर्तमान में शिखर सहित देवालय को मन्दिर एवं शिखर रहित देवालय को चैत्यालय कहते हैं।
  13. जीत सको तो, किसी का दिल जीतो, सो, वैर न हो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  14. एक दिशा में, सूर्य उगे कि दशों-, दिशाएँ ख़ुश। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  15. चालक नहीं, गाड़ी दिखती, मैं न, साड़ी दिखती। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  16. हम से कोई, दु:खी नहीं हो, बस !, यही सेवा है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  17. धन आता दो, कूप साफ़ कर दो, नया पानी लो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  18. अँधेरे में हो, किंकर्त्तव्य मूढ़ सो, कर्त्तव्य जीवी। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  19. संकट से भी, धर्म-संकट और, विकट होता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. अति मात्रा में, पथ्य भी कुपथ्य हो, मात्रा माँ सी हो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. निर्भय बनो, पै निर्भीक होने का, गर्व न पालो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. अकेला न हूँ, गुरुदेव साथ हैं, हैं आत्मसात् वे। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. घर की बात, घर तक ही रहे।, बे-घर न हो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. बँटा समाज, पंथ-जाति-वाद में, धर्म बाद में हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  25. ज्ञानी ज्ञान को, कब जानता जब, आपे में होता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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