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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. दूध पे घी है, घी से दूध न दबा, घी लघु बना। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. बिना विवाह, प्रवाहित हुआ क्या, धर्म-प्रवाह। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. एक ऐसी भारतीय हस्ती जिसकी पहचान शिक्षा, व्यवसाय, प्रबंध तथा सलाह के क्षेत्र में पूरे विश्व में है। जिसे दुनिया के पचास जाने-माने शिक्षा संस्थानों ने शैक्षणिक विशेषज्ञता प्रदान करने के लिए आमंत्रित किया है। आप अनेक अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के डॉयरेक्टर, प्रशिक्षक, सलाहकार हैं। आपके विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में 67 शोध आलेख प्रस्तुत हुए हैं। आप विश्व की 21 संस्थानों के मानद् सदस्य हैं तथा आप भारत की रिलायंस इंडस्ट्री में स्वतंत्र डॉयरेक्टर हैं सादगी, सरलता और धार्मिक आचरण के साक्षात जीवंत व्यक्तित्व वाले श्री दीपकचंद जी जैन (अमेरिका निवासी) को जब पिछले दिनों योगीश्वर, जगउपकारी विद्यासागरजी महा मुनिराज का परिचय मिला, तो आपके अंतर्मन मन से दर्शन हेतु भाव हुए। इसमें अनायास ही अर्पित पाटोदी (इंदौर) निमित्त बन गए। विविध क्षेत्रों में पहचान बना चुके अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दीपकचंद जी ने ज़रा भी देर किए बिना रविवार 15 अक्टूबर 2017 को रामटेक, जहाँ आचार्य महाराज विराजमान हैं, वहाँ पहुंच गए। अर्पित पाटोदी ने एक दिन पहले पहुंचकर आचार्यश्री जी को आपकी विशेषज्ञता का परिचय बता दिया था। गुरुवर आचार्यश्री जी को आपने अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में चल रही शैक्षणिक विशेषताओं की जानकारियों से अवगत कराया। आचार्यश्री जी ने प्रतिभा-स्थली और देश में चल रही शिक्षा, शिक्षा का माध्यम, भारतीय संस्कृति और हस्तकरघा विषय पर चर्चा की। जो लगभग सवा घंटे तक चली। आपने आचार्यश्री जी के पहली बार साक्षात दर्शन किए। उनसे लंबी चर्चा का अवसर मिला। इस अविस्मरणीय अनुभूति को अपने मन में संजो लिया। बाद में आपने प्रतिभास्थली की प्रमुख दीदीयों से प्रतिभास्थली में चल रही गतिविधियों पर विस्तार से जानकारी प्राप्त की तथा अपना बहुमूल्य मार्गदर्शन दिया।
  4. जिन्हें किसी ने बनाया नहीं ऐसे अकृत्रिम चैत्यालय कहाँ-कहाँ पर हैं, कितने हैं उनकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई आदि कितनी है, इसका वर्णन इस अध्याय में है। अनन्तानन्त अलोकाकाश के मध्य भाग में पुरुषाकार लोकाकाश है। इसके तीन भेद हैं - अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक। अधोलोक - अधोलोक में भवनवासी देव भी निवास करते हैं। वहाँ प्रत्येक भवन में जिन चैत्यालय हैं, कुल चैत्यालय सात करोड़ बहत्तर लाख हैं। प्रत्येक जिनमंदिर में 108, 108 प्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार कुल 8,33,76,00,000 प्रतिमाएँ हैं। (त्रिसा, 208) मध्यलोक - मध्यलोक में 458 चैत्यालय हैं। मेरु में 16 х 5 = 80 गजदंत में 4 x 5 = 20 जम्बू-शाल्मली वृक्ष में 2 x 5 = 10 (जम्बू के उत्तर कुरु में जम्बू वृक्ष, धातकी के उत्तर कुरु में धातकी वृक्ष एवं पुष्कर के उत्तर कुरु में पुष्कर नाम के वृक्ष हैं।) कुलाचल 6 x 5 = 30 वक्षार गिरि 16 x5 = 8O विजयार्ध 34 x 5 = 170 इष्वाकार पर्वत-धातकीखण्ड में 2 एवं पुष्करार्ध में 2 हैं। 2 X 2 = 4 मानुषोत्तर पर्वत पर 4 नंदीश्वर द्वीप में 52 कुण्डलवर पर्वत पर 4 रुचिकवर पर्वत पर 4 458 (त्रि.सा., 561) प्रत्येक जिन मंदिर में 108-108 प्रतिमाएँ हैं। 458 ×108= 49,464 कुल प्रतिमाएँ हैं। जिनको मेरा मन, वचन, काय से बारम्बार नमस्कार हो। ज्योतिषी - ज्योतिषी देवों के असंख्यात विमानों में असंख्यात अकृत्रिम चैत्यालय हैं। (त्रि.सा. 302) व्यन्तर - व्यन्तर देवों के असंख्यात निवास स्थानों में असंख्यात अकृत्रिम चैत्यालय हैं। (त्रि सा., 250) ऊध्र्वलोक - सोलह स्वर्गों में 84, 96, 700 अकृत्रिम चैत्यालय एवं कल्पातीत विमानों में 323 अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इस प्रकार ऊध्र्वलोक में कुल 84,97,023 अकृत्रिम चैत्यालय हैं। प्रत्येक में 108-108 प्रतिमाएँ हैं। इन सबको मेरा मन, वचन और काय से बारम्बार नमस्कार हो। (त्रिसा, 451) 1. अकृत्रिम चैत्यालयों एवं प्रतिमाओं का कुल योग कितना है ? कहाँ चैत्यालय प्रतिमाएँ भवनवासी 7,72,00,000x108 = 8, 33, 76, 00, 000 मध्यलोक 458x108 = 49, 464 स्वर्ग तथा अहमिंद्र में 84,97, 023 x 108 = 91, 76, 78, 484 कुल योग 8,56,97, 481 x 108 = 9, 25, 53, 27,948 कहा भी है - नवकोडिसया पणवीसा, लक्खा तेवण्ण सहस्स सगवीसा। नव सय तह अडयाला जिणपडिमाकिट्टिमां वंदे॥ नौ सौ पच्चीस करोड़ त्रेपन लाख सताईस हजार नौ सौ अड़तालीस हैं। इन समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की मैं वंदना करता हूँ। 2. अकृत्रिम चैत्यालयों का मुख किस दिशा में है ? अकृत्रिम चैत्यालयों का मुख पूर्व दिशा में है। विशेष - अष्ट प्रातिहार्यों सहित अरिहंत प्रतिमा। अष्ट प्रातिहार्यों से रहित सिद्ध प्रतिमा ॥(त्रि.सा. 1002) 3. अकृत्रिम चैत्यालयों की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई कितनी है ? इन अकृत्रिम चैत्यालयों की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई निम्नलिखित है लम्बाई चौड़ाई ऊँचाई उत्कृष्ट 100 योजन 50 योजन 75 योजन मध्यम 50 योजन 25 योजन 37 1/2 योजन जघन्य 25 योजन 12 1/2 योजन 18 3/4 योजन 4. अकृत्रिम चैत्यालयों के द्वार की ऊँचाई व चौड़ाई कितनी है ? ऊँचाई चौड़ाई उत्कृष्ट 16 योजन 8 योजन मध्यम 8 योजन 4 योजन जघन्य 4 योजन 2 योजन नोट- छोटे द्वारों की लम्बाई 8 योजन, चौड़ाई 4 योजन, ऊँचाई 2 योजन है। (त्रि.सा., 978) 5. अकृत्रिम चैत्यालयों की नींव कितनी है ? उत्कृष्ट 2 कोस, मध्यम 1 कोस, जघन्य /कोस। 6. कौन-कौन से अकृत्रिम चैत्यालय उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई वाले हैं ? भद्रशालवन, नन्दनवन, नन्दीश्वरद्वीप और वैमानिक देवों के विमानों में जो जिनालय हैं वे उत्कृष्ट ऊँचाई आदि वाले हैं तथा सौमनसवन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार पर्वत, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं उनकी ऊँचाई आदि मध्यम एवं पाण्डुक वन स्थित जो जिनालय हैं, उनकी ऊँचाई आदि जघन्य है। (त्रिसा, 979-980) 7. जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत तथा जम्बू, शाल्मली वृक्षों के चैत्यालय की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई कितनी है ? लम्बाई 1 कोस, चौडाई 1/2 कोस व ऊँचाई 3/4कोस। (सि.सा.दी. 6/103) 8. धातकीखण्ड व पुष्करार्ध के विजयार्ध तथा वृक्षों के चैत्यालय की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई कितनी है ? लम्बाई 2 कोस, चौडाई 1 कोस व ऊँचाई 1 1/2कोस। (जै. सि.को.,2/304)
  5. अन्तिम गति देवगति है। देवों की विशेषताएँ, उनके भेद, प्रभेद, उनकी आयु, ऊँचाई, उनकी आठ ऋद्धियों के नाम एवं सुख-दु:ख आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. देव किसे कहते हैं ? आभ्यन्तर कारण देवगति नाम कर्म का उदय होने पर जो नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। जो दिव्य भाव-युक्त अणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहलाते हैं। दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । (स.सि., 4/1/443) 2. देवगति किसे कहते हैं ? जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा देव भाव को प्राप्त होता है, वह देवगति है। 3. देव कितने प्रकार के होते हैं ? देव चार प्रकार के होते हैं - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक। 4. देवों की कौन-कौन-सी विशेषताएँ हैं ? देवों की निम्न विशेषताएँ हैं देवों का आहार (अमृत का) तो होता है, किन्तु नीहार (मल-मूत्र), पसीना एवं सप्तधातुएँ नहीं होती हैं। देवों के शरीर में बाल नहीं होते हैं एवं उनके शरीर में निगोदिया जीव भी नहीं होते हैं एवं शरीर वैक्रियिक होता है। देवों के शरीर की परछाई नहीं पड़ती है एवं पलकें भी नहीं झपकती हैं। समचतुरस्र संस्थान ही होता है किन्तु संहनन कोई भी नहीं होता है। देवों का अकालमरण नहीं होता है। देवों का जन्म उपपाद शय्या पर होता है एवं अन्तर्मुहूर्त में छ: पर्याप्तियाँ पूर्ण कर 16वर्षीय नवयुवक के समान हो जाते हैं एवं इनका बुढ़ापा भी नहीं आता है। (त्रि.सा. 550) सम्यक् दृष्टि देव स्वर्गों में प्रतिदिन अभिषेक-पूजन करते हैं एवं सीनियर (पुराने) देवों के कहने से मिथ्यादृष्टि देव भी जिनेन्द्र भगवान् की कुलदेवता मानकर अभिषेक-पूजन करते हैं। (त्रिसा,551-553) एक देव की कम-से-कम 32 देवियाँ होती हैं। चार निकाय के देव तीर्थंकरो के पञ्चकल्याणकों में आते हैं किन्तु सोलहवें स्वर्ग के ऊपर वाले अहमिन्द्र देव वहीं से नमस्कार करते हैं एवं पज्चम स्वर्ग के लोकान्तिक देव मात्र तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक में वैरागी तीर्थंकर के वैराग्य की प्रशंसा करने के लिए आते हैं। (त्रिसा,554) देवों को रोग नहीं होते हैं। देवों में स्त्री और पुरुष दो वेद होते हैं। देवों को सभी भोग सामग्री, सोचते ही, दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती है। (ज्ञा.36/175) 5. नख, केश (बाल) के बिना देव कैसे लगते होंगे ? देवों के शरीर में नख व केश नहीं होते हैं तथापि उनका स्वरूप बीभत्स, भयावह, ग्लानि उत्पन्न करने वाला नहीं है तथापि नख व केश का आकार होता है। जैसे-स्वर्ण या पाषाण की प्रतिमा में नख व केश का आकार होता है वैसे ही देवों में होता है। (मू.1056) 6. देवों में आठ गुणों (ऋद्धियों) का स्वरूप बताइए? देवों की आठ ऋद्धियाँ निम्न हैं अणिमा - अपने शरीर को अणु के बराबर छोटा करने की शक्ति है जिससे वह सुई के छेद में से भी निकल सकता है। महिमा - अपने शरीर को सुमेरु के समान बड़ा करने की शक्ति होती है। लघिमा - अपने शरीर को बिल्कुल हल्का बना लेना, जिससे मकड़ी के जाल पर भी पैर रखे तो वह भी न टूटे। गरिमा - सुमेरु पर्वत से भी भारी शरीर बना लेना जिसे हजारों व्यक्ति भी मिलकर न उठा सकें। प्राप्ति - एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना जैसे-यहाँ बैठे-बैठे ही शिखरजी की टोंक का स्पर्श कर लेना। प्राकाम्य - जल के समान पृथ्वी में और पृथ्वी के समान जल पर गमन करना। ईशत्व - जिससे सब जगत् पर प्रभुत्व होता है। कामरूपित्व - जिससे युगपत् बहुत से रूपों को रचता है, वह कामरूपित्व ऋद्धि है। (क.अ.टी.370) 7. भवनवासी देव किन्हें कहते हैं ? जो भवनों में रहते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं। 8. भवनवासी देवों के नाम में कुमार शब्द क्यों जुड़ा है ? इनकी वेशभूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है, इसलिए कुमार शब्द जुड़ा है। (स.सि. 4/10/461) 9. भवनवासी देवों के कितने भेद हैं एवं उनके मुकुट पर चिह्न, आहार का अंतराल, श्वासोच्छास का अन्तराल, अवगाहना एवं आयु कितनी है ? देवों के नाम मुकुट पर चिंह आहार का अन्तराल श्वासोच्छवास का अन्तराल आयु उत्कष्ट आयु जघन्य अवगाहना असुरकुमार चूड़ामणि 1000 वर्ष 15 दिन 1 सागर सर्वत्र 10,000 वर्ष 25 धनुष नागकुमार सर्प 12.5 दिन 12.5 मुहूर्त 3 पल्य 10 धनुष सुपर्णकुमार गरुड़ 12.5 दिन 12.5 मुहूर्त 2.5 पल्य 10 धनुष द्वीपकुमार हाथी 12.5 दिन 12.5 मुहूर्त 2 पल्य 10 धनुष उदधिकुमार मगर 12 दिन 12 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष स्तनतकुमार स्वस्तिक 12 दिन 12 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष विद्युतकुमार वज्र 12 दिन 12 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष दिक्कुमार सिंह 7.5 दिन 7.5 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष अग्निकुमार कलश 7.5 दिन 7.5 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष वायुकुमार तुरंग 7.5 दिन 7.5 मुहूर्त 1.5 पल्य 10 धनुष नोट - 1 पल्य आयु वाले देव 5 दिन के अंतराल से आहार एवं श्वासोच्छास 5 मुहूर्त में ग्रहण करते हैं एवं 10,000 वर्ष आयु वाले देव 2 दिन के अंतराल से आहार एवं यहाँ 7 श्वासोच्छास लेने पर वहाँ एक श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं। 10. व्यंतर देव किन्हें कहते हैं ? ‘यत्र तत्र विचरन्तीति व्यन्तरा:” जो पहाड़, गुफा, द्वीपसमुद्र, ग्राम, नगर, देवालय आदि में विचरण करते रहते हैं, वे व्यंतर कहलाते हैं। 11. व्यतंर देवों के निवास स्थान कितने प्रकार के हैं ? भवन - चित्रा पृथ्वी के नीचे स्थित हैं। भवनपुर - द्वीप और समुद्रों में। आकस - तालाब, वृक्ष, पर्वत, आदि के ऊपर। (त्रि.सा. 295) 12. व्यन्तर देवों के कितने भेद हैं एवं उनके आहार, श्वासोच्छास का अंतराल कितना है एवं आयु और अवगाहना कितनी है ? व्यन्तरों के आठ भेद हैं-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच (ति. प., 6/25)। व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य एवं जघन्य आयु 10,000 वर्ष (तिप, 6/83)। अवगाहना 10 धनुष (ति.प.,6/98)एक पल्य आयु वाले देवों का आहार अंतराल 5 दिन एवं श्वासोच्छास 5 मुहूर्त (तिप,6/88-89)। 10,000 वर्ष आयु वाले देवों का आहार अंतराल 2 दिन एवं श्वासोच्छास का अंतर सात श्वासोच्छास। 13. ज्योतिषी देव किन्हें कहते हैं ? ज्योतिषी देव ज्योतिर्मय होते हैं, इसलिए इनकी ज्योतिषी संज्ञा सार्थक है। ये पाँच प्रकार के होते हैं- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारे। (त.सू,4/12) 14. ज्योतिषी देवों की आयु,अवगाहना कितनी है, आहार एवं श्वासोच्छास का अंतराल कितना है ? चन्द्र की उत्कृष्ट आयु1 लाख वर्ष अधिक 1 पल्य, सूर्य की 1000 वर्ष अधिक 1 पल्य, शुक्र की 100 वर्ष अधिक 1 पल्य, गुरु की 1 पल्य, शेष ग्रहों एवं नक्षत्रों की / पल्य है, ताराओं की / पल्य है। तारा और नक्षत्रों की जघन्य आयु / पल्य है शेष सूर्य,चन्द्रमा, सोम, मगल,बुध,गुरु शुक्र और शनि इनकी जघन्य आयु / पल्य है एवं अवगाहना सभी की 7 धनुष है। इनके आहार, श्वासोच्छास का अंतराल भवनवासी देवों के समान है। (रावा, 4/40-41) ज्योतिषी देवों का विशेष वर्णन जैन भूगोल अध्याय में है। 15. भवनत्रिक में उत्पति के क्या कारण हैं ? आदि के तीन निकाय (समूह)को भवनत्रिक कहते हैं। इसमें उत्पति के कारण ये हैं - जिनमत से विपरीत आचरण, निदान पूर्वक तप, अग्नि, जल आदि में मरण, अकामनिर्जरा, पञ्चाग्नि आदि तप और सदोष चारित्र को धारण करने वाले जीव भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। (त्रिसा, 450) 16. वैमानिक देव किन्हें कहते हैं ? ‘विगत: मान: इति विमान:' जिनका मान कम है, वे वैमानिक हैं क्योंकि व्यन्तर आदि अधिक मान वाले हैं और ऊपर-ऊपर देवों में मान कम होता है इससे कम मान वाले भी वैमानिक हैं। ‘विमानेषु भवा वैमानिका:” जो विमानों में रहते हैं, वे वैमानिक हैं। (स सि,4/16/473) 17. वैमानिक देवों के भेद कितने व कौन से हैं ? वैमानिक देवों के दो भेद हैं। कल्पोपपन्न और कल्पातीत। जहाँ दस प्रकार के इन्द्र सामानिक आदि की कल्पना होती है, उन 16 स्वर्गों को ‘कल्प' कहते हैं। ये कल्पोपपन्न देव कहलाते हैं। इसके ऊपर वाले, जहाँ दस प्रकार के इन्द्र आदि की कल्पना नहीं है, वे कल्पातीत कहलाते हैं। नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश एवं पञ्च अनुतर में रहने वाले देव कल्पातीत हैं। 18. कल्पवासी देव की आयु व अवगाहना कितनी है ? कल्पवासी देव उत्कृष्ट आयु जघन्य आयु अवगाहना सौधर्म—ऐशान 2 सागर से कुछ अधिक 1 पल्य से कुछ अधिक 7 हाथ सानत्कुमार-माहेन्द्र 7 सागर से कुछ अधिक 2 सागर से कुछ अधिक 6 हाथ ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर 10सागर से कुछ अधिक 7 सागर से कुछ अधिक 5 हाथ लान्तव-कापिष्ठ 14सागर से कुछ अधिक 10सागर से कुछ अधिक 5 हाथ शुक्र-महाशुक्र 16सागर से कुछ अधिक 14सागर से कुछ अधिक 4 हाथ शतार-सहस्रार 18सागर से कुछ अधिक 16सागर से कुछ अधिक 4 हाथ अन्नत-प्रणात 20सागर से अधिक नहीं 18सागर से अधिक नहीं 3.5 हाथ आरण-अच्युत 22सागर से अधिक नहीं 20सागर से अधिक नहीं 3 हाथ 19. कल्पातीत देवों की आयु व अवगाहना कितनी है ? कल्पातीत देव उत्कृष्ट आयु जघन्य आयु अवगाहना ग्रैवेयकों (अधो)में क्रमशः 23, 24, 25 सागर 22, 23, 24 सागर 2.5 हाथ मध्यम ग्रैवेयकों मे क्रमशः 26, 27, 28 सागर 25, 26, 27 सागर 2 हाथ उपरिम ग्रैवेयकों में क्रमशः 29, 30, 31 सागर 28, 29, 30 सागर 1.5 हाथ नव अनुदिशों में अनुतरों में 32 सागर 31 सागर 1.5 हाथ चार अनुतरों में 33 सागर 32 सागर 1 हाथ सर्वार्थसिद्धि में 33 सागर 33 सागर 1 हाथ विशेषः-अनुदिशों में अवगाहना 1.25 हाथ (सि.सा.दी. 15/257) 20. साधिक आयु (कुछ अधिक) का अर्थ क्या है, यह कौन से स्वर्ग तक लेते हैं ? किसी जीव ने संयम अवस्था में उपरिम स्वर्गों की देवायु का बंध किया, पश्चात् संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और अपवर्तनाघात अर्थात् बध्यमान आयु का घात कर अधस्तन स्वर्गों या भवनत्रिक में उत्पन्न होता है, उसे घातायुष्क कहते हैं। घातायुष्क सम्यक दृष्टि को अपने-अपने विमानों की आयु से अन्तर्मुहूर्त कम / सागर अधिक आयु मिलती है और वह मिथ्यादृष्टि हो गया तो उसे उस आयु से पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक मिलेगी। घातायुष्क बारहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। (धपुवि, 4/385) 21. कल्पवासी और कल्पातीत देवों में आहार और श्वासोच्छास कब होता है ? जितने सागर की आयु वाले देव होते हैं, उतने हजार वर्ष के बाद आहार ग्रहण करते हैं एवं उतने पक्ष (15 दिन) के बाद श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं। जैसे - 7 सागर किसी देव की आयु है, वह 7000 वर्ष बाद आहार एवं 7 पक्ष अर्थात् 3.5 माह बाद श्वासोच्छास ग्रहण करते हैं। (त्रिसा, 544) 22. देव आहार में क्या लेते हैं ? देवों में मानसिक आहार होता है अर्थात् उनके मन में आहार की इच्छा होते ही कण्ठ में अमृत झर जाता है और तृप्ति हो जाती है। (ति.प., 6/87) 23. चार प्रकार के देवों में विशेष भेद कितने होते हैं ? चार प्रकार के देवों में ये दस भेद होते हैं इन्द्र - जो दूसरे देवों में न पाई जाने वाली अणिमा आदि ऋद्धि रूप ऐश्वर्य वाला हो,जिनकी आज्ञा चलती हो, वह इन्द्र कहलाता है। सामानिक - आज्ञा और ऐश्वर्य के अलावा जो स्थान, आयु, वीर्य, परिवार, भोग और उपभोग आदि में इन्द्र के समान हों, वे सामानिक कहलाते हैं। ये पिता, गुरु और उपाध्याय के समान होते हैं। त्रायस्त्रिश - जो मंत्री और पुरोहित के समान इन्द्र को सम्मति देते हैं। ये सभा में 33 ही होते हैं। इससे त्रायस्त्रिश कहलाते हैं। पारिषद - जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते हैं, वे पारिषद कहलाते हैं। आत्मरक्ष - जो अंग रक्षक के समान होते हैं, वे आत्मरक्ष कहलाते हैं। लोकपाल - जो देव कोतवाल के समान होते हैं, वे लोकपाल कहलाते हैं। अनीक - जैसे - यहाँ सेना है, उसी प्रकार सात तरह के पैदल, घोड़ा, बैल, रथ, हाथी, गन्धर्व और नर्तकी रूप सेना ये देव अनीक कहलाते हैं। प्रकीर्णक - जो गाँव और शहरों में रहने वाली प्रजा के समान हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। आभियोग्य - जो देव दास के समान वाहन (हाथी, घोड़ा) आदि कार्य में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें आभियोग्य कहते हैं। किल्विषिक - जो इन्द्र की सभा में नहीं आ सकते, बाहर द्वार पर बैठते हैं, उन्हें किल्विषिक कहते हैं। (स.सि., 4/4/449) नोट - व्यंतर और ज्योतिषियों में त्रायस्त्रिश और लोकपाल नहीं होते हैं। (तसू,4/5) 24. देवियों की उत्कृष्ट आयु कितनी होती है ? 16 स्वर्गो में क्रमशः 5,7,9,11,13,15,17,19,21,23, 25,27,34,41,48 एवं 55 पल्य है। प्रथम स्वर्ग में 5 पल्य है, 12 वें स्वर्ग तक 2-2 पल्य बढ़ाना है, इसके उपरांत 7-7 पल्य बढ़ाना है। 25. देवियों की जघन्य आयु कितनी होती है ? सौधर्म - ऐशान स्वर्ग की देवियों की जघन्य आयु कुछ अधिक 1 पल्य है। शेष स्वर्गों की देवियों की उत्कृष्ट आयु, आगे - आगे के स्वर्गों की देवियों की जघन्य आयु है। जैसे - ऐशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु 7 पल्य है वही सानत्कुमार स्वर्ग की देवियों की जघन्य आयु है। (त्रिसा, 542) 26. देवियाँ कौन से स्वर्ग तक उत्पन्न होती हैं ? देवियाँ दूसरे स्वर्ग तक ही उत्पन्न होती हैं। वहाँ भी रहती हैं एवं उन स्वर्गों में उत्पन्न हुई देवियों को उनके नियोगी देव, देवियों के चिह्न अवधिज्ञान से जानकर, अपनी - अपनी देवियों को अपने-अपने स्वर्ग में ले जाते हैं। प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न देवियाँ3, 5, 7, 9, 11, 13 एवं 15 वें स्वर्ग तक जाती हैं। दूसरे स्वर्ग में उत्पन्न देवियाँ 4, 6, 8, 10, 12, 14 एवं 16 वें स्वर्ग तक जाती हैं। (त्रि.सा., 524-525) 27. सोलह स्वर्गों में कितने इन्द्र होते हैं ? सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र होते हैं। कल्प दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र सौधर्म-ऐशान कल्प में सौधर्म इन्द्र ऐशान इन्द्र सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में सानत्कुमार इन्द्र माहेन्द्र इन्द्र ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्प में ब्रह्म इन्द्र - लान्तव-कापिष्ठ कल्प में लान्तव इन्द्र - शुक्र-महाशुक्र कल्प में शुक्र इन्द्र - शतार-सहस्रार कल्प में शतार इन्द्र - आनत-प्राणत कल्प में आनत इन्द्र प्राणत इन्द्र आरण-अच्युत कल्प में आरण इन्द्र अच्युत इन्द्र 28. एक भवावतारी जीव कौन-कौन से होते हैं ? सौधर्म इन्द्र,सौधर्म इन्द्र की शची, उसी के सोमादि चार लोकपाल (पूर्वादि दिशाओों में क्रमशः सोम, यम, वरुण और धनद (कुबेर) होते हैं), सानत्कुमारादि दक्षिणेन्द्र, लौकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धि विमान के देव एक भवावतारी होते हैं। (त्रिसा, 548) 29. लौकान्तिक देव कौन हैं एवं कहाँ रहते हैं ? पाँचवें ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग के अंत में रहने वाले देव लौकान्तिक देव हैं। ये एक भवावतारी होते हैं। इनके लोक (संसार) का अन्त आ गया है, इसलिए इन्हें लौकान्तिक कहते हैं। ये विषयों से रहित होते हैं, अत: इन्हें देवर्षि भी कहते हैं। ये द्वादशांग के पाठी होते हैं, मात्र तिर्थंकरो के तपकल्याणक में उनके वैराग्य की प्रशंसा करने आते हैं। इनकी शुक्ल लेश्या होती है। जघन्य एवं उत्कृष्ट आयु आठ सागर की होती है। (स.सि., 4/24-25, 42/489, 491, 525) 30. लौकान्तिक देवों के कितने भेद हैं ? लौकान्तिक देवों के 8 भेद हैं-सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट। 31. लौकान्तिक देव कौन बनते हैं ? सतत् बारह भावनाओं का चिन्तन करने वाले सम्यकद्रष्टि मुनि लौकान्तिक देव बनते हैं तथा श्रावक भी इन्द्र या लौकान्तिक पद प्राप्त कर सकता है। (द्र.सं.टी.38,उ.पु.67/201-207) 32. कौन से स्वर्ग के देव मरणकर कितने समय बाद उसी स्वर्ग के देव हो सकते हैं ? स्वर्ग अन्तर काल भवनत्रिक अन्तर्मुहूर्त सौधर्म—ऐशान अन्तर्मुहूर्त सानत्कुमार-माहेन्द्र मुहूर्त पृथक्त्व ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर दिवस पृथक्त्व लान्तव—कापिष्ठ दिवस पृथक्त्व शुक्र-महाशुक्र पक्ष पृथक्त्व शतार-सहस्रार पक्ष पृथक्त्व आनता-प्राणात माह पृथक्त्व आरण-अच्युत माह पृथक्त्व नवग्रैवेयक वर्ष पृथक्त्व नवअनुदिश वर्ष पृथक्त्व चार अनुतरों में वर्ष पृथक्त्व विशेष - पृथक्त्व का अर्थ 3 से 9 तक। किन्तु नवग्रैवेयक, नवअनुदिश एवं चार अनुत्तर विमानों में वर्ष पृथक्त्व से 8 वर्ष अन्तर्मुहूर्त से 9 वर्ष तक लेना होगा। क्योंकि कल्पातीत विमानों में मुनि ही जाते हैं और आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त से पहले मुनि नहीं बन सकते हैं। 33. वैमानिक देवों में उत्पत्ति के कारण क्या हैं ? सम्यक् दर्शन, देशव्रत और महाव्रत से तो वैमानिकों में ही उत्पत्ति होती है। मंदकषायी, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या और अनेक प्रकार के तपादि करने से भी वैमानिक देवों में उत्पति होती है। 34. सभी देवों में आपस में बड़ा प्रेम रहता होगा ? यद्यपि अधिकांश देवों में शुभ लेश्या होने के कारण प्रीतिभाव रहता है परन्तु कुछ देव ईष्या-द्वेष आदि भावों से भी युक्त होते हैं। जैसे-चमरेन्द्र (असुरकुमार में इन्द्र) सौधर्म इन्द्र से। वैरोचन (असुरकुमार में इन्द्र) ऐशान इन्द्र से। भूतानन्द (नागकुमार में इन्द्र) वेणु से (सुपर्णकुमार में इन्द्र) । धरणानन्द (नागकुमार में इन्द्र) वेणुधारी से स्वभावत: नियम से ईष्या करते हैं। (त्रि.सा. 212) 35. देवों में कितनी शक्ति होती है ? एक पल्योपम प्रमाण आयु वाला देव पृथ्वी के छः खण्डों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यच्चों को मारने अथवा उनकी रक्षा करने में समर्थ है। सागरोपम आयु वाले देव जम्बूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित मनुष्यों व तिर्यच्चों को मारने अथवा उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं। सौधर्म इन्द्र जम्बूद्वीप को उलट सकता है। (ति.प., 8/720-721) 36. देव अवधिज्ञान से कहाँ तक का जानते हैं ? इन्द्र नीचे कहाँ तक सौधर्म-ऐशान प्रथम नरक्र तक्र सानत्कुमार-माहेन्द्र दूसरे नरक तक ब्रह्म—ब्रह्योत्तर, लान्तव–कापिष्ठ तीसरे नरक तक शुक्र-महाशुक्र,शतार-सहस्रार चौथे नरक तक आनत-प्राणत, आरण-अच्युत पाँचवें नरक तक नव ग्रैवेयक छठवें नरक तक नव अनुदिश लोकनाली पर्यन्त पञ्च अनुत्तर लोकनाली पर्यन्त (रा.वा., 1/21/7) सभी देव ऊपर अपने-अपने विमान के ध्वजदंड तक जानते हैं। तथा असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन तिर्यक् रूप से जानते हैं। 37. देवगति के दुखों का वर्णन कीजिए ? देवों में शारीरिक दुख नहीं है, किन्तु मानसिक दु:ख बहुत हैं। शारीरिक सुख होते हुए भी मन दु:खी है तब सारी भोग-उपभोग सामग्री नीरस हो जाती है। देव दूसरे बड़े इन्द्रों के वैभव को देखकर ईर्षा करते हैं। कोई प्रियजन-आयुपूर्ण कर स्वर्ग से च्युत होते हैं तो उनके वियोग को भी देव, देवी सहन करते हैं एवं मरण के छ:माह पहले स्वयं की माला मुरझा जाती है इसलिए स्वर्ग छूटने का भी दुख देव, देवियाँ सहन करते हैं। देवों में अपवाद जनित दुख नहीं होते हैं, क्योंकि स्वर्गों में अपवाद होते ही नहीं है। (का.आ. , 58-61) 38. देवगति में कितने गुणस्थान होते हैं ? देवगति में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं। 39. 100 इन्द्र कौन-कौन से होते हैं ? भवणालय चालीसा वितर देवाण होंति बत्तीसा। कप्यामरचउवीसा, चन्दो सूरो णरो तिरियो । भवनवासी देवों के 40 इन्द्र व्यन्तर देवों के 32 इन्द्र वैमानिक देवों के 24 इन्द्र ज्योतिषी देवों में सूर्य 1 इन्द्र ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा 1 इन्द्र मनुष्यों में चक्रवर्ती 1 इन्द्र तिर्यऊचों में सिंह 1 इन्द्र _________ 100 इन्द्र
  6. अद्वितीय अर्थात् तृतीय गति मनुष्य गति है। मनुष्यों के भेद उनके सुख-दु:ख का वर्णन एवं इसमें कितने गुणस्थान होते हैं, मोक्ष कौन प्राप्त करता है आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. मनुष्यगति किसे कहते हैं ? जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा मनुष्य भाव को प्राप्त करता है, वह मनुष्यगति है। जो मन से उत्कृष्ट होते हैं, वे मनुष कहलाते हैं और इनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, धर्म-अधर्म का विचार करते हैं और कार्य करने में निपुण हैं, वे मनुष्य कहलाते हैं और उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। (गोजी,149) मनु (कुलकर) की संतान होने से मनुष्य कहलाते हैं। 2. क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य के कितने भेद हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य के दो भेद हैं कर्मभूमिज - जहाँ पात्रदान के साथ आजीविका चलाने के लिए असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य कर्म किए जाते हैं। अशुभ कर्म से नरक, शुभ कर्म से स्वर्ग, तपस्या के द्वारा (मुनि बनकर) सर्वार्थसिद्धि विमान तक एवं समस्त (अष्ट) कर्मों का क्षय करके मोक्ष इसी कर्मभूमि से प्राप्त होता है और कर्मभूमि में जन्म लेने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं। भोगभूमिज - जहाँ आजीविका चलाने के लिए षट्कर्म नहीं करने पड़ते हैं। जहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का भोग करते हैं। वह भोगभूमि कहलाती है और भोगभूमि में जन्म लेने वाले भोगभूमिज कहलाते हैं। (स.सि. 3/37/437) 3. कल्पवृक्ष किसे कहते हैं वे कौन-कौन से हैं ? मनोवांछित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। वे दस प्रकार के होते हैं - पानांग - मधुर, सुस्वादु, छ: रसों से युक्त बत्तीस प्रकार के पेय को दिया करते हैं। तुर्यांग - अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र देने वाले होते हैं। भूषणान्ग - कंगन, कटिसूत्र, हार, मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं। वस्त्रांग - अच्छी किस्म (सुपर क्वालिटी) के वस्त्र देने वाले हैं। . भोजनांग - अनेक रसों से युक्त अनेक व्यञ्जनों को प्रदान करते हैं। . आलयांग - रमणीय दिव्य भवन प्रदान करते हैं। . दीपांग - प्रकाश देने वाले होते हैं। . भाजनांग - सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित भाजन और आसनादि प्रदान करते हैं। मालांग - अच्छे-अच्छे पुष्पों की माला प्रदान करते हैं। तेजांग - मध्य दिन के करोड़ों सूर्य से भी अधिक प्रकाश देने वाले इनके प्रकाश से सूर्य,चन्द्र का प्रकाश कांतिहीन हो जाता है। (ति.प., 4/346) पानांग जाति के कल्पवृक्ष को अघांग कहते हैं। ये अमृत के समान मीठे रस देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों का एक प्रकार का रस है, जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं, किन्तु यहाँ पर अर्थात् कर्मभूमि में जो मद्य पायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशीला होता है और अन्त:करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है। (आ.पु., 9/37-39) 4. आचरण की अपेक्षा मनुष्य के कितने भेद हैं ? आचरण की अपेक्षा मनुष्य के दो भेद हैं-आर्य और म्लेच्छ। धर्म-कर्म सहित उत्तम गुण वाले मनुष्य आर्य कहलाते हैं और जो धर्म-कर्म गुण से रहित आचार-विचार से भ्रष्ट हों, वे म्लेच्छ कहलाते हैं। आर्य मनुष्य दो प्रकार के हैं- ऋद्धि प्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य। बुद्धि, तप, बल, विक्रिया, औषध, रस और क्षेत्र (अक्षीण महानस व अक्षीण महालय) रूप इन सात प्रकार की ऋद्धियों के धारी मुनिराज ऋद्धि प्राप्त आर्य कहलाते हैं। ऋद्धि रहित आर्य पाँच प्रकार के हैं- क्षेत्रार्य - काशी कौशल, मालवा आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुआ क्षेत्रार्य है। जात्यार्य - इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदि कुलों में उत्पन्न हुआ जात्यार्य है। कर्मार्य - असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य रूप कर्म करने वाले कर्मार्य है। चारित्रार्य - संयमधारी मनुष्य चारित्रार्य है। दर्शनार्य - व्रत रहित सम्यकद्रष्टि मनुष्य दर्शनार्य है । म्लेच्छ मनुष्यों के दो भेद हैं-अन्तर्दीपज और कर्मभूमिज। अन्तद्वीपों में उत्पन्न हुए अन्तद्वीपज म्लेच्छ, म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न म्लेच्छ और शक, यवन, शवर व पुलिन्दादिक कर्मभूमिज आर्यखण्ड के म्लेच्छ हैं। 5. अन्तद्वीपज म्लेच्छ कहाँ रहते हैं, उनका आकार एवं आहार क्या है ? अन्तद्वपिज जहाँ निवास करते हैं, वह कुभोगभूमि कहलाती है। यह लवण समुद्र में जम्बूद्वीप के तट पर चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में चार, प्रत्येक दिशा, विदिशा के मध्य एक-एक अर्थात् आठ तथा भरत, ऐरावत के विजयार्ध पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक अर्थात् कुल चार एवं हिमवन् और शिखरी पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक अर्थात् कुल चार। इस प्रकार कुल 4+4+8+4+4=24 अन्तद्वीप हैं। इसी प्रकार 24 अन्तद्वीप लवण समुद्र के दूसरे तट पर और कालोदधि समुद्र के दोनों तटों पर भी 24 - 24 हैं। इस प्रकार कुल 48+48=96 कुभोगभूमियाँ हैं। इनमें कुमानुष निवास करते हैं, इसलिए इन्हें कुभोगभूमि कहते हैं। उन अन्तद्वीपों में पूर्व दिशा में एक टांग वाले, दक्षिण में पूँछ वाले, पश्चिम में सींग वाले और उत्तर में गूंगे। आग्नेय आदि विदिशाओं में शष्कुली कर्ण (मत्स्य कर्ण), कर्ण प्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण अर्थात् खरगोश के कर्ण के समान होते हैं। इसी प्रकार शष्कुली कर्ण और एक टांग आदि के बीच में अर्थात् अंतर्दिशाओं में आठ कुमानुष सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल (व्याघ्र, बाघ), घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवन् पर्वत के पूर्व दिशा में मत्स्य मुख और पश्चिम दिशा में कालमुख, दक्षिण विजयार्ध के पूर्व दिशा में मेषमुख और पश्चिम दिशा में गौमुख। शिखरी पर्वत के पूर्व में मेघमुख और पश्चिम दिशा में विद्युतमुख तथा उत्तर विजयार्ध के पूर्व में आदर्शमुख और पश्चिम दिशा में हाथी मुख वाले कुमानुष रहते हैं। इनमें एक टांग वाले मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और मिट्टी का आहार करते हैं तथा शेष मनुष्य फल-फूलों का आहार करते हैं तथा वृक्षों पर रहते हैं। कुभोगभूमि में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। (त्रिसा, 913-921) 6. म्लेच्छों में कितने गुणस्थान होते हैं ? अन्तद्वीपज म्लेच्छ (कुभोगभूमि) का जन्म तो मिथ्यात्व, सासादन के साथ होता है, किन्तु वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। अत: प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ तक। (तिप,4/2554-55) सब म्लेच्छखण्डों में प्रथम गुणस्थान ही होता है। (तिप,4/2982) म्लेच्छखण्ड से आर्यखण्ड में आए हुए कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनकी कन्याओं से उत्पन्न हुई चक्रवर्ती की संतान कदाचित् दीक्षा के योग्य भी होती है। (लसा.टी., 195) 7. कुभोगभूमि में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, दिगम्बर साधुओं की निंदा करने वाले। जो जिनलिंग धारण कर मायाचारी करते हैं। गृहस्थों के विवाह आदि कराते हैं। जो सूक्ष्म व स्थूल दोषों की आलोचना गुरुजनों के समीप नहीं करते हैं, आदि कुमानुष म्लेच्छों में उत्पन्न होने के कारण हैं। (ति.प., 4/2540-2551) 8. भोगभूमि में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? जो मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी मंद कषायी हैं, मद्य, माँस, मधु और उदम्बर फलों के त्यागी हैं। जो यतियों को आहार दान देते हैं या अनुमोदना करते हैं। ऐसे कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यच्च भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं एवं जिन मनुष्यों ने पहले मनुष्यायु, तिर्यच्चायु का बंध कर लिया है एवं बाद में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। (तिप,4/369-372) 9. कुभोगभूमि में मनुष्य ही रहते हैं या तिर्यञ्च भी रहते हैं ? कुभोग भूमि में मनुष्य एवं तिर्यञ्च दोनों के युगल रहते हैं। (ति.प., 4/2552) 10. संमूच्छन मनुष्य की क्या विशेषता है? संमूच्छन मनुष्य छ: पर्याप्तियाँ एक साथ प्रारम्भ करता है, किन्तु एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता और मरण हो जाता है। इनकी आयु क्षुद्रभव प्रमाण एवं अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग रहती है इनका मात्र नपुंसक वेद ही होता है ये स्त्रियों के काँख वगैरह एवं गुह्य (गुप्त) स्थानों में उत्पन्न होते हैं। आँखों से नहीं देखे जाते। 11. मनुष्यगति में कौन-कौन से दु:ख हैं ? संमूच्छन मनुष्य हुआ तो वह शीघ्र मरण कर गया। गर्भज हुआ तो, सात माह से दस माह तक गर्भ में रहना पड़ता है, वहाँ अंग, उपांग को संकुचित करके रहना पड़ता है और जब जन्म लेता है तो बड़ी वेदना होती है। बाल अवस्था में भूख, प्यास, रोग को सहन करता है, क्योंकि वह अपने कष्ट को कह नहीं सकता है। बाल अवस्था में ही माता-पिता का अवसान हो गया, तो दूसरों के द्वारा दिया गया भोजन करके बड़ा होता है और बड़ा हुआ पढ़ गया तो ठीक नहीं तो सबके सामने नीचा देखना पड़ता है। किसी की स्त्री नहीं है। किसी की स्त्री है किन्तु दुष्टा (दुश्चरित्र) है। किसी की अच्छी तो है, किन्तु जल्दी ही मरण को प्राप्त हो गई। किसी का पुत्र नहीं है, किसी का है, किन्तु दुव्र्यसनों में फैसा हुआ है। किसी का पुत्र आज्ञाकारी भी है, पढ़ने में होशियार भी है, किन्तु अल्पायु में ही मरण को प्राप्त हो गया। स्त्री, बच्चे भी हैं, किन्तु बीमार रहते हैं, कोई स्वस्थ है, किन्तु धन नहीं है। धन है, नष्ट हो गया तो भी कष्ट होता है। आज वर्तमान में बेरोजगारी से लोग पीड़ित हैं। विवाह की उम्र बढ़ती जा रही है, जिससे मातापिता भी परेशान हैं। कन्या का विवाह करना है तो दहेज चाहिए और न जाने कैसे-कैसे दु:ख हैं, बड़े भाई को भी छोटे भाइयों से अपमानित होना पड़ता है। पिता को भी पुत्र से अपमानित होना पड़ता है। संक्षेप में कहा जाए तो यही कहेंगे, कोई तन दुखी, कोई मन दुखी कोई धन दुखी है। (का.अ., 44-57) 12. क्या सभी मनुष्य दु:खी रहते हैं ? भोगभूमि के मनुष्यों में तो सुख है, किन्तु कर्मभूमि के मनुष्यों में सुख भी है, दुख भी है। जिनका पुण्यकर्म का उदय है, वे सुखी हैं, जिनका पाप कर्म का उदय है, वे दु:खी हैं। 13. मनुष्यगति में कितने गुणस्थान होते हैं ? भोगभूमि के मनुष्यों में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं एवं कर्मभूमि में 1 से 14 तक गुणस्थान होते हैं। 14. मनुष्य कहाँ रहते हैं एवं मुक्ति कहाँ से होती है? मनुष्य अढ़ाईद्वीप में रहते हैं एवं मुक्ति भी अढ़ाईद्वीप से होती है। 15. अढ़ाईद्वीप का क्या अर्थ है ? अढ़ाईद्वीप एवं दो समुद्र। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि समुद्र एवं पुष्कर द्वीप आधा।
  7. संसारी जीवों की दूसरी गति है तिर्यञ्चगति, इसमें जीवों को कैसे-कैसे दु:ख भोगने पड़ते हैं, इसमें कितने गुणस्थान होते हैं। इनकी आयु आदि कितनी होती है, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. तिर्यञ्चगति किसे कहते हैं ? जिस नाम कर्म का निमित्त पाकर आत्मा तिर्यञ्च भाव को प्राप्त होता है, वह तिर्यञ्चगति है । जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जाती है, उनको तिर्यच कहते हैं और उनकी गति को तिर्यच्च गति कहते हैं। (गो.जी., 148) तिरोभाव को अर्थात् नीचे रहना बोझा ढोने लायक कर्मोदय से तिरोभाव को प्राप्त हो, वे तिर्यञ्च योनि वाले हैं। (रा.वा., 4/27/3) 2. तिर्यञ्चगति में कौन-कौन से जीव आते है ? देव, नारकी एवं मनुष्य के अलावा शेष सब जीव तिर्यञ्चगति वाले कहलाते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं पञ्चेन्द्रिय में पशु, पक्षी, सर्प आदि। 3. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन भेद कौन से हैं ? पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन भेद निम्न हैं जलचर - जो जल में रहते हैं, वे जलचर कहलाते हैं। जैसे-मछली, मगर, केकड़ा, ओक्टोपस (अष्टबाहु) अादि । नभचर - आकाश में उड़ने वाले जीव, नभचर कहलाते हैं। जैसे-कोयल, मैना, तोता, चिड़िया आदि। थलचर - जो पृथ्वी पर रहते हैं, वे थलचर कहलाते हैं। जैसे-हाथी, घोड़ा, गाय, बकरी आदि। नोट - ये तीनों भेद चर (पञ्चेन्द्रिय) की अपेक्षा से हैं विकलेन्द्रिय की अपेक्षा से नहीं। 4. क्षेत्र की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के कितने भेद हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के दो भेद हैं - कर्मभूमिज तिर्यञ्च और भोगभूमिज तिर्यञ्च। 5. भोगभूमिज तिर्यञ्चों का आहार क्या होता है ? भोगभूमि में सिंहादि तिर्यज्च भी शाकाहारी होते हैं, वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार माँसाहार के बिना कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का भोग करते हैं। (ति.प., 4/397) 6. क्या भोगभूमि में जलचर, थलचर एवं नभचर तीनों भेद होते है ? नहीं। भोगभूमि में जलचर जीव एवं विकलचतुष्क (2, 3, 4 एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय) नहीं होते हैं, लवण भोगभूमि सम्बन्धी हैं, वहाँ जलचर नहीं रहते हैं। भोगभूमि के नदी, तालाबों में भी जलचर नहीं होते हैं एवं विकलचतुष्क भी नहीं होते हैं। यही कारण है कि सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक के जन्माभिषेक के लिए क्षीरसागर (5वाँ समुद्र) का जल लाता है। क्योंकि उसमें त्रस जीव नहीं रहते हैं। (का.अ.टी., 144 ) 7. तिर्यञ्चगति में कौन-कौन से दु:ख हैं ? तिर्यञ्चगति में अनेक प्रकार के दु:ख हैं। सिंह, व्याघ्र अपने से कमजोर पशुओं को खा जाते हैं, आकाश में गिद्ध चील उड़ते हुए पक्षियों को झपटकर पकड़ लेते हैं, जल में बड़े-बड़े मच्छ छोटी-छोटी मछलियों को खा जाते हैं, इनसे बच गए तो भूख, प्यास, रोग के दुखों को सहन करना पड़ता है, छेदन-भेदन के दु:ख बहुत हैं, सांड को बैल बनाया जाता है, सुअर के बाल उखाड़े जाते हैं, इनसे बच गए तो म्लेच्छ, भील, धीवर आदि मनुष्य उसे मार डालते हैं और आज 21वीं सदी में तिर्यञ्चों के दुखों का पार नहीं है, बूचड़खाने में प्रतिदिन लाखों पशु काटे जाते हैं। (का.अ., 40-44) 8. क्या सभी तिर्यञ्चों को ऐसा दु:ख होता है ? नहीं। भोगभूमिज तिर्यच्चों के केवल सुख ही होता है और कर्मभूमिज तिर्यच्चों के सुख व दुख दोनों होते हैं। (ति. प., 5/300) 9. तिर्यञ्चों के कितने गुणस्थान होते हैं ? तिर्यच्चों में 1 से 5 तक गुणस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों तक मात्र प्रथम गुणस्थान होता है। कर्मभूमिज संज्ञी। पज्चेन्द्रिय में 1 से 5 तक गुणस्थान होते हैं। भोगभूमिज तिर्यच्चों में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं। संज्ञी संमूच्छन तिर्यच्चों में 1 से 5 तक गुणस्थान होते हैं। 10. संज्ञी संमूच्छन तिर्यञ्चों की क्या विशेषताएँ हैं ? यह अन्तर्मुहूर्त काल में सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त हो पुन: अन्तर्मुहूर्त विश्राम करता हुआ एवं एक अन्तर्मुहूर्त में विशुद्ध होकर के संयमासंयम भी प्राप्त कर सकता है और एक पूर्व कोटि काल तक देशसंयम का पालन कर सकता है। जैसे-मच्छ, कच्छप, मेंढक आदि जीव, किन्तु इनका वेद नपुंसक ही रहता है एवं ये प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकते हैं। मात्र क्षयोपशम (वेदक) सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। (ध.पु., 4/350) 11 .क्या भोगभूमि में भी पञ्चमगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च एवं विकलचतुष्क पाए जाते हैं ? भोगभूमि में आदि के 4 गुणस्थान ही होते हैं वहाँ पञ्चम गुणस्थानवर्ती एवं विकलचतुष्क नहीं होते हैं, किन्तु पूर्व के बैरी देव यदि कर्मभूमि से उनका अपहरण करके भोगभूमि में छोड़कर चले जाते हैं तो वहाँ भी विकलचतुष्क एवं पञ्चम गुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च पाए जाते हैं। (ध-पु. 4/8/168-189) 12. पञ्चेन्द्रिय तिर्यज्च के पाँच प्रकार कौन-कौन से होते हैं एवं उनकी आयु कितनी होती है ? जलचर मछली आदि 1 पूर्व कोटि परिसर्प गोह, नेवला, सरीसृप आदि 9 पूर्वांग उरग सर्प 42,000 वर्ष पक्षी भैरुण्ड आदि 72,000 वर्ष चतुष्पद भोगभूमिज 3 पल्य (रा.वा., 3/39/5) गणना - 1 पूर्वाग = 8400000 (चौरासी लाख वर्ष) एवं 8400000 पूर्वाग का एक पूर्व होता है। एक पूर्व में वर्ष 70560000000000 होते हैं। नोट - तिर्यञ्चों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है।
  8. एक हूँ ठीक, गोता-खोर तुम्बी क्या, कभी चाहेगा ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. कम से कम, स्वाध्याय (श्रवण) का वर्ग हो प्रयोग-काल। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  10. सामायिक में, तन कब हिलता, और क्यों देखो…? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  11. ब्रह्म रन्ध्र से-, बाद, पहले श्वास, नाक से तो लो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  12. दर्पण कभी, न रोया न हँसा, हो, ऐसा सन्यास। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  13. कभी न हँसो, किसी पे, स्वार्थवश, कभी न रोओ। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  14. जिस भाषा में, पूछा उसी में तुम, उत्तर दे दो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  15. खाल मिली थी, यहीं मिट्टी में मिली, ख़ाली जाता हूँ। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  16. साधना क्या है ?, पीड़ा तो पी के देखो, हल्ला न करो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  17. न पुंसक हो, मन ने पुरुष को, पछाड़ दिया… हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  18. किसको तजूँ, किसे भजूँ सबका, साक्षी हो जाऊँ। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  19. सत्य, सत्य है, असत्य, असत्य तो, किसे क्यों ढाँकू…? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. चिन्तन में तो, परालम्बन होता, योग में नहीं। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. शब्द की यात्रा, प्रत्यक्ष से अन्यत्र, हमें ले जाती। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. स्मृति मिटाती, अब को, अब की हो, स्वाद शून्य है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. आस्था व बोध, संयम की कृपा से, मंज़िल पाते। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. प्रति-निधि हूँ, सन्निधि पा के तेरी, निधि माँगू क्या ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  25. पक्षाघात तो, आधे में हो, पूरे में, सो पक्षपात… हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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