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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. भार हीन हो, चारु-भाल की माँग, क्या मान करो ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. डाल पे पका, गिरा आम मीठा हो, गिराया खट्टा… हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. संसारी जीवों को चार गतियों में विभाजित किया है। उनमें प्रथम नरक गति के जीवों की क्या विशेषताएँ हैं, उन्हें कौन-कौन से दु:ख भोगने पड़ते हैं आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. संसारी जीवों को कितनी गतियों में विभाजित किया है ? संसारी जीवों को चार गतियों में विभाजित किया है - नरकगति, तिर्यच्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति। 2. गति किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यज्च, मनुष्य एवं देवपने को प्राप्त होता है, उसे गति कहते हैं। 3. नरक गति किसे कहते हैं ? जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा नारक भाव को प्राप्त करता है, उसे नरक गति कहते हैं। पापकर्मों के फलस्वरूप अनेक प्रकार के असह्य दु:खों को भोगने वाले जीव नारकी कहलाते हैं और उनकी गति को नरकगति कहते हैं। जो नर अर्थात् प्राणियों को काता अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं।(ध.पु., 1/202) जो परस्पर में रत नहीं है अर्थात् प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हें नरत कहते हैं और उनकी गति को नरक गति कहते हैं। (गो.जी.का. 147) 4. नरकगति का वर्णन पहले क्यों ? नारकियों के स्वरूप का ज्ञान होने से भय उत्पन्न हो गया है, ऐसे भव्य जीव की दसलक्षण धर्म अर्थात् मुनिधर्म में निश्चल रूप से बुद्धि स्थिर हो जाती है, ऐसा समझकर पहले नरकगति का वर्णन किया है। (ध.पु., 3/122) 5. नारकियों की कौन-कौन-सी विशेषताएँ हैं ? नारकियों का शरीर अशुभ वैक्रियिक, अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त एवं डरावना होता है। शरीर का आकार बेडोल (हुण्डक संस्थान) होता है। शरीर का रंग धुएँ के समान काला होता है। शरीर में खून, पीप, माँस, विष्ठा आदि पाए जाते हैं। नारकी अपृथक् विक्रिया ही करते हैं अर्थात् स्वयं अपने शरीर को ही अस्त्र-शस्त्र बनाते हैं। नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी उनका अकाल मरण नहीं होता है। उनका शरीर पुन: जुड़ जाता है। इनके शरीर में निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। इनका नपुंसक वेद होता हैं। इनकी दाढ़ी-मूंछे नहीं होती हैं। आयु समाप्त होते ही इनका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है। 6. सात भूमियों में कितने बिल (नरक) हैं ? 84 लाख बिल हैं। रत्नप्रभा में 30 लाख, शर्कराप्रभा में 25 लाख, बालुकाप्रभा में 15 लाख, पंकप्रभा में 10 लाख, धूमप्रभा में 3 लाख, तमः प्रभा में 5 कम 1 लाख एवं महातम:प्रभा में मात्र 5 बिल हैं। नारकियों के रहने के स्थान को बिल कहते हैं। (तसू, 3/2) 7. सात भूमियों के अपर नाम कौन-कौन से हैं ? धम्मा, वंशा, मेघा, अञ्जना, अरिष्टा, मघवी और माघवी। (ति.प., 1/153) 8. सात भूमियों में कितने-कितने पटल हैं ? प्रथम भूमि में 13, फिर आगे-आगे क्रमश: 11,9,7, 5, 3 और 1 पटल है। 9. नरकों की मिट्टी कैसी होती है एवं उस मिट्टी की गन्ध यहाँ पर आ जाए तो क्या होगा ? सुअर, कुत्ता, बकरी, हाथी, भैंस आदि के सडे हुए शरीर की गन्ध से अनन्त गुणी दुर्गन्ध वाली मिट्टी नरकों में होती है। प्रथम पृथ्वी की मिट्टी की दुर्गन्ध से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे द्वितीयादि पृथ्वियों में इसकी घातक शक्ति आधा-आधा कोस और भी बढ़ जाती है। (ति. प., 2/347-349) 10. इन पृथ्वियों में रहने वाले नारकियों की आयु कितनी होती है ? उत्कृष्ट आयु क्रमशः प्रथम पृथ्वी से 1, 3, 7, 10, 17, 22 एवं 33 सागर एवं जघन्य आयु क्रमशः 10,000 वर्ष, 1, 3, 7, 10, 17 और 22 सागर होती है। 11. नारकियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य अवगाहना कितनी है ? पृथ्वी उत्कृष्ट अवगाहना जघन्य अवगाहना 1. 7 धनुष, 3 हाथ, 6 अङ्गुल 3 हाथ 2. 15 धनुष, 2 हाथ, 12 अङ्गुल 8 धनुष, 2 हाथ, 2-2/11 अङ्कुल 3. 31 धनुष, 1 हाथ 17 धनुष, 1 हाथ, 10-2/3 अङ्गुल 4. 62 धनुष, 2 हाथ 35 धनुष, 2 हाथ, 20-4/7 अङ्गुल 5. 125 धनुष 75 धनुष 6. 250 धनुष 166 धनुष, 2 हाथ, 16 अङ्गुल 7. 500 धनुष 500 धनुष 12. नरकों में कितने प्रकार के दु:ख हैं ? नरकों में अनेक प्रकार के दु:ख होते हैं। जिनमें कुछ प्रमुख हैं क्षेत्र सम्बन्धी दु:ख - बिलों में गहन अंधकार रहता है, दुर्गन्ध युक्त मिट्टी रहती है, छाया चाहते हैं। पर सेमर के वृक्ष मिलते हैं, वे छाया तो नहीं देते, किन्तु नारकियों के ऊपर छुरी, कांटे के समान वह पत्र (पता) गिराते हैं। प्रथम पृथ्वी से पाँचवीं पृथ्वी के 3/4 भाग तक अत्यन्त उष्ण एवं चतुर्थ भाग में शीत, छठी पृथ्वी में भी शीत एवं सप्तम पृथ्वी में महाशीत रहती है। (ति.प.2/29-30,34-36) मानसिक दुख - ‘हाय-हाय! पापकर्म के उदय से हम इस भयानक नरक में पड़े हैं।” ऐसा विचारते हुए पश्चाताप करते हैं। हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया था। विषयान्ध होकर मैंने पाँच पाप किए थे। जिनको मैंने सताया था, वे यहाँ मुझको मारने के लिए तैयार हैं। अब मैं किसकी शरण में जाऊँ। यह दुख अब मैं कैसे सहूँगा। जिनके लिए पाप किए थे, वे कुटुम्बीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों का पश्चाताप करते रहते हैं। (ज्ञा, 36/33,59) शारीरिक दु:ख - नारकियों का उपपाद जन्म होता है। उपपाद स्थान नीचे की भूमि पर नहीं है,ऊपर के भाग में ऊँटादि के मुख की तरह हैं। वहाँ जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्तियाँ पूर्ण कर उपपाद स्थान से च्युत हो, उल्टे नरक भूमि में 36 आयुधों (तलवार, बरछी आदि) के मध्य गिरकर प्रथम पृथ्वी वाले 7 योजन 3 /, कोस अर्थात् 31/, कोस ऊपर उछलते हैं, आगे की भूमियों में दूने-दूने उछलते हैं। अर्थात् 62 / कोस, 125 कोस, 250 कोस, 500 कोस, 1000 कोस एवं 2000 कोस उछलते हैं। 1 योजन में 4 कोस होते हैं। (त्रि.सा., 182) असुरकृत दु:ख - तृतीय पृथ्वी तक असुरकुमार जाति के देव वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव के वैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे-यहाँ मनुष्य मेढ़े, भैंसे आदि को लड़ाते हैं, वैसे ही अम्बरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुरकुमार देव नरकों में जाकर लड़ाते हैं और स्वयं भी मारते हैं। (तिप, 2/353) परस्परकृत दु:ख - नारकी कभी शांति से नहीं बैठ सकते न दूसरे को बैठने देते हैं। वे दूसरे नारकी को देखते ही मारते हैं, उसके हजारों टुकड़े कर उबलते हुए तेल के कढ़ाव में फेंक देते हैं तो कभी तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन न कराते हैं और कैसे-कैसे दु:ख देते हैं, उसे तो केवली भगवान् भी नहीं कह सकते हैं। (ति.प, 2/318-327,341-345) रोग सम्बन्धी दु:ख - दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं, वे सब नारकियों के शरीर के रोम-रोम में होते हैं। (ज्ञा, 36/20) भूख-प्यास सम्बन्धी दु:ख - नारकियों को भूख इतनी लगती है कि तीन लोक का अनाज खा लें तो भी भूख न मिटे तथा प्यास इतनी लगती है कि सारे समुद्रों का पानी पी लें तो भी प्यास न बुझे। किन्तु वे वहाँ की दुर्गन्धित मिट्टी खाते हैं एवं अत्यंत तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं। 13. एक जीव नरकों में लगातार कितनी बार जा सकता है ? प्रथम पृथ्वी से क्रमशः सप्तम पृथ्वी तक 8, 7, 6, 5, 4, 3 एवं 2 बार तक लगातार जा सकता है। विशेष - नारकी मरण कर पुनः नारकी नहीं बनता है, अत: एक भव बीच में मनुष्य या तिर्यञ्च का लेकर पुन: नरक जा सकता है। किन्तु सप्तम पृथ्वी से पुन: सप्तम पृथ्वी जाने के लिए बीच में दो भव लेने पड़ेंगे। प्रथम तिर्यञ्च का दूसरा मनुष्य या मस्त्य का। 14. नाना जीव की अपेक्षा नरक में उत्पन्न होने का अंतर कितना है ? प्रथम पृथ्वी से क्रमश: सप्तम पृथ्वी तक, यदि कोई भी जीव उत्पन्न न हो तो उत्कृष्टतया 48 घड़ी (19 घंटे 12 मिनट) एक सप्ताह, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह एवं छ: माह का अन्तर हो सकता है। 15. नारकियों का अवधिज्ञान क्षेत्र कितना है ? नाम उपर तिर्यक्रु नीचे नाम ऊपर तिर्यक नीचे रत्नप्रभा सर्वत्र अपने बिल के शिखर तक सर्वत्र अंसख्यात कोड़ा कोडी योजना 4 कोस तक शर्कराप्रभा 3.5 कोस तक बालुकाप्रभा 3 कोस तक पंकप्रभा 2.5 कोस तक धूमप्रभा 2 कोस तक तमःप्रभा 1.5 कोस तक महातमःप्रभा 1 कोस तक गणना - 1 कोस = 2000 धनुष। 1 धनुष = 4 हाथ । 1 हाथ = 24 अज़ुल। (त्रिसा, 202)
  4. यह लोक किसी इंजीनियर के द्वारा बनाया हुआ नहीं है। यह तो अनादिनिधन है। इसका चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। इसका आकार कैसा है कौन से जीव कहाँ रहते हैं, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. लोक किसे कहते हैं ? अनन्त आकाश के मध्य का वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें जीव आदि षट् द्रव्य रहते हैं, वह लोक कहलाता है। 2. लोक का आकार कैसा है ? 1. तीन गिलास लीजिए एक को उल्टा रखें, उसके ऊपर दूसरे गिलास को सीधा रखें एवं दूसरी गिलास के ऊपर तीसरे गिलास को उल्टा रखें यह जो आकार बनता है, वह लोक का आकार है। 2. यह लोक पुरुषाकार है, जैसे-एक पुरुष जो दोनों पैर फैलाकर कटि पर दोनों तरफ एक-एक हाथ रखकर खड़ा है, यह जो आकार बनता है, वह लोक का आकार है। 3. मिस्र देश के गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोक का आकार किंचित् समानता रखता हुआ प्रतीत होता है। (जै. सि. को. 3/438) 3. लोक का विस्तार कितना है ? लोक का विस्तार दक्षिणोत्तर दिशा में सर्वत्र 7 राजू मोटा (लम्बा) है। पूर्व-पश्चिम दिशाओं का विस्तार (चौड़ा) नीचे 7 राजू, ऊपर क्रम से घटता हुआ मध्य लोक में 1 राजू, पश्चात् क्रमश: बढ़ता-बढ़ता ब्रह्म स्वर्ग में 5 राजू, फिर क्रमश: घटता हुआ लोक के अंत में 1 राजू चौड़ा है। लोक की ऊँचाई कुल 14 राजू है। सम्पूर्ण लोक का घनफल 7 राजू का घन अर्थात् 7 × 7× 7= 343 घन राजू है। 4. राजू किसे कहते हैं ? जगत् श्रेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं। (सि.सा.दी.4/2-3) यह आगम की परिभाषा है। सामान्य परिभाषा में असंख्यात योजन का एक राजू होता है। रिसर्च स्कालर पंडित माधवाचार्य ने कहा है - 1 हजार भार का 1 गोला इन्द्र लोक से नीचे गिरकर 6 माह में जितनी दूरी तय करता है, वह 1 राजू है। (जम्बूदीप पण्णति में उद्धृत पृष्ठ 23) 5. अधोलोक कितने राजू में है एवं वहाँ कौन-कौन रहते हैं ? अधोलोक 7 राजू में है। 6 राजू में सात पृथ्वी (नरक) हैं एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी के बीच 1 राजू में कुछ कम अर्थात् असंख्यात योजन प्रमाण खाली आकाश है। इनमें सबसे ऊपर मेरु पर्वत की आधारभूत रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी है जिसके तीन भाग हैं-खरभाग, पङ्कभाग और अब्बहुलभाग। खरभाग 16,000 योजन मोटा है, इसमें भवनवासी और व्यन्तरों के आवास हैं। जिनमें असुरकुमार के अलावा 9 प्रकार के भवनवासी एवं राक्षस देवों के अलावा शेष 7 प्रकार के व्यंतर देव निवास करते हैं। पङ्क भाग 84,000 योजन मोटा है, इसमें भवनवासी देवों के असुरकुमार देव तथा व्यन्तरों के राक्षस नामक देव निवास करते हैं। अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटा है, इसमें नारकी रहते हैं। इस प्रकार प्रथम पृथ्वी की मोटाई 180,000 योजन है, दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की मोटाई 32,000 योजन, तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी की मोटाई 28,000 योजन, चौथी पंकप्रभा पृथ्वी की मोटाई 24,000 योजन, पाँचवीं धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई 20,000 योजन, छठवीं तमःप्रभा पृथ्वी की मोटाई 16,000 योजन एवं सातवीं महातमः प्रभा पृथ्वी की मोटाई 8,000 योजन है एवं अन्तिम एक राजू में निगोद आदि पज्चस्थावर रहते हैं, जिसे कलकला पृथ्वी कहते हैं। (त्रि.सा.,146-149) 6. लोक का आधार कया है ? घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय लोक के आधार हैं। जैसे-चमड़ी शरीर को चारों ओर से घेरे रहती है या जैसे-छाल वृक्ष को चारों ओर से घेरे रहती है, वैसे ही ये तीनों वातवलय चारों ओर से लोक को घेरे हुए हैं। लोक के नीचे तथा दोनों पार्श्व भागों में नीचे से एक राजू की ऊँचाई तक अर्थात् जहाँ तक पञ्च स्थावर रहते हैं एवं सातों भूमियों (नरकों) के नीचे एवं ईषत्प्राग्भार नामक आठवीं पृथ्वी के नीचे तीनों वातवलय 20-20 हजार योजन मोटे हैं। दोनों पार्श्व भागों में एक राजू के ऊपर सप्तम पृथ्वी (नरक) के निकट आठों दिशाओं में तीनों वातवलय क्रमश: 7,5,4 योजन मोटे हैं। फिर क्रमश: घटते हुए मध्य लोक की आठों दिशाओं में 5,4, 3 योजन मोटे रह जाते हैं। फिर क्रमश: बढ़ते हुए ब्रह्मलोक की आठों दिशाओं में 7, 5, 4 योजन मोटे हो जाते हैं, फिर ऊपर क्रमश: घटते हुए लोकाग्र के पाश्र्व भाग में 5, 4, 3 योजन मोटे रह जाते हैं। ये तीनों वातवलय लोक शिखर पर क्रमशः 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) एवं 1575 धनुष मोटे रह जाते हैं। (ति. प., 1/273-276) 7. वातवलय किस रंग के हैं ? घनोदधिवलय गोमूत्र के रंग का, घनवातवलय काले रंग की मूंग के समान एवं तनुवातवलय अनेक रंगों वाला है। (ति. प., 1/271-272) 8.मध्यलोक का विस्तार कितना है ? मध्यलोक एक राजू तिर्यक् (चारों ओर) फैला हुआ है और 1 लाख 40 योजन सुमेरु पर्वत के बराबर ऊँचा है। सुमेरु पर्वत की जड़ 1 हजार योजन जो चित्रा पृथ्वी में नींव के रूप में है। 99,000 योजन ऊँचा एवं 40 योजन की चोटी (चूलिका) है। इस मध्य-लोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र एक दूसरे को घेरे हुए हैं। 1/2 राजू में अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र है एवं शेष 1/2 राजू में असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं। मध्यलोक के बीचों बीच जम्बूद्वीप है, यह थाली के आकार का है। जिसका विस्तार 1 लाख योजन है, जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है, यह चूड़ी के आकार का है। इसका विस्तार 2 लाख योजन है। लवणसमुद्र धातकीखण्ड द्वीप से घिरा है, इसका विस्तार 4 लाख योजन है। धातकीखण्ड द्वीप कालोदधि समुद्र से परिवेष्टित है, इसका विस्तार 8 लाख योजन है। पुष्कर द्वीप, पुष्कर समुद्र से घिरा है। इसका विस्तार 16 लाख योजन है किन्तु बीच में मानुषोत्तर पर्वत पड़ जाने पर इसका विस्तार 8 लाख योजन है। जम्बूद्वीप के बाद का विस्तार दोनों तरफ लेना है, अढ़ाईद्वीप अत:1+2+4+8+8+2+4+8+8=45 लाख योजन है। इस अढ़ाई द्वीप में मनुष्य रहते हैं। मनुष्य इसके आगे नहीं जा सकते अत: इस पर्वत का मानुषोत्तर पर्वत नाम सार्थक है। 9. इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप क्यों पड़ा ? जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु में स्थित एक अनादिनिधन जम्बू का वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। इसी प्रकार धातकीखण्ड के उत्तरकुरु में धातकी वृक्ष होने के कारण उस द्वीप का नाम धातकीखण्ड है। इसी प्रकार पुष्करद्वीप के उत्तरकुरु में पुष्कर वृक्ष होने के कारण उस द्वीप का नाम पुष्करद्वीप है। (स. सि.,3/9/383) 10. जम्बूद्वीप को विभाजित करनेवाले पर्वतों के नाम, उनका रंग, उनपर स्थित तालाब, तालाबों के मध्य कमल पर निवास करने वाली देवियों के नाम एवं तालाबों से निकलने वाली नदियों के नाम बताड़ए ? क्र. पर्वत रङ्ग तालाब देवियाँ नदियाँ 1. हिमवन् स्वर्ण के समान पद्म श्री गङ्गा, सिन्धु और रोहितास्या 2. महाहिमवन् चाँदी के समान महापद्म ह्री रोहित, हरिकान्ता 3. निषध तपाये हुए स्वर्ण के समान तिगिञ्छ धृति हरित, सीतोदा 4. नील वैडूर्य मणि के समान केसरी कीर्ति सीता, नरकान्ता 5. रुक्मी चाँदी के समान महापुण्डरीक बुद्धि नारी, रूप्यकूला 6. शिखरी स्वर्ण के समान पुण्डरीक लक्ष्मी सुवर्णकूला, रक्ता और रतोदा 11.छ: पर्वतों से सात क्षेत्र कौन से होते हैं ? भरतवर्ष, हैमवतवर्षं, हरिवर्ष, विदेहवर्षं, रम्यकवर्षं, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र होते हैं। 12.कौन-सी नदी किस समुद्र में मिलती है ? गंगा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व लवण समुद्र में मिलती हैं। सिन्धु, रोहितास्या, हरिकांता, सीतोदा, नरकान्ता, रूप्यकूला और रतोदा ये सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र में मिलती हैं। (तसू, 3/21) 13. इन नदियों की सहायक नदियाँ कितनी-कितनी हैं ? गंगा-सिन्धु की 14000 रोहित-रोहितास्या की 28OOO हरित-हरिकांता की 56000 सीता-सीतोदा की 112OOO नारी-नरकान्ता की 56000 सुवर्णकूल-रूप्यकूला की 28000 रता-रतोदा की 14OOO विशेष - प्रत्येक की एक-सी अर्थात् गंगा की 14000 एवं सिन्धु की भी 14000 सहायक नदियाँ हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। (स.सि., 3/23/410) 14. भरत क्षेत्र का विस्तार कितना है ? भरत क्षेत्र का विस्तार 526% योजन। (तसू,3/24) 15. अढ़ाई द्वीप में कितने आर्यखण्ड एवं म्लेच्छखण्ड हैं ? अढ़ाई द्वीप में 170 आर्यखण्ड एवं 850 म्लेच्छखण्ड हैं। 16. अढ़ाई द्वीप में कितनी भोगभूमियाँ एवं कर्मभूमियाँ हैं ? अढ़ाई द्वीप में 30 भोगभूमियाँ एवं 15 कर्मभूमियाँ हैं। 17. कर्मभूमियाँ, भोगभूमियाँ इतनी ही हैं कि और भी हैं ? अढ़ाईद्वीप के बाद, अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप में स्थित नागेन्द्र पर्वत (बू.द्र.सं.टी.,35) तक समस्त द्वीपों में जघन्य भोगभूमि हैं। किन्तु वहाँ मात्र तिर्यज्च रहते हैं। नागेन्द्र पर्वत के परवर्ती स्वयंभूरमण द्वीप के शेष भाग और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि है। वहाँ भी मात्र तिर्यज्च रहते हैं। (त्रि.सा. 323-324) 18. द्वीप समुद्रों का आकार कैसा है ? जम्बूद्वीप थाली के आकार का है, इसके बाद सभी द्वीप और समुद्र चूड़ी के आकार के हैं। 19. मध्यलोक को तिर्यक् लोक क्यों कहते हैं ? स्वयंभूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप, समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे अवस्थित हैं, अतः इसको तिर्यक्लोक कहते हैं। (रा.वा.उ., 3/7) 20. ज्योतिषी देव किन्हें कहते हैं ? सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच प्रकार के देव ज्योतिर्मय हैं। प्रकाश करने का ही स्वभाव होने से इन देवों की ज्योतिषी देव यह संज्ञा सार्थक है। (स.सि., 4/12/465) 21. सूर्य-चन्द्रमा क्या हैं ? सूर्य-चन्द्रमा ज्योतिषी देवों के विमान हैं। सूर्य बिम्ब में आतप नाम कर्म का उदय है जो मूल में शीतल एवं उसकी प्रभा (किरणें) गर्म होती हैं तथा चन्द्रबिम्ब में उद्योत नाम कर्म का उदय है, जो मूल में भी शीतल एवं उसकी प्रभा भी शीतल है। ज्योतिषी देवों के विमान पृथ्वीकायिक के होते हैं। (गो.क., 33) 22. ज्योतिषी देवों का आवास कहाँ-कहाँ पर है ? ये देव चित्रा पृथ्वी से 790 योजन की ऊँचाई से लेकर 900 योजन की ऊँचाई तक अर्थात 110 योजन में निवास करते है एवं एक राजू तिर्यक घनोदधि वलय तक फैले है | 790 योजन तक तराएँ इससे 10 योजन (800 योजन) ऊपर सूर्य (32 लाख मील ऊपर) इससे 80 योजन (880 योजन) ऊपर चन्द्रमा इससे 4 योजन (884 योजन) ऊपर नक्षत्र इससे 4 योजन (888 योजन) ऊपर बुध इससे 3 योजन (891 योजन) ऊपर शुक्र इससे 3 योजन (894 योजन) ऊपर गुरु इससे 3 योजन (897 योजन) ऊपर मंगल (अंगरक) इससे 3 योजन (900 योजन) ऊपर शनि (मंदगति) 110 योजन बुध और शनिश्चर के अंतराल में अवशिष्ट 83 ग्रहों की नित्य नगरियाँ अवस्थित हैं। (त्रिसा, 332-333) नोट - जैनदर्शन के अनुसार सूर्य यहाँ से 32 लाख मील दूरी पर है एवं विज्ञान के अनुसार 9 करोड़ 30 लाख मील दूरी पर है। जैनदर्शन के अनुसार चन्द्रमा यहाँ से 45 लाख 20 हजार मील दूरी पर है एवं विज्ञान इसे मात्र 2 लाख 40 हजार मील दूरी पर मानता है। 23. ज्योतिष्क विमान का पारस्परिक अंतर कितना है ? ताराओं का जघन्य अन्तर 1 कोस का सातवाँ भाग, मध्यम अंतर 50 कोस और उत्कृष्ट अंतर 1000 योजन है। सूर्य से सूर्य का और चन्द्र से चन्द्र का जघन्य अंतर 99,640 योजन है। उत्कृष्ट अंतर 1 लाख 660 योजन है। (रावा, 4/13/6) 24. चन्द्र, सूर्य आदि की कितनी-कितनी किरणें हैं ? चन्द्रमा की 12,000 किरणें हैं वे शीतल हैं। सूर्य की भी 12,000 किरणें हैं किन्तु वे तीक्ष्ण (उष्ण) हैं। शुक्र की 2500 किरणें हैं, वे तीव्र अर्थात् प्रकाश से उज्वल हैं। शेष ज्योतिषी देवों की किरणें मंद प्रकाश वाली हैं। (त्रिसा, 341) 25. ज्योतिषी देवों के विमान का आकार कैसा है ? एक संतरा के दो खंड करके उन्हें ऊध्र्वमुखी रखा जाए तो चौड़ाई वाला भाग ऊपर और गोलाई वाला थोड़ा-सा भाग नीचे रहता है, वैसे ही इन देवों के विमान होते हैं। हमें मात्र नीचे का भाग देखने में आता है। (त्रि.सा., 336) 26. ग्रहण क्या है ? राहु का विमान चन्द्र विमान के नीचे और केतु का विमान सूर्य विमान के नीचे गमन करता है। प्रत्येक छ: माह बाद पर्व के अन्त में अर्थात् पूर्णिमा और अमावस्या के अन्त में राहु चन्द्रमा को और केतु सूर्य को आच्छादित करता है, इसी का नाम ग्रहण है। (त्रि.सा. 339) 27. अढ़ाई वर्ष में एक माह कैसे बढ़ता है ? सूर्य के गमन की 184 गलियाँ हैं, एक गली से दूसरी गली दो योजन दूरी पर है, जिसे पार करने में एक मुहूर्त लगता है, अत: 30 दिन में 30 मुहूर्त (1 दिन) बढ़ जाता है, इसी प्रकार वर्ष में 12 दिन एवं अढ़ाई वर्ष में एक माह बढ़ जाता है। (त्रिसा., 410) 28.चन्द्रादिक विमानों के वाहक देवों का आकार कैसा है एवं वे किस-किस दिशा में गमन करते हैं ? पूर्व दिशा में सिंह, दक्षिण दिशा में हाथी, पश्चिम दिशा में बैल और उत्तर दिशा में घोड़े के आकार वाले देव अपने-अपने विमानों को ढोते हैं। चन्द्र एवं सूर्य को ढोने वाले एक दिशा में 4000, चारों दिशाओं में कुल 16000 देव होते हैं। शेष विमानों में एक दिशा में 2000 एवं चारों दिशाओं में कुल 8000 देव होते हैं। किन्तु नक्षत्रों में एक दिशा में 1000 एवं चारों दिशाओं में कुल 4000 देव होते हैं तथा ताराओं में एक दिशा में 500 एवं चारों दिशाओं में कुल 2000 देव होते हैं। आभियोग्य जाति के देव विमान ढोते हैं, अत: वे ही गज आदि बनते हैं। (त्रिसा, 343) 29. मनुष्य लोक में सूर्य-चन्द्रमा आदि कितने-कितने हैं ? द्वीप-समुद्र सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र जम्बूद्वीप में 2 2 176 56 लवण समुद्र में 4 4 352 112 धातकी खण्ड में 12 12 1056 336 कालोदधि में 42 42 3696 1176 पुष्करार्ध में 72 72 6336 2016 कुल 132 132 11616 3696 अढ़ाई द्वीप में तो ज्योतिषी देवों की संख्या संख्यात है, किन्तु सम्पूर्ण तिर्यक् लोक में ज्योतिषी देवों की संख्या असंख्यात है। 30. एक चन्द्रमा का परिवार कितना है ? एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, 28 नक्षत्र, 88 ग्रह एवं 66,975 कोड़ाकोड़ी तारे हैं। (सि.सा.दी., 14/54) 31. एक सूर्य जम्बूद्वीप की पूर्ण प्रदक्षिणा कितने दिन में करता है ? दो दिन (दिन-रात) में करता है। 32. एक चन्द्रमा जम्बूद्वीप की पूर्ण प्रदक्षिणा कितने दिन में करता है ? दो दिन से (दिन-रात) अधिक समय लगता है, इसी से चन्द्रोदय में हीनाधिकता आती है। 33. अमावस्या और पूर्णिमा क्या है ? राहु प्रतिदिन 1-1 पथ में चन्द्रमंडल के 16 भागों में से 1-1 कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से 15 कला पर्यन्त आच्छादित करता है। इस प्रकार अंत में जिस मार्ग में चन्द्र की केवल 1 कला दिखाई देती है। वह अमावस्या है। प्रतिपदा के दिन से वह राहु 1-1 वीथी में गमन विशेष से 1-1 कला को छोड़ता जाता है। जिसके कारण 1 दिन चन्द्र बिम्ब परिपूर्ण दिखता है, वह पूर्णिमा है। अथवा चन्द्र बिम्ब स्वभाव से ही 15 दिनों तक कृष्ण कांति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कांति स्वरूप परिणमता है। (त्रि.सा. 342 विशेषार्थ ) 34. उत्तरायन और दक्षिणायन क्या है ? जब सूर्य प्रथम गली में रहता है, तब श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है और जब वह अन्तिम गली में पहुँचता है तब उत्तरायन प्रारम्भ होता है। श्रावण माह से पौष माह तक (183 दिन) सूर्य दक्षिणायन तथा माघ माह से आषाढ़ माह तक (183 दिन) उत्तरायन रहता है। (त्रि. सा., 412) 35. सूर्य और चन्द्रमा की कितनी-कितनी गलियाँ हैं ? सूर्य की 184 गलियाँ हैं और इसी क्षेत्र में चन्द्रमा की 15 गलियाँ हैं। इनमें ये दोनों गमन करते हैं। 36. जब सूर्य प्रथम गली में आता है तो क्या होता है ? जब सूर्य प्रथम गली में आता है तब अयोध्या नगर के भीतर अपने भवन के ऊपर से चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब के दर्शन करता है। चक्रवर्ती की चक्षु इन्द्रिय का विषय 47263/योजन अर्थात् 18,90,53,400 मील प्रमाण है। (त्रि.सा. 391) 37. सूर्य और चन्द्रमा एक-एक मिनट में कितना गमन करते हैं ? प्रथम मार्ग में सूर्य एक मिनट में 4,37,623"/ मील प्रमाण गमन करता है एवं प्रथम मार्ग में चन्द्रमा एक मिनट में 4,22,797 */ मील प्रमाण गमन करता है। (त्रिसा.,388, विशेषार्थ) 38. क्या पृथ्वी घूमती है ? नहीं। सूर्य और चन्द्रमा सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं। सुमेरु पर्वत अर्थात् पृथ्वी स्थित है एवं सूर्य चन्द्रमा उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। 39. क्या सभी ज्योतिषी मंडल गमन करते हैं ? अढ़ाईद्वीप और दो समुद्र में अर्थात् समस्त मनुष्य लोक में पाँचों प्रकार के ज्योतिषी देव निरन्तरगमन करते रहते हैं। मनुष्य लोक से बाहर के सभी ज्योतिषी देव स्थित रहते हैं। (तसू,4/13-15) 40. दिन छोटे-बड़े कैसे होते हैं ? जब सूर्य अभ्यन्तर वीथी (प्रथम वीथी) में भ्रमण करता है, तब दिन 18 मुहूर्त का (14 घंटा 24 मिनट) और रात्रि 12 मुहूर्त (9 घंटा 36 मिनट) की होती है तथा बाह्य (अंतिम) वीथी में भ्रमण करता है, तब 18 मुहूर्त की रात्रि और 12 मुहूर्त का दिन होता है। श्रावण माह में सूर्य अभ्यंतर वीथी में भ्रमण करता है। माघ मास में सूर्य सबसे बाह्य वीथी में भ्रमण करता है। (त्रिसा, 379) 41. क्या सूर्य और चन्द्रमा की गति घटती-बढ़ती है ? हाँ। सूर्य और चन्द्रमा की प्रथम वीथी में हाथीवत् (अतिमंद), मध्यम वीथी में घोड़े की चाल समान (मध्यम गति) और बाह्य वीथी में सिंह सदृश (तेज गति) गति है। (त्रिसा, 388) 42. क्या सभी ज्योतिषी विमानों की गति एक-सी है ? नहीं। चन्द्रमा सबसे मंद गति वाला है, इससे शीघ्रगति सूर्य की, सूर्य से शीघ्र गति ग्रहों की, ग्रहों से शीघ्र गति नक्षत्रों की और उससे भी अधिक शीघ्र गति ताराओं की है। (त्रि सा., 403) 43. सूर्य का ताप कहाँ तक फैलता है ? सूर्य का ताप सुदर्शन मेरु के मध्य भाग से लेकर लवण समुद्र के छठवें भाग तक फैलता है तथा सूर्य बिम्ब से चित्रा पृथ्वी 800 योजन नीचे है और 1000 योजन चित्रा पृथ्वी की जड़ हैं सूर्य का ताप नीचे की ओर 1800 योजन अर्थात् 72,00000 मील तक फैलता है। सूर्य बिम्ब से ऊपर 100 योजन पर्यन्त ज्योतिलक है। अत: सूर्य का ताप ऊपर की ओर 100 योजन (4,00,000 मील) दूर तक फैलता है। 44.चन्द्र और सूर्य का गमन क्षेत्र कितना है ? चन्द्र और सूर्य के गमन करने को चार क्षेत्र कहते हैं। दो चन्द्र और दो सूर्य के प्रति 1-1 चार क्षेत्र होता है। जम्बूद्वीप के दो सूर्यों का एक चार क्षेत्र है। लवण समुद्र के चार सूर्यों के 2 चार (संचार) क्षेत्र, धातकीखण्ड द्वीप के 12 सूर्यों के 6 चार क्षेत्र हैं, कालोदधि समुद्र के 42 सूर्यों के 21 चार क्षेत्र हैं और पुष्करार्धद्वीप के 72 सूर्यों के 36 चार क्षेत्र हैं। जम्बूद्वीप सम्बन्धी चन्द्र और सूर्य जम्बूद्वीप में तो 180 योजन प्रमाण क्षेत्र में ही विचरते हैं और शेष 330*/ प्रमाण क्षेत्र लवण समुद्र में विचरते हैं। अर्थात् 2– 2 चन्द्र और सूर्य 180+330'/= 510*/, योजन प्रमाण क्षेत्र में विचरते हैं। शेष पुष्करार्ध पर्यन्त के चन्द्र और सूर्य अपने -अपने क्षेत्र में विचरते हैं। (त्रिसा, 374-375) 45. दिन-रात कैसे होते हैं ? सूर्य जब सुमेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम में होता है तब पूर्व विदेह एवं पश्चिम विदेह क्षेत्र में दिन एवं भरत-ऐरावत क्षेत्र में रात्रि होती है एवं जब सूर्य सुमेरु पर्वत के दक्षिण-उत्तर में होता है, तब भरतऐरावत क्षेत्र में दिन एवं विदेह क्षेत्र में रात्रि होती है। 46. ऊध्र्वलोक कितने राजू में है एवं वहाँ क्या-क्या है ? मध्यलोक के सुमेरु पर्वत की चूलिका से एक बाल की मोटाई प्रमाण स्थान के बाद स्वर्ग प्रारम्भ हो जाते हैं। चित्रा पृथ्वी से 15 राजू में सौधर्म-ऐशान स्वर्ग आमने-सामने हैं। 15 राजू में सानत्कुमार-माहेन्द्र 1त्रिलोकसार,397 स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में लान्तव-कापिष्ठ स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में शुक्रमहाशुक्र स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में शतार-सहस्रार स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में आनत-प्राणत स्वर्ग हैं। 1/2 राजू में आरण-अच्युत स्वर्ग हैं। ये सभी स्वर्ग आमने-सामने हैं। इस प्रकार 6 राजू में 16 स्वर्ग हैं तथा 16 स्वर्गों के ऊपर 1 राजू में 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश, 5 अनुत्तर विमान एवं सिद्ध शिला भी है। इस प्रकार 7 राजू में ऊध्र्व लोक एवं 7 राजू में अधोलोक हैं। इस तरह लोक की ऊँचाई कुल 14 राजू है। नोट- सुमेरु पर्वत की ऊँचाई ऊध्र्वलोक में ही गर्भित है। (त्रिसा.,458) 47. स्वगों के विमानों का आधार क्या है ? सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा सानत्कुमार युगल के विमान पवन (हवा) के ऊपर स्थित हैं। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर तथा आनत-प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाश में स्थित हैं। (ति.प., 8/206-207) 48. सिद्धालय कहाँ है ? सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से 12 योजन ऊपर जाकर अष्टम ईषत् प्राग्भार नामक पृथ्वी के बीचोंबीच 45 लाख योजन गोल एवं 8 योजन मध्य में मोटी चाँदी एवं स्वर्ण के सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण सिद्ध शिला है। जो आगे-आगे क्रमश: कम होती हुई अंत में 1 अंगुल प्रमाण रह जाती है। वह उतान धवल छत्र के सदृश है। ईषत्प्राग्भार नामक अष्टम पृथ्वी की चौड़ाई (पूर्व-पश्चिम) एक राजू, लम्बाई(उत्तर-दक्षिण) सात राजू तथा मोटाई (ऊँचाई) आठ योजन प्रमाण है। (ति.प., 8/675-681) इस पृथ्वी के ऊपर 3 वातवलय हैं, जो क्रमशः 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) और 1575 धनुष मोटे हैं अंतिम वातवलय के ऊपरी भाग में 525 धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना को आदि लेकर 3.5 हाथ की अवगाहना तक के सिद्ध परमेष्ठी विराजमान रहते हैं। 49. सिद्धक्षेत्र का विस्तार कितना है ? मनुष्य क्षेत्र प्रमाण 45,00,000 योजन है। 50. त्रस नाली कितनी लंबी, चौड़ी एवं ऊँची है ? लोक के मध्य भाग में एक राजू लंबी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली है। एवं सप्तम पृथ्वी के मध्य भाग में नारकी रहते हैं। नीचे 3999 / योजन अर्थात् 3,19946662/ धनुष में त्रस जीव नहीं हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि विमान से ईषत् प्राग्भार का अंतर 12 योजन अर्थात् 96,000 धनुष है एवं ईषत् प्राग्भार की मोटाई 8 योजन अर्थात् 64,000 धनुष है एवं तीनों शिखरवर्ती वातवलय 2 कोस (4000 धनुष), 1 कोस (2000 धनुष) एवं 1575 धनुष इस क्षेत्र में त्रस जीव नहीं रहते (समुद्धात एवं उपपाद को छोड़कर) हैं। 3,19,94.6667/, धनुष + 96,000धनुष + 64,000 धनुष+7575धनुष =3,21,62,2417/, धनुष कम 13 राजू ऊँची त्रस नाली है। (तिप, 2/6-7) 51. सुमेरु पर्वत और नंदीश्वर द्वीप की विशेषताएँ बताइए। सुमेरु पर्वत यह मध्यलोक का सर्वप्रथम पर्वत है - विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्ण वर्ण व कूटाकार पर्वत है, यह जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्ध द्वीप में दो पर्वत हैं कुल 5 सुमेरु पर्वत हैं, इसमें प्रत्येक में 16-16 चैत्यालय हैं कुल मिलाकर 80 चैत्यालय हैं, जिसमें 8,640 प्रतिमाएँ हैं। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसन रूप माना जाता है। सुमेरु पर्वत की ऊँचाई 1 लाख 40 योजन है। सुमेरु पर्वत की जड़ 1000 योजन है, इसके ऊपर भद्रशाल वन, नन्दन वन, सौमनस वन और पाण्डुक वन है, पाण्डुक वन के मध्य से सुमेरु पर्वत की चोटी (चूलिका) प्रारम्भ होती है जो 40 योजन है, उस चोटी की ईशान दिशा में पाण्डुक शिला, आग्नेय में पाण्डुकम्बला, नैऋत्य में रक्ता और वायव्य में रक्त कम्बला शिला है जो अर्द्धचन्द्राकार है, इनमें क्रमश: भरत, पश्चिम विदेह, ऐरावत तथा पूर्व विदेह के सर्व तीर्थंकरों का देव जन्माभिषेक करते हैं। इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में विजय और अचल नामक दो मेरु हैं तथा पुष्करद्वीप में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में मंदर और विद्युन्माली नामक दो मेरु हैं। इन पर अकृत्रिम चैत्यालयों की रचना, सुमेरु (सुदर्शन मेरु) के समान ही है। विशेषता इतनी है कि इन पर्वतों में प्रत्येक की ऊँचाई 84,000 योजन है। एवं 1000 योजन की जड़ पृथक् है अत: इन चारों पर्वतों की कुल ऊँचाई 85,000 योजन है। (ति.प.4/2617) नन्दीश्वर द्वीप इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं जिसमें 7 द्वीप और 7 समुद्र के बाद आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। इस द्वीप की पूर्व दिशा में एक अंजनगिरि नामक काले रंग का पर्वत है, उसके चारों ओर एक लाख योजन छोड़कर चार वापियाँ हैं, प्रत्येक वापी के चारों दिशाओं में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक 4 वन हैं, इस द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में कुल 64 वन हैं, प्रत्येक वापी के मध्य में सफेद रंग वाला दधिमुख नाम का एक-एक पर्वत है, प्रत्येक वापी के चारों कोनों पर लाल रंग के 4 रतिकर पर्वत हैं। अभ्यन्तर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं एवं बाह्य रतिकरों पर जिनमन्दिर हैं। इस प्रकार एक दिशा में 1 अंजनगिरि, 4 दधिमुख एवं 8 रतिकर पर्वत हैं, इनके ऊपर 13 अकृत्रिम चैत्यालय हैं, इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी 13-13 चैत्यालय हैं, अत: नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी 52 अकृत्रिम चैत्यालय हैं, प्रत्येक मंदिर में 108 जिनबिम्ब रत्नों के हैं। देवी-देवताओं के मन को आकर्षित करने वाली 500 धनुष की पद्मासन प्रतिमाएँ हैं, उनके नाखून, चेहरा लाल, आँखें काली और सफेद, भौंह काली, सिर के बाल काले शोभा देते हैं, मुख मुद्रा ऐसी लगती है, जैसे पापों को हरण करने वाली दिव्यध्वनि खिरती है, रत्नमयी प्रतिमा में करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा की भी आभा उन प्रतिमाओं के प्रकाश के आगे फीकी पड़ जाती है, जो महावैराग्य परिणाम वाले हैं, वे उनके दर्शन करते हैं, वे प्रतिमाएँ बोलती नहीं हैं, उन्हें देखकर ही सम्यकदर्शन करते हैं। सौधर्म इन्द्र आदि देवगण अष्टाहिका पर्व में अपने परिवार सहित इन प्रतिमाओं का अभिषेक-पूजन करने आते हैं। पूर्व दिशा में कल्पवासी देव, दक्षिण दिशा में भवनवासी देव, पश्चिम दिशा में व्यन्तर देव तथा उत्तर दिशा में ज्योतिषी देव भक्ति-भाव से पूजन करते हैं। मनुष्य वहाँ नहीं जा सकते हैं, वे यहाँ पर ही जिनालयों में नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की स्थापना कर पूजन करते हैं।
  5. जिस तरह प्रत्येक राष्ट्र की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं तथा प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं, उसी प्रकार जैनधर्म की मौलिक विशेषताओं का वर्णन इस अध्याय में है। 01. जिन एवं जैन किसे कहते हैं ? जयति इति जिनः । अपनी इन्द्रियों, कषायों और कर्मो को जीतने वाले जिन कहलाते हैं तथा ‘‘जिनस्य उपासक: जैन:” अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के उपासक को जैन कहते हैं। 02.जैनधर्म किसे कहते हैं? जिन के द्वारा कहा गया धर्म जैनधर्म है। धर्म किसे कहते हैं ? जिसके द्वारा यह संसारी आत्मा-परमात्मा बन जाता है, वह धर्म है। अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहा है, क्योंकि रत्नत्रय के माध्यम से ही यह आत्मा-परमात्मा बनती है। 03.जैनधर्म के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं? जैनधर्म के पर्यायवाची नाम निम्नलिखित हैं निग्रन्थ धर्म - समस्त परिग्रह से रहित साधु को निग्रन्थ कहते हैं और उनके धर्म को निग्रन्थ धर्म कहते हैं। श्रमण धर्म - तपश्चरण करके जो अपनी आत्मा को श्रमव परिश्रम पहुँचाते हैं, वे श्रमण हैं और उनके द्वारा धारण किया जाने वाला धर्म श्रमण धर्म है। आर्हत् धर्म - अरिहन्त परमेष्ठी द्वारा प्रतिपादित धर्म आर्हत् धर्म है। सनातन धर्म - अनादिकाल से चले आ रहे धर्म को सनातन धर्म कहते हैं। जिन धर्म - जिनेन्द्र कथित धर्म को जिनधर्म कहते हैं। 04. जैनधर्म की मौलिक विशेषताएँ कौन-कौन सी हैं? जैनधर्म की मौलिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं अनेकान्त - अनेक+अन्त=अनेकान्त। अनेक का अर्थ है - एक से अधिक, अन्त का अर्थ है गुण या धर्म। वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणों या धर्मों के विद्यमान रहने को अनेकान्त कहते हैं। स्याद्वाद - अनेकान्त धर्म का कथन करने वाली भाषा पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। स्यात् का अर्थ है कथचित् किसी अपेक्षा से एवं वाद का अर्थ है कथन करना। जैसे - रामचन्द्र जी राजा दशरथ की अपेक्षा से पुत्र हैं एवं रामचन्द्र जी लव-कुश की अपेक्षा से पिता हैं। अहिंसा - जैनधर्म में अहिंसा प्रधान है। मन, वचन और काय से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना एवं अन्तरंग में राग-द्वेष परिणाम नहीं करना अहिंसा है। अपरिग्रहवाद - समस्त प्रकार की मूच्छी/आसति का त्याग करना एवं मूच्छ का कारण पर पदार्थों का त्याग करना अपरिग्रहवाद है। अपरिग्रहवाद का जीवन्त उदाहरण दिगम्बर साधु है। अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त को विश्व मान ले तो विश्व में अपने आप समाजवाद आ जाएगा। प्राणी स्वातंत्र्य - संसार का प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। जैसे-प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बन सकता है। उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा-परमात्मा बन सकती है। किन्तु परमात्मा बनने के लिए कर्मों का क्षय करना पड़ेगा और कर्मों का क्षय, बिना दिगम्बर मुनि बने नहीं हो सकता है। सृष्टि शाश्वत है - इस सृष्टि को न किसी ने बनाया है, न इसको कोई नाश कर सकता है, न कोई इसकी रक्षा करता है। प्रत्येक जीव को अपने किए हुए कर्मों के अनुसार फल मिलता है। उसके लिए न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे-शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से ताकत आती है। शराब या दूध पीने के बाद उसके फल देने के लिए किसी दूसरे निर्णायक की आवश्यकता नहीं है। अवतारवाद नहीं - संसार से मुक्त होने के बाद परमात्मा पुनः संसार में नहीं आता है। जैसे-दूध से घी बन जाने पर पुन: वह घी, दूध के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता है। उसी प्रकार परमात्मा (भगवान्) पृथ्वी पर अवतार नहीं लेते हैं। पुनर्जन्म - जैनधर्म पुनर्जन्म को मानता है। प्राणी मरने के बाद पुन: जन्म लेता है। जन्म लेने के बाद पुन: मरण भी हो सकता है, मरण न हो तो निर्वाण भी प्राप्त कर सकता है, किन्तु निर्वाण के बाद पुनः उसका जन्म नहीं होता है। भगवान् न्यायाधीश नहीं - भगवान् मात्र देखते जानते हैं वे किसी को सुखी दुखी नहीं करते हैं। जीव अपने ही कर्मों से सुखी दु:खी होता है। द्रव्य शाश्वत् है - द्रव्य का कभी नाश नहीं होता मात्र पर्याय बदलती रहती है। आत्मा भी एक द्रव्य है वह न जन्मती है और न मरती है मात्र पर्याय बदलती है।
  6. पापों से बचे, आपस में भिड़े क्या, धर्म यही है ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  7. हीरा, हीरा है, काँच, काँच है किन्तु, ज्ञानी के लिए… हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  8. काला या धोला, दाग, दाग है फिर, काला तिल भी… हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. बिन देवियाँ, देव रहे, देवियाँ, बिन-देव ना…! हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  10. अन जान था, तभी मजबूरी में, मज़दूर था। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  11. बिना नयन, उप नयन किस, काम में आता ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  12. काल घूमता, काल पै आरोप सो, क्रिया शून्य है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  13. कब, पता न, मृत्यु एक सत्य है, फिर डर क्यों ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  14. दिन में शशि, विदुर सा लगता, सुधा-विहीन। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  15. खुली सीप में, स्वाति की बूँद मुक्ता, बने, और न…! हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  16. जहाँ पर जाने से मन को शान्ति मिलती है, पुण्य का संचय होता है, कमों की निर्जरा होती है एवं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसे तीर्थक्षेत्र कितने प्रकार के होते हैं तथा प्रमुख तीर्थक्षेत्रों का वर्णन इस अध्याय में है। 1. तीर्थक्षेत्र किसे कहते हैं ? जहाँ पर तीर्थंकरो एवं सामान्य केवलियों को मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति हुई, जहाँ तीर्थंकरो के कल्याणक (मोक्ष के अलावा) हुए तथा जहाँ कोई विशेष अतिशय घटित हुआ, ऐसे स्थानों (क्षेत्रों) को तीर्थक्षेत्र कहते हैं। 2. तीर्थक्षेत्रों को कितने भागों में विभाजित किया गया है ? तीर्थक्षेत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया है 1. सिद्ध क्षेत्र, 2. कल्याणकक्षेत्र, 3. अतिशय क्षेत्र, 4. कलाक्षेत्र । सिद्ध क्षेत्र :- जिस क्षेत्र (स्थान) से तीर्थंकर और सामान्य केवली को मोक्ष की प्राप्ति हुई है, ऐसे परम पावन क्षेत्र को सिद्धक्षेत्र कहते हैं। जैसे - अष्टापदजी (कैलास पर्वत), ऊर्जयन्त पर्वत (गिरनारजी), श्रीसम्मेदशिखरजी, चम्पापुरजी, पावापुरजी, नैनागिरजी, बावनगजाजी, सिद्धवरकूटजी, मुक्तागिरि , सिद्धोदयजी (नेमावर), कुंथलगिरिजी, मथुरा चौरासीजी, तारंगाजी, शकुंजयजी, गुणावाजी, कुण्डलपुरजी आदि। कल्याणक क्षेत्र :- जिस परमपावन क्षेत्र में तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा (तप) और ज्ञानकल्याणक हुए हों, उन्हें कल्याणक क्षेत्र कहते हैं - जैसे- अयोध्याजी, श्रावस्तीजी, कौशाम्बीजी, काशीजी, मिथिलापुरजी, कुशाग्रपुरजी, शौरीपुरजी, कुण्डलपुरजी आदि। अतिशय क्षेत्र :- श्रावकों के विशेष पुण्य से देवों द्वारा (देवगति के जीव) विशेष चमत्कार आदि किए जाते हैं, ऐसे क्षेत्रों को अतिशय क्षेत्र कहते हैं। जैसे- गोमटेश्वरजी, महावीरजी, तिजाराजी, नवागढ़जी, नेमगिरिजी (जिन्तूर), कचनेरजी, भातकुली, जटवाडा, चन्द्रगिरि जी डोंगरगढ़ (छ.ग.) अादि । कला क्षेत्र :- जिन अतिशय क्षेत्रों में कलाकारों ने अपनी कला विशेष प्रदर्शित की है। ऐसे क्षेत्रों को कलाक्षेत्र कहते हैं। जैसे-धर्मस्थलजी, शंखबसदीजी (कर्नाटक), मूढबिद्री, खजुराहोजी, नौगामाजी (राजस्थान), एलोराजी आदि। 3. धर्मक्षेत्रों में पाप करने का क्या फल होता है ? अन्य क्षेत्र में किया हुआ पाप धर्मक्षेत्र में समाप्त हो जाता है किन्तु धर्मक्षेत्र में किया हुआ पाप वज़लेप जैसा कठोरता से चिपकता है अर्थात् फल दिए बिना नहीं रहता। यथा - अन्य क्षेत्रे कृतं पापं धर्म क्षेत्रे विनश्यति । धर्म क्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति॥ 4. क्षेत्र और खेत में क्या अन्तर है ? किसान परिश्रम करके खेत में धान उगाता है, जिससे सारी सृष्टि के जीवों का पेट भरता है। यह धान (अनाज) भी धम्र्यध्यान में सहायक है क्योंकि बिना भोजन के धर्म भी नहीं हो सकता है तथा धर्मात्मा क्षेत्र में ध्यान लगाता है, जिससे यह आत्मा एक दिन परमात्मा बन जाती है। यथा - खेत अरु क्षेत्र में अन्तर इतना जान। धान लगत है खेत में, लगत क्षेत्र में ध्यान। प्रमुख क्षेत्रों का विवरण निम्न प्रकार है 1. तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी - तीर्थराज सम्मेदशिखर दिगम्बर जैनों का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा शाश्वत् सिद्धक्षेत्र है। यह वर्तमान में झारखण्ड प्रदेश में पारसनाथ स्टेशन से 23 किलोमीटर पर मधुवन में स्थित है। तीर्थराज सम्मेदशिखर की ऊँचाई 4,579 फीट है। इसका क्षेत्रफल 25 वर्गमील में है एवं 27 किलोमीटर की पर्वतीय वन्दना है। सम्पूर्ण भूमण्डल पर इस शाश्वत् निर्वाणक्षेत्र से पावन, पवित्र और अलौकिक कोई भी तीर्थक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र और सिद्धक्षेत्र नहीं है। इस तीर्थराज के कण-कण में अनन्त विशुद्ध आत्माओं की पवित्रता व्याप्त है। अतः इसका एक-एक कण पूज्यनीय है, वन्दनीय है। कहा भी है - एक बार वन्दे जो कोई ताको नरक पशुगति नहीं होई। एक बार जो इस पावन पवित्र सिद्धक्षेत्र की वन्दना श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी नरक और तिर्यञ्चगति छूट जाती है अर्थात्वो नरकगति में और तिर्यञ्चगति में जन्म नहीं लेता है। इस तीर्थराज सम्मेदशिखर से वर्तमान काल सम्बन्धी चौबीसी के बीस तीर्थंकरो के साथ-साथ अरबों मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया एवं इस तीर्थ की एक बार वन्दना करने से करोड़ों उपवासों का फल मिलता है। इस सिद्धक्षेत्र की भूमि के स्पर्श मात्र से संसार ताप नाश हो जाता है। परिणाम निर्मल, ज्ञान, उज्ज्वल, बुद्धि स्थिर, मस्तिष्क शान्त और मन पवित्र हो जाता है। पूर्वबद्ध पाप तथा अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं। दु:खी प्राणी को आत्मशान्ति प्राप्त होती है। ऐसे निर्वाण क्षेत्र की वन्दना करने से उन महापुरुषों के आदर्श से अनुप्रेरित होकर आत्मकल्याण की भावना उत्पन्न होती है। 2. श्री पावापुर जी (बिहार) - यहाँ से अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। यहाँ तालाब के मध्य में एक विशाल मन्दिर है, जिसे जलमंदिर कहते हैं। जलमंदिर में तीर्थंकर महावीरस्वामी, गौतमस्वामी एवं सुधर्मास्वामी के चरण स्थापित हैं। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को तीर्थंकर महावीरस्वामी के निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है। 3. श्री अयोध्याजी (उत्तरप्रदेश) - यहाँ तीर्थंकर ऋषभदेवजी, अजितनाथजी, अभिनन्दननाथजी, सुमतिनाथ जी और अनन्तनाथजी के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे। (ऋषभदेव का ज्ञानकल्याणक प्रयाग में हुआ था) अयोध्या की रचना देवों ने की थी। यहाँ लगभग 9 फीट ऊँचाई वाली ऋषभदेव की कायोत्सर्ग प्रतिमा बड़ी मनोज्ञ है। 4. श्री कुण्डलपुर जी (मध्यप्रदेश) - बुन्देलखण्ड का यह सुप्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र है। इस क्षेत्र पर कुण्डल के आकार का एक पर्वत है, जिससे इस क्षेत्र का नाम कुण्डलपुर पड़ा है। यहाँ एक विशाल पद्मासन 12 फुट की प्रतिमा है। जिस पर चिह्न नहीं है। जिसे जैन-अजैन सभी ‘बड़े बाबा’ के नाम से जानते हैं। पर्वत एवं तलहटी में कुल मिलाकर लगभग 62 जिनालय हैं। विगत 17 जनवरी, 2006 को सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से वह मूर्ति निर्माणाधीन बहुत विशाल मंदिर में स्थापित की जा चुकी है। इस क्षेत्र से अन्तिम केवली ‘श्रीधर स्वामी’ मोक्ष पधारे थे। उनके चरणचिह्न भी वहाँ स्थापित हैं। आचार्यश्री जी द्वारा यहाँ पर फरवरी, 2013 तक 84 आर्यिका दीक्षा एवं 4 क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की जा चुकी हैं एवं 5 वर्षा योग सम्पन्न कर चुके हैं। 5. श्री सिद्धोदय जी (नेमावर) - यह क्षेत्र मध्यप्रदेश के देवास जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग 86 पर स्थित है। यहाँ से रावण के पुत्र आदिकुमार सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनिराजों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। यहाँ सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से खड्गासन। अष्टधातु की पञ्च बालयति एवं त्रिकाल चौबीसी के विशाल मंदिरों का निर्माण हो रहा है। अभी यहाँ एक मन्दिर है, जहाँ मूलनायक पार्श्वनाथ की प्रतिमा है तथा एक मन्दिर नगर (नेमावर) में है। जहाँ मूलनायक अतिशयकारी भगवान् आदिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान है। सिद्धोदय क्षेत्र पर आचार्य श्री द्वारा सन् 2013 तक 33 मुनि, 43 आर्यिका, 8 एलक एवं 7 क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की जा चुकी है एवं दो वर्षायोग सम्पन्न कर चुके हैं। 6. श्री मुक्तागिरि - यह सिद्ध क्षेत्र मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में स्थित है। यहाँ से साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष पधारे थे। यहाँ पहाड़ पर 52 जिनालय हैं। 26 नम्बर के मन्दिर में मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा है एवं तलहटी में 2 मन्दिर हैं। इस क्षेत्र में अतिशय होते रहते हैं। अभी-अभी श्रीअरुण जैन, दिल्ली जो सन् 1978 से वैशाखी के सहारे चलते थे। मुतागिरि सन् 1994 में आए तो बिना वैशाखी के यात्रा (वन्दना) की, सन् 1995 में पुनः आए तो गेट से ही वैशाखी की आवश्यकता नहीं पड़ी, सन् 1996 में वापस बैतूल जाते समय स्टेशन तक वैशाखी की आवश्यकता नहीं पड़ी, सन् 1997 से पूर्णत: वैशाखी छूट गई। वह प्रतिवर्ष यहाँ दर्शन करने आते हैं। इस सिद्धक्षेत्र पर गुरुवर आचार्यश्री विद्यासागरजी द्वारा फरवरी 2013 तक 9 मुनि, 9 एलक, 7 क्षुल्लक एवं 1 क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की जा चुकी है एवं तीन वर्षायोग सम्पन्न कर चुके हैं। 7. श्री गिरनारजी (गुजरात) - 22 वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के दीक्षा, ज्ञान एवं निर्वाण कल्याणक यहीं से हुए तथा 72 करोड़ 700 मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे यहाँ कुल 5 पहाड़ी हैं। प्रथम पहाड़ी पर राजुल की गुफा, दूसरी पहाड़ी पर अनिरुद्धकुमार के चरणचिह्न, तीसरी पहाड़ी पर शम्भुकुमार के चरणचिह्न, चौथी पहाड़ी पर प्रद्युम्न कुमार के चरणचिह्न हैं। पाँचवीं पहाड़ी पर तीर्थंकर नेमिनाथ के चरणचिह्न हैं। चरणचिह्न के पीछे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी की भव्य दिगम्बर प्रतिमा है। गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने इस पहाड़ी पर 5 एलक दीक्षा प्रदान की थीं। 8. श्री श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) - हासन जिले में श्रवणबेलगोला महान्अतिशय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में दो पहाड़ियाँ हैं। एक विन्ध्यगिरिनाम की पहाड़ी है। विन्ध्यगिरिपहाड़ी पर भगवान्बाहुबली की 57 फीट ऊँचाई वाली एक प्रतिमा खुले आकाश में है। इसे गंगवंश के सेनापति चामुण्डराय ने निर्माण कराया था, जिसका अपर नाम गोम्मट था। अत: गोम्मट के ईश्वर(स्वामी) होने से इस क्षेत्र एवं प्रतिमा का नाम गोमटेश्वर पड़ गया। इस प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा सन् 981 में हुई है। तभी से प्रत्येक 12 वर्ष में यहाँ महामस्तकाभिषेक होता है। सामने दूसरी पहाड़ी पर चन्द्रगिरि है, जहाँ पर अनेक मन्दिर हैं। चामुण्डराय ने चन्द्रगिरि पर एक हस्त प्रमाण इन्द्रनीलमणि की तीर्थंकर नेमिनाथजी की प्रतिमा स्थापित की थी। एक गुफा में अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु मुनिराज के चरणचिह्न बने हुए हैं। जहाँ उन्होंने सल्लेखना धारण की थी।
  17. बीसवीं - इक्कीसवीं शताब्दी में सर्वाधिक दीक्षा देने वाले मूकमाटी महाकाव्य के रचयिता गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी का जीवन परिचय एवं चारित्र विकास का वर्णन इस अध्याय में है। 1. आचार्य श्री विद्यासागर जी कौन हैं ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी एवं आचार्य श्री वीरसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री शिवसागर जी एवं आचार्य श्री शिवसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी एवं आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के प्रथम शिष्य सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज हैं। 2. आचार्य श्री विद्यासागर जी का सामान्य जीवन परिचय बताइए ? पूर्व नाम विद्याधर अपर नाम पीलू, गिनी (तोता) और मरी। जन्म स्थान सदलगा जिला बेलगाँव (कर्नाटक)। जन्म दिंनाक आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), वि.सं.2003(दि.10 अक्टू.1946, गुरुवार रात्रि 1.50 पर) माता श्रीमन्ति (समाधिस्थ आार्यिका श्री समयमतीजी) पिता श्री मलप्पाजी जैन (अष्टगे) (समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागर जी)। दादी श्रीमती काशीजी जैन अष्टगे। दादा श्री पारिसजी जैन अष्टगे। भाई महावीर, अनन्तनाथ एवं शान्तिनाथजी। अनंतनाथजी (मुनि श्री योगसागर जी) एवं शान्तिनाथ जी (मुनि श्री समयसागर जी)। (बचपन का नाम सुकुमाल) बहिन बाल ब्रह्मचारिणी शान्ता एवं सुवर्णा। शिक्षा 9 वीं कन्नड़ माध्यम से। हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के भी ज्ञाता हैं। मातृभाषा कन्नड़। प्रिय खेल शतरंज। गृहत्याग 27 जुलाई सन् 1966 ब्रह्मचर्यव्रत सन् 1966 में आचार्य श्री देशभूषण जी से, खानियाँ जी, जयपुर (राजस्थान)। प्रतिमा सात प्रतिमा के व्रत श्रवणबेलगोला (कर्नाटक)। मुनि दीक्षा आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी, 30 जून 1968 वि.सं.2025 दिन शनिवार,अजमेर (राज.)। दीक्षा गुरु मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज।(दीक्षा देते समय आचार्य ज्ञानसागर जी मुनि थे) आचार्यपद 22 नवम्बर सन् 1972 मगसिर कृष्ण द्वितीया वि.सं.2029 में,आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा। त्याग नमक, मीठा सन् 1969 में। उपवास लगातार नौ, मुतागिरि सन् 1990 में। चटाई का त्याग सन् 1985 आहारजी से। हरी (वनस्पति) त्याग सन् 1994 रामटेक से। 3. बालक पीलू ने अपनी माता के साथ कितने माह की अवस्था में गोम्मटेश की यात्रा प्रथम बार की थी ? बालक पीलू ने अपनी माता के साथ 18 माह की अवस्था में गोम्मटेश की यात्रा प्रथम बार की थी। 4. विद्याधर नामकरण कैसे हुआ ? माँ श्रीमन्ति गर्भवती अवस्था में अकिवाट के विद्यासागर के समाधिस्थल पर जाती थीं उनके ऊपर विशेष भक्ति होने से उस बच्चे का नाम विद्याधर रखा। 5. विद्याधर ने कितने वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत, किससे और कहाँ लिया था ? 20 वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से खानियाँ (चूलगिरी) जयपुर में लिया था। 6. श्रीमन्ति ने कुल कितनी सन्तानों को जन्म दिया था ? श्रीमन्ति ने कुल 10 सन्तानों को जन्म दिया। जिनमें से 4 का बाल्यावस्था में ही अवसान हो गया था। 7. ब्रह्मचारी विद्याधर ने गृह त्याग कब किया ? 27 जुलाई सन् 1966 को अनुराधा नक्षत्र में मित्र मारुति के साथ तीनों मन्दिरों के दर्शन करके प्रात: 11.30 पर मारुति ने बस में बिठाल दिया। तोता तो हँसते-हँसते उड़ गया और मारुति रोते-रोते घर पहुँचा। 8. विद्याधर की मुनि दीक्षा की शोभा यात्रा में कितने हाथी थे ? विद्याधर की मुनि दीक्षा की शोभा यात्रा में 25 हाथी थे। 9. विद्याधर की मुनि दीक्षा में माता-पिता कौन बने थे ? विद्याधर की मुनि दीक्षा में माता जतन कुंवर जी एवं पिता हुकमचंद लुहाड़िया जी बने थे। 10. श्रीमन्ति माता एवं शान्ता, सुवण ने ब्रह्मचर्य व्रत कहाँ, कब एवं किससे लिया था ? सवाईमाधोपुर में 8 अप्रैल, सन् 1975 को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से लिया था। 11. अनन्तनाथ एवं शान्तिनाथ ने ब्रह्मचर्य व्रत कहाँ, कब एवं किससे लिया था ? महावीर जी में 2 मई, सन् 1975 को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से लिया था। 12. आचार्य श्री विद्यासागर जी ने प्रथम मुनि दीक्षा कहाँ एवं कब दी थी ? एलक समय सागर जी को 08.03.1980, शनिवार, चैत्र कृष्ण षष्ठी को द्रोणगिरी सिद्धक्षेत्र, जिला छतरपुर (म.प्र.) में मुनि दीक्षा प्रदान की थी। 13.आचार्य श्री विद्यासागर जी ने प्रथम बार आर्यिका दीक्षा कितनी, कब और कहाँ दी थी ? 11 आर्यिकाएँ दीक्षा 10 फरवरी, सन् 1987 को सिद्ध क्षेत्र नैनागिर, जिला छतरपुर (म.प्र.) में दी थी। 14. आचार्य श्री ने अभी तक (अगस्त, 2013 तक) कुल कितनी दीक्षाएँ दी हैं ? 113 मुनि, 172 आर्यिकाएँ, 21 एलक, 14 क्षुल्लक एवं 3 क्षुल्लिका, कुल 323 दीक्षाएँ दी हैं। विशेष - किन्तु जो क्षुल्लक से एलक, एलक से मुनि हुए अथवा क्षुल्लक से मुनि या एलक से मुनि हुए उनकी अपेक्षा दीक्षाओं की संख्या में अन्तर आएगा अत: - 113 मुनि, 172 आर्यिकाएँ, 56 एलक, 64 क्षुल्लक एवं 3 क्षुल्लिका कुल 408 दीक्षाएँ दी गई। 15. आचार्य श्री ने अब तक (अगस्त, 2013 तक) कितने राज्यों में विहार (गमनागमन) किया है ? 9 राज्यों में - राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिमबंगाल, उड़ीसा, गुजरात एवं छत्तीसगढ़। 16. यह नमन गीत किसने लिखा है ? रत्नत्रय से पावन जिनका यह औदारिक तन है। गुप्ति समिति अनुप्रेक्षा में रत, रहता निशि दिन मन है। पंडित नरेन्द्र प्रकाशजी फिरोजाबाद ने। 17. आचार्य श्री से सर्वप्रथम किन मुनि महाराज ने चारित्र शुद्धि व्रत के 1234 उपवास लिए एवं पूर्ण भी किए ? समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागर जी ने (गृहस्थ अवस्था के आचार्य श्री विद्यासागर जी के पिताजी)। 18. आचार्य श्री से सर्वप्रथम किस शिष्य मुनि ने चारित्र शुद्धि के व्रत के 1234 उपवास लिए हैं ? मुनिश्री उत्तमसागर जीने। 19. आचार्य श्री के किस शिष्य ने चारित्र शुद्धि के 1234 उपवास सर्वप्रथम पूर्ण किए ? मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर जी ने सर्वप्रथम पूर्ण किए। भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा 10-9-99 शुक्रवार गोम्मटगिरी इन्दौर में गुरु पादमूल में प्रारम्भ किए एवं श्रावण कृष्ण द्वादशी 19-7-09, रविवार हुपरी (महाराष्ट्र) के चन्द्रप्रभमन्दिर में मुनि श्री विनीतसागर जी के सान्निध्य में पूर्ण हुए। कुल समय 9 वर्ष 10 माह 10 दिन। 20. क्या मुनि श्री चन्द्रप्रभसागर जी ने और भी कोई विशेष उपवास किए हैं ? सिंह निष्क्रीडित व्रत औरंगाबाद में 22-7-05 वीरशासन जयन्ती से प्रारम्भ 09-10-05 को समाप्त जिसमें 60 उपवास एवं 20 पारणा। त्रिलोकसार विधि विधान हिंगोली (महाराष्ट्र) में 12-7-06 से 21-8-06 तक 30 उपवास एवं 11 पारणा। सिंह निष्क्रीडित दूसरी बार भाद्रपद कृष्ण तृतीया 09-08-09 से 27-10-09 तक 60 उपवास एवं 20 पारणा स्थान हुपरी (महाराष्ट्र) । वज़मध्य विधि- कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में 28-9-10 से 4-11-10 तक 29 उपवास एवं 9 पारणा। कर्मदहन व्रत 148 उपवास, 20-7-09 से 31-7-10 तक एक उपवास एक पारणा समापन कोल्हापुर में। जिन गुणसंपति के 63 उपवास 01-8-10 से 15-1-11 एक उपवास एक पारणा समापन चिंचवाड (महाराष्ट्र) में। सोलहकारण के 16 उपवास 20-1-11 से 19-2-11 तक एक उपवास एक पारणा समापन रूकड़ी (महाराष्ट्र) में। सिद्धीं के 8 उपवास 16-1-11 से 3-3-11तक एक उपवास एक आहार समापन सदलगा(कर्नाटक)। धर्मचक्र विधि के 1004 उपवास 6-3-11 से सदलगा में प्रारम्भ हुए इस व्रत के प्रारम्भ एवं अन्त में दो—दो उपवास शेष 1 उपवास 1 पारणा। सिंह निष्क्रीडित तीसरी बार श्रावण शुक्ल पूर्णिमा 13-08-11 से 31-10-11 तक 60 उपवास एवं 20 पारणा स्थान फलटन (महाराष्ट्र) । 21.आचार्य श्री के सान्निध्य में अब तक (जून 2013) कितने पञ्चकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव हुए हैं ? आचार्य श्री के सान्निध्य में 48 बार पञ्चकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव दोनों मिलाकर हुए। 22. ऐसा कौन सा नगर है, जहाँ छह बार गजरथ चले (सन् 1993 से 2012 तक) हैं एवं पाँच बार आचार्य श्री ससंघ विराजमान थे ? सागर (म.प्र.) में छह बार गजरथ चले। 23. आचार्य श्री के सान्निध्य में प्रथम बार त्रिगजरथ महोत्सव कहाँ हुआ था ? खजुराहो (म.प्र.) में हुआ। 24. आचार्य श्री के सान्निध्य में अगस्त 2007 तक कितनी समाधियाँ हुई हैं ? 29 समाधियाँ। 25. उत्तर प्रदेश में आचार्य श्री का वर्षायोग कहाँ हुआ था ? उत्तरप्रदेश में आचार्य श्री का वर्षायोग फिरोजाबाद में हुआ था। 26. गुजरात में आचार्य श्री का वर्षायोग कहाँ हुआ था ? गुजरात में आचार्य श्री का वर्षायोग महुवा पार्श्वनाथ, जिला सूरत में हुआ था। 27. बिहार राज्य में आचार्य श्री का वर्षायोग कहाँ हुआ था ? बिहार राज्य में आचार्य श्री का वर्षायोग ईसरी (वर्तमान झारखंड) में हुआ था। 28. महाराष्ट्र में आचार्य श्री के (2013) तक कितने वर्षायोग हुए हैं ? महाराष्ट्र में आचार्यश्री के 4 वर्षायोग रामटेक में हुए। 29. मुनि पद एवं आचार्य पद दोनों मिलाकर के आचार्य श्री के राजस्थान (2013 तक) में कुल कितने वर्षायोग हुए ? मुनि पद एवं आचार्य पद दोनों मिलाकर के आचार्य श्री के राजस्थान में 7 वर्षायोग हुए। 30. आचार्य श्री ने अभी तक कितनी रचनाएँ की हैं ? पद्यानुवाद, दोहानुवाद, हिन्दी शतक, संस्कृत शतक, दोहा शतक, कविता संग्रह आदि लगभग 69 रचनाएँ की हैं। 31. आचार्य श्री के द्वारा लिखित महाकाव्य मूकमाटी का लेखन कब और कहाँ प्रारम्भ हुआ एवं कब और कहाँ समाप्त हुआ था ? मूकमाटी लेखन कार्य का प्रारम्भ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर मध्यप्रदेश में आयोजित हुए ग्रन्थराज षट्खण्डागम रचना शिविर (चतुर्थ) के प्रारम्भिक दिवस बीसवें तीर्थंकर मुनिसुत्रतनाथ जी के दीक्षा कल्याण दिवस वैशाख कृष्णदशमी, वीर निर्वाण सम्वत् 2510, विक्रम सम्वत् 2041, बुधवार, 25 अप्रैल 1984 को हुआ तथा समापन श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरि जी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में आयोजित श्रीमज्जिनेन्द्र, पञ्चकल्याणक एवं त्रिगजरथ महोत्सव के दौरान ज्ञान कल्याणक दिवस, माघ शुक्ल त्रयोदशी, वीर निर्वाण सम्वत् 2513, विक्रम सम्वत् 2043, बुधवार, 11 फरवरी 1987 को हुआ। मूकमाटी पर 4 डी.लिट, 24 पी.एच.डी., 7 एम.फिल. 2 एम.एड. तथा 6 एम.ए. शोध हो चुके हैं/हो रहे हैं। रायपुर, वाराणसी एवं राजकोट के विश्व विद्यालयों में पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो चुकी है एवं बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल में सन्दर्भ के रूप में सम्मिलित किया जा चुका है। मूकमाटी का अंग्रेजी, मराठी, बंगला, कन्नड़, गुजराती में अनुवाद हो चुका है। मूकमाटी का अंग्रेजी संस्करण “द साइलेट अर्थ' का विमोचन तात्कालिक राष्ट्रपति सौ. प्रतिभा देवी जी पाटिल द्वारा 14.06.2011 को राष्ट्रपति भवन दिल्ली में हुआ था। मूकमाटी पर लगभग 350 जैन-अजैन विद्वानों ने समीक्षा लिखी है, जिसका प्रकाशन मूकमाटी मीमांसा भाग 1, 2, 3 के नाम से भारतीय ज्ञान पीठ से हो चुका है। 32. मूकमाटी महाकाव्य कितने खण्डों में लिखा है एवं उनके नाम क्या हैं ? मूकमाटी महाकाव्य को चार खण्डों में लिखा है संकर नहीं, वर्ण लाभ। शब्द सो बोध नहीं, बोध सोशोध नहीं। पुण्य का पालन, पाप–प्रक्षालन। अग्नि की परीक्षा, चाँदी-सी राख। 33. आचार्य श्री के आशीर्वाद से शिक्षण संस्थान कहाँ-कहाँ खुले हैं ? प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान, जबलपुर (मध्य प्रदेश) । श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर,जयपुर (राजस्थान)। शान्ति विद्या छात्रावास, उमरगा (महाराष्ट्र) । श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन गुरुकुल, हैदराबाद (आंध्रप्रदेश)। विद्यासागर इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, भोपाल (मध्य प्रदेश)। प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ, जबलपुर (मध्य प्रदेश)। विद्यासागर बी.एड. कॉलेज, विदिशा (मध्य प्रदेश) । प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ, डोंगरगढ़ (छ.ग.) । 34. आचार्य श्री के आशीर्वाद से कौन-कौन से प्रभावक कार्य हुए एवं हो रहे हैं ? श्री पिसनहारी जी की मढ़िया, जबलपुर में नंदीश्वरद्वीप का नवीन निर्माण हुआ। श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, कुण्डलपुर के बड़े बाबा का निर्माणाधीन बड़े मन्दिर में विराजमान होना। श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेकजी में चौबीसी एवं पञ्चबालयति मन्दिरों का नवीन निर्माण हुआ। श्री सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र, नेमावर में त्रिकाल चौबीसी एवं पञ्चबालयति मन्दिरों का नवीन निर्माण कार्य प्रारम्भ है। श्री सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक का नवीन निर्माण हुआ। श्री भाग्योदय तीर्थ (मानव सेवा के लिए अस्पताल) का नवीन निर्माण सागर में हुआ। सिलवानी में समवसरण मन्दिर का नवीन निर्माण कार्य प्रारम्भ है। श्री शान्तिनाथ दिगम्बर अतिशय क्षेत्र बीनाबारह जी का जीणोंद्धार हुआ। विदिशा के शीतलधाम हरीपुरा में समवसरण मन्दिर का नवीन निर्माण कार्य प्रारम्भ है। नवीन निर्माण डोंगरगढ़ में श्री चन्द्रगिरि क्षेत्र का जहाँ 21 फीट ऊँची पाषाण की प्रतिमा का विजौलिया पार्श्वनाथ के आकार में एवं धातु की त्रिकाल चौबीसी प्रतिमाओं का निर्माण कार्य प्रारम्भ है। सुप्रीमकोर्ट में 7 जजों के बैंच से ऐतिहासिक गौवध पर प्रतिबन्ध का फैसला हुआ। बैलों की रक्षा एवं गरीबों को रोजगार हेतु दयोदय जहाज नाम की संस्था का निर्माण गंजबासौदा एवं विदिशा में। भारतवर्ष की 70 गौशालाओं में लगभग 40,000 पशुओं का संरक्षण हो रहा है। श्री दिगम्बर धर्म संरक्षिणी सभा द्वारा गरीब महिलाओं को रोजगार की व्यवस्था के लिए गृह उद्योगो को प्रोत्साहन। बीनाजी बारह में शान्तिधारा दुग्ध योजना का निर्माण कार्य प्रारम्भ है।
  18. क्षीणकाया में अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी यथानाम तथा गुण के धारी गुरुणाम गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी का जीवन परिचय एवं चारित्र विकास का वर्णन इस अध्याय में है। 1. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज कौन थे ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी, आचार्य श्री वीरसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री शिवसागरजी, आचार्य श्री शिवसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी थे। 2. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का सामान्य परिचय क्या है ? आपका पूर्वनाम - भूरामलजी अपरं नाम - शान्तिकुमार माता - श्री मती धृतवरी देवी पिता - श्री चतुर्भुज छाबड़ा दादी - श्री मती गट्टूदेवी दादा - सुखदेवजी भाई - आप कुल 5 भाई थे - जन्म - विक्रम संवत् 1948 सन् 1891 में स्थान - राणोली, जिला-सीकर (राजस्थान) पिता की मृत्यु - सन् 1902 में शिक्षा - प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में एवं शास्त्री स्तर की शिक्षा स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस में हुई थी। 3. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का प्रारम्भिक जीवन कैसा रहा था ? कहा जाता है कि सरस्वती एवं लक्ष्मी साथ-साथ नहीं रहती है, यह कहावत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी पर पूर्णतः घटित हुई थी। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। साधनों के अभाव में आप आगे अध्ययनन कर अपने अग्रज के साथ नौकरी हेतुगया (बिहार) आ गए। वहाँ एक सेठ के यहाँ आजीविका हेतु कार्य करने लगे, किन्तु आपका मन आगे अध्ययन करने का था। संयोगवश स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस के छात्र किसी समारोह में भाग लेने हेतु गया में आए। उनके प्रभावपूर्ण कार्यक्रमों को देखकर भूरामलजी के भाव अध्ययन हेतु वाराणसी जाने के हुए। आपकी तीव्र इच्छा देख आपके अग्रज ने जाने की अनुमति दे दी। पढ़ाई के खर्च एवं भोजन के खर्च के लिए आपगङ्गा के घाट पर गमछा बेचते थे। उससे प्राप्त आय से खर्च की पूर्ति करते थे। बाद में किसी ने कहा आपको खर्च महाविद्यालय से मिल जाएगा, किन्तु स्वावलम्बी जीवन जीने वाले भूरामल जी ने मना कर दिया। वाराणसी से शास्त्री की परीक्षा पास कर आपने व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त एवं अध्यात्म विषयों के अनेक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। बनारस से लौटकर आपने साहित्य साधना, लेखन, मनन करके अनेक ग्रन्थों की रचना संस्कृत तथा हिन्दी में की। वर्तमान शताब्दी में संस्कृत भाषा के महाकाव्यों की रचना को जीवित रखने वाले मूर्धन्य विद्वानों में आपका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। काशी के दिग्गज विद्वानों ने प्रतिक्रिया की थी, ‘इस काल में भी कालीदास और माघ कवि की टक्कर लेने वाले विद्वान् हैं, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है।” इस प्रकार जिनवाणी की सेवा में 50 वर्ष पूर्ण किए। किन्तु ‘ज्ञानं भारं क्रिया बिना” क्रिया के बिना ज्ञान भार स्वरूप है - इस मन्त्र को जीवन में उतारने हेतु आप त्याग मार्ग पर प्रवृत्त हुए। 4. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का चारित्र पथ किस प्रकार था ? ब्रह्मचर्य प्रतिमा - व्रत रूप में सन् 1947, वि.सं.2004 में क्षुल्लक दीक्षा - 25 अप्रैल, सन् 1955 में वि.सं.2012 में अक्षय तृतीया के दिन, मन्सूरपुर, मुजफ्फरनगर, (उत्तर प्रदेश) के पाश्र्वनाथ जिनालय में स्वयं ली थी। एलक दीक्षा - सन् 1957 में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से मुनि दीक्षा - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया 22 जून, सन् 1959, सोमवार दीक्षागुरु - आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज आचार्य पद कब मिला - 7 फरवरी, सन् 1969, शुक्रवार फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी, वि.सं. 2025 को नसीराबाद (राज.) में समाज ने दिया। इस दिन एक साधक को मुनि दीक्षा दी थी। नाम मुनि श्री विवेकसागर जी रखा था। आचार्य पद त्यागना एवं - 22 नवम्बर सन् 1972, मगसिर कृष्ण द्वितीया वि.सं. सल्लेखना व्रत ग्रहण 2029 को अपने प्रथम शिष्यमुनि श्री विद्यासागर जी को नसीराबाद में आचार्य पद दिया एवं सल्लेखना के लिए निवेदन किया। समाधिस्थ - ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, 1 जून 1973, शुक्रवार वि.सं. 2030 में स्थान नसीराबाद (राज.) समाधिस्थ समय प्रात: 10 बजकर 50 मिनट पर। सल्लेखना काल - 6 माह 13 दिन (तिथि के अनुसार) सल्लेखनाकाल - 6 माह 10 दिन (दिनाक अनुसार) 5. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने क्या-क्या साहित्य लिखा है ? संस्कृत भाषा में महाकाव्य - दयोदय, जयोदय और वीरोदय। चरित्रकाव्य – सुदर्शनोदय, भद्रोदय और मुनि मनोरंजनाशीति। जैन सिद्धान्त - सम्यक्त्वसारशतकम्। धर्मशास्त्र प्रवचनसार प्रतिरूपक। हिन्दी भाषा में चरित्रकाव्य- ऋषभावतार, भाग्योदय, विवेकोदय और गुण सुन्दर वृतान्त। धर्मशास्त्र कर्तव्यपथप्रदर्शन, सचित्तविवेचन, सचित्तविचार, तत्त्वार्थसूत्र टीका और मानवधर्म।। पद्यानुवाद – देवागमस्तोत्र, नियमसार और अष्टपाहुड। अन्मय - स्वामीकुन्दकुन्द और सनातन्जैनधर्म, जैनविवाह विधि, भक्ति संग्रह, हितसम्पादकम्, पवित्र मानव जीवन, इतिहास के पन्ने, ऋषि कैसा होता है, समयसार हिन्दी टीका, शान्तिनाथ पूजन विधान आदि। 6. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने ज्ञानदान किस-किस को दिया ? अनेक साधु, आर्यिकाएँ, एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी एवं श्रावकों को दिया। आचार्य वीरसागर जी के संघ में, आचार्य शिवसागर जी के संघ में, आचार्य धर्मसागर जी, आचार्य अजितसागर जी एवं वर्तमान में श्रेष्ठ आचार्य विद्यासागर जी इनके अनुपम उदाहरण हैं। 7. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की सल्लेखना किस प्रकार हुई थी ? सर्वप्रथम आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपने आचार्य पद का त्याग किया और वह पद मुनि विद्यासागर को दिया एवं उन्होंने आचार्य विद्यासागर जी से निवेदन किया कि मेरी सल्लेखना करा दें। वैसे आचार्य परमेष्ठी के लिए नियम है कि वे दूसरे संघ में सल्लेखना लेने जाएँ, वे क्यों नहीं गए मेरे मन में एक चिन्तन आया कि आचार्य ज्ञानसागर जिन्हें सब कुछ अपने शिष्य विद्यासागर जी को सिखा दिया, कैसे पढ़ाया जाता है ? कैसे शिष्यों की भर्ती की जाती है ? कैसे दीक्षा दी जाती है ? कैसे संघ चलाया जाता है ? आदि, किन्तु यह नहीं सिखाया कि सल्लेखना कैसे दी जाती है ? इसलिए उन्होंने स्वयं सल्लेखना आचार्य विद्यासागर जी से ली, जिससे वे भी सीख जाएँ। करोड़ों रुपयों की जायदाद पाने वाला बेटा भी वैसी सेवा पिता की नहीं करता जैसी सेवा आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु आचार्य श्रीज्ञानसागरजी की। आचार्य श्रीज्ञानसागरजी को साइटिकाका दर्द रहता था। जिससे वे गर्मी के दिनों में भी बाहर शयन नहीं करते थे। तब भी आचार्य विद्यासागर जी अन्दर गर्मी में शयन करते थे। हमेशा जागृत अवस्था में ज्ञानसागर जी रहते थे। उन्होंने लगभग 6 माह पहले अन्न का त्याग कर दिया था एवं 4 उपवास के साथ राजस्थान की भीषण गर्मी में यम सल्लेखना सम्पन्न हुई थी। विशेष : आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के साहित्य पर अभी तक 2 डी.लिट, 4 विद्यावारिधि, 32 पी.एच.डी., 8 एम.ए. तथा 3 एम.फिल के शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं।
  19. बीसवीं शताब्दी में श्रमण परम्परा को पुनर्जीवन देने वाले घोर उपसर्ग विजेता, महान् तपस्वी आचार्य शान्तिसागर जी का जीवन परिचय एवं चारित्र के विकास का वर्णन इस अध्याय में है। 1. सातगौड़ा का जन्म कब और कहाँ हुआ था ? भोजग्राम (कर्नाटक) के समीप येलगुल (महाराष्ट्र) में नाना के यहाँ आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं. 1929, 25 जुलाई सन् 1872 को बुधवार रात्रि के समय हुआ था। 2. सातगौड़ा जब माता के गर्भ में थे, तब माता को कैसा दोहला (तीव्र इच्छा) हुआ था ? 108 सहस्रदल वाले कमलों से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करूं। तब कोल्हापुर के समीप के तालाब से वे कमल लाए गए और भगवान् की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की गई थी। 3. आचार्य श्री शान्तिसागर जी का पूर्व का क्या नाम था ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी का पूर्व नाम सातगौड़ा था। 4. सातगौड़ा के माता-पिता का क्या नाम था ? माता सत्यवती एवं पिता भीमगौड़ा पाटील (मुखिया) थे। जाति चतुर्थ जैन थी। 5. सातगौड़ा कितने भाई-बहिन थे ? सातगौड़ा पाँच भाई-बहिन थे। आदिगौड़ा, दैवगौड़ा, सातगौड़ा (आचार्य श्रीशान्तिसागर जी), कुम्भगौड़ा एवं बहिन कृष्णाबाई थी। 6. सातगौड़ा विवाहित थे या बालब्रह्मचारी ? विवाहित बालब्रह्मचारी थे। अर्थात् 9 वर्ष की अवस्था में 6 वर्ष की बालिका के साथ इनका विवाह हो गया था। दैवयोग से उस बालिका का 6 माह बाद मरण भी हो गया। महाराज ने बताया था कि "हमने उसे अपनी स्त्री के रूप में कभी नहीं जाना था’’ बाद में उन्होंने विवाह नहीं किया। 7. सातगौड़ा के कब से मुनि बनने के भाव थे ? बाल्यावस्था 17-18 वर्ष में ही मुनि बनना चाहते थे, किन्तु आपके पिता का आप पर बड़ा अनुराग था। पिता ने कहा जब तक हमारा जीवन है, तब तक तुम घर में रहकर साधना करो। बाद में मुनि बनना। अतः पिता की आज्ञा के कारण उनके समाधिमरण के बाद 43 वर्ष की अवस्था में क्षुल्लक बने एवं 48 वर्ष की अवस्था में मुनि बने थे। 8. सातगौड़ा ने सम्मेदशिखर जी की वंदना कब की एवं वहां क्या त्याग करके आए थे ? 32 वर्ष की अवस्था में सम्मेदशिखर जी की वंदना के लिए गए थे। स्मृति स्वरूप घी-तेल खाने का आजीवन त्यागकर आए एवं घर आते ही एक बार भोजन करने की प्रतिज्ञा ले ली। 9. सातगौड़ा के बचपन में प्राणी-रक्षा के भाव थे या नहीं ? प्राणी-रक्षा के भाव थे। एक दिन की घटना है, सातगौड़ा शौच के लिए बाहर (जंगल में) गए थे। वापस आने पर उनके हाथ में टूटे हुए लोटे को देखकर घर में पूछा गया यह लोटा कैसे टूट गया? उन्होंने बताया कि, एक सर्प एक मेंढक को खाने जा रहा था, उस समय उस मेंढक की प्राण रक्षा के लिए मैंने तत्काल इस लोटे को पत्थर पर जोर से पटक दिया, जिससे वह सर्प भाग गया। जब खेत पर जाते तो पक्षी फसल को नुकसान पहुँचाते थे, परन्तु उन्हें भगाते नहीं थे बल्कि पीने के लिए पानी और रख देते थे। 10. सातगौड़ा का व्यापारिक जीवन कैसा था ? सातगौड़ा एवं कुम्भगौड़ा कपड़े की दुकान पर बैठते थे। जब सातगौड़ा रहते थे। दुकान पर ग्राहक आता तो उससे कहते थे कौन सा कपड़ा लेना है, अपने हाथ से नाप लो और पैसे यहाँ रख दो। वे पैसे भी स्वयं नहीं गिनते थे | 11. सातगौड़ा घर में वीतरागी कैसे थे ? हाँ, सातगौड़ा घर में वीतरागी थे, इसी कारण वे अपने छोटे भाई कुम्भगौड़ा एवं बहिन कृष्णा के विवाह में शामिल नहीं हुए थे। 12. सातगौड़ा की करुणा एवं शारीरिक शक्ति कैसी थी ? जब सातगौड़ा सम्मेदशिखर जी की वंदना कर रहे थे तब एक वृद्धा चल नहीं पा रही थी एवं उसके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह डोली कर सके। अत: सातगौड़ा ने देखा और उस वृद्धा को अपने कंधे पर बिठाकर वंदना करा दी। इसी प्रकार एक पुरुष को भी राजगृही की पञ्च पहाड़ियों की वंदना करा दी थी। 13. आचार्य श्री शान्तिसागर जी का संयम पथ किस प्रकार था ? 1. क्षुल्लक दीक्षा - देवेन्द्रकीर्ति मुनि से ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी वि.सं. 1972, सन् 1915 में उत्तूरग्राम में। 2. एलक दीक्षा - स्वयं ली, सिद्धक्षेत्र गिरनार जी में पौष शुक्ल चतुर्दशी वि.सं.1975, 15 जनवरी,बुधवार सन् 1919 में। 3. मुनिदीक्षा - यरनाल पञ्चकल्याणक में फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशीवि.सं.1976, 2 मार्च, मङ्गलवार,सन् 1920 में हुई थी। दीक्षा गुरु मुनि देवेन्द्रकीर्ति थे। 4. आचार्यपद - समडोली में आश्विन शुक्ल एकादशी वि.सं.1981, 8 अक्टू, बुधवार सन् 1924 में। 5. चारित्र चक्रवर्ती पद - गजपंथा वि.सं. 1994 सन् 1937 में। 14. एलक शान्तिसागर जी ने वाहन का त्याग कब और कहाँ किया था ? सिद्धक्षेत्र गिरनारजी से वापस आकर सांगली के समीपवर्ती कुण्डल नाम के पहाड़ से अलंकृत स्टेशन पर उतरे। वहाँ के मंदिरों की वंदना कर जीवन भर के लिए वाहन (सवारी) का त्याग कर दिया था। 15. आचार्य श्री शान्तिसागर जी का उत्तर भारत में प्रथम चतुर्मास कहाँ हुआ था ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी का उत्तर भारत में प्रथम चतुर्मास सन् 1928 में कटनी (म.प्र.) में हुआ था। 16. आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने अपने मुनि जीवन में कितने उपवास किए थे ? 35 वर्ष के मुनि जीवन में 27 वर्ष 2 माह और 23 दिन अर्थात् 9,938 उपवास किए थे। 17. आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने आचार्य पद का त्याग कब, कहाँ किया था एवं किसे दिया था ? आचार्य पद का त्यागपत्र के द्वारा सन् 1955 में कुंथलगिरी में किया था और वह पत्र अतिशय क्षेत्र चूलगिरि खानियाँजी, जयपुर में मुनि श्री वीरसागर जी के पास भेजा जो उनके प्रथम शिष्य थे। अर्थात्मुनि श्री वीरसागर जी को आचार्य पद प्रथम भाद्रपद शुक्ल नवमी वि. सं. 2012, 26 अगस्त सन् 1955 दिन शुक्रवार को दिया। 18. आचार्य श्री शान्तिसागर जी की समाधि कब और कहाँ हुई थी ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी की समाधि द्वितीय भाद्रपद शुक्ल द्वितीया वि.सं.2012 दिन रविवार, 18 सितम्बर सन् 1955 में कुंथलगिरी में हुई थी। 19. आचार्य श्री शान्तिसागर जी की सल्लेखना कितने दिन चली ? 36 दिन की यम सल्लेखना हुई। 14 अगस्त को आहार के उपरान्त उन्होंने आहार को छोड़ा, किन्तु जलग्रहण की छूट रखी थी एवं 4 सितम्बर को अन्तिम बार जल लेकर उसका भी त्याग कर दिया था। 20. मुनि श्री वर्धमानसागर जी (आचार्य श्री शान्तिसागर जी के अग्रज) के अनुसार आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने मुनि दीक्षा किससे ली थी ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने मुनि दीक्षा भौंसेकर आदिसागर जी मुनिराज से यरनाल में ली थी। 21. आचार्य श्री शान्तिसागर जी की शिष्य परम्परा कौन-कौन सी हैं ? आचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य श्री वीरसागर जी आचार्य श्री वीरसागरजी आचार्य श्री शिवसागर जी आचार्य श्री शिवसागर जी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी आचार्य श्री धर्मसागर जी विशेष :- और भी अनेक शिष्य परम्परा हैं। 22. आचार्य श्री शान्तिसागर जी का वर्णन किस ग्रन्थ में है एवं उसके लेखक कौन हैं ? चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ में है। लेखक स्व.पंडित सुमेरूचंद जी दिवाकर सिवनी (म.प्र.) 23. चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का विमोचन कब हुआ था ? दिनाँक 4.3.1953 को प्रात: श्रवणबेलगोला में आचार्य श्री देशभूषणजी के ससंघ सानिध्य में। (लगभग सम्पूर्ण विषय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ से लिया गया है)
  20. कपूर सम, बिना राख बिखरा, सिद्धों का तन। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. सिद्ध घृत से, महके, बिना गन्ध, दुग्ध से हम। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. आती छाती पे, जाती कमर पे सो, दौलत होती। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. कोई देखे तो, लज्जा आती, मर्यादा।, टूटने से ना…! हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. राजा प्रजा का, वैसा पोषण करे, मूल वृक्ष का। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  25. तुमसे मेरे, कर्म कटे, मुझसे, तुम्हें क्या मिला ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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