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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पथरिया नगर की बात है। पञ्चकल्याणक पूरे/सानंद सम्पन्न हुए, गजरथ परिक्रमा भी हो गयी। यह सब गुरु महाराज के पुण्य प्रताप का फल था। तीसरे दिन शौच क्रिया के लिए जा रहे थे। पञ्चकल्याणक स्थल से ही गुजर कर जाना पड़ता था। वहाँ मंच का सारा सामान उठ कर चला गया था। पंडाल में लगे सभी पर्दे भी निकाल लिये गये थे। मात्र लकड़ियों का ढाँचा खड़ा था। यह देख आचार्य भगवन् बोले कि- अब देखो कितना अच्छा लग रहा है, वैराग्य का वातावरण है। कल तक तो यहाँ रागरंग रहा, बहुत भीड़ भी रही अब लग रहा है सही वातावरण साधकों के अनुकूल। मैंने कहा - जी आचार्य श्री। ऐसा लगा जैसे आचार्य श्री कुछ संकेत देना चाहते हों, बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी लग रहा था कहीं आचार्य श्री पुन: कहीं और जाने का आदेश न दे दें। ऐसा सोच ही रहा था कि -आचार्य श्री बोले - कुंथु, वैराग्य ही सब कुछ है साधक का। वैराग्य ही जीवन में सब कुछ है। मैंने फौरन कहा - गुरुदेव ! मुझे आप मिल गये मेरे लिए तो आप ही सब कुछ हैं। आचार्य श्री हँसकर बोले कि - नहीं ! यह तो राग है, बाद में मालूम पड़ेगा वैराग्य। मैं सोचता ही रह गया। कुछ दिन बाद गुरूदेव हम तीनों मुनियों को (मुनि श्री अजितसागर जी, मुनि श्री पुष्पदंत सागर जी और मुझे) बंडा विहार करने की आज्ञा देकर कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान कर गये। सच है गुरूदेव अपने शिष्यों के प्रति निर्मोही हैं, निष्पृह हैं, कर्तृत्वभाव से हमेशा अछूते रहते हैं। मात्र कर्त्तव्य समझकर कार्य करते जाते हैं। जीवन में क्या कर्त्तव्य होना चाहिए यह शरणागतों को उपदेश देते जाते हैं। यह उपदेश मेरे जीवन के भावों को हमेशा संभालता रहता है। जब कभी शरीर साथ नहीं देता,स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तब गुरूदेव की वही एक बात याद आती है कुन्थु, वैराग्य ही जीवन है। बस, यह याद आते ही मानो ऊजो का संचार हो जाता है, लगता है मानो गुरूदेव स्वयं ही आकर मुझे सम्बल प्रदान कर रहे हों मेरी चेतना में ऊर्जा को प्रवाहित कर रहे हों। संत पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप। उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप॥ (पथरिया 12 मार्च 2007)
  2. पथरिया नगर में पंचकल्याणक के अंतिम दिन प्रात: भगवान का निर्वाण कल्याणक मनाने के उपरान्त गजरथ परिक्रमा सानंद सम्पन्न हो गयी। आचार्य श्री ने कहा कि- यह पहला रिकार्ड है कि होली (ऊधम) के दिनों में, रंगपंचमी को यह कार्यक्रम सानंद सम्पन्न हुआ। इस भीड़ के कार्यक्रम में मानो रंग ही गायब हो गया, ऐसा लग रहा था। आप लोग ऐसे ही धार्मिक कार्य करते रहेंगे तो क्षेत्रादि का जीर्णोद्धार होता रहेगा। सभी ने तनमन-धन से उदारता पूर्वक सहयोग दिया। बचत राशि का सदुपयोग करें। जिस प्रकार पूर्वजों ने धर्म का दायित्व आप तक भेजा है उसी प्रकार आप भी अगली पीढ़ी तक भेजें, यह आपका दायित्व होता है। प्राण जाय पर वचन नहीं जाना चाहिए यह संकल्प ही उज्ज्वल भविष्य का निर्माता है। इस शरीर को विषय कषायों में अनंतबार समर्पित किया। एक बार धर्म के लिए समर्पित कर दीजिए, अनंत काल के लिए सुखी हो जाओगे। भगवान बनने का श्रेय प्राप्त हो जावेगा। कुछ कड़वा लगा हो तो वापिस कर देना, क्योंकि करेला भी बत्तीस बार चबाओ तो मीठा लगने लगता है। दक्षिण भारत में गुड़ी पड़वा पर्व पर चने की दाल, गुड़ और नीम के पत्ते मिश्रण करके एक-दूसरे के घरों में भेजते हैं। इससे यह शिक्षा मिलती है कि-कटु सत्य को भी अच्छे से पी लेना चाहिए। गुड़ी पड़वा के दिन मीठा बोलने वाली कोयल को देखने का प्रयास करते हैं। गाँव में नहीं दिखती तो उसे देखने जंगल में भी जाया करते हैं यह प्रथा है। भार उठा दायित्व का, लिखा भाल पर सार। उदार उर हो फिर भला, क्यों न ? हो उद्धार॥ पथरिया 9 मार्च 2007
  3. पथरिया नगर में पंचकल्याणक आचार्य श्री के ससंघ सान्निध्य में संपन्न होने जा रहा था। गुरुदेव के दर्शन लाभ के लिए जन शैलाब उमड़ पड़ा। प्रातः काल से लेकर शाम तक यात्रियों का आगमन चलता रहता। वैसे भी आचार्य श्री के पास हमेशा ही दर्शनार्थियों का तांता लगा ही रहता है लेकिन, पंचकल्याणक का कार्यक्रम और साथ में होली की छुट्टी भी फिर तो कहना ही क्या ? दर्शनार्थी दर्शन लाभ लेते, गुरुदेव के प्रवचन का दो घण्टे पूर्व से इंतजार करते रहते, प्रवचन सुनते, पुनः आ जाते और गुरुदेव के सामने अपनी समस्या रखते। आचार्य श्री जी उनकी समस्याओं को समता के साथ सुनते और आशीर्वाद प्रदान करते। एक दिन प्रातः काल ही एक सज्जन आचार्य श्री के दर्शन कर अपनी समस्या सुना रहे थे कि उनकी आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। वे सज्जन जैसे अंदर से बहुत ही वेदना में हों, ऐसा प्रतीत हो रहा था। आचार्य श्री चुपचाप सब कुछ समता के साथ सुनते रहे और उन्हें शांति बोलकर आशीर्वाद दिया। वे सज्जन आशीर्वाद पाकर, सांत्वना के शब्द सुनकर आश्वस्त हो गये और कक्ष से बाहर निकल गये। उसी समय आचार्य श्री जी हम साधकों से बोले - देखो, यदि हम दूसरे का दुःख दूर नहीं कर सकते तो सुन तो सकते हैं। दूसरे का दुःख सुनने से उन लोगों में साहस आ जाता है। हम लोग भी दुःखी प्राणी का दुःख कब दूर हो ऐसी भावना भाकर अपाय विचय धर्मध्यान कर सकते हैं। इन लोगों के दुःख को देखकर अपना वैराग्य और दृढ़ हो जाता है। राग की पहचान करना चाहते हो तो रागी की दशा देख लो वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता। (पथरिया 5 मार्च 2007)
  4. सर्दी का समय था पथरिया नगर में सारा संघ विराजमान था। आचार्य महाराज के ससंघ सान्निध्य में पंचकल्याणक महोत्सव होने जा रहा था। पहले दिन प्रवचन में गुरुदेव के मुख से वाणी सुनने के लिए जनता आयी हुई थी आचार्य महाराज ने प्रवचन में बोला कि देव-शास्त्र-गुरु की पूजन करने से कर्म की निर्जरा होती है, श्रावक के मुख्य दो धर्म बताये हैं -दान और पूजा। इन दान-पूजा जैसे कर्तव्यों को एकांत से बंध का कारण मानना आगम सम्मत नहीं है। ये बात अलग है कि संवर और निर्जरा के साथ-साथ पुण्य कर्म का भी बंध होता है। प्रवचन के उपरांत ही गुरुदेव के साथ धर्मशाला परिसर की ओर आ रहा था। मैंने पूँछा-आचार्य श्री जी आज कल कुछ ऐसी बातें पूजन की पुस्तकों में प्रस्तावना के माध्यम से लोग लिखने लगे हैं जो प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों से, मेल नहीं खातीं। अभी-अभी मैंने एक जिनवाणी में प्रस्तावना पढ़ी थी उसमें लिखा था प्रतिमाओं का अभिषेक कर्म निर्जरा के लिए नहीं बल्कि उन पर जो धूल जम जाती है, उसे हटाने के लिए प्रतिमाजी का अभिषेक, प्रक्षाल किया जाता है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर बोले कि- प्रतिमाजी का अभिषेक धूल झराने के लिए नहीं भूल (कर्म) झराने के लिए किया जाता है। देव नंदीश्वर द्वीप में अभिषेक पूजन के लिए जाते हैं सपरिवार, वहाँ कहाँ से प्रतिमाओं में धूल जमती है। अर्थात् कर्म निर्जरा के लिए ही अभिषेक करते हैं। भगवान की प्रतिमाजी का अभिषेक करने से, पैर छूने से अपनत्व झलकता है, इस कार्य को आस्था के साथ करने से कर्म क्षय होता है। ये अभिषेक पूजनादि क्रियाएँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं सम्यग्दर्शन की वृद्धि के कारण हैं। इसलिए इस क्रिया को आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में सम्यक्त्व वर्द्धिनी क्रिया कहा है। (2 मार्च 2007)
  5. पथरिया नगर में आचार्य महाराज के ससंघ सान्निध्य में पंचकल्याणक महोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था। एक दिन आहारोपरांत ईर्यापथ भक्ति के समय बहुत भीड़ थी। भक्ति प्रारंभ करने से पहले आचार्य श्री बोले कि-एक मिनिट भी शांति से नहीं बैठ पाते, ये लोग कितना शोरगुल करते हैं। प्रत्याख्यान एक आवश्यक मूलगुण है इन्हें औपचारिक नहीं समझना चाहिए, अच्छे उत्साह के साथ करना चाहिए। इन्हीं आवश्यकों के माध्यम से असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती है। आचार्य महाराज हमेशा दत्तचित्त होकर अपने आवश्यकों का पालन करते हैं एवं सभी साधकों को भी यही प्रेरणा देते हैं। वे सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं करते। एक बार पूरा संघ तिलवारा घाट, जबलपुर दयोदय में विराजमान था। उस समय मध्यप्रदेश शासन की मुख्यमंत्री उमाभारती जी आयी थीं। तब श्रावकों ने सुबह आचार्य भगवन् से कहा कि- मुख्यमंत्री महोदया आपके दर्शन करने सुबह 7:30 पर आवेंगी। उस दिन चतुर्दशी का दिन था। आचार्य भगवन ठीक प्रात: 7:00 बजे प्रतिक्रमण करने बैठ गये। उमाभारती जी आकर गुरु चरणों में अन्य नेतागणों के साथ बैठ गयीं, पूरे एक घण्टा बैठी रहीं लेकिन आचार्य श्री अपने प्रतिक्रमण आवश्यक में लीन रहे, न उन्होंने नजर उठाकर देखा और न ही आशीर्वाद स्वरूप हाथ ही उठाया। पूरे 9:00 बजे तक प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर ही आचार्य श्री जी उठे इसके बीच उमाभारती जी ने एक घण्टे तक इंतजार किया और प्रस्थान कर गयीं। यह है गुरु महाराज का आवश्यकों के प्रति उत्साह एवं बहुमान उनकी यह चर्या देखते ही बनती है, वहाँ की कमेटी के लोग कहने लगे धन्य हैं गुरुदेव इन्हें दुनियाँ से क्या लेना देना। उन्हें तो मात्र अपनी चर्या से, साधना से मतलब है।
  6. जो संसार से डरते हैं वे आर्य हैं। जो आरंभ परिग्रह के कार्यों से बचते हैं वे आर्य हैं। गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं। यहाँ गुण का अर्थ सम्यग्दर्शनादि गुणों से है। जो धर्म क्रियाओं से रहित हैं वे म्लेच्छ हैं। पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं। हम सभी का सौभाग्य है कि हम लोग आर्य खण्ड में उत्पन्न हुए वरना धर्म कर्म से शून्य बने रहते। इसलिए कहा भी है - उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक कुल पाना संसार में उत्तम देश में उत्पन्न होना और सुसंगति मिलना बहुत ही दुर्लभ है। एक दिन आचार्य महाराज के पास आसाम से एक सज्जन आये। और, बोले कि - महाराज ! हम आसाम में रहते हैं, वहाँ तो म्लेच्छ खण्ड जैसा है। क्या करें ? पिताजी लोग वहाँ जाकर बस गये। वहाँ बाजार से निकलते है तो मांसाहार की ही दुकानें लगी रहती हैं। वहाँ हम लोग मंदिर बनाये हैं, रात्रि भोजन त्याग है, लेकिन, शांति नहीं मिलती। वहाँ लूटमार ही लूटमार चलती रहती है। आचार्य भगवन् ने कहा - उत्तम देश, क्षेत्र का मिलना दुर्लभ है, साधुओं का समागम दुर्लभ है। वहाँ पैसा अधिक कमा सकते हो लेकिन धर्म संस्कार के बारे में शून्यता है, ऐसे स्थानों पर नहीं रहना चाहिए। आज अपनी संतान को अर्थ शास्त्र पढ़ाते हुए दानादि धर्म के संस्कार भी अवश्य दें। 24 घण्टे में 8 घण्टे श्रम, 8 घण्टे विश्राम और 8 घण्टे धर्म साधन करो तभी जीवन सफल होगा। हम सभी का सौभाग्य है कि-ऐसे क्षेत्र में जन्म लिया जहाँ दया धर्म के संस्कार जन्म से ही दिये जाते हैं। उससे भी परम सौभाग्य यह है कि- ऐसे वीतरागी संत बुन्देलखण्ड में विहार करते हैं, उनका हमें भरपूर समागम प्राप्त होता है। उत्तम कुल, देश प्राप्त हो गया एवं साधु संगति भी प्राप्त हो गयी इसके बाद भी जो व्यक्ति संस्कारहीन हैं, व्यसनों में लिप्त हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि वे आर्य खण्ड में उत्पन्न होकर भी म्लेच्छ ही हैं, क्योंकि व्यक्ति जन्म से नहीं कार्य से महान बनता है। आचार्य भगवन् कहते हैं कि-जो आचार-विचार से, धर्म से रहित हो, वह म्लेच्छ कहलाते हैं। हम व्यसनों का, पापों का त्याग कर सच्चे धर्म पर, गुरुओं पर विश्वास रखें और आर्य खण्ड में रहकर गुणों को प्राप्त करें, गुणवानों का समागम करें तभी हम आर्य कहला सकेंगे। व्यक्ति अपनी क्रियाओं से स्वयंजान सकता है कि हम आर्य हैं या म्लेच्छ। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 03.08.2005)
  7. अणुव्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
  8. महान बनने के लिए कुछ क्षमता/योग्यता प्रकट करना अनिवार्य होता है। इसके साथ ही साथ सहनशील होना भी जरूरी है। जो व्यक्ति जितना महान होता है वह उतना ही सहनशील होता है। समता परिणामी जीव सदा ही सुखी रहता है। क्योंकि, समता के अभाव में पदार्थ भी कुछ नहीं दे सकते और विषमता में जीने वाला व्यक्ति कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। विषमता जीवन के रस को विष बना देती है और समता जीवन में अमृत घोल देता है। आचार्य श्री जी से किसी श्रावक ने अपनी शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - आचार्य श्री जी ! आपके श्री मुख से हम लोग बार-बार सुनते हैं कि-समता रखो, समता रखो। लेकिन, हम लोग आप जैसी समता क्यों नहीं रख पाते ? छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आने लगता है। आचार्य महाराज यह सब समता भाव से सुनते रहे फिर मुस्कुराकर बोले कि -समता माँ, वैरागी बेटे के पास ही रहती है। सुनो-समता रखना चाहते हो तो संसार से वैराग्य प्राप्त करो। वैराग्य के अंकुश से जब मन रूपी हाथी वश में हो जावेगा तब मन में विषमता समाप्त हो जावेगी। सुख-दुख में, संयोग-वियोग में, वन में, भवन में, निंदा में, प्रशंसा में समता भाव आ जायेगा। क्योंकि, संसार से तटस्थ होना ही वैराग्य है। एक साथ उन्नीस परीषह मुनि जीवन में हो सकते, समता से यदि सहो साधु हो विधिमल पल में धो सकते। सन्त साधुओं तीर्थकरों ने सहे परीषह सिद्ध हुए, सहूँ निरन्तर उन्नत तप हो समझूँ निज गुण शुद्ध हुए।। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 09.10.2005)
  9. आज आधुनिक युग में व्यक्ति कुलाचार का भी पालन नहीं कर पा रहे हैं। जबकि सभी तीर्थंकरों ने, आचार्यों ने अहिंसा का उपदेश दिया है। अहिंसा धर्म मुख्य है - अहिंसा के बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं होती। संस्कार के बारे में व्याख्यान करते हुए त्याग धर्म के दिन गुरुदेव ने बताया कि एक बार हम भीलवाड़ा से लागौन गये। गर्मी का समय था, वहीं पास में गंगापुर गाँव है वहाँ के लोगों ने कहा - यहाँ कोई भी महाराज नहीं आते। तो हम वहाँ गये, 12 बजे तक चलते रहे, सामायिक की, फिर आहार हुआ तदुपरान्त प्रवचन हुआ। वहाँ जैन समाज के कुल 5 (पाँच) घर थे। लेकिन, प्रवचन सभा में बहुत लोग आये थे, तो मैंने पूँछा कि-ये सभी लोग कौन हैं? तो उन्होंने बताया-ये वीलवाल हैं। ये जाति से जैन नहीं, लेकिन संस्कारित जैन है। पहले ये खटीक वगैरह थे। उन्हीं में से एक सज्जन बोले - हम लोगों को जीवदया का महत्व ज्ञात हो गया, अब हम कभी भी चमड़े आदि का व्यापार नहीं करते। हम लोगों के पास कपडे की दुकान या दूध डेरियाँ हैं। आचार्य श्री जी ने बताया-धर्म ऐसे पाला जाता है, आप लोग तो मात्र जैनी हो गए इसीलिए कुल के आचार का ही मात्र पालन कर रहे हैं। आप भी देश-काल के अनुसार कुछ करिये। देश में कटते पशुधन की रक्षा के बारे में आगे कदम बढ़ाईये । देश में सबसे बड़ी समस्या खड़ी है कि, अर्थ की समस्या को हल करने के लिए पशुओं की हिंसा करना। ध्यान रखना - हिंसा का विरोध न करना भी हिंसा का समर्थन करना है। आचार्य भगवन्त के अंतरंग में हमेशा यह दया का भाव बना रहता है कि निरीह पशुओं को/निरपराधी जीवों को क्यों सताया जा रहा है?इसके विरोध में समर्थ समाज को आगे आना चाहिए और अहिंसाधर्म की रक्षा करना चाहिए। जलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल। दया धर्म में तुम सनो, नहीं पाप में भूल॥ (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 15/09/2005)
  10. गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और मैंने अपनी समस्या निवेदित करते हुये कहा - आचार्य श्री जी ! पेट में दर्द (जलन) हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा - गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था इसलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट में जलन हो रही है। कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले कि - क्या करें यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर की और मन की मनमानी नहीं चल सकती। "वहिर्दु:खेषु अचेतनः" अर्थात् बाहरी दु:ख के प्रति अचेतन हो जाओ उसका संवेदन नहीं करो, सब ठीक हो जायेगा। आचार्य श्री के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ है; हमें यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि-मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नहीं देनी है बल्कि, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर समता भाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति रही आवे, मन में समता का भाव बनाये रखते हैं और चेहरे पर कभी प्रतिकार जैसा भाव दिखाई नहीं देता। वश में हों सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम॥
  11. अनुशासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/parmarth-deshna/anushasan/
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