आज आधुनिक युग में व्यक्ति कुलाचार का भी पालन नहीं कर पा रहे हैं। जबकि सभी तीर्थंकरों ने, आचार्यों ने अहिंसा का उपदेश दिया है। अहिंसा धर्म मुख्य है - अहिंसा के बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं होती।
संस्कार के बारे में व्याख्यान करते हुए त्याग धर्म के दिन गुरुदेव ने बताया कि एक बार हम भीलवाड़ा से लागौन गये। गर्मी का समय था, वहीं पास में गंगापुर गाँव है वहाँ के लोगों ने कहा - यहाँ कोई भी महाराज नहीं आते। तो हम वहाँ गये, 12 बजे तक चलते रहे, सामायिक की, फिर आहार हुआ तदुपरान्त प्रवचन हुआ। वहाँ जैन समाज के कुल 5 (पाँच) घर थे। लेकिन, प्रवचन सभा में बहुत लोग आये थे, तो मैंने पूँछा कि-ये सभी लोग कौन हैं? तो उन्होंने बताया-ये वीलवाल हैं। ये जाति से जैन नहीं, लेकिन संस्कारित जैन है। पहले ये खटीक वगैरह थे। उन्हीं में से एक सज्जन बोले - हम लोगों को जीवदया का महत्व ज्ञात हो गया, अब हम कभी भी चमड़े आदि का व्यापार नहीं करते। हम लोगों के पास कपडे की दुकान या दूध डेरियाँ हैं।
आचार्य श्री जी ने बताया-धर्म ऐसे पाला जाता है, आप लोग तो मात्र जैनी हो गए इसीलिए कुल के आचार का ही मात्र पालन कर रहे हैं। आप भी देश-काल के अनुसार कुछ करिये। देश में कटते पशुधन की रक्षा के बारे में आगे कदम बढ़ाईये । देश में सबसे बड़ी समस्या खड़ी है कि, अर्थ की समस्या को हल करने के लिए पशुओं की हिंसा करना। ध्यान रखना - हिंसा का विरोध न करना भी हिंसा का समर्थन करना है।
आचार्य भगवन्त के अंतरंग में हमेशा यह दया का भाव बना रहता है कि निरीह पशुओं को/निरपराधी जीवों को क्यों सताया जा रहा है?इसके विरोध में समर्थ समाज को आगे आना चाहिए और अहिंसाधर्म की रक्षा करना चाहिए।
जलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल।
दया धर्म में तुम सनो, नहीं पाप में भूल॥
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 15/09/2005)