पथरिया नगर में पंचकल्याणक आचार्य श्री के ससंघ सान्निध्य में संपन्न होने जा रहा था। गुरुदेव के दर्शन लाभ के लिए जन शैलाब उमड़ पड़ा। प्रातः काल से लेकर शाम तक यात्रियों का आगमन चलता रहता। वैसे भी आचार्य श्री के पास हमेशा ही दर्शनार्थियों का तांता लगा ही रहता है लेकिन, पंचकल्याणक का कार्यक्रम और साथ में होली की छुट्टी भी फिर तो कहना ही क्या ? दर्शनार्थी दर्शन लाभ लेते, गुरुदेव के प्रवचन का दो घण्टे पूर्व से इंतजार करते रहते, प्रवचन सुनते, पुनः आ जाते और गुरुदेव के सामने अपनी समस्या रखते। आचार्य श्री जी उनकी समस्याओं को समता के साथ सुनते और आशीर्वाद प्रदान करते।
एक दिन प्रातः काल ही एक सज्जन आचार्य श्री के दर्शन कर अपनी समस्या सुना रहे थे कि उनकी आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। वे सज्जन जैसे अंदर से बहुत ही वेदना में हों, ऐसा प्रतीत हो रहा था। आचार्य श्री चुपचाप सब कुछ समता के साथ सुनते रहे और उन्हें शांति बोलकर आशीर्वाद दिया। वे सज्जन आशीर्वाद पाकर, सांत्वना के शब्द सुनकर आश्वस्त हो गये और कक्ष से बाहर निकल गये।
उसी समय आचार्य श्री जी हम साधकों से बोले - देखो, यदि हम दूसरे का दुःख दूर नहीं कर सकते तो सुन तो सकते हैं। दूसरे का दुःख सुनने से उन लोगों में साहस आ जाता है। हम लोग भी दुःखी प्राणी का दुःख कब दूर हो ऐसी भावना भाकर अपाय विचय धर्मध्यान कर सकते हैं। इन लोगों के दुःख को देखकर अपना वैराग्य और दृढ़ हो जाता है। राग की पहचान करना चाहते हो तो रागी की दशा देख लो वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता।
(पथरिया 5 मार्च 2007)