पथरिया नगर की बात है। पञ्चकल्याणक पूरे/सानंद सम्पन्न हुए, गजरथ परिक्रमा भी हो गयी। यह सब गुरु महाराज के पुण्य प्रताप का फल था। तीसरे दिन शौच क्रिया के लिए जा रहे थे। पञ्चकल्याणक स्थल से ही गुजर कर जाना पड़ता था। वहाँ मंच का सारा सामान उठ कर चला गया था। पंडाल में लगे सभी पर्दे भी निकाल लिये गये थे। मात्र लकड़ियों का ढाँचा खड़ा था। यह देख आचार्य भगवन् बोले कि- अब देखो कितना अच्छा लग रहा है, वैराग्य का वातावरण है। कल तक तो यहाँ रागरंग रहा, बहुत भीड़ भी रही अब लग रहा है सही वातावरण साधकों के अनुकूल। मैंने कहा - जी आचार्य श्री। ऐसा लगा जैसे आचार्य श्री कुछ संकेत देना चाहते हों, बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी लग रहा था कहीं आचार्य श्री पुन: कहीं और जाने का आदेश न दे दें। ऐसा सोच ही रहा था कि -आचार्य श्री बोले - कुंथु, वैराग्य ही सब कुछ है साधक का। वैराग्य ही जीवन में सब कुछ है। मैंने फौरन कहा - गुरुदेव ! मुझे आप मिल गये मेरे लिए तो आप ही सब कुछ हैं। आचार्य श्री हँसकर बोले कि - नहीं ! यह तो राग है, बाद में मालूम पड़ेगा वैराग्य। मैं सोचता ही रह गया। कुछ दिन बाद गुरूदेव हम तीनों मुनियों को (मुनि श्री अजितसागर जी, मुनि श्री पुष्पदंत सागर जी और मुझे) बंडा विहार करने की आज्ञा देकर कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान कर गये।
सच है गुरूदेव अपने शिष्यों के प्रति निर्मोही हैं, निष्पृह हैं, कर्तृत्वभाव से हमेशा अछूते रहते हैं। मात्र कर्त्तव्य समझकर कार्य करते जाते हैं। जीवन में क्या कर्त्तव्य होना चाहिए यह शरणागतों को उपदेश देते जाते हैं। यह उपदेश मेरे जीवन के भावों को हमेशा संभालता रहता है। जब कभी शरीर साथ नहीं देता,स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तब गुरूदेव की वही एक बात याद आती है कुन्थु, वैराग्य ही जीवन है। बस, यह याद आते ही मानो ऊजो का संचार हो जाता है, लगता है मानो गुरूदेव स्वयं ही आकर मुझे सम्बल प्रदान कर रहे हों मेरी चेतना में ऊर्जा को प्रवाहित कर रहे हों।
संत पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप।
उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप॥
(पथरिया 12 मार्च 2007)