गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और मैंने अपनी समस्या निवेदित करते हुये कहा - आचार्य श्री जी ! पेट में दर्द (जलन) हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा - गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था इसलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट में जलन हो रही है। कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले कि - क्या करें यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर की और मन की मनमानी नहीं चल सकती। "वहिर्दु:खेषु अचेतनः" अर्थात् बाहरी दु:ख के प्रति अचेतन हो जाओ उसका संवेदन नहीं करो, सब ठीक हो जायेगा।
आचार्य श्री के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ है; हमें यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि-मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नहीं देनी है बल्कि, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर समता भाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति रही आवे, मन में समता का भाव बनाये रखते हैं और चेहरे पर कभी प्रतिकार जैसा भाव दिखाई नहीं देता।
वश में हों सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम।
वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम॥