एक दिन मोह के विषय में चर्चा चल रही थी। गुरुदेव ने कहा - मोहमार्ग और मोक्षमार्ग दोनों आपस में विपरीत मार्ग हैं। मोक्षमार्ग में मोह का कहीं भी स्थान नहीं है। इसे शराब की उपमा दी गई है। जैसे आप लोग शराब पीने से बचते हो, शराबी की संगति से भी बचते हो वैसे ही मोक्षमार्ग के साधक को मोह करने से बचना चाहिए और मोही प्राणियों से भी दूर रहना चाहिए।
यह संसार समुद्र है इसमें तैरने वाले ज्ञानी पुरुष को मोह रूपी मगरमच्छ के जबाड़ (मुख) में जाने से बचना चाहिए। यह प्रौढ़ साधना मानी जाती है। यात्रा करने वाले यात्री को मार्ग में अटकना नहीं चाहिए बल्कि दुनियाँ को एक नाटक समझ कर आगे मंजिल की ओर कदम बढ़ाते रहना चाहिए तभी यात्रा सानंद, समय पर पूर्ण होगी। संसार में किसी से रिश्ता मत बनाओ क्योंकि बिना मोह के रिसे यह रिश्ता चलता ही नहीं है।
संसार वृक्ष
सूखती हैं पत्तियाँ,
टहनियाँ फिर,
तना भी सूख जाता है
जड़े फिर भी सलामत हैं....
न जाने स्रोत कहाँ से हैं।
जो जड़े गहराई में जाकर
सोख लेती हैं।
अपने में उस पानी को
विषयों के रस को
कि कभी तो सुख का
सावन आवेगा
इस जहाँ में इस आशा से
ये जड़े फिर भी सलामत हैं....