मोहनीय एक ऐसा कर्म है जिसे कर्मों का राजा कहा जाता है। संसारी प्राणी अनादिकाल से इस मोह रूपी राजा के वश में होकर नाना क्रियाएँ करता रहता है। इसे जीत पाना सरल काम नहीं है। मोह को मदिरा की उपमा भी दी गयी है। जैसे कोई व्यक्ति शराब पी लेता है तो अपना विवेक खो बैठता है। कुछ का कुछ उसे दिखाई देने लगता है, कुछ का कुछ बोलने लगता है। अनर्गल चेष्टाएँ करने लगता है ठीक उसी प्रकार मोही प्राणी वस्तु स्वरूप को ठीक-ठीक नहीं जान पाता। इसलिए पर-पदार्थ को अपना मानकर उसके संयोग में सुखी और वियोग में दुःखी होता रहता है वह संसार में कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता।
किसी सज्जन ने आचार्यश्री से पूँछा कि- हम बहुत कोशिश करते हैं महाराज लेकिन यह मोह छूटता क्यों नहीं? तब आचार्य भगवन्त ने कहा - ये मोह आपके घर में कब से है ? सुनो ! जब से आप हो, तब से है। मोह कहता है मुझे घर से बाहर कैसे निकाल सकते हो। जब 40 साल तक आपके घर में रहने वाला किरायेदार मालिक जैसा बन जाता है बारबार कहने पर भी मकान खाली नहीं करता, फिर अनादिकाल से जो तुम्हारे घर में रहने वाला मोह है वह एक बार कहने से थोड़े ही बाहर निकल जावेगा। आपको उसे निकालने के लिए बार-बार प्रयास करना पड़ेगा। तभी वह थोड़ा बहुत हिलेगा।
इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि- हमें हमेशा मोह को कम करने का प्रयास करते रहना चाहिए वरना हम गुलामी की जंजीरों से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। यदि इस संसार से पार होना है तो मोह को कम करना ही होगा। मोह के महल से निकलना बहुत कठिन है जो इस महल से निकल वन में चले गये उन्हें मेरा नमन् है।