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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

वर्तमान शिक्षण का हाल


संयम स्वर्ण महोत्सव

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हन्त आज हो चली जीविका-साधन विद्यायें सारी।

इसीलिए परमार्थ भावना दूर गई वह बेचारी॥

बिना वृत्ति के अध्यापक-जन नहीं पढ़ाना ही जाने।

वहाँ छात्रगण उन्हें क्यों नहीं अपना ही नौकर मानें॥१३१॥

 

विप्र क्षत्रिय वैश्य सभी की दृष्टि नौकरी पर आई।

फिर हम किसको दास कहें यों कौन रहे भू पर साई॥

नूतन शिक्षे परिहृतदी' तू क्यों भारत में आई।

पढ़ो बालको करो नौकरी यह फैशन है अपनाई॥१३२॥

 

और नहीं कुछ काम एक सी ए टी कैट पढ़ा देना।

अपना घण्टा पर पूरा यों झट पट फीस झाप लेना॥

कोई उपन्यास की पुस्तक लिखो रसीली जो होवे।

बिके धड़ाधड़आय बनें यों जो कि गरीबी को खोवे॥१३३॥

 

अथवा कोई पत्र निकालों उसमें लेख लिखो भाई।

इधर उधर की गप्प भरो दिखलावों अपनी चतुराई॥

या आपस में लड़ा भिड़ा कर दावा दायर करा दिया।

दोनों में से किसी शुल्क देने वाले का पक्ष लिया॥१३४॥

 

झूठी सच्ची बात बना कर उसको अतिशय तूल दिया।

बने जहाँ तक विपक्ष वाले से भी यों कुछ ऐंठ लिया॥

अगर नहीं कोई भी चारा चला रासलीला खेलो।

उसमें भी सीधे से सीधा पाट विदूषक का लेलो॥१३५॥

 

आप पतन की ओर चले औरों को भी ले चलने को।

बने अग्रसर हाय भूमि पर निश्शर्मता उढलने को॥

क्योंकि रास में सिवा धर पकड़ के न और कुछ भी होता।

जहाँ कि जाकर भला न कोई शान आपकी को खोता॥१३६॥

 

फिर भी भोले जीव इन अखाड़ों में खुश हो जाते हैं।

खाने को भी न हो किन्तु नाटक का टिकट मंगाते हैं॥

इसी तरह बाजार गर्म हो रहा लफंगेबाजी का।

जो करता है सदाचार में कार्य दूध में साजी का॥१३७॥

 

हे धूर्ते दुःशिक्षे तूने कैसा रंग जमाया है।

बहुत शीघ्र इस दीन देश का रूप अहो पलटाया है॥

हन्त पिशाचिनि इस भारत का तूने शोणित खूब पिया।

पापिनि पीछा छोड़ जरा इस पर अब तो करदे सुदया॥१३८॥

 

प्रायः सारे भारत ही को तूने आड़े हाथ लिया।

पराराधना में व्यस्त बना यों इसको बेजार किया॥

था भारत यह हुआ अभारत सम्प्रति अपनी करनी से।

ऊँचा उठने के बदले वह गया मूल में धरनी से॥१३९॥

 

क्योंकि इतर देशों की सी बातें करने में ही राजी।

होता है अपनाई इसने सर्वांश में नकल बाजी॥

करते थे सब देश जहाँ अनुकरण इसी सुशयाने का।

आज यही कर रहा यल औरों की रुख में जाने का॥१४०॥

 

हन्त-हन्त बगला बनने को राज हंस ज्यों ललचाया।

दूध और मुक्ता तज करके मछली खाने को धाया॥

किन्तु फूल खाने वाले के शूल पेट में कहाँ पचे।

मन मसोस के खा लेवे तो बड़ी उदर में व्यथा मचे॥१४१॥

 

यही हाल है इस भारत का करता अनहोनी चाहें।

अपनी सुन्दर सड़क छोड़ अपनाता औरों की राहें॥

चलो मिलो हरिजन लोगों से परिजन एक बनाने को।

इस भारत पर सारतत्त्व यह एक पना फैलाने को॥१४२॥

 

जैसा वे करते हों वैसा तुम भी करने लग जाओ।

तभी संगठन होगा भाई पाक साफ बनने आओ॥

हमें आज के नेताओं ने क्या ऐसा बतलाया है।

नहीं किन्तु उनके कहने को समझ न हमने पाया है॥१४३॥

 

वे कहते हैं तो तुम मानव मानव उनको बतलाओ।

वे यदि भूल समझना चाहें तो उनको भी समझाओ॥

घृणा करो न नाम से उनके देख न उन्हें तमक जाओ।

उनको उनकी बुराइयाँ सीधे वचनों में दिखलाओ॥१४४॥

 

मद्यपान आदिक की आदत उनकी उनसे छुटवाओ।

आप रहो मानव के मानव उनमें मानवता लाओ॥

नेताओं की बातों से तो सबको मिलती है शान्ति।

किन्तु हमारे ढंगों में दोनों तरफा है उत्क्रांति॥१४५॥

 

एक निरामिष भोज्यालय में जूता पहने जाने को।

है तैयार दूसरा तो फिर उसे डाट बतलाने को॥

नहीं एक दल एक गाँव यों किन्तु एक घर वालों में।

मचता है संघर्ष सदा भारत-माता के लालों में॥१४६॥

 

हम हैं बड़े हमारा कहना तुम्हें मानना होगा ही।

कहता है यों एक वहाँ दूजा करता लापरवाही॥

अहो कहो ये बड़े बने तो क्या हम हैं दाल भी नहीं।

आप थम्भ' घर में अवश्य हैं किन्तु यहाँ हम लाल सही॥१४७॥

 

बात बात में एक दूसरे के शिर यों हम आते हैं।

कुछ न दूसरे को गिन करके अपनी शान बताते हैं॥

वो हमने अपने हृदयों में दानवता को अपनाया।

मानवता को अपनाना तो दूर उसे न जान पाया॥१४८॥

 

भारतीय लोगों के अब भी अहंकार है नस नस में।

दलबन्दियाँ बनाकर देखो कलह मचाते आपस में॥

है यह घर की फूट लूट का बीज देश में बनी हुई।

इसी हवा से उड़ी जा रही देखो तो सम्पत्ति रुई ॥१४९॥

 

मैं भी कोई तो हूँ यों तो सभी लोग सोचा करते।

नहीं अन्य के बिना किन्तु कुछ भी यों याद नहीं करते॥

देखो तो कि सहाय बिना क्या चुट की भी बजने वाली।

हल्दी में नींबू के रस से ही तो आती है लाली ॥१५०॥

 

सब कुटुम्ब के लोग एक दिल होकर यों हम कार्य करें।

गुदड़ी के धागों की ज्यों मिल कर समता का भाव धरें॥

पाँचों अंगुली एक बराबर हलकी भारी होकर भी।
किसी चीज को जहाँ उठने चलती हो मिल जाय सभी ॥१५१॥

 

अपना अपना कार्य किया करती हैं अपने नम्बर में।

फिर भी देखो तो मिल जुल ये कैसे रहती हैं कर में॥

हमको भी यह याद सदा रखना होगा अपने मन में।

अपने को उत्तीर्ण बनाने चले अगर कर्मठपन में ॥१५२॥
 

भिन्न देह हो किन्तु एक के अनुशासन में चले सदा।

प्रत्येक में शक्ति सबकी हो फिर कैसी होवे विपदा॥

स्वार्थपरायण न हो किसी का भी यह दिल चंचल पाजी।

किन्तु परोपकार तत्पर हो तब फिर रहे प्रभु राजी ॥१५३॥

 

मानवपन मण्डप समान यह महापुरुष बतलाते हैं।

जिसमें आकर तनुधारी विश्राम सुखप्रद पाते हैं॥

जिसकी चारों ओर चार दरवाजे स्पष्ट दिखाते हैं।

वर्णि गृहस्थ-त्यागि-तपोधनपन यों नाम सुहाते हैं ॥१५४॥

 

वर्णिपना एकाकिरूप से रहने को बतलाता है।

जनता की सेवा करने को सैनिकता सिखलाता है॥

शस्त्र शास्त्र दोनों विद्याओं में प्रवीण बनाता है।

जिससे इसका सुजनों का निर्भय करने का नाता है॥१५५॥

 

भीष्मपितामह जैसों ने इस आश्रम को अपनाया था।

कला कौशल द्वारा यश अपने को खूब बढ़ाया था॥

गुरु सुश्रूषा ध्यानाध्यापन आत्म संयमन का कोका।

वर्णिपने में होता है जिससे न मिले अघ को मौका ॥१५६॥

 

समताधारी उचिताचारी सत्पथ का अधिकारी हो।

वह गुरु कहलाता है जग में कथमपि नहीं विकारी हो॥

उसकी आज्ञा को शिर धरना करना पगचम्पी आदि।

करना हो यदि अपने चिर के पाप मैल की बरबादी ॥१५७॥

 

आम्नायाविच्छेदरूप से पढ़ना व्यर्थ नहीं बढ़ना।

सर्वज्ञोदित आगम में निजमति की सड़क नहीं चढ़ना॥

हाँ दृष्टेष्ट विरोध जहाँ हो, वह आगम की बात नहीं।

नव नव तो ठारह होते हैं, ऐसे समझो सही सही ॥१५८॥

 

बार बार विज्ञों के मुँह से जैसा भी सुन पाया हो।

जिसको समझ सोच कर फिर निज मानस में बिठलाया हो॥

पक्षपात के बिना सरलता से जनता के समक्ष में।

मार्ग प्रभावना करने को रख देना चाहिये हमें ॥१५९॥

 

निद्रा के बस कभी न होना श्वान की तरह से सोना।

निर्विकार वस्त्रादि सहित सन्तोषितया दिल मल धोना॥

सात्विक भोजन एक बार दिन में गृहस्थ से ले लेना।

करना निज पर का हित ऐसे कष्ट न किसको भी देना॥१६०॥

 

अब आगे हम बतलाते हैं गृहस्थ लोगों की बातें।

पर सहायता से ही जिनकी बीता करती हैं रातें॥

आजीवन, सम्पोषण, योग, क्षेम चार बातें ये ही।

होती है गृहस्थपन में जिन से सकुशल रहता देही॥१६१॥

 

निज कुल निज कौशल को लेकर आजीवन को अपनाना।

बने जहाँ तक उसमें अपनी खूब दक्षता दिखलाना॥

नहीं किसी सम-धन्धेवाले से मन में ईर्षा लाना।

और न शोषणभाव चित्त में रखना सौजन्य दिखाना॥१६२॥

 

घर आये प्राघूर्णिक का स्वागत करना तनु मन, धन से।

कम से कम आश्वासन देना अन्न-जल तथा सुवचन से॥

अन्ध पंगु आदिक अपाहिजों की यथेष्ट सेवा करना।

अपनी कठिन कमाई का फल पाने को मानस धरना॥१६३॥

 

जो कोई भी मिला उसी से हो जिसका भाईचारा।

प्रेम पियासा बनकर जो करता है अपना निस्तारा॥

पिता पुत्र माता भगिनी आदिक सम्बन्ध सुधा धारा।

बहती रहती जहाँ वही गेही होता जग का प्यारा॥१६४॥

 

नहीं किसी से भी मेरी अनबन होने पावे कब ही।
ऐसा करूँ कि जिससे हों मानव मानव मेरे सब ही॥

ऐसी विचारधारा जिसके मन में पनपा करती हो।

ऐसे गृहस्थ से समलंकृत धन्य सदा यह धरती हो॥१६५॥

 

यों प्रेमामृत के बल पर जिसका आंगन सुखदायक हो।

अन्न और धन जन से निश दिन पूर्ण उसे ही स्वर्ग कहो॥

जहाँ तनुज तो देव तुल्य पापाशय से परिहीण रहें।

देवी सी मानवी मनोज्ञा वह ही तो गेहाश्रम है॥१६६॥

 

मद्यपान मांसाशन चोरी जारी वचन दगाकारी।

इन्द्रिय लम्पटता में पड़कर जहाँ लोभ लालच भारी॥

हो विनोद वश पर-प्राणिवध महारम्भ कहलाते हैं।

जिनके करने वाले नाना दण्ड यहाँ भी पाते हैं॥१६७॥

 

फिर इन अपने दुष्कृत्यों से नरक भूमि में जाते हैं।

मारण ताड़न शूलारोपण आदिक दुःख उठाते हैं॥

रौद्र भाव से मरते हैं। वे घोर रूद्र बन जाते हैं।

हाय हाय करते वर्षों तक कष्ट सतत ही पाते हैं॥१६८॥

 

इन्हीं हमारे दुष्कृत्यों को कोई नहीं जान पावे।

यों कपटाई रखने वाला हो वह पशुगति में जावे॥

बन्धन ताड़न अति भारारोपण इत्यादिक कष्ट घने।

भुगता करता जीव वहाँ भी देख रहे हैं सभी जने॥१६९॥

 

मानवता जो रखता है यद्यपि इन से हट रहता है।

फिर भी गृहस्था के चक्कर में जो सन्तत बहता है॥

शान्ति नहीं मिल पाती इसको परिग्रहान्वित होने से।

अहो समुज्ज्वलता आती मैले कपड़े को धोने से॥१७०॥

 

देखो भूतल पर चेतन ने जब मानव तनु पाया था।

क्या कोई भी चीज आपके साथ यहाँ पर लाया था॥

अहो व्यर्थ ही मेरा मेरा करके रुपया पैसादि।

संग्रह किये और उस पर से की है ममता से शादी॥१७१॥

 

श्वान मांस के टुकड़े को जब मुँह में ले करके आया।

और अनेकों कुत्ते झपटे उसे जहाँ कि देख पाया॥

मांस पिण्ड को डाल जमीं पर वह तो दूर दौड़ पाया।

शेष सारमेयों ने उसके पीछे तूफान मचाया॥१७२॥

 

मतलब यह कि परिग्रह ही है भूरि झंझटों का अड्डा।

कटा डालता हाथ समय पर पहने हुए जो कि टड्डा॥

यों विचार जिनके मन में आया निष्कञ्चन बनने का।

किन्तु न एक एक जहाँ साहस हो सभी विभजने का॥ १७३॥

 

त्यागिपना अपना करके धीरे-धीरे वे बढ़ते हैं।

मानों पैण्ड-पैण्ड चल कर नैराश्य शिखर पर चढ़ते हैं॥

आवश्यकताओं को कम कम करना काम जिन्हों का है।

तृष्णा नदी पार करने को ली निष्पृहता नौका है॥१७४॥

 

त्याग मञ्च के भी देखों ये चार मनोहर पाये हैं।

दान-शील उपवास भावना जिनके नाम बताये हैं॥

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