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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

गृहस्थ और त्यागी में अन्तर  


संयम स्वर्ण महोत्सव

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गेही से त्यागी का जीवन भिन्न जाति का होता है।
वह होता आराम तलब वह तो विवेक को ढोता है॥

गेही मखमल के गद्दे युत पलंग ऊपर सोता है।

त्यागी गुरु के चरणों में भूपर रजनी को खोता है॥१७९॥

 

गेही तेल फुलेल लगा कर खुशबू से खुश होता है।

त्यागी रुग्ण मुनिजनों के मल-मूत्र यथोचित धोता है॥

गेही नाटक और सिनेमा देखा करता खड़े-खड़े।

त्यागी की तो नजर धूसरित गुरु चरणों पर सहज पड़े॥१८०॥

 

मृगनयनी के मुँह से ठुमरी दादरादि को सुनता है।

तो मस्त हुआ गेही मस्ती से मस्तक को धुनता है॥

गुरु के अनुशासनमय कठोर, वचनों को सुन पाता है।

त्यागी तो अपने जीवन को तब ही सफल मनाता है॥१८१॥

 

सरस और सुस्वादु चीज का भोजन फिर फिर करता है।

गेही, त्यागी तो स्वाद रहित खाद्य से उदर भरता है॥

गेही खश आदि से सुगन्धित शीतल जल को पीता है।

त्यागी तो उष्ण किये लघु नीर के सहारे जीता है ॥१८२॥

 

जिस सब्जी बाणच को गेही कच्चा ही खा जाता है।

क्योंकि उसे तो ऐसा खाने में ही स्वाद दिखाता है॥

त्यागी पेट पालने वाला नहीं स्वाद पर जाता है।

अग्निपक्व होने पर उसकी शाकरूप में आता है॥१८३॥

 

गेही सोचा करता है मैं अभी नहीं मरने पाऊँ।

मेरा एक काम बाकी है उसको भी मैं कर जाऊँ॥

हाय हाय क्या करूँ देह में हुई घोर बीमारी है।

जो भी इसे मिटा दे उसका यह बन्दा आभारी है ॥१८४॥

 

कम से कम दो घण्टे तो जीवित रखदे लाचारी है।

मुँह मांगा देऊँ उसको मुझ पास अहो धन भारी है॥

त्यागी भी मरता न चलाकर क्योंकि कहा नर देह भला।

जिसको पाकर चेतन अपनी कर सकता है प्रकट कला ॥१८५॥

 

किन्तु वहाँ इस तनु के रहने का कोई सदुपाय नहीं।

नश्वरता इसका स्वभाव यह रोग शोक की स्पष्ट मही॥

नाशोन्मुख पाता है इसको तो अपने आचारादि।

गुण रतनों को नहीं बिगड़ने देता वह है स्याद्वादी ॥१८६॥

 

प्रसन्नता पूर्वक इसको तजता समता को चखता है।

इस मरने को अमर रूप देने की क्षमता रखता है॥

तब संन्यास भाव लेकर है वही तपोधन बन जाता।

जिसके यह कवि तथा भी सारा ही है गुणगाता ॥१८७॥

 

क्षमा और निष्किंचनता ध्यान स्वाध्याय नाम वाले।

चार धर्म उसके प्रधान जो निज को निज में सम्भाले॥

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