मूलगुण साधुता के मूल स्थान हुआ करते हैं। ऐसे २८ मूलस्थानों को पार करते हुए साधना के क्षेत्र में परिपक्वता को हासिल कर आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान कर्ता आद्योपांतदर्शनोद्योत और उत्पीलक आदि गुणों को पालते हुए आचार्य अपरिस्रावी, निर्णायक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान और निर्यापक के गुणों से परिपूरित होते हुए आचार्य पद में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह साधु ही आचार्य संज्ञा को धारण कर लेता है। जिसके पास में १२ तप, ६ आवश्यक, ५ आचार, १० धर्म, ३ गुप्ति रूप ३६ मूलगुण होते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। वे गुरुदेव श्रुत की आराधना के आधार पर प्रायश्चित को प्रदान करते हैं। अनशन आदि तप में अपनी मन:स्थिति को लगाये रखते हैं। वे संतोषकारी गुणों से परिपूरित होते हुए अनुदिष्टभोजी, संयमित शयनासन तप को धारण कर आरोग्यता को प्राप्त करने वाले क्रिया युक्त व्रतवान, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ गुणों से युक्त दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, वार्षिक, पंचवर्षीय प्रतिक्रमण किया करते हैं। षट्आवश्यक जिनके प्रतिदिन के आयाम हैं। ये ही आत्मा के शोधक माने जाते हैं। छह अंतरंग, छह बाह्य रूप १२ तपों को भी वे आत्मविशुद्धि भावों से तपते हुए संयम में निष्ठा रखते हैं। इसलिए उन्हें स्थितिकल्प भी कहा जाता है। आचार्य गुरुदेव इन सब ३६ प्रकार के गुणों से युक्त होकर साधु, उपाध्याय, आचार्य इन तीनों पदों को अलगअलग समय पर पालन करते हुए निरंतर ५० वर्षों से नजर आ रहे हैं। सामायिक के समय साधु पद पर, प्रवचन स्वाध्याय के समय उपाध्याय पद पर, प्रायश्चित आदि देते समय आचार्य पद पर स्थित होते हैं। ऐसे गुरु सदा जयवंत हों।