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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जिनवरों में प्रधान कोई रहे तो वे आदिनाथ भगवान् हैं, जो देवेन्द्रों के भी इन्द्र देवेन्द्र के द्वारा या यूँ कहो इन्द्रों के समूह के द्वारा पूजित हैं, वंदित हैं हमेशा-हमेशा के लिए। इसी प्रकार इस युग में आचार्य विद्यासागर महाराज मुनियों के, श्रावकों के, श्राविकाओं के, जैनों के, जैनेत्तरों के द्वारा पूजित हैं, वंदित हैं। कोई ऐसे भी श्रावक होते हैं जो सभी मुनियों को नमस्कार न करे, माने ना लेकिन आचार्यश्री को जरूर मानेगा और नमस्कार करेगा। शास्त्र में एक बात आती है, यदि आचार्य परमेष्ठी से कोई गलती या अपराध बन बैठे तो प्रश्न खड़ा होता है वह अपने पापों का परिमार्जन कैसे करेगा या किससे प्रायश्चित लेगा तो समाधान में यही कहा गया है, जिस आचार्य परमेष्ठी की सम्पूर्ण समाज, देशभर में मान्यता, पूज्यता का क्रम चल रहा हो, वही प्रायश्चित देने का अधिकारी होगा, वही सामाजिक, राष्ट्रीय, समस्याओं का समाधान करने वाला होगा। व्यक्तिगत अन्य जैन दिगम्बर संघियों की समस्याओं का भी समाधान करने वाला होगा। अन्य संघ के साधुगण भी अन्तिम क्षणों को व्यतीत कर ऐसे ही आचार्य को निर्यापकाचार्य बनाकर समाधिमरण का भाव रखेगा, अन्य मतावलम्बी, वैष्णव साधु भी इन ५० वर्षों में आचार्यश्री से प्रभावित रहे। झोतेश्वर पीठाधीश के शंकाराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द ने अमरकंटक के प्रथम प्रवास के समय कल्याणदास बाबा को पत्र लिखा, आचार्य विद्यासागर जैन समाज के, जैन जगत् के सुलझे हुए साधुओं में एक सिरमौर संत हैं। आप इनकी सेवा में अवश्य पधारें। तब सुनकर लगा आचार्य गुरुदेव इन ५० वर्षों में जैन जगत् के सिरमौर साधु बन गये।
  2. कार्य को गति प्रदान करना सोच विचार की संहिता के साथ जिसे दूरदृष्टि विचार कहा जाता है। कोई भी आदेश/ आज्ञा जारी करने के पहले पूर्वापर विचार-परामर्श की आवश्यकता आचार्य परम्परा की विचार संहिता आगम की पृष्ठभूमियों पर चली आ रही है। आचार्य गुरुदेव कोई भी आदेश, आज्ञा या नियम व्रत देने के पहले दूरदृष्टि सोच को याद रखते हैं। एक बार शिष्य ने गुरुदेव से कहा-मैं वैय्यावृत्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता हूँ। इस हेतु नशों को सुधारना और हड्डी, मोच आदि को सुधारने की कला को हासिल करना चाहता हूँ तब गुरुदेव ने कहा-इस क्षेत्र में तुम्हें असफलता मिलेगी। गुरुदेव की दूरदृष्टि सोच को सुनकर समझकर शिष्य जहाँ था वहीं तक सीमित बना रहा। ऐसे ही किस चीज की किस चीज के बाद संयोजना करके खाने से क्या परिणाम निकलेगा, एक-दूसरे के साथ लगातार बैठने-उठने रहने का परिणाम क्या निकलेगा, यह गुरुदेव की दूरदृष्टि में आ जाता है। इससे राग भाव ही उत्पन्न होगा और आचार्यों ने कहा है कि-जहाँ राग उत्पन्न होता है, वहाँ द्वेष के उत्पन्न होने में देर नहीं लगती। राग भाव मित्रता को जन्म देता है तो द्वेष भाव वैर को जन्म देता है। यह सब दूरदृष्टि की आचार संहिता संयम के मार्ग में हितकारी होती है। किस चीज से फूट का भाव उत्पन्न होगा या किस बात से स्नेह का भाव होगा और इन दोनों से हटकर किस भाव से आत्महितकारी साधना का उद्भव होगा, यह आचार्यों के मानस पटल पर ऐसे विचारों की फसल का उपार्जन हितकारी, कल्याणकारी जीवन के निर्माण की साधना पद्धति के ५० वर्ष पूरे होते हुए उनकी सोच मुनिसंघ के लिए, आर्यिका संघ के लिए, श्रावक संघ के लिए, समाज हित के लिए, देश हित के लिए, दूरदृष्टि सोच का दृष्टिकोण बराबर कायम है।
  3. राग को छोड़ने वाला लगातार वैराग्य की सीढ़ियों पर चढ़ता चला जाता है। यह वैराग्य का भाव ही राग के भाव पर प्रतिक्षण प्रहार करने में सक्षम जान पड़ता है। इसे आगम की भाषा में अभीक्ष्ण संवेग गुण की संहिता के अंतर्गत गणना प्रदान की गई है। वैराग्य का भाव ही संसार के रागद्वेष से बचा लेता है। तो आत्मा से आर्त-रौद्र ध्यान से रहित कर धर्मध्यान की भूमिका को प्रशस्त करने में सहकारी कारण साबित होता है। वैराग्य को नापने-तौलने के लिए आगम में २८ मूलगुणों में षआवश्यक क्रिया के अंतर्गत केशलोंच की क्रिया को समाहित किया गया है। साधक कितने गहरे में है, इसे जानने पहचानने के लिए केशलोंच आवश्यक क्रिया उत्तम, मध्यम, जघन्य इन तीनों की भेद परिणति से गुजरते हुए आगे की ओर चला करती है। भूखे रहना कहीं आसान हो सकता है लेकिन मूंछ का एक बाल निकालने में वैरागी ही सक्षम होता है। जो संसार से निर्वेग और संवेग भाव को धारण करने वाला प्रतिक्षण इसी के भाव में लगे रहना और इसी के अनुरूप क्रिया चर्या को अपने जीवन में समाहित करते रहना। एक बार वैराग्य को प्राप्त कर कभी भी खाली नहीं बैठा जा सकता है। हमेशा उन भावों की विशुद्धि और शुद्धि में अपने मन, वचन, काय के तीनों योगों में समाहित होकर वैराग्य के अशुद्धिकरण के साधनों के उपस्थित हो जाने पर भी शुद्धिकरण के साधनों से जिनका प्रयोजन बना हुआ है। उन्हें ज्ञान विद्या से युक्त साधक के नाम से देश भर में ५० वर्षों से जाना माना जा रहा है। जो नाशादृष्टि के माध्यम से वचन गुप्ति के माध्यम से काय की स्थिरता के माध्यम से अपने वैराग्य के भावों को परिपुष्ट बनाये रखे हैं। बाह्य साधन उन्हें कभी प्रभावित नहीं कर पाये जैसा हम जान रहे हैं। देख रहे हैं।
  4. मूलगुण साधुता के मूल स्थान हुआ करते हैं। ऐसे २८ मूलस्थानों को पार करते हुए साधना के क्षेत्र में परिपक्वता को हासिल कर आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान कर्ता आद्योपांतदर्शनोद्योत और उत्पीलक आदि गुणों को पालते हुए आचार्य अपरिस्रावी, निर्णायक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान और निर्यापक के गुणों से परिपूरित होते हुए आचार्य पद में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह साधु ही आचार्य संज्ञा को धारण कर लेता है। जिसके पास में १२ तप, ६ आवश्यक, ५ आचार, १० धर्म, ३ गुप्ति रूप ३६ मूलगुण होते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। वे गुरुदेव श्रुत की आराधना के आधार पर प्रायश्चित को प्रदान करते हैं। अनशन आदि तप में अपनी मन:स्थिति को लगाये रखते हैं। वे संतोषकारी गुणों से परिपूरित होते हुए अनुदिष्टभोजी, संयमित शयनासन तप को धारण कर आरोग्यता को प्राप्त करने वाले क्रिया युक्त व्रतवान, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ गुणों से युक्त दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, वार्षिक, पंचवर्षीय प्रतिक्रमण किया करते हैं। षट्आवश्यक जिनके प्रतिदिन के आयाम हैं। ये ही आत्मा के शोधक माने जाते हैं। छह अंतरंग, छह बाह्य रूप १२ तपों को भी वे आत्मविशुद्धि भावों से तपते हुए संयम में निष्ठा रखते हैं। इसलिए उन्हें स्थितिकल्प भी कहा जाता है। आचार्य गुरुदेव इन सब ३६ प्रकार के गुणों से युक्त होकर साधु, उपाध्याय, आचार्य इन तीनों पदों को अलगअलग समय पर पालन करते हुए निरंतर ५० वर्षों से नजर आ रहे हैं। सामायिक के समय साधु पद पर, प्रवचन स्वाध्याय के समय उपाध्याय पद पर, प्रायश्चित आदि देते समय आचार्य पद पर स्थित होते हैं। ऐसे गुरु सदा जयवंत हों।
  5. प्रश्न उठने के पहले जिनके पास समाधान उपस्थित हों, उसे हम ज्ञान का भेदिया कह सकते हैं। जो ज्ञान की बारीकियों को जानकर समाधान के गुण से युक्त होकर कभी भी प्रश्न उठने पर निरुत्तर नहीं रह पाते हैं। यही ज्ञान गुण की परिणति को समाहित का परिणाम आत्मा में समाहित होकर आत्मज्योति के रूप में प्रकट होता रहता है। हर प्रश्न के उत्तर के दृष्टांत भी जिनके पास पहले से उपस्थित होते हुए देखने को मिलते रहते हैं। इसे हम पूर्व का ज्ञानी ही माने समझे बचपन का ज्ञान पचपन में इतना परिपक्व हो गया है। जो भी उस स्वाद को चख लेता है तो उसे दूसरे स्वाद पसंद नहीं आते। यह सब आपकी जिनवाणी के प्रति विनय भक्ति का प्रतिफल को दिग्दर्शित करने वाला आगम वाणी से ओतप्रोत परिणति का परिणाम है। जब आप विद्याधर की अवस्था में स्थित थे, उस समय भी उन गणित के प्रश्नों को हल कर देते थे। जिसे वैज्ञानिक लोग भी हल करने के पहले होश हवास को छोड़ देते थे लेकिन आप देव-शास्त्र-गुरु का स्मरण कर बिना घबराये समाधान की ओर गमन कर जाते थे। बिना ग्रन्थों के उपस्थित हुए भी आपकी स्मरण शक्ति में एक बार का पढ़ा, लिखा, सुना हमेशा के लिए समाहित हो जाता है। आचार्य गुरुदेव कभी भी किसी समाधान के लिए या व्यवस्था के लिए पूर्व में कोई अभ्यास नहीं करते। वे तो अपनी चिंतन की धारणा के माध्यम से पूर्व में पढ़े हुए ज्ञान को उपस्थित कर सहज वृत्ति से राग-द्वेष से रहित होकर ५० वर्षों से प्रश्नों के समाधान कर समस्याओं का सहज समाधान प्रदान करते हुए हम सबके लिए दृश्यमान हो रहे हैं।
  6. मोक्षमार्ग का प्रारंभ इच्छाओं के विसर्जन से होता है। इसे आगम की भाषा में अनाकांक्षा गुण की संज्ञा प्रदान की गई है। इन्हीं गुणों से साधुता का जीवन समाहित होता चला जाता है। इच्छा पाप की जननी है। इच्छा से रहित विचार व्रतों की परिकल्पना पुण्यवर्धिनी क्रिया को जन्म देने वाली है। पुण्य का भाव ही पाप का विनाशक है। पाप-पुण्य का विनाशक ही मोक्ष की सीढ़ी का इच्छा रहित कदम की अनाकांक्षा के गुण को प्राप्त करना है। इच्छा का भाव हमेशा अपेक्षा के भाव से जुड़ा होता है। जिसकी दृष्टि में अपेक्षा समाहित होगी तो उसे उपेक्षा सहज ही मिलेगी। उपेक्षा मोक्षमार्ग में अभिशाप है इसलिए न अपेक्षा होगी और न कभी साधक को उपेक्षा का सामना करना पडेगा इच्छाएँ ही वैर भाव को जन्म देने वाले साधन है इसलिए आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में इच्छा निरोधो तपः सूत्र प्रदान किया इच्छा का विसर्जन ही तप संज्ञा को प्राप्त होता है। जिसने अपनी इन्द्रियों को कछुए के समान संकोच को प्राप्त किया है। वह वास्तव में इन्द्रिय विजेता बनने की योग्यता को हासिल कर पाता है। आचार्य गुरुदेव कभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भोजन में रस को ग्रहण नहीं करते। यदि रस को ग्रहण करते हैं तो मात्र आत्मसाधना के लिए। न कि शरीर की सुरक्षा के लिए रस परित्याग को तप के अंतर्गत रखा गया है। क्रम-क्रम से रसों को छोड़कर भोजन-पानी से अपनी जो इच्छा शक्ति बनी हुई है। उसे कम करना ही समाधि की साधना के करीब आना है। समाधि की साधना मन की दृढ़ता काया के प्रति निरीहता आदि गुणों के प्राप्त होने पर ही आती है। न कभी प्रसिद्धि की इच्छा रही, न कभी और अन्य प्रकार के साधनों को इकट्ठा करने की इच्छा रही। ऐसे इच्छा निरोधो तप के धनी आचार्य भगवंत के ५० वर्षों से लगातार दर्शन प्राप्त हो रहे हैं।
  7. साधक की साधना चतुर्थ आराधनाओं से प्रारंभ होकर चला करती है। जैसे दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना, चारित्र आराधना, तप आराधना। आगम की परिपाटी में इन चार आराधनाओं की व्याख्या गुरुदेव के जीवन में इस प्रकार चला करती है। वे दर्शन के भावों से मन की परिणति को विशुद्ध बनाकर आत्मा को सम्यग्दर्शन के भावों से भरकर काया से सम्यक् चर्या क्रिया का पालन करते हैं। कभी मिथ्यादर्शन की ओर मन-वचन-काय की परिणति का झुकाव स्वप्न में भी नहीं आता। वे दर्शन से विशुद्ध महात्मा माने जाते हैं। इसी तरह ज्ञान को भी समीचीन दिशा की ओर ले जाने वाला जिसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान से आच्छादित आत्मपरिणाम वाले संसार के टुकड़े करने में सक्षम जान पड़ता है। सम्यक्चारित्र के बारे में क्या कहना चारित्र की निष्ठा प्रतिष्ठा को बनाये रखकर अपने षआवश्यक का पालन कर २८ मूलगुण की परिपालना निर्दोष रीति से साधते हुए बिना साधन के साधना की ऊँचाई को छूते हुए तप की आराधना के द्वारा आत्मा के विकारी भावों को जलाने वाले आचार्य विद्यासागर महाराज धर्मी-विधर्मी दोनों के मन को जीतकर सम्यक् मार्ग की आराधना का दर्शन कराने में सक्षम जान पड़ते हैं। ये चार आराधना ही संसारी जीवों के अपराध को नष्ट करने में शरीर के कष्ट को दूरकर आत्मा के सुख में समाहित कर जैन आगम, जैन दर्शन की नीति को प्रकट करने वाली चतुर्थ आराधना जिन्हें प्राप्त हो गयी हों, वे चतुर्थ आराधनाचार्य की पदवी से विभूषित होकर इन ५० वर्षों में आत्म उत्थान के साथ समाज के उत्थान, देश के उत्थान के लिए कटिबद्ध नजर आते हुए दृश्यमान हो रहे हैं।
  8. जर-जोरू-जमीन के प्रसंग दुनियाँ में प्रचलित हैं, लेकिन योगी इन तीनों से रहित होते हैं और मन, वचन, काय की विशुद्ध भावना से समाहित होते हुए प्रवृत्ति के समय मन की विशुद्धता बनाये रखते हैं, क्लेश से रहित रहकर विशुद्ध भावों में समाहित होकर मन को आवश्यक क्रियाओं में लगाकर कितनी भी पैदल यात्रा के बाद भी कभी शरीर की थकान को महसूस नहीं करते। मन कभी बैठने, लेटने की बात करें तो डाँट लगाकर सामायिक में बिठा देते हैं। इसी तरह वचनों की शुद्धता को बनाए रखकर सूत्र वचनों का प्रयोग करना शब्दों की बचत के धनी श्रमण विद्यासागर नाम विख्यात है। काय की स्थिरता को मन की चंचलता से रहित कर दृढ़ आसन में स्थिर होकर प्रतिमायोग के अभ्यास में या कायोत्सर्ग मुद्रा में रहकर ही तीनों योगों की विशुद्ध स्थिति को बनाये रखने वाले ध्यानाचार्य, योगाचार्य, श्रमणाचार्य आदि उपाधियों को सहज ही अपनी चर्या क्रिया के द्वारा प्राप्त करते हुए देखा जा सकता है। मन हमेशा शुभ योग की परिणति में समाहित रहकर वचनों की विशुद्धि शुद्धिपूर्वक ही भाषा समिति के प्रयोग करते हुए देखा जाता है। इसी तरह काया में रोग की स्थिति उपस्थित होने पर मन, वचन को विशुद्ध बनाये रखकर पूर्व कर्मों पर विचार कर उनके फलों को जानकर खेद-खिन्नता से रहित होकर भेद-भिन्नता की ओर गमन करना, यही ५० वर्षों से तीनों योगों की पवित्रता का दिग्दर्शन समाज के लिए श्रमण संघ के लिए प्राप्त हो रहा है। अपने शिष्य-शिष्याओं के लिए तीनों योगों की स्थिरता का संदेश देते हुए नजर आ रहे हैं।
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