जर-जोरू-जमीन के प्रसंग दुनियाँ में प्रचलित हैं, लेकिन योगी इन तीनों से रहित होते हैं और मन, वचन, काय की विशुद्ध भावना से समाहित होते हुए प्रवृत्ति के समय मन की विशुद्धता बनाये रखते हैं, क्लेश से रहित रहकर विशुद्ध भावों में समाहित होकर मन को आवश्यक क्रियाओं में लगाकर कितनी भी पैदल यात्रा के बाद भी कभी शरीर की थकान को महसूस नहीं करते। मन कभी बैठने, लेटने की बात करें तो डाँट लगाकर सामायिक में बिठा देते हैं। इसी तरह वचनों की शुद्धता को बनाए रखकर सूत्र वचनों का प्रयोग करना शब्दों की बचत के धनी श्रमण विद्यासागर नाम विख्यात है। काय की स्थिरता को मन की चंचलता से रहित कर दृढ़ आसन में स्थिर होकर प्रतिमायोग के अभ्यास में या कायोत्सर्ग मुद्रा में रहकर ही तीनों योगों की विशुद्ध स्थिति को बनाये रखने वाले ध्यानाचार्य, योगाचार्य, श्रमणाचार्य आदि उपाधियों को सहज ही अपनी चर्या क्रिया के द्वारा प्राप्त करते हुए देखा जा सकता है। मन हमेशा शुभ योग की परिणति में समाहित रहकर वचनों की विशुद्धि शुद्धिपूर्वक ही भाषा समिति के प्रयोग करते हुए देखा जाता है। इसी तरह काया में रोग की स्थिति उपस्थित होने पर मन, वचन को विशुद्ध बनाये रखकर पूर्व कर्मों पर विचार कर उनके फलों को जानकर खेद-खिन्नता से रहित होकर भेद-भिन्नता की ओर गमन करना, यही ५० वर्षों से तीनों योगों की पवित्रता का दिग्दर्शन समाज के लिए श्रमण संघ के लिए प्राप्त हो रहा है। अपने शिष्य-शिष्याओं के लिए तीनों योगों की स्थिरता का संदेश देते हुए नजर आ रहे हैं।