मोक्षमार्ग का प्रारंभ इच्छाओं के विसर्जन से होता है। इसे आगम की भाषा में अनाकांक्षा गुण की संज्ञा प्रदान की गई है। इन्हीं गुणों से साधुता का जीवन समाहित होता चला जाता है। इच्छा पाप की जननी है। इच्छा से रहित विचार व्रतों की परिकल्पना पुण्यवर्धिनी क्रिया को जन्म देने वाली है। पुण्य का भाव ही पाप का विनाशक है। पाप-पुण्य का विनाशक ही मोक्ष की सीढ़ी का इच्छा रहित कदम की अनाकांक्षा के गुण को प्राप्त करना है। इच्छा का भाव हमेशा अपेक्षा के भाव से जुड़ा होता है। जिसकी दृष्टि में अपेक्षा समाहित होगी तो उसे उपेक्षा सहज ही मिलेगी। उपेक्षा मोक्षमार्ग में अभिशाप है इसलिए न अपेक्षा होगी और न कभी साधक को उपेक्षा का सामना करना पडेगा इच्छाएँ ही वैर भाव को जन्म देने वाले साधन है इसलिए आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में इच्छा निरोधो तपः सूत्र प्रदान किया इच्छा का विसर्जन ही तप संज्ञा को प्राप्त होता है। जिसने अपनी इन्द्रियों को कछुए के समान संकोच को प्राप्त किया है। वह वास्तव में इन्द्रिय विजेता बनने की योग्यता को हासिल कर पाता है। आचार्य गुरुदेव कभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भोजन में रस को ग्रहण नहीं करते। यदि रस को ग्रहण करते हैं तो मात्र आत्मसाधना के लिए। न कि शरीर की सुरक्षा के लिए रस परित्याग को तप के अंतर्गत रखा गया है। क्रम-क्रम से रसों को छोड़कर भोजन-पानी से अपनी जो इच्छा शक्ति बनी हुई है। उसे कम करना ही समाधि की साधना के करीब आना है। समाधि की साधना मन की दृढ़ता काया के प्रति निरीहता आदि गुणों के प्राप्त होने पर ही आती है। न कभी प्रसिद्धि की इच्छा रही, न कभी और अन्य प्रकार के साधनों को इकट्ठा करने की इच्छा रही। ऐसे इच्छा निरोधो तप के धनी आचार्य भगवंत के ५० वर्षों से लगातार दर्शन प्राप्त हो रहे हैं।