साधक की साधना चतुर्थ आराधनाओं से प्रारंभ होकर चला करती है। जैसे दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना, चारित्र आराधना, तप आराधना। आगम की परिपाटी में इन चार आराधनाओं की व्याख्या गुरुदेव के जीवन में इस प्रकार चला करती है। वे दर्शन के भावों से मन की परिणति को विशुद्ध बनाकर आत्मा को सम्यग्दर्शन के भावों से भरकर काया से सम्यक् चर्या क्रिया का पालन करते हैं। कभी मिथ्यादर्शन की ओर मन-वचन-काय की परिणति का झुकाव स्वप्न में भी नहीं आता। वे दर्शन से विशुद्ध महात्मा माने जाते हैं। इसी तरह ज्ञान को भी समीचीन दिशा की ओर ले जाने वाला जिसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान से आच्छादित आत्मपरिणाम वाले संसार के टुकड़े करने में सक्षम जान पड़ता है। सम्यक्चारित्र के बारे में क्या कहना चारित्र की निष्ठा प्रतिष्ठा को बनाये रखकर अपने षआवश्यक का पालन कर २८ मूलगुण की परिपालना निर्दोष रीति से साधते हुए बिना साधन के साधना की ऊँचाई को छूते हुए तप की आराधना के द्वारा आत्मा के विकारी भावों को जलाने वाले आचार्य विद्यासागर महाराज धर्मी-विधर्मी दोनों के मन को जीतकर सम्यक् मार्ग की आराधना का दर्शन कराने में सक्षम जान पड़ते हैं। ये चार आराधना ही संसारी जीवों के अपराध को नष्ट करने में शरीर के कष्ट को दूरकर आत्मा के सुख में समाहित कर जैन आगम, जैन दर्शन की नीति को प्रकट करने वाली चतुर्थ आराधना जिन्हें प्राप्त हो गयी हों, वे चतुर्थ आराधनाचार्य की पदवी से विभूषित होकर इन ५० वर्षों में आत्म उत्थान के साथ समाज के उत्थान, देश के उत्थान के लिए कटिबद्ध नजर आते हुए दृश्यमान हो रहे हैं।