राग को छोड़ने वाला लगातार वैराग्य की सीढ़ियों पर चढ़ता चला जाता है। यह वैराग्य का भाव ही राग के भाव पर प्रतिक्षण प्रहार करने में सक्षम जान पड़ता है। इसे आगम की भाषा में अभीक्ष्ण संवेग गुण की संहिता के अंतर्गत गणना प्रदान की गई है। वैराग्य का भाव ही संसार के रागद्वेष से बचा लेता है। तो आत्मा से आर्त-रौद्र ध्यान से रहित कर धर्मध्यान की भूमिका को प्रशस्त करने में सहकारी कारण साबित होता है। वैराग्य को नापने-तौलने के लिए आगम में २८ मूलगुणों में षआवश्यक क्रिया के अंतर्गत केशलोंच की क्रिया को समाहित किया गया है। साधक कितने गहरे में है, इसे जानने पहचानने के लिए केशलोंच आवश्यक क्रिया उत्तम, मध्यम, जघन्य इन तीनों की भेद परिणति से गुजरते हुए आगे की ओर चला करती है। भूखे रहना कहीं आसान हो सकता है लेकिन मूंछ का एक बाल निकालने में वैरागी ही सक्षम होता है। जो संसार से निर्वेग और संवेग भाव को धारण करने वाला प्रतिक्षण इसी के भाव में लगे रहना और इसी के अनुरूप क्रिया चर्या को अपने जीवन में समाहित करते रहना। एक बार वैराग्य को प्राप्त कर कभी भी खाली नहीं बैठा जा सकता है। हमेशा उन भावों की विशुद्धि और शुद्धि में अपने मन, वचन, काय के तीनों योगों में समाहित होकर वैराग्य के अशुद्धिकरण के साधनों के उपस्थित हो जाने पर भी शुद्धिकरण के साधनों से जिनका प्रयोजन बना हुआ है। उन्हें ज्ञान विद्या से युक्त साधक के नाम से देश भर में ५० वर्षों से जाना माना जा रहा है। जो नाशादृष्टि के माध्यम से वचन गुप्ति के माध्यम से काय की स्थिरता के माध्यम से अपने वैराग्य के भावों को परिपुष्ट बनाये रखे हैं। बाह्य साधन उन्हें कभी प्रभावित नहीं कर पाये जैसा हम जान रहे हैं। देख रहे हैं।