कार्य को गति प्रदान करना सोच विचार की संहिता के साथ जिसे दूरदृष्टि विचार कहा जाता है। कोई भी आदेश/ आज्ञा जारी करने के पहले पूर्वापर विचार-परामर्श की आवश्यकता आचार्य परम्परा की विचार संहिता आगम की पृष्ठभूमियों पर चली आ रही है। आचार्य गुरुदेव कोई भी आदेश, आज्ञा या नियम व्रत देने के पहले दूरदृष्टि सोच को याद रखते हैं। एक बार शिष्य ने गुरुदेव से कहा-मैं वैय्यावृत्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता हूँ। इस हेतु नशों को सुधारना और हड्डी, मोच आदि को सुधारने की कला को हासिल करना चाहता हूँ तब गुरुदेव ने कहा-इस क्षेत्र में तुम्हें असफलता मिलेगी। गुरुदेव की दूरदृष्टि सोच को सुनकर समझकर शिष्य जहाँ था वहीं तक सीमित बना रहा। ऐसे ही किस चीज की किस चीज के बाद संयोजना करके खाने से क्या परिणाम निकलेगा, एक-दूसरे के साथ लगातार बैठने-उठने रहने का परिणाम क्या निकलेगा, यह गुरुदेव की दूरदृष्टि में आ जाता है। इससे राग भाव ही उत्पन्न होगा और आचार्यों ने कहा है कि-जहाँ राग उत्पन्न होता है, वहाँ द्वेष के उत्पन्न होने में देर नहीं लगती। राग भाव मित्रता को जन्म देता है तो द्वेष भाव वैर को जन्म देता है। यह सब दूरदृष्टि की आचार संहिता संयम के मार्ग में हितकारी होती है। किस चीज से फूट का भाव उत्पन्न होगा या किस बात से स्नेह का भाव होगा और इन दोनों से हटकर किस भाव से आत्महितकारी साधना का उद्भव होगा, यह आचार्यों के मानस पटल पर ऐसे विचारों की फसल का उपार्जन हितकारी, कल्याणकारी जीवन के निर्माण की साधना पद्धति के ५० वर्ष पूरे होते हुए उनकी सोच मुनिसंघ के लिए, आर्यिका संघ के लिए, श्रावक संघ के लिए, समाज हित के लिए, देश हित के लिए, दूरदृष्टि सोच का दृष्टिकोण बराबर कायम है।