आँखें लाल है,
मन अन्दर कौन,
दोनों में दोषी ?
भावार्थ - आँखों का लाल होना क्रोध करने का प्रतीक है लेकिन मजेदार बात यह है कि आँखों को तो क्रोध आता नहीं। क्रोध तो मन का विकार है पर मन लाल नहीं होता । वस्तुतः सर्वप्रथम द्वेष के सद्भाव से मन में क्रोध का संचार होता है तत्पश्चात् उसके प्रभाव से आँखों में लालिमा प्रकट होती है । यदि मन में क्रोध न हो तो आँखें लाल कैसे होंगी? अतः इससे स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है कि आँखों के लाल होने का मुख्य कारण आँखें नहीं हैं बल्कि मन का विकार है ।
कलि न खिली,
अंगुली से समझो,
योग्यता क्या है ?
भावार्थ - बार-बार अँगुली के स्पर्श करने से कली नहीं खिलती तो योग्यता क्या है - यह समझो। सशक्त निमित्तों के मिलने पर भी कार्य सम्पन्न नहीं होता तो सोचो कि उपादान की योग्यता अभी जागृत नहीं हुई है।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
आओ करे हायकू
प्रभु ने मुझे,
जाना माना परन्तु,
अपनाया ना।
भावार्थ- सर्वज्ञत्व को प्राप्त करने पर भगवान् को चराचर पदार्थों को देखने और जानने की शक्ति प्राप्त हो जाती है लेकिन वे उन पदार्थों पर आसक्त नहीं होते। भगवान् ने मुझे अपने दिव्य ज्ञान से देखा भी है, जाना भी है परन्तु अपनाया नहीं क्योंकि वे मोह से पूर्णतः मुक्त हैं जबकि अपनाना मोहनीय कर्म के प्रभाव से ही संभव होता है ।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति मे
परिचित भी,
अपरिचित लगे,
स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।
भावार्थ - आत्मा में स्थित ध्यानस्थ-साधक शुद्ध आत्म रस में निमग्न होता है । उस समय उसकी परम वीतरागी अवस्था होती है । वह राग-द्वेष, अपने-पराये आदि के भेद रूप प्रपञ्च से सर्वथा मुक्त रहता है । अतः उसे परिचित व अपरिचित सभी एक समान प्रतीत होते हैं ।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्
टिमटिमाते,
दीपक को भी देख,
रात भा जाती।
भावार्थ - जिस प्रकार सघन अंधकारमय पूर्ण रात्रि किसी को भी सुहावनी नहीं लगती। कई व्यक्ति तो अंधकार देखकर भयभीत भी हो जाते हैं, पर उन्हें दिन के प्रकाश में किसी प्रकार का भय नहीं लगता है । यद्यपि रात्रि काल में सूर्य तो नहीं उगाया जा सकता है तथापि उस व्यक्ति को छोटे से दीपक का प्रकाश भी भय मुक्त कर देता है । उसी प्रकार भटकते हुये व्यक्ति को थोड़ा-सा ज्ञान, भयभीत व्यक्ति को थोड़ी-सी हिम्मत और दुःखी, दरिद्र, रोगी, गिरते हुये व्यक्ति को थो
भूख मिटी है,
बहुत भूख लगी,
पर्याप्त रहें।
भावार्थ - भूख लगना उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है यदि अत्यधिक भूख लगी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि भरपूर मात्रा में खा लिया जाये। जितना भोजन करने से भूख मिट जाती है उतना खाना ही पर्याप्त है । ज्यादा खाना अस्वस्थता को निमंत्रण देना है ।
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
आओ करे हायक
पूर्ण पथ लो,
पाप को पीठ दे दो,
वृत्ति सुखी हो।
भावार्थ- आचार्य महाराज सुखी होने का सहज उपाय बताते हुए कहते हैं कि संसारी प्राणियों के हिंसा आदि पाँच पापों का त्याग करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय अर्थात् मोक्ष के मार्ग का अवलम्बन लो, तभी शाश्वत सुख प्राप्त कर सकोगे ।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित ब
पक्ष व्यामोह,
लौह पुरुष के भी,
लहू चूसता।
भावार्थ-मोह को संसार परिभ्रमण या सम्पूर्ण दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। श्री जिनेन्द्र भगवान् ने सुख - प्राप्ति के लिए मोह का विनाश करने को सर्वोत्तम तप बताया है। अरिहंतों की पूज्यता और सिद्धों का पद तथा आचार्यों, उपाध्यायों एवं साधुओं की गुरुता मोह के विनाश का फल है और शाश्वत एवं स्वाश्रित सुख का बीज है। पक्षपात से मोह (व्यामोह) का विकास होता है । आपसी सम्बन्धों में अविश्वास पैदा होता है । भव - भवान्तर में दुःख देने वाले कर्मों
गुणालय में,
एकाध दोष कभी,
तिल सा लगे।
भावार्थ-तिल बेदाग होता है। गोरा मुख है और एक गाल पर काला तिल है तो वह सुन्दर नहीं लगता । उसीप्रकार गुणों का खजाना भरा है परन्तु द्वेष भाव विद्यमान है तो वह सर्वांग सुन्दर शरीर में तिल के समान है। श्रामण्य में थोड़ा-सा दोष क्षम्य है लेकिन भूमिका के अनुरूप उसका भी उन्मूलन होना चाहिए ।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है।
साधु वृक्ष है,
छाया फल प्रदाता,
जो धूप खाता।
भावार्थ–साधु फलदार वृक्ष के समान होते हैं। जैसे वृक्ष सर्दी, गर्मी आदि प्रतिकूलताओं को चुपचाप सहकर भी पथिकों को छाया एवं स्वादिष्ट रसीले फल प्रदान करता है । उसीप्रकार साधु आतापनादि योग धारण कर जो धूप पीठ पर सहते हैं, मैं उन वृक्षों की छाया हूँ । व्रतों का पालन करते हुए अंतरंग - बहिरंग अनेक प्रकार के तपों को समता और आनंद के साथ तपता है। ऐसे अनुभाग के साथ तप करते हुए ऐसा आभा मण्डल निर्मित होता है, जो उसका रक्षा कवच होता है। ऐसा साध
तीर्थंकर क्यों,
आदेश नहीं देते,
सो ज्ञात हुआ।
भावार्थ-दीक्षा लेते ही तीर्थंकर भगवान् मौन हो जाते हैं क्योंकि पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) का अभाव होने से असत्य का प्रतिपादन हो जाने की संभावना रहती है । इसी कारण वे किसी को आदेश नहीं देते और केवलज्ञान हो जाने के बाद भी बोलने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि दिव्य देशना के माध्यम से वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन स्वयं ही हो जाता है ।
- आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति म
आज्ञा का देना,
आज्ञा पालन से है,
कठिनतम।
भावार्थ -आज्ञापालन की अपेक्षा आज्ञा देना ज्यादा कठिनतम, गुरुत्तम और विशिष्ट कार्य हैं क्योंकि आज्ञा देने वाला क्रिया तो कुछ नहीं करता लेकिन इस क्रिया के परिणाम का उत्तरदायी होता है । उस क्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले हानि-लाभ और जय-पराजय से उसका सीधा सम्बन्ध होता है। कभी-कभी आज्ञा देने वाले के सम्पूर्ण जीवन में उसका परिणाम परिलक्षित होता है । अत: आज्ञा देने की योग्यता कुछ विरले ही व्यक्तियों में होती है ।
आज्ञापालन करने व
मैं निर्दोषी हूँ,
प्रभु ने देखा वैसा,
किया करता।
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
आओ करे हायकू स्वाध्याय
आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं।
आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं।
आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं।
लिखिए हमे आपके विचार
क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं।
इसके माध्यम
चाँद को देखूँ,
परिवार से घिरा,
सूर्य सन्त है |
भावार्थ- सौरमण्डल में देखते हैं तो चन्द्रमा इन्द्र है और अपने परिवार यानि अन्य ग्रह, नक्षत्र, तारों से घिरा रहता है लेकिन सूर्य दिन में आकाश में अकेले ही दैदीप्यमान होता है । उसी प्रकार संत-साधु निस्संग, एकाकी ही विचरण करते हैं, गृहस्थ परिवार जनों से घिरे रहते हैं ।
संस्मरण-आचार्य श्री से किसी ने कहा कि आप इतने विशाल संघ के नायक हैं। तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि हम नायक नहीं, ज्ञायक हैं ।
- आर्यिका अकंपमति जी
तेरी दो आँखें,
तेरी ओर हज़ार,
सतर्क हो जा |
भावार्थ - लौकिक शिक्षा के साथ पारलौकिक सुख की प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य महाराज कह रहे हैं कि हे प्राणी ! जगत् की परीक्षा अथवा समीक्षा या आलोचना करने के लिए तेरे पास केवल दो आँखें हैं लेकिन तेरी परीक्षा या समीक्षा या आलोचना की दृष्टि से जगत् में हजारों आँखें तेरी ओर देख रही हैं इसलिए सर्वजन हिताय की भावना से और कर्मबंध से बचने के लिए कायिक और वाचनिक क्रियाओं में सावधानी रखते हुए मानसिक विचारों से भी बचें।
- आर्यिका अ
किसी वेग में,
अपढ़ हो या पढ़े,
सब एक हैं |
भावार्थ - जम्हाई, नींद, छींक, खाँसी आदि सामान्य वेगों में महायोगियों को छोड़कर शेष संसारी प्राणी असहाय या परवश हो जाते हैं। इन वेगों में पढ़े लिखे हों या अनपढ़ सभी समान हैं । यहाँ मोक्षमार्ग का प्रसंग होने से वेग शब्द का अर्थ कर्म बंध कराने वाले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आदि वेगों को समाहित किया जा रहा है अर्थात् पुस्तकीय ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति हो या अनपढ़ दोनों के ही मिथ्यात्व आदि वेगों में कोई अंतर नहीं है । वैराग्य भ
द्वेष से बचो,
लवण दूर् रहे,
दूध न फटे |
भावार्थ- जिस प्रकार लवण अर्थात् नमक के सम्बन्ध से दूध विकृत हो जाता है उसी प्रकार द्वेष करने से जीव विकृत-सारहीन और दुःखमय हो जाता है क्योंकि द्वेष करने से इस लोक में मधुर सम्बन्ध भी कड़वे हो जाते हैं। मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यहाँ तक कि अपने भी पराये हो जाते हैं तथा द्वेष करने वाला पाप कर्म का बंध करता है अतः परलोक में भी दुःखी रहता है - आर्यिका अकंपमति जी
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, द
छोटी दुनिया,
काया में सुख दुःख,
मोक्ष नरक |
भावार्थ - जिसकी दृष्टि में दुनिया बहुत छोटी है और जो दुनिया में रहकर भी बहुत छोटा है अर्थात् अपनी आत्मा में स्थित होकर उसने अपनी दुनिया को समेट लिया है तो उसे शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा । आत्मा से बढ़कर कुछ नहीं है । शेष सब पदार्थ मूल्यहीन हैं, ऐसा मानकर जो जीर्ण- शीर्ण तिनके के समान पर पदार्थों का त्याग कर देता है, वह मोक्ष का पात्र होता है किन्तु जो दुनिया को अपने पैरों की धूल समझकर अपने को ही सब कुछ मानता है तो वह नरक जात
ज्ञान प्राण है,
संयत हो त्राण है,
अन्यथा श्वान|
भावार्थ - ज्ञान जीव का त्रैकालिक लक्षण है। कर्म योग से सांसारिक दशा में वह ज्ञान सम्यक् और मिथ्या, दोनों प्रकार का हो सकता है सम्यग्ज्ञान भी व्रती और अव्रती के भेद से दो प्रकार का होता है। आचार्य भगवन् ने यहाँ संयमी जीव के ज्ञान के विषय में कहा है कि संयमी का सम्यग्ज्ञान संसार-सागर से पार लगा देता है लेकिन मिथ्यादृष्टि का ज्ञान श्वान अर्थात् कुत्ते के समान पर पदार्थों का रसास्वाद लेते हुए व्यर्थ हो जाता है और जीव को चौरासी लाख
संदेह होगा,
देह है तो, देहाती !
विदेह हो जा |
भावार्थ - देह का अर्थ शरीर है और केवली भगवान् ने औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण; ये पाँच प्रकार के शरीर बताये हैं जो संसार भ्रमण के मुख्य कारण हैं । पौद्गलिक और पर-रूप शरीर में अपनत्व मानकर जीव स्वयं के वास्तविक स्वभाव को भूल जाता है । उसे अपने सत्यार्थ स्वरूप पर भी संदेह होने लगता है । अतः वह शरीरगत अनेक प्रपंचों में फँसकर गहनतम दुःखों से जूझता है । ऐसी देह में निवास करने वाले देहवान आत्मा को आचार्य देहाती का सम्बोधन
जुड़ो ना जोड़ो,
जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो,
बेजोड़ जोड़ो।
भावार्थ आचार्य भगवन् का यह सूत्र पूर्णतः आध्यात्मिकता से जुड़ा हुआ है । यहाँ जुड़ो और जोड़ो से तात्पर्य अपनी आत्मा के अतिरिक्त सम्पूर्ण जड़-चेतन पदार्थों से मन-वचन-काय पूर्वक पूर्ण या आंशिक सम्बन्ध स्थापित करना है । अतः संसारी प्राणी सुख चाहता है तो उसे मन- वचन-काय से चेतन परिग्रह एवं जड़-पदार्थ, धन-सम्पदा आदि से अपनत्व भाव नहीं रखना चाहिए। अज्ञान दशा में जिन जड़-चेतन पदार्थों से ममत्व भाव रखकर सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे पूर्
☀☀ संस्मरण क्रमांक 43☀☀
? महादयालु ?
रेशिंदीगिरी जिसका दूसरा नाम नैनागिरी है,यह तीर्थ पारसनाथ भगवान का समोशरण आने के कारण से विख्यात है,वरदत्तादि 5 ऋषियों की यह सिद्ध भूमि है। आचार्य गुरुदेव विहार करके यहां 1978 ईस्वी में आए,भगवान पारसनाथ की 14 फीट की कायोत्सर्ग की प्रतिमा के दर्शन करके आचार्य महाराज का मन प्रसन्न हुआ,तथा कहा- "यहां कितनी शांति है वास्तव में यह सिद्ध भूमि साधना स्थली है"
डाकुओं की प्रधानता वाले क्षेत्र में कोई भी अधिक समय तक वहां नहीं रूकता था, आचार्य महा
☀☀ संस्मरण क्रमांक 42☀☀
? निर्भयता ?
बुंदेलखंड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था।
1 दिन रात्रि अंधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया, और उसने एक बहन को काट लिया।पंडित जगनमोहन लाल जी वही थे, उन्होंने उस बहन की पीड़ा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछा कर लिटा दूं, तो जैसे ही बिस्तर खोला,उसमें से एक सर्प निकल आया उसे जैसे तैसे भगाया गया।
दूसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाइ, और कहा कि- महाराज यहां तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी।पंडित जी की बात सुनकर आचार्य मह