महादयालु - संस्मरण क्रमांक 43
☀☀ संस्मरण क्रमांक 43☀☀
? महादयालु ?
रेशिंदीगिरी जिसका दूसरा नाम नैनागिरी है,यह तीर्थ पारसनाथ भगवान का समोशरण आने के कारण से विख्यात है,वरदत्तादि 5 ऋषियों की यह सिद्ध भूमि है। आचार्य गुरुदेव विहार करके यहां 1978 ईस्वी में आए,भगवान पारसनाथ की 14 फीट की कायोत्सर्ग की प्रतिमा के दर्शन करके आचार्य महाराज का मन प्रसन्न हुआ,तथा कहा- "यहां कितनी शांति है वास्तव में यह सिद्ध भूमि साधना स्थली है"
डाकुओं की प्रधानता वाले क्षेत्र में कोई भी अधिक समय तक वहां नहीं रूकता था, आचार्य महाराज की वर्षायोग के लिए मना स्थिति को जानकर क्षेत्र के संरक्षण सदस्य चिंता में पड़ गए।
एक बार जब कुख्यात डाकु हरिसिंह को इस बात का पता चला तो वह स्वयं आकर के उपस्थित हो गया और कहने लगा- महाराज आप संघ सहित निश्चिंत होकर रुके,मेरा डाकुओं का समुदाय आपके संघ और भक्तगणों को कुछ भी बाधा नहीं पहुंचाएगा,मेरे लिए सेवा का अवसर प्रदान करें।
आचार्य महाराज की सन्निधि मात्र से उस डाकू के भाव में परिवर्तन सभी के लिए आश्चर्यकारी लगा वर्षा योग प्रारंभ हुआ उस क्षेत्र के जंगल में सिद्ध शिला इस नाम से ख्यात एक पत्थर पर आचार्य श्री जी ने सामायिक की क्रिया विधि संपन्न की।
वहां पर एक केरवना (जिला दमोह)गांव का निवासी रावखेत सिंहजूं शिकार क्रिया का शौकीन था,वह बंदूक को धारण किए हुए एक हिरण का घात करने के लिए उससे पीछे दौड़ रहा था, दौड़ता दौड़ता हुआ वह हिरण उन निर्ग्रन्थ गुरुदेव के पीछे आकर बैठ गया। मृग की यह दशा देखकर वह शिकारी सहसा आचार्य श्री जी के चरणो में नमस्कार करके स्वयं ही किसी की भी प्रेरणा के बिना यह निवेदन करने लगा-आज के बाद से शिकार करने का त्याग करता हूं।
इस तरह से मृग की रक्षा और शिकारी को शुभाशीष की प्राप्ति हुई।
धन्य है ऐसे आचार्य भगवंत जिनको देखकर डाकू और शिकारी भी अपना बैर भाव भूल जाते है, जैसे भगवान के समवशरण में सर्प-नेवला, शेर-गाय अपना बैर भाव नष्ट कर देते है, उसी प्रकार आचार्य भगवंत की सौम्यछवि को देखकर लोग सारे पापों का त्याग कर देते है, उनके सामने आत्म समर्पण कर देते है।
? अनासक्त महायोगी पुस्तक से साभार ?
✍ मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महामुनिराज✍
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