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  1. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    परिवर्तन शील संसार में वह सम्यक् विजेता फिर इस पृथ्वी पर आया। अब तो सीमित श्रृंखलायें ही तोड़ना है। अवतार हुआ है उस आत्म विजेता का इस भूखण्ड पर प्रथम बार। पञ्चमगति को प्राप्त करने के लिए ही मानो यह पाँचवाँ संसार रह गया था। इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का प्रथम तीर्थप्रवर्तक बनना है शायद इसीलिए वह परकल्याण की सीमायें इसी द्वीप से बाँधे हुए हैं। अब अवतरित हुए हैं पूर्व विदेहक्षेत्र के महावत्स देश के सुसीमा नगर में राजा सुदृष्ट की सुन्दर नन्दारानी से, सु अर्थात् अच्छे, विधि अर्थात् भाग्य वाला सुविधि पुत्र हुआ। वह सुविधि बाल्यावस्था से ही गम्भीर प्रकृति का था। अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि वाला होने से वह अपने पिता और गुरुजनों को अत्यन्त प्रिय था। माता की आँखों का एक मात्र तारा, कभी माँ से दूर जाकर खेलने चला जाता तो माँ व्याकुल हो घबड़ाने लगती और खेल से बुलाकर अपनी गोद में खिलाती। वह माँ पर नाराज होता था, कि तुम मुझे मित्रों के साथ खेलने नहीं देती, तो माँ कहती तुझे जितना मित्रों का ख्याल रहता है, उससे थोड़ा कम ही सही मेरा भी तो ख्याल रखाकर; सच बताऊँ सुविधि, यदि तुम मेरे सामने ही खेला करो तो मैं तुम्हें कभी बीच में नहीं बुलाऊँगी। सुविधि अपने गुणों से बच्चे, वृद्ध सभी को प्रिय था। सौभाग्य वही है, जिससे व्यक्ति सबका प्रिय हो। जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा था, वैसे-वैसे उसे महसूस हो रहा था कि मैं अपने निकट आता जा रहा हूँ। बन्धन और बाधायें उसे कभी रुचते नहीं थे। संघर्षों से ही संघर्ष करना उसकी आदत थी। वह कभी घोड़े को लेकर अरण्य की सैर करता तो कभी समुद्र की लहरों को पकड़ने का उपालम्भ। एकाकी रहना उसे बचपन से ही प्रिय था, फिर भी मित्रों की जरुरत समझकर उनकी क्रीड़ा में शामिल होकर सबका चित्तरंजित करता। वीरान वनों में उसे जो सुख प्रतिभासित होता वह महलों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में भी नहीं पाता तभी तो वह जब भी माँ को किसी कार्य में व्यस्त देखता, तो श्वेत अश्व की सवारी ही सूझती और घोड़े को दौड़ा-दौड़ा कर वह गगन में ही उड़ जाना चाहता था या फिर इस दुनिया से दूर-बहुत दूर, जहाँ मैं मात्र अपने को अपना ही पाऊँ। पर, परिवार की मोह श्रृंखलायें उसे मजबूर करती। अब वह बड़ा हो गया, माँ की गोद में से उछल जाता है, अब माँ का प्यार उसे बाँध नहीं पाता। माँ सोच रही हैं, अब इसे बन्धन में रखना इससे दूर जाना है। जितना स्नेह अभी मुझे इससे है, उस स्नेह की यह उम्र ही अन्तिम अवस्था है अब इसे प्रेम चाहिए प्रकृति का, तभी तो यह बार-बार वीरान अटवी की ओर दौड़ता है। भोला है, समझता नहीं उसे क्या जरूरत है, वह जरूरत तो मैं ही समझ सकती हूँ। उन जंगलों में उसे क्या मिलेगा गहरा दर्द ही ना। वह दर्द और बढ़े इससे पहले उसका निदान अतिआवश्यक है। आज यही माँ का समसामयिक कर्त्तव्य है, सही स्नेह है। पर आज यह रवि अपनी रश्मिओं को समेटने लगा, धीरे-धीरे गगन की नीलिमा लालियाँ बनने वाली है और सुविधि आया नहीं. लगता है कहीं दूर चला गया, जिन्दगी से भागना चाहता है, यही तो उसका बालपन है। थोड़ी ही देर में दूर से देखा तो दिख रहा है कि आकाश लगातार एक ही मार्ग में धूल धूसरित हो रहा है, कोई नहीं दिख रहा है। विश्वास है, वह पक्षी वापस नीड़ में आ रहा है, धीरे-धीरे टॉप-टॉप की आवाज भी सुनाई देने लगी। शनैः शनैः श्वेत अश्व भी दिखा और वह स्वर्ण से तप्त दैदीप्यमान देह इस संध्या की लालिमा में अहो अग्निपिण्ड सी दिख रही है। इस अत्यन्त वेग में उसके सिर का बाल मुकुट कहाँ गया? मात्र कुन्तल केशों का उठान ऐसा लगता है मानो समुद्र में मगरमच्छों का समूह ऊपर उठकर फिर उसी में डूब जाता है। निडरता के पथ पर दौड़ता हुआ मानो मृत्यु का भय और आशाओं की धूलि को पीछे छोड़ता हुआ निराबाध बढ़ रहा है। माँ यह सब सोचती रही कि पीछे से आकर माँ-माँ चिल्लाता हुआ वह उस झरोखे पे माँ को खड़ी देख बोला अरे! माँ क्या देख रही हो? देख रही हूँ पुत्र कि तू अब दिख नहीं रहा। क्या? क्या? मैं तेरे सामने तो खड़ा हूँ, वहाँ नहीं, इधर देखो इधर; और मुख को घुमाते हुए ये देख तेरा लाड़ला। अच्छा तो लाड़ले को अभी भी अपनी माँ की याद है। माँ आज तुम्हें क्या हो गया? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? नहीं सुविधि, मैं नहीं, तुम बहके हो। तुम्हारे वक्षःस्थल पर कवच नहीं धूलि की पर्ते बिछ रही  हैं। तुम्हारी कुन्तल अलकायें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं, न राजकुमार के योग्य वेष है, न भूषा तुम जिस पथ पर रोजाना प्रकाश ढूँढ़ने निकलते हो उस पथ पर निरा-अन्धकार छाया है बेटा; बहकी मैं नहीं, तुम हो। बिल्कुल ठीक माँ, मैं हार गया तुम जीत गयी, अब जल्दी कुछ खिलाओ बहुत तेज भूख लगी है और देखो रात्रि होने वाली है माँ । हाँ-हाँ मैं जान रही हूँ कि तुझे जीतना मेरे तो क्या किसी के वश का नहीं। फिर मुझसे हारकर ही तो तुम जीतना चाहते हो क्योंकि माँ हूँ ना। माता, पिता और गुरुजनों से हार जाना ही जीत है; बेटा! मैं तेरी इस नीति को समझती हूँ। प्रसङ्ग को बदलना तो कोई तुझसे सीखे और हँसकर सुविधि के ललाट को अपनी वात्सल्य गोद में छुपा लिया।
     
    सुविधि की माँ का भाई है अभयघोष । महाप्रतापी अप्रतिम पुण्यवान् सम्राट। आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। पुरोहितों से इस पुण्यप्रताप को समझ अभयघोष ने चक्ररत्न की पूजा की। कुछ ही दिनों में दिग्विजय के लिए प्रस्थान करना है, इससे पहले परिवार जनों से आशीर्वाद लेना भी सफलता की पहली सीढ़ी है इसलिए अभयघोष अपनी बहिन सुन्दरनन्दा से मिलने आया है। कौन किससे मिलता है यह तो भाग्य ही जाने। पर अभयघोष के आने का समाचार जान नन्दा अत्यन्त हर्षित हुई। माँ ने सुविधि को बताया कि तेरे मामा आ रहे हैं उनसे अच्छी बातें सीखना। सैन्य संचालन और राजा के कर्तव्यों को समझते हुए उनसे स्नेहिल व्यवहार करना है। माँ मैं अभी राजा नहीं युवराज हूँ। भविष्य की गोद में जिस फूल में गन्ध आयेगी, उसे अभी से छेड़छाड़ करना फूल को ही मिटा देना है माँ! निर्बलता का अतिरेक ही भविष्य की चिन्ता को प्रेरित करता है। वर्तमान को वर्तमान ही महसूस करना सफलता का वर्धमान पाथेय है। माँ! मेरे उज्ज्वल वर्तमान से तुम्हें भविष्य की चिन्ता करना मेरे पौरुष पर अविश्वास करना है। इस अपराजित ललाट पे क्या कभी पराजय की, भय की, उन्मनस्कता की लहरें आपने पायी ? यदि नहीं, तो ऐसी शिक्षा क्यों? नहीं माँ आज आपको लग रहा है कि मेरा भाई चक्रवर्ती हो गया इसलिए मैं इन आँखों में छोटा लगने लगा हूँ। पर माँ, चक्रवर्ती होकर भी वह मुझे जीत नहीं सकते। न चक्र से, न शस्त्र से और न अस्त्र से, मामा और भांजे का सम्बन्ध आत्मीय सम्बन्ध होता है। उनका चक्र इन चरणों में सदा स्तम्भित रहेगा। आप हमें यह बतायें कि वह चक्रवर्ती बनकर यहाँ आ रहे हैं या आपका भाई बनकर।
     
    उफ! उफ! सुविधि! तुम अपनी मेधा से छोटी से छोटी बात को भी कितना बड़ा बना देते हो, कितनी सम्भावनाओं में तुम चले जाते हो । मैं जानती हूँ कि तुम्हारी रक्तवाहिनियों में संचारित लहू बहुत गर्म है। पर, मेरे कहने का अभिप्राय ऐसा बिल्कुल नहीं था सुविधि! वह अपने भांजे को देखने आ रहे हैं, कि वह कितना बड़ा हो गया और कितना गम्भीर, कितना अपना है और कितना पराया। कितना शान्त है और कितना सुन्दर। कितना विनयान्वित और कितना नयान्वित ? बस करो माँ, बस करो अपने बेटे को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न बताओ कि तुम उसका मस्तक भी न चूम सको और सुविधि मुस्कुराते हुए बाहर चला गया। आज माँ को एहसास हुआ कि सुविधि कितना गम्भीर और पराक्रमी है। माँ ने अपनी कोख को मन ही मन आशीष दिया कि तुम ऐसे ही बढ़ते जाओ, अपने स्वाभिमान को बढ़ाते जाओ और सदा इन अहंकृति के बन्धनों से मुक्त रहो।
     
    चक्रवर्ती अभयघोष का आगमन हुआ। अपनी बहिन और भांजे को देख उसका चित्त अति निर्मल और प्रसन्न हुआ। सुविधि की अवस्था और पूर्ण यौवनता सभी के आकर्षण का एक प्रभावी केन्द्र बन गया था। चक्रवर्ती ने कहा बहिन, अब सुविधि को यथावय प्रेम की आवश्यकता है शायद इसीलिए उसका मन घर में नहीं लगता है और सदा एकान्त काननों में भ्रमण करता है। माता-पिता जब पुत्र के लिए उम्रानुसार सुख देने में सक्षम नहीं होते तो वे पुत्र के कोप का भाजन बन जाते हैं। साधु-श्रमणों का एकान्तवास ही लाभप्रद होता है गृहस्थों का नहीं। एक अविवाहित पुरुष का निर्द्वन्द्व विचरण समाज के लिए सोचनीय विषय होता है। जब तक बाल्यावस्था रहती है, माता-पिता, साथी जनों के प्रेम से जीवन बढ़ता है। कौमार्यावस्था में पठन-पाठन आदि विद्याएँ सीखने में काल सहायक हो जाता है, किन्तु इस युवावस्था में एक सहचरी की नितान्त आवश्यकता होती है। एकाकी जीवन उसे युवा बछड़े की तरह उन्मत्त कर देता है इसलिए बहिन समय की आवश्यकता को समझो। यथावसर जो कार्य एक छोटे से तृण से किया जा सकता है समय गुजरने पर फिर वह कार्य बड़े-बड़े शस्त्रों से भी साधित नहीं होता। उसका द्वित्व से अनुभूत होना ही उसके मन के द्वन्द को दूर करने का एक मात्र कारण है। मन का यह विकल्प मिथ्या नहीं है किन्तु सामयिक है। भैया! आपका कहना पूरी तरह उचित है, मैं भी यही सोच रही थी पर उससे कहने में डर लगता था। आप ठीक अवसर पर पधारे और उचित सुझाव दिया पर इसकी वार्ता पहले आप जीजाजी से करो और फिर सुविधि से। चक्रवर्ती ने बहिन को आश्वासन दिया और राजा सुदृष्टि का ध्यान आकर्षित कर उनके मन को जान लिया। तदुपरान्त बहिन को लेकर चक्रवर्ती सुविधि के पास गए। माँ ने सुविधि से कहा बेटे! आज तुम्हारे मामा तुमसे कुछ कहने आये हैं। सुविधि ने प्रसङ्ग को जान लिया पर दूसरों को नाराज करना जब उसकी नियति में नहीं था तब अपनो को वह कैसे कर सकता था ? किन्तु अपनी बुद्धिमत्ता से बड़े-बड़े संघर्षों में खेलने वाला वीर इस छोटी-सी अपने जीवन की समस्या में कैसे उलझ सकता था? तभी सुविधि ने उत्तर दिया माँ, क्यों हमेशा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बाँधने का निर्मम प्रयास सदा से किया जाता रहा है। हम दूसरों के जीवन को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं, जैसे हम स्वयं जीते हैं, चाहे वह उस जीवन की स्वीकृति से खुश रहे या न रहे। अरे पुत्र! मामाजी ने अभी कुछ कहा नहीं और तुम क्या कहने लगे? बेटे पहले मामा की बात तो सुनो। यह सुनना और सुनाना, समझना और समझाना यह हमारे मन के विकल्प हैं, माँ इनसे कुछ भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। इस रहस्य को तुम जानती हो फिर भी कुछ कहना चाहो तो सुनाओ मैं तैयार हूँ। सुविधि! मैं आपका मामा हूँ ना, मैं अपने भांजे को किन्हीं कल्पनाओं में उडता देखू और अशान्त देखू, यह मुझे कैसे सहन हो सकता है? मैं चक्रवर्ती हूँ, दुनिया की कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आपके लिए मैं न ला सकूँ। तुम्हें इस संसार में कोई भी वस्तु अच्छी लगे वह मुझे बताओ मैं हमेशा के लिए उसे आपके साथ बाँध दूंगा। सुविधि ने मुस्कुराते हुए कहा मामा क्यों आप अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं, आपको दिग्विजय पर जाना है ना। अपने आवश्यकों को छोड़कर दूसरे के आवश्यकों को पूरा करना कहाँ तक उचित है ? और फिर आपने उसी बंधन की बात की ना जिस बंधन से मैं सदियों से बंधा आया हूँ। नहीं! सुविधि यह बंधन नहीं, जीने का एक निर्बन्ध रास्ता है, जैसे आगम की मर्यादा में बंधा श्रमण भी अपने को बंधन में नहीं किन्तु निर्बन्ध ही महसूस करता है उसी प्रकार स्त्री के बंधन में पुरुष को मुक्ति की पराकाष्ठा प्राप्त होती है। यह जीने का निराकुल साधन है। नहीं मामा! आपका यह श्रमणों का उदाहरण उदाहरणाभास है। श्रमण के लिए वह बंधन नहीं है, ज्ञान और मर्यादा के दो तट हैं, जिसके बीच में आत्मा का ज्ञानामृत निराबाध बहता है, वह बंधन नहीं है, बंधन तो दो में होता है, किन्तु आत्मा में एकत्व का मिलन एक में ही होता है। जहाँ बंधन होता है वह जीवन परतंत्र हो जाता है। स्त्री बंधन में स्वतंत्रता की नहीं परतंत्रता की श्वास होती है। सुविधि! जहाँ जीवन का आनन्द मिले वहाँ परतंत्रता की बात कहाँ? यह तो कहने को है। उस इन्द्रिय और मानसिक सुख में डूबकर ही तृप्ति का अनुभवन होता है, बंधन उन्मुक्त हो जाते हैं। जीवन में इस सुख से वंचित रहना आत्मवंचना होगी। मामाजी! यह अपनी-अपनी समझ है, जिसे आप सुख कहते हैं, उसे मैं सुख की अतृप्त वासना समझता हूँ, जिसे आप इन्द्रिय और मानसिक सुख मानते हैं, उसे मैं एक विपरीत अध्यवसाय मानता हूँ और जिसे आपने आत्मवंचना कहा वह एक महती प्रपञ्चना है। सृष्टि के विशालकाय भण्डार में द्रव्य अपनी सत्ता में ही हिलोरें ले रहा है, बन्धन बद्ध होते हुए भी आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर प्रत्येक द्रव्य की सत्ता होते हुए भी कोई किसी से बाधित नहीं और न दूसरों को बाध्य कर रहा है। लगता है सुविधि! अभी तुम्हें समझाने का समय नहीं है क्योंकि तुम समय की उछलती कणिकाओं को पकड़ने का एक विफल प्रयास कर रहे हो। नहीं मामा जी! समय कहीं नहीं गया वह यहीं है, सदा-सदा से अपने पास। उसका विनाश त्रिकाल में कहीं भी सम्भव नहीं। पाँच द्रव्यों का वह अस्तिकाय ही समय है। आत्मा का प्रतिक्षण वर्तन ही समय है। पर से अस्पृष्ट और असंबद्ध अनुभूति ही समय है, उसको पकड़ना नहीं। पकड़ा तो उसे जाता है जो कहीं दूर जाने को हो । जिससे पुनर्मिलन की कोई गुंजाइश न हो, जिसकी पुनः प्राप्ति में भय हो या निराशा । मैं समय की उछलन में उछलना नहीं चाहता शायद इसीलिए उछलते हुए कण को पकड़ने का यह प्रयास आपको बेईमानी सा लगता है और मामाजी मैं सदा यह भावना रखता हूँ कि वह समय आये जब आपकी अतृप्त इच्छाएँ पूर्ण हों, बिना समझाये हुए मुझे सब स्वयं ही समझ में  आ जाये, आपको पुनः इसके लिए कोई प्रयास न करना पड़े। पर तब तक के लिए हमें धैर्य रखना होगा, उस स्वतंत्र परिणमन को अस्खलित दृष्टि से लखना होगा और तब मैं और आप दोनों ही निराकुल होंगे दोनों ही निष्काम होंगे और दोनों को प्राप्त होगी चरमभोग की असीम सीमा, जिससे परे न कोई सुख और सुख की सामग्री। कोई बात नहीं सुविधि! यदि आप अपने विचारों और कार्यों से सन्तुष्ट हैं तो मैं आपको जबरदस्ती मजबूर नहीं करूँगा।आपकी खुशी में ही मेरी खुशी है और आपकी तुष्टि में मेरी तुष्टता। बहिन को धैर्य बँधाते हुए और आश्वासन की किरणों को देकर वह चक्रवर्ती दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर गए। पर इधर माता-पिता को गहरी बैचेनी और पीड़ा की कठिन आँधियां अन्दर ही अन्दर घुमड़-घुमड़ कर आहत करने लगी। दुःख की अप्रकट कुंठाएँ मन ही मन चिल्लाने लगीं। इस कुल का एक नक्षत्र आज उदय होने से पहले ही अस्त होने लगा। जिस पुष्प को मैंने अपने ही वीर्य और रक्त से सींचा आज वह महकना नहीं चाहता, खिलने और खुलने से इंकार करता है। जीवन की सारी शक्ति सारी आशाएँ निष्प्राण और निराशा में बदलने लगी। ऐसा लगता है, मानो जागृति की अजस्रधारा को किसी ने बाँध दिया और जीवन को जड़ और मूर्च्छित-सा बना दिया है। आज इस संचेतना को क्या हो गया? जिसकी प्रत्येक इच्छा को माँगने और कहने से पहले ही मैंने पूर्ण किया। निराशा की, भय की चिंगारी भी जिसके जीवन में नहीं आयी। सदा उसको उसी के निर्णय के लिए स्वतंत्र रखा, पर आज उसका निर्णय क्या हो गया है? अपने सुख में उसे माता-पिता के सुखों की कोई चिन्ता नहीं है। इसे स्वार्थ कहूँ या सम्यक् पुरुषार्थ मैं सोच नहीं पा रहा हूँ। द्वन्द्वों के इस विचरण में मन कब तक एकाकी विचरेगा। इस परिस्थिति की अन्तिम परिणति क्या होगी? इत्यादि मानसिक दुःखों से माता-पिता परेशान रहने लगे।
     
    तभी समय ने करवट ली। चक्रवर्ती षटखण्डों को जीतकर आ गए हैं। जीत की कार्यप्रणाली निर्बाध चल रही है और अभयघोष के आने के कुछ दिन बाद ही सुविधि के पिता सुदृष्टि का काल ने वरण किया। यह आकस्मिक घटना पूरे राज्य में खलबली मचा गयी। रोने चिल्लाने की आवाज से सारा राजमहल आपूरित है सबके ओठों पे एक ही बात, एक ही चर्चा, यह क्या हो गया? कुछ भी कहो प्रभु ने यह अच्छा नहीं किया। अब इस कुल का दीप कैसे प्रकाशित होगा। बेटा विवाह नहीं करना चाहता, ना ही राज्यभार चाहता है, राजा की इकलौती संतान, किसी की भी समझ से परे है। माँ तो पहले ही परेशान थी, उस पर यह और बिजली आ गिरी। हे प्रभो! इन सबको तू ही आकर सान्त्वना दे। पुरवासियों की अनेक-अनेक धारणायें अलग-अलग ओठों से सामने आने लगी। कुछ दिनों बाद अभयघोष पुनः बहिन को देखने आये। बहिन का हाल देखकर वह बहुत दुःखी हुए, उन्होंने सुविधि के बारे में फिर वही चर्चा की तो बहिन ने कहा, वह किसी की नहीं सुनता। उसने पहले जो बातें की थी वही अब करेगा, उसे किसी की कोई चिन्ता नहीं, उसका निर्णय अटल होता है। फिर भी बहिन! अब इन हालातों में पुनः बात कर लें भगवान् की दया; शायद वह मान जाये आखिर वह भी एक इंसान है, उसे इतना कठोर मत समझो। मैं जानता हूँ कि वह बहुत स्वाभिमानी है शायद इसीलिए अब तक उसने अपनी तरफ से कुछ कहने में हिचकिचाहट की हो। भ्रात! आप यदि ऐसा समझते हो तो ठीक हैं। माँ रोती हुई भाई के साथ सुविधि के पास पहुँची, सुविधि ने देखते ही माँ की चरण वन्दना की और पूछा माँ आज आप यहाँ, मेरे पास, रोती हुई! माँ! मैं आपका दर्द समझता हूँ, पर माँ! कर्म के आगे हम सब विकलाङ्ग से रह जाते हैं। भाग्य की रेखा कब जीवन के कंचन गिलास को तोड़ दे, कहा नहीं जा सकता माँ।
     
    बेटा! आज पहली बार तेरे मुँह से इतने लचीले वचन सुन रहीं हूँ। आज पहली बार तुझसे कर्म और भाग्य की बात सुन रही हूँ, तेरा भाग्य तो तेरे हाथों में था; आज यह कर्म की बात मुख पे कैसे आ गई? नहीं माँ नहीं! अपने बेटे को इतना कठोर मत समझो। तेरा पुत्र अनेकान्त को पहचानता है। भाग्य और पुरुषार्थ का विभाजन उसकी बुद्धि में समयोचित विभाजित है। अनेकान्त के अमृत प्याले में सबको जीवन-दान मिलता है। वहाँ भय, तृष्णा, अनहोनी, निराशा जैसी कोई चीज नहीं है, माँ । यदि यह बात है बेटा! तो फिर मैं दुःखी क्यों, मैं निराश क्यों? दुनिया में दीपावली है और राजमहल में अँधेरा। अब यह घर श्मसान-सा लगता है। यदि आज मैं फिर निराश लौटी तो बेटा! तुझे सदा के लिए अपराधी होना होगा। मेरी नजरों में ना सही तो अपने मामा की नजरों  में और इन पुरवासियों की नजरों में। तभी मामा ने सुविधि से कहा, आज समय आ गया है कि आप अपनी जिम्मेदारियों को समझें और माँ को दुःख से उबारें। सुविधि ने स्मित मुख से कहा मामाजी! मैंने आपसे कहा था ना जब समय आयेगा तब बिना प्रयास सब कुछ होगा। हम मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहें। आपका धैर्य अब फलीभूत होगा। मैं कभी भी निष्फल और निष्प्रयोजनीय पुरुषार्थ नहीं करना चाहता, आज मेरे पुरुषार्थ में प्रयोजनता है, लक्ष्य है और समय की आवश्यकता है इसलिए आप विश्वस्त रहें कि मैं मोक्ष पुरुषार्थ करने से पहले अब पूर्व के तीन पुरुषार्थ भी करूँगा और जीवन में समग्रता लाकर ही शिवाङ्गना को वरण करूँगा। माँ के चेहरे पर अद्भुत प्रसन्नता की लहरें उठी और तभी अभयघोष ने कहा सुविधि का प्रथम अधिकार मेरी बेटी मनोरमा पर है। मंगल परिणय सम्पन्न हुआ। चिरकाल तक मनोरम क्रीड़ा में आप्लावित होकर भी वह नित नवनूतन अनुभूति को ही पाता। काम पुरुषार्थ तभी पुरुषार्थ कहलाता है जब उसका प्रयोजन हो । प्रयोजन बिना किया गया पुरुषार्थ, पुरुषार्थ नहीं नपुंसकता है, वासना मात्र है। एक कुलदीपक की प्राप्ति हो जो स्वयं धर्मपथ पर अग्रसर हो और दूसरों को भी करे। इस भावना से किया गया पुरुषार्थ पाप नहीं धर्म है और इसी प्रयोजन से अर्जित किया अर्थ भी धर्मार्थ है, पापार्थ या कामार्थ नहीं । इसलिए गृहस्थों को ये तीन पुरुषार्थ धर्ममय बना देते हैं। गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म इन दोनों धर्मों का उपदेश सदा से चला आ रहा है। कुछ ही दिनों बाद सुविधि को सम्यक् पुरुषार्थ की फलश्रुति हुई और वह श्रीमती का जीव सम्यग्दृष्टि होकर जो स्वयंप्रभ देव बना था, आज वह स्वर्ग से च्युत होकर मनोरमा के गर्भ में आ गया। यह है संसृति का खेल । पूर्वभव में जो पत्नि थी आज वह पुत्र बन गयी। पर्याय का परिणमन बदल गया और अन्तस् का मोह भी स्नेह में बदल गया। पुत्र प्राप्ति होने के बाद उसका नाम रखा गया केशव। सुविधि को इस बहिर्जगत् में यदि अत्यधिक स्नेह किसी से था तो वह था केशव। पूर्व जन्मों के संस्कारों का ही यह फल था, पर कम हो गया था तभी तो वह मोह न रहकर स्नेह में बदल गया। एक दिन राजा सुविधि, अभयघोष चक्रवर्ती के साथ विमलवाहन जिनेन्द्र की वन्दना करने गए। भक्ति वन्दना कर सभी ने धर्मोपदेश सुना और विरक्त होकर चक्रवर्ती अठारह हजार राजा और पाँच हजार पुत्रों के साथ दीक्षित हुए। वे सब मुनि एक साथ बैठे हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो एकत्रित हुए मुनि, गुणगण मुकुट ही हो। राजा सुविधि ने सभी मुनिगण के चरण कमलों की वन्दना की, भक्ति की और तभी अपने मनोभावों को पढ़ा। राजा सुविधि आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञान का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि आत्मा के गुणों का ज्ञान हो या आत्मा के अस्तित्व का। प्रत्युत आत्मज्ञान का अर्थ है आत्मभावों का सम्यक् निरीक्षण । वह आत्म भाव मोह की परिणतियों को भी ठीक-ठीक जानता है। शरीर बल का सम्यक् परिज्ञान भी आत्मज्ञान है। किसी भी परिस्थितियों में उतावली नहीं करना आत्मज्ञान है। अपनी शक्ति और वीर्य का सही प्रयोग सही दिशा में करना आत्मज्ञान है। अनेक-अनेक लोगों के मुनिपदस्थ होने पर भी आज वह सम्यग्ज्ञानी सोच रहा है कि इनका वर्तमान मेरा भी वर्तमान होगा। अनन्त भ्रमणों के परिचक्र में यह परिदृश्य कई बार देखा और दिखाया पर, अन्तरङ्ग के उस मोह शत्रु को शोषित नहीं किन्तु पोषित ही किया। अनेक बार इस पवित्र भेष को धारण करके भी पूर्णतः सफल नहीं हुआ। आज भी केशव के प्रति स्नेह का किंचित् विकल्प बाकी है। तोदूँगा इस बन्धन को भी, मूल से उखादूँगा। अब इस जीवन का प्रतिक्षण किया गया पुरुषार्थ समीचीन होगा। दूसरों को लुभावने और लोभित होने से यह आत्मा अब अभिभूत नहीं होगा। सम्यग्ज्ञान के साथ बीतने वाला प्रतिक्षण मुक्ति की अवभासना है बन्धन की नहीं। आज मैं आत्मा में भरे हुए विनिगूहित वीर्य को प्रकट करूँगा। गृह सम्बन्धी किंचित् विकल्प भी मुनिपद में मुनित्व की अवमानना है। यह मुनित्व मात्र की अवमानना नहीं प्रत्युत पूर्व में हुए अनन्तानन्त जीवन्त आत्माओं की अवमानना है और पूज्य पुरुषों की अवमानना सबसे बड़ा पाप है, दुष्कृत्य है। ऐसी परिस्थिति में आज यह आत्म ज्ञाता मुनि नहीं बन सकता तो कोई बात नहीं पर इतना असमर्थ भी नहीं कि, कुछ भी नहीं कर सकता। यूँ तो सदाचार से जीवन अब तक बिताते आये हैं। पर आज मैं संकल्पित होता हूँ अपनी शक्ति को उद्घाटित करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होता हूँ और उत्कृष्ट मुनिधर्म नहीं किन्तु उत्कृष्ट गृहस्थधर्म को उतने ही आदर, विनय और भक्ति से ग्रहण करता हूँ जितने आदर से इन आत्माओं ने मुनि पद स्वीकारा है। इन अणुव्रतों का परिपालन यम रूप में होगा,  नियम रूप में नहीं।
     
    हे विमलवाहन जिनेन्द्र! आज मैं आपकी साक्षी में संकल्प लेते हुए सभी मिथ्या वासनाओं को छोड़कर पञ्चमहागुरु की अनन्य शरण को प्राप्त होता हूँ।
     
    संसार, शरीर और भोगों की निर्विण्णता पूर्वक दूसरी व्रत प्रतिमा को निरतिचार धारण करता हूँ और तीनों सन्ध्याओं में तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक वन्दना करता हुआ, स्वरूप में सम अर्थात् सम्यक् रूप से एकमेक होकर अय अर्थात् गमन होगा। पर्व के चार दिनों में प्रत्येक मास में आरम्भ रहित हो चार भुक्ति के त्यागपूर्वक प्रोषधोपवास गुण का आजीवन यम लेता हूँ। अब कभी भी जिह्वा, रस लोलुपता में सचित्त फल शाक का सेवन नहीं करेगी। अब स्त्री को देखकर नवकोटि से दिवा में मैथुन का भाव उत्पन्न नहीं होगा। ज्ञाता-द्रष्टा आत्मस्वरूप में लीन रहता हुआ ब्रह्मचर्य की दुर्धर प्रतिमा धारण करता हूँ और रात्रि को इस मन में दुःस्वप्न की दुख-धारा भी दूर रहेगी। मैथुन निजचेतना में होगा परद्रव्य में नहीं। खेती, व्यापार आदि आरम्भ का कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग करता हूँ। बाह्य दश परिग्रहों को त्यागकर अब अन्तरङ्ग परिग्रह को मिटाने को संकल्पित होता हूँ। गृह सम्बन्धी कार्यों में अनुमति का मोचन और मुनिजनों के निकट रहकर उत्कृष्ट तपश्चरण करता हुआ सदा उद्दिष्ट भोजन से विरत होता हूँ। इस प्रकार अनुक्रम से ग्यारह प्रतिमा का संकल्प ले, अभ्यन्तर प्रयोजन को साधते हुए सुविधि महाराज अलौकिक आनन्द में रमण करने लगे। जैसे-जैसे साधना में रुचि बढ़ती गयी बाहरी सब रागद्वेष-जन्य संकल्पविकल्प दूर होते गए और आत्मर्द्धि स्फुरायमान होने लगी। प्रत्याख्यान कषाय के अत्यन्त दुर्बल हो जाने से संयमासंयम गुणस्थान की उत्कृष्ट लब्धि स्थानों को प्राप्त किया और विशुद्ध-विशुद्धतर भावों से पुत्र के किंचित् स्नेह को छोड़कर अन्त समय में राजर्षि सुविधि ने सर्वपरिग्रह रहित हो दिगम्बर दीक्षा को धारण किया। चार प्रकार की आराधनाओं में लीन रहते हुए नश्वर देह का परित्याग कर समाधिमरण सम्पन्न किया और प्राप्त की वह अन्तिम सीमा, जिससे आगे संयमासंयमी का गमन नहीं होता अर्थात् शुक्ललेश्या के भावों को धारण करने वाला अच्युत स्वर्ग का देव हुआ किन्तु साधारण देव नहीं; प्रमुख 
    इन्द्र, अच्युतेन्द्र। निर्ग्रन्थपद जो धारण किया था। समता का भाव ही सहिष्णु बनाता हुआ मित्र-शत्रु, कंचन-काँच, सुख-दुःख में हर्ष-विषाद की रेखा से बचाता है। यह मनोबल का ही प्रभावी फल है। निरतिचार व्रतों का सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से पालन करने वाला ही इन्द्र पदवी पर प्रतिष्ठित होता है। कामना नहीं की ऐन्द्रत्व की, किन्तु साधना का पुरस्कार है यह मान-सम्मान। आज आत्मजेता को इस पुरस्कार से सन्तोष नहीं है, क्योंकि यह उसका लक्ष्य नहीं है। पर उत्कृष्ट कर्मफल का उपभोग भी अनासक्त भाव से सम्यग्द्रष्टा के मार्ग में बाधा नहीं किन्तु सम्यक् गति प्रदान कर रहा है। आज उसे प्रसन्नता है कि संयम गुणस्थान की परीक्षा में वह सर्वश्रेष्ठता से उत्तीर्ण हुआ है।
     

  2. Vidyasagar.Guru
    *‼आहारचर्या*‼
    *श्री सिद्धयोदय नेमावर*
      _दिनाँक :०२,सितंबर,१९
    *आगम की पर्याय महाश्रमण युगशिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज* _को आहार दान का सौभाग्य श्री मान प्रकाश चंद जी मुकेश जी राकेश जी सेठी ( बराड़ा परिवार ) खातेगांव  निवासी एवं उनके परिवारको प्राप्त हुआ है।_
    इनके पूण्य की अनुमोदना करते है।
                💐🌸💐🌸
    *भक्त के घर भगवान आ गये*
              🌹🌹🌹🌹
    *_सूचना प्रदाता-:श्री अक्षय जी जैन खातेगांव_*
           🌷🌷🌷
    *अंकुश जैन बहेरिया
    *प्रशांत जैन सानोधा
  3. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका अनंतमति जी  आर्यिका विमलमति जी  आर्यिका निर्मलमति जी  आर्यिका शुक्लमति जी  आर्यिका आलोकमति जी  आर्यिका संवेगमति जी  आर्यिका निर्वेगमति जी  आर्यिका सविनयमति जी  आर्यिका समयमति जी  आर्यिका शोधमति जी  आर्यिका शाश्वतमति जी  आर्यिका सुशीलमति जी  आर्यिका सुसिद्धमति जी  आर्यिका सुधारमति जी  आर्यिका उदारमति जी  आर्यिका संतुष्टमति जी  आर्यिका निकटमति जी  आर्यिका अमितमति जी  आर्यिका निसर्गमति जी   
     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/354-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    आर्यिका संघ (सभी माता जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करें 
    संघ मे कोई परिवर्तन हुआ तो भी अवगत कराएँ 
     
  4. Vidyasagar.Guru
    बारिश
     चिड़िया 
     भीग जाती है 
     जब बारिश आती हैं
     नदी
     भर जाती है
     जब बारिश आती है
     धरती 
     गीली हो जाती है
    पर बहुत मुश्किल हैं
     इस तरह 
     आदमी का
     भीगना और
     भर पाना 
     आदमी के पास 
     बचने का 
     उपाय है न!
     
     
    Rain
     The bird gets drenched
     When it rains’
     The river overflows.
     The earth is soaked
     When it rains
     But for man
     When it rains,
     It is hard
     To get drenched,
     Hard to overflow.
     Man knows
     How to escape.
  5. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोग यहाँ निरन्तर सुबह से शाम और शायद पूरे जीवन कोई ना कोई कर्म करते रहते हैं। और उन कर्मों का फल भी हमारे जीवन में हमको भोगना पड़ता है। उन कर्मों का फल भोगते समय जैसी हमारी विचारधारा होती है, वैसा नये कर्म का संचय भी हमारे साथ हो जाता है। अगर गौर से हम देखें तो कर्म उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उस कर्म के पीछे जो विचारधारा है या कि हमारी जो भाव दशा है वो महत्वपूर्ण है। सुबह से जो लोग घूमने जाते हैं, रास्ता वही होता है जिस रास्ते से दोपहर में अपने ऑफिस अपनी दुकान या फिर किसी और सांसारिक कार्य से जाते हैं। एक ही रास्ते पर चलने की, आने-जाने की प्रक्रिया वही है लेकिन सुबह जिस आनन्द के साथ हम उस रास्ते से निकलते हैं. दोपहर हम एक नई जिम्मेदारी का बोझ सिर पे लिये उसी रास्ते से निकलते हैं। इतना फर्क है। एक कर्म हम अत्यन्त सहज होकर करते हैं जैसे घूमने जाना, कोई टेंशन नहीं है मन में.बडी प्रसन्नता है। दोपहर काम से जा रहे हैं काम की जिम्मेदारी, काम का बोझ सिर पर है। तो हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि हम जो भी कर्म करें उसमें हमारी भाव दशा जरूर हम ध्यान में रखें।
     
    कर्म तो सभी कर रहे हैं सुबह से शाम तक एक गृहस्थ को भी करना पड़ता है, एक साधु को भी करना है। दोनों के कर्म कुछ हद तक एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। आना-जाना, खाना-पीना, बोलना, उठना-बैठना, सोना यही कर्म हम दिन भर में करते हैं। श्रावक भी करता है और साधु भी करता है। एक में सहजता है और वीतरागता है। तो बंधन अल्प है और कर्मों का संचय भी अल्प है। बल्कि जो संचित कर्म हैं वो धीरे-धीरे डिसोसिएट भी हो रहे हैं, आत्मा से हट भी रहे हैं और दूसरी प्रक्रिया है जिसमें बहत इनवाल्व होकर के, बहत राग-द्वेष से युक्त होकर के, बहत तनावग्रस्त होकर के, बहुत चिन्तित होकर के, मन को मलिन करके हम कर्म कर रहे हैं। आगे के लिये हमारा संचय भी इतना ही अधिक हो रहा है और इतना ही नहीं जो कर्म पहले बाँधे थे वो हटे तो बिल्कुल नहीं। बल्कि वे हमारे साथ और अधिक प्रगाढ़ रूप से, और अधिक डोमिनेट होकर के हमारे साथ वाइन्ड हो गये। कितनी सीधी सी चीज है अगर हम समझना चाहें तो। हम इतना ध्यान अपने कर्मों पे ना दें जो शरीर से किये जाने वाले हैं, उससे ज्यादा हम ध्यान दें जो हम निरन्तर अपने मन में विचार करते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम वाणी बोलते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम शरीर से क्रिया करते हैं। वाणी और शरीर से होने वाली क्रियाएँ हमारे अपने मन से रेग्युलेट होती हैं तो हम क्यों ना अपने मन को ठीक-ठीक सँभालें। मन ही बंधन का कारण है, मन ही मुक्ति का कारण है। आचार्य भगवन्तों ने बहुत संक्षेप में बंध और मोक्ष की प्रक्रिया लिख दी। “रत्तो बन्ध कम्मम-जीवो विराग सम्पन्नोः ऐसो जिनोपदेसी, तम्मो कम्मो।” एक गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के चरणों में बैठे तो वे कहते हैं। हम स्वयं अपने राग-द्वेष से बंधक हैं। कोई हमें यहाँ बंधन में डाल रहा है ऐसा नहीं है। लगता तो यही है कि जैसे किसी ने हमें इस संसार में, इस संसार के बन्धनों में डाल दिया हो। मजबूर कर दिया है। अगर ऐसा कुछ होता तो हम तो जाकर के, उस व्यक्ति के पास में जाकर के दया की भीख माँग लेते कि भैया बहत दिन हो गये। अब तो छोड़ो। लेकिन ऐसा नहीं है, हम छूटना चाहें तो क्षण भर में छूट सकते हैं। लेकिन क्या करें, हमारी आदत जगह-जगह बँधने की हो गई है। कोई हमें बाँधता नहीं है। हम अपने शरीर से बँधे हुए हैं। हम अपने विचारों से बंधे हुए है। अपनी भावनाओं से बँधे हए है हम अपने परिवार, अपने प्रान्त, अपनी भाषा, अपनी जाति, अपने देश, पता नहीं किन-किन चीजों से हम बँधे हुए हैं। हम लोग हमेशा कहते हैं कि कमिट करो, किसी भी चीज के लिये तय करो। हम इसी तरह से अपना बंधन स्वयं अपने हाथ से बाँधते हैं। कमिट करना क्या चीज है? बंधक होना है। एक बँधन है लेकिन ये बँधन बड़ा सुखद मालूम पड़ता है। तय कर लेना सुखद मालूम पड़ता है। महाराज आप तो कह दो क्या करोगे? शाम को क्या करोगे? कल क्या करोगे? आप तो चार महीने तक का हिसाब बता दो आगे तक का, हम लोगों को इस तरह के बंधन में रुचि है। हम प्रतिक्षण उन्मुक्त होकर के सहज भाव से जीना पसन्द नहीं करते। हम आगे तक का हिसाब बनाकर के उसके बाद वर्तमान में जीने की कोशिश करते हैं। और सारा झगड़ा संसार का इतना ही है। जो वीतरागी हैं वे इस तरह के किसी भी बंधन में पड़ना स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिये वे सबके बीच रहकर के भी उससे मुक्त हो जाते हैं। 
     
    इसी संसार में रहकर के कोई मुक्त भी हो सकता है। अरहंत भगवान शरीर में रहकर के भी शरीर से मुक्त हैं। जन्म-मरण से मुक्त हो गये और इसी संसार के बीच हैं। हमने उनको एक समवसरण के बीच बिठा रखा है। लेकिन वे समवसरण के बीच गंध कुटी में भी सिंहासन और कमल से भी चार अंगुल ऊपर सबसे अलग दिखाई पड़ते हैं। वे इस बात का मैसेज देते हैं कि हमेशा इन चीजों से, इनके बीच रह कर भी अलिप्त होने की कोई विद्या सीख लो। चीजें सब ज्यों कि त्यों है, लेकिन हमारी अल्पिता उनके साथ बनी रहे तो फिर चीजें हमें बंधन में नहीं डालती हैं। हम स्वयं बंधन स्वीकार कर लेते हैं। आचार्य महाराज से जब भी कोई पूछता है, वो बड़े मजे से जवाब देते हैं। किसी ने कहा कि महाराज हम बड़े परेशान हैं हमारी आदत से। क्यों क्या हुआ ? महाराज ! सिगरेट की आदत हमारी पड़ गई है वो छूटती ही नहीं है। क्या करें महाराज, कुछ उपाय बताओ। तो आचार्यश्री ने क्या जवाब दिया अरे तो ज्यादा कुछ नहीं करना है। आप ऐसा कर लिया करें, दोनों उँगलियों को ऐसे जोड़ा मत करें। दोनों उँगलियों को ऐसे खाली छोड़ दिया करें। मतलब क्या है ? सिर्फ इशारा है इस बात का। हमारी मुट्ठी कैसे खुले, हमारे बंधन से हम मुक्त कैसे हों, ये पूछने पर मुट्ठी ही बाँधते क्यों हैं वो तो खुली हुई है। मुक्ति हमारा स्वभाव है, बंधन हमारा स्वभाव नहीं है। जिस दिन हम बंधन छोड़ देवें अपने हाथ से, तो मुक्त तो हम हैं ही। मुक्ति का कोई अतिरिक्त उपाय करने की आवश्यकता नहीं है। वो जो बंधन का हम अतिरिक्त उपाय करते हैं, उस बंधन के उपाय को हम अगर छोड़ देवें तो कोई हमें यहाँ पर बंधन में डाल नहीं सकता। बंधन का कारण एक ही है राग और द्वेष। इसलिये कर्मों में रचो, पचो मत। कर्म तो करो लेकिन कर्म में रचो-पचो मत। उसके फल में भी आसक्त मत होवो। बताइये कितनी आसानी से हमें ऐसे कर्म करने हैं जिससे कि बँधे हुए कर्मों को काटा जा सके, उसकी सलाह दे रहे हैं। सब तो यह कहेंगे कि कर्म मत करो। कर्म किये बिना कर्म के बंधन से मुक्त कैसे होवोगे। एक कर्म वो है जिसके करने से हम और अधिक बंधन में पड़ जाते हैं। एक कर्म वो है जिसके करने से हम अभी तक के सारे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। कर्म तो दोनों हैं। सामान्य रूप से जो हम सुनते हैं कि कर्म तो हमें ऐसा लगता है जो हमारे साथ बँधे हुए हैं जो हमें बाँध लेते हैं वो कर्म। वर्तमान में जो हम कर्म करते हैं, पूजा करते हैं, पूजा भी एक कर्म है, स्वाध्याय करते हैं, वह भी एक कर्म है, मुनिजनों की सेवा करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, ये भी एक कर्म है। ये सारे आध्यात्मिक कर्म हैं और हम इन आध्यात्मिक कर्मों को करके अपने सांसारिक बंधन से मुक्त हो सकते हैं। 

    इतना सीधा सा उपाय है लेकिन क्या करें हमारे अपने जो हमने पहले कर्म किये हैं उनका दबाव हमारे ऊपर इतना है कि वर्तमान के हमारे कर्म जो कि आध्यात्मिक हों या कि सांसारिक दोनों में बहुत मुश्किलें, बहुत बाधाएँ आती हैं। अपन जरा इस चीज को समझते हैं एक छोटे से उदाहरण से कि कैसे हम अपने हाथ से कर्म के बंधन से बँध जाते हैं और कैसे हम चाहें तो इसके मुक्त हो सकते हैं। मैंने यह उदाहरण शायद पहले भी सुनाया हुआ है पर अपन इसको एक बार रिवाइज कर रहे हैं कि एक छोटा सा बच्चा (बेटा) पहुँचा था साधु बाबा के पास में कि महाराज यहाँ इस संसार में जो है बंधन कैसे होता है और कैसे हम मुक्त हो सकते हैं तो उन्होंने कहा, ठहरो तुम हमारे पास रहो हम बता देंगे। जाओ पहले तुम हमारा काम करो। ये जो सामने पेड़ लगा है, उस पेड़ को तुम जितना तकलीफ दे सको उतनी तकलीफ दो। तोड़ो, उसको पत्थर फेंको। उसके फल सब तहस-नहस कर दो। जितना तुमसे बने उसका अहित उतना करो। उसने कहा ये कौनसा काम सौंपा है? गया वो उससे जितना बना उतना बिगाड़ किया उसका। वापिस लौटा। पूछा कैसा लग रहा है। अच्छा नहीं लग रहा। मन बहुत भारी है। सो जाओ। सुबह उठा, ढंग से नींद नहीं आयी। यही लगता रहा कि कौनसा ऐसा काम मैंने कर लिया। जिससे मन बहुत भारी हो गया। ये काम तो अच्छा नहीं है। दूसरे दिन गुरुजी ने पूछा, रात नींद आयी। बिल्कुल नहीं आयी। बहुत दुःख होता रहा। आपने ऐसा काम क्यों मुझे करने को कहा? अरे तो जाओ फिर जाकर के उससे क्षमा माँगो कि मैंने जो तुम्हारा बिगाड़ किया था, वो मेरी गलती हो गयी और जरा उसको पानी देवो, पत्तों को सँभालो। उधर जो कचरा फैल गया है उस सबको हटाओ। लग गया वो काम में। माफी माँगी पेड़ से जाकर। रोया खूब पेड के पास जाकर के. पत्ते सब ठीक-ठाक किये। फल जो टूट गये थे उनको भी दरस्त किया। पानी सींचा। बड़ा मन गदगद् हो गया। शाम को लौटा। गुरुजी ने कहा, कैसे लगा ? बहुत अच्छा लगा है, बहुत आनन्द आ रहा है। तो वो जो कल तुमने कर्म किया था उससे थोड़ी सी राहत मिली। बहुत राहत मिली। कल तो मन बिल्कुल भी शांत नहीं था। बड़ा अशांत था। लेकिन आज जब मैंने वृक्ष के प्रति ऐसा व्यवहार किया तो मुझे लगा कि वृक्ष ने मुझे माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म को वृक्ष ने माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म से, मैं, आज का कर्म करके ऐसा लगता है, जैसे मुक्त हो गया हूँ। कल के मेरे अपराध से आज मुझे मुक्ति लग रही है। 

    बताइयेगा ये तो एक छोटा सा उदाहरण है। क्या यही उपाय नहीं है अपने बंधन और मुक्ति का। जिस कर्म के करने से हमारे ऊपर जैसे छाती पर किसी ने पत्थर रख दिया हो, सारा दिन व्यथित होता है। वे सारे कर्म हमारे संसार बढ़ाने वाले हैं और वे सब सांसारिक हैं। और जिन से हमारा मन प्रफुल्लित होता है, जिनके करने से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है, वे कर्म हमारे उन कर्मों को काटने वाले हैं, अभी उनसे मुक्ति दिलाने वाले हैं, लेकिन संसार से मुक्ति दिलाने वाले नहीं हैं। हमारे पाप से मुक्ति दिलाने वाले हमारे सत्कर्म हैं। लेकिन संसार से मुक्ति तब होगी जब सद् और असद् दोनों कर्मों के बीच में समता भाव होगा, तब मुक्ति होगी और वो पूछना हो तो उस वृक्ष से पूछ लें। पहले दिन जब चोट पहुँचाई थी तब भी वो वैसा ही खड़ा था। दूसरे दिन जब क्षमा माँगी तब भी वो उतना ही अलिप्त खड़ा हुआ है। क्या ऐसा ही हम हमारे जीवन में किसी क्षण कर सकते हैं। तीनों चीजें हमारे सामने हैं। हम कर्म अशुभ करते हैं, अशुभ का दबाव हमारे ऊपर होता है, तब हम उस दबाव को कम करने के लिये शुभ कर्म करें और कुछ क्षण ऐसे भी हों जब हम शुभ और अशुभ दोनों कर्मों से विश्राम लेकर के, राग-द्वेष से विश्राम लेकर के शांत भाव से अपना जीवन व्यतीत करें। उपाय सिर्फ इतना ही है। हमारे सांसारिक कार्यों में बाधा आती है, हमारे आध्यात्मिक कार्यो में बाधा आती है, कौन डालता होगा ये बाधा ? हम चाहते हैं कि जाकर के और आज तो साधुजनों की, मुनिजनों की सेवा करें। लोगों को दान दें। जो दीनहीन हैं. गरीब हैं. उनकी मदद करें. हमारे मन में ऐसा भाव होता है लेकिन ऐसा भाव हो जाने के बाद भी, सारे सरकमस्टेन्सेस फेवरेबुल हो जाने के बाद भी पता नहीं क्या होता है और मैं दान नहीं दे पाता। मैं सोचता हूँ कि फलानी चीज मुझे मिल जावे। मैं उसके लिये सारा प्रयत्न करता हूँ और अंतिम क्षण में जाकर के वो चीज मिलते-मिलते और मेरे हाथ से फिसल जाती है। 
     
    मेरे अपने भोग-उपभोग की सामग्री के साथ भी ऐसा ही है। मैं बहुत प्रयत्न करके खाने की थाली सामने सजाकर के रख लेता हूँ और मुँह में जो बहुत दिन से प्रतीक्षित था मेरे लिये प्रिय रसगुल्ला हाथ में, मुँह में आने को था और उतने में ही मोबाइल पर घंटी बज गई और एक ऐसी खबर जिसने कि उस रसगुल्ले को मुझे वहीं का वहीं रख देने को मजबूर कर दिया और उठकर के मुझे जाना पड़ा। ये मेरे भोग की सामग्री में बाधा किसने डाल दी। मेरे उपभोग की सामग्री में बाधा कौन डालता है। मैं बहुत उत्साहित होकर के किसी धर्म के कार्य को करने के लिये निकलता हूँ और बीच रास्ते में मुझे कोई ऐसी चीज घेर लेती है कि मैं उससे विमुख होकर के वापिस फिर लौट जाता हूँ। सारा उत्साह खत्म हो जाता है। मैं निरुत्साहित हो जाता है, ऐसा कौनसा परिणाम या मेरे भीतर ऐसा कौनसा कर्म पड़ा हुआ है जो मेरी इन सब चीजों में बाधा डालता है ? होगा तो कोई ना कोई ऐसा तो हो ही नहीं सकता। “विघ्नकरणमन्तरायस्य' आचार्य भगवन्तों का एक ही सूत्र है, सारे कर्मों में जैसे मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है, ऐसे ही सबसे छिपा हुआ और अचानक हमारे सामने आने वाला कर्म अन्तराय कर्म है। “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन, सो जिनेन्द्र जयवन्त नित अरिरज रहस विहिन।” अरि के मायने शत्रु, सबसे बड़ा शत्रु मोहनीय कर्म और धूल के समान हमारे ज्ञानदर्शन को आवरित करने वाला, रज अर्थात् धूल, ज्ञानावरण और दर्शनावरण और मिस्ट्री (रहस्य) जिसको कहते हैं, कब आयेगा पता नहीं, रहस्य है उसे कहते हैं अन्तराय। अन्तराय अत्यन्त रहस्यमय है। हम सारे इन्तजाम कर लेते हैं और अचानक आल आफ सडन कि 'इनस्पाइट ऑफ मी' (मेरे बावजूद), मेरी सारी तैयारी के बावजूद सब धरा रह गया। वहीं के वहीं करूँ क्या ? अन्तराय के उदय में पता नहीं लगता है कि कब क्या स्थिति बनेगी और वो कर्म भी हमने अपने लिये स्वयं बाँधा है और बाँधते कैसे हैं ये देख लें हम ? तब फिर वो उदय में आकर के अपना फल देता है ये तो दिखाई पड़ता है। लेकिन कब बँध जाता है ये दिखाई नहीं पड़ता और कब फल देगा ये भी दिखाई नहीं पड़ता। जब फल दे चुकता है तब दिखाई पड़ता है। कितनी बार हमारे जीवन में हम ये अनुभव करते हैं, कि कितना मन होता है कि दान दे देवें, चार पैसे हाथ में भी हैं, लेकिन इतनी जल्दी मन बदल जाता है। देने का मन जितनी देर से होता है, नहीं देने का मन उतनी जल्दी हो जाता है। धर्म करने का उत्साह जितनी मुश्किल से होता है, निरुत्साही हम उतनी ही जल्दी हो जाते हैं। जरा सा किसी ने कह दिया। श्रद्धा बड़ी मुश्किल से जमती है और किसी ने जरा सी बात कह दी, श्रद्धा एक मिनिट में टूट जाती है ? ये क्या है ? ये अन्तराय कर्म है। इस पर हमें विचार करना चाहिये। 
     
    अगर हमारे जीवन में ये हमें दुःख दे रहा है अन्तराय कर्म तो वो हमारे अपने कौनसे परिणाम होंगे जिससे कि हमारे साथ में बँध गया है ? तब हम आसानी से उन परिणामों से वर्तमान में बचकर के आगे के लिये अपने अन्तराय को टाल सकते हैं। महाराज, कुछ उपाय बताओ, कोई मंत्र दे दो। बड़ी मुश्किल है आर्थिक रूप से बिल्कुल मुश्किल में हैं, दुकान ठीक से नहीं चलती है, जहाँ हाथ लगाओ, तो वहीं पे बिगाड़ होता है। कोशिश तो बहुत कर रहे हैं, पुरुषार्थ तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन दो जून का भोजन बामुश्किल मिल रहा है, आप कुछ बताओ तो। भैया, किसी से पूछने जाने की आवश्यकता नहीं है न कोई उसके लिये कुछ मदद कर सकता है। अगर कोई मदद कर सकता है, अगर कोई उपाय हो सकता है तो अपने परिणामों को ही अपन सँभाल लेवें तो हमारे अन्तराय कर्म आसानी से दूर हो जावें। जब सांसारिक चीजों में बाधा आती है तब भी आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी गई है। अगर आध्यात्मिक कर्मों में बाधा आती है तब और अधिक आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी जाती है। आचार्य महाराज कहते हैं कि देखो तो दुकान पर हर एक मिनिट के अन्दर सामान देने, उठाने, धरने हेतु सैकड़ों बार उठता है, एक व्यक्ति, और अगर उससे कहा जाये कि खड़े होकर पूजा करो तो कहता है पैरों में दर्द होता है। वाह भैया, अच्छे से बैठकर जाप करो तो कहते हैं नहीं ..... दर्द होता है, हम पाँच मिनिट से ज्यादा बैठ नहीं सकते इसके मायने है कि मैंने ऐसा खोटा कर्म बाँध लिया है जो संसार को घटाने वाले कार्यों में बाधा डालता है। वो मुझे सलाह देता है, भीतर बैठा-बैठा। जैसा हमने अपना स्वभाव बना लिया होगा वर्तमान में, जिस चीज में हमें रुचि होगी वो चीज आसानी से हम कर पायेंगे। बाकी चीजों में मुश्किलें खड़ी होंगी। ये भी ध्यान रखना। ये मत समझना कि मुश्किलें हमारे पुराने कर्मों से ही खड़ी होती हैं। अपने वर्तमान के कर्मों से भी हम अपने जीवन में मुश्किलें खड़ी करते हैं। ऐसा मत समझना कि हम लापरवाही करें और कर्म को दोष देवें कि क्या करें। हमें बाधा पड़ रही है। जबकि सारे प्रयत्न करने के बाद, सारी सिचुएशन फेवरेबल होने के बाद फिर काम बिगड़ जाता है तब फिर मानना पड़ेगा कि कोई ऐसा कर्म मेरे साथ जुड़ा हुआ है जो मुझे बाधा डाल रहा है। आज तक मुक्ति दिलाने वाला कोई कर्म नहीं हआ। है कोई कर्म 148 कर्म प्रकतियों में जिसके उदय में मुक्ति हो जाये। किसी ने पढ़ा हो तो बताओ। कर्मकाण्ड पढ़ने वाले तो बहुत होंगे यहाँ पर। नहीं, 148 कर्म प्रकृतियों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जिसके उदय में मुक्ति हो जाये ? तीर्थंकर प्रकृति का उदय भी हो तब भी बैठे रहो सबको उपदेश देवो, मगर मुक्ति नहीं हो सकती जब तक कि तीर्थंकर प्रकृति का उदय हो। हाँ कोई भी कर्म का उदय मुक्ति नहीं दिलाता, मुक्ति में बाधा जरूर डालता है कर्म का उदय। हम ये सोचें कि हमारी मुक्ति में कोई कर्म का उदय आयेगा। मुक्ति हमारे पुरुषार्थ से होगी, पुरुषार्थ में बाधा डाल सकता है कर्म। तब फिर मुझे क्या करना चाहिये ? जब बाधा डाल रहा है कर्म तब फिर मुझे ऐसा कर्म करना चाहिये जिससे कि इस बाधा को मैं दूर कर सकूँ। बस इतना सा ही उपाय है। अगर अन्तराय कर्म मेरे कामों में बाधा डालता है तो मैं फिर, मैं ऐसा काम करूँ जिससे कि मेरी वो बाधा दूर हो जावे। मैं ऐसी कामना करूँ जिससे कि और अधिक मेरे जीवन में बाधा न आ जावे। 
     
    आचार्य भगवन्तों ने इस सूत्र के लिये व्यवस्था करते हुए अकलंक स्वामी ने तो बहुत सारी बातें लिखी हैं। पूज्यपाद स्वामी ने “विघ्नकरण अन्तराय" कहकर के, उमा स्वामी महाराज के सूत्र की व्याख्या कर दी कि भाई। दानादि जो कार्य हैं उसमें अगर हम बाधा डालते हैं तो हमारा कर्म बँधेगा अन्तराय कर्म और बाद में अगर हम दान, लाभ, भोग, और उपभोग इन सबके लिये जब प्रयत्न करेंगे तब हमारे लिये भी बाधा पड़ेगी और बात खत्म हो गई। अकलंक स्वामी के चरणों में जाकर के बैठे तो वो विस्तार रुचि शिष्यों के लिये समझाते हैं क्योंकि अलग-अलग आचार्यों का अपना अलग-अलग एप्रोच रहा। जो सूत्रों में सारी बात समझ लेते हैं, उमा स्वामी महाराज ने उन्हें सूत्र में कह दीं। थोड़ी सी व्याख्या में जो समझ लेते हैं पूज्यपाद स्वामी ने उन्हें थोड़ी सी व्याख्या करा दी और जो और डिटेल चाहते हैं तो अकलंक स्वामी का स्मरण करना होगा। आचार्य भगवन्तों का नाम हमें याद रखना चाहिये। इनका उपकार हमारे ऊपर है, बहुत-बहुत उपकार है। बता रहे हैं कि दानादि में विघ्न डालने से स्वयं अन्तराय बँधता है, लेकिन इतना ही नहीं हमारे आगे भी दानादि में हमेशा अन्तराय आता है। दूसरे के दानादि में बाधा डाली है, हम निमित्त बने हैं अन्तराय में, तो आगे के लिये अन्तराय बाँध लेते हैं। उसके तो कर्म के उदय है आपके तो देने पर भी उसके लाभ नहीं हो पा रहा, लेकिन आप उसको नहीं देने का जो विचार कर रहे हैं, उसके दान इत्यादि में बाधक बन रहे हैं, वो आपके भी इसी तरह की सिचुएशन क्रिएट करेगा। ये दोनों चीजें एक साथ चलती हैं। कदम-कदम पर हम लोग दूसरों के दान, लाभ, भोग और उपभोग और वीर्य में बाधक बनते हैं। कदम-कदम पर संसार में, मैं आज विचार कर रहा था कि शायद हम लोग अन्तराय कर्म सबसे ज्यादा बाँधते होंगे। कदम-कदम पर अपने मन की करवाना दूसरे के लिये बाधा ही है। हाँ! अगर विचार करें। ऐसा करो, ऐसा नहीं करो। किसी के भी भले-बुरे के बीच में निमित्त बनना ही मत। चुपचाप रहना जहाँ तक हो सके। नहीं तो संसार ही बढ़ेगा। यहाँ तो सुबह से शाम तक गृहस्थी में इनको सलाह दो, उनको सलाह दो, तुम ये करो, तुम ये ना करो। ये अन्तराय अपने लिये बँधेगा। बहुत सूक्ष्म है मामला। अगर संसार से मुक्त होना है तो जितना कम हो सके संसार के प्रपंच में पड़ना चाहिये। अपने को सुबह-सुबह यही समझ में आया जब मैं विचार कर रहा था इन चीजों पे। लेकिन आपके मन में होगा कि बहुत प्रेक्टिकल नहीं है ये बात। बहुत प्रेक्टिकली पोसिबल नहीं है। बेटा जा रहा है कहीं। कहाँ जा रहे हो ? कोई जरूरत नहीं। हो गया अन्तराय, आपने बाँध लिया। भले ही वो बुरा करने जा रहा हो, आपका उससे कोई मतलब नहीं। बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है, कभी सोचना आप। भोग-उपभोग में भी बाधा नहीं डालना। अब क्या करूँ तो फिर ? तो फिर आप जिम्मेदारी दूसरे की काहे को ले रहे हैं ? आप काहे को मुश्किल में पड़ रहे हैं उसको जैसा करना है करने दो ?
     
    एक पण्डित हीरालालजी थे कर्मकाण्ड के बड़े विद्वान। उन्होंने अपने बेटे को जगाना छोड़ दिया था। कहते हैं कि मैं काहे को बेकार में दर्शनावरणी कर्म का बंध करूँ ? तुम्हें सोना हो तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने, जब उदय हो तब उठना। अरे तो वो दूसरे का अहित हो जाएगा, वो 10 बजे तक सोता रहेगा, तो कहते हैं हम अपना अहित क्यों करें उसको जगाकर के, हाँ वो अगर मुझसे कहे कि जगा देना तो जगाऊँगा, अन्यथा नहीं जगाऊँगा। हाँ बहुत, आचार्य महाराज आज्ञा नहीं देते, क्यों, अगर तुम मानो तो देऊँ नहीं मानो तो काहे को बेकार मैं व्यर्थ में इसमें बाधक बनूँ और अन्तराय मैं खुद बाँधू जो आज्ञा माने उसके लिये, जो बात माने उसके लिये सलाह देना, वरना अन्तराय स्वयं बँधेगा। इतना सूक्ष्म मामला है, बहुत विचार करने जैसी चीज है करियेगा विचार आराम से अपन ने तो थोड़ी सी बात कर ली है और फिर 24 घण्टे अपने पास पड़े हैं, जिन्दगी पड़ी हुई है जरूर से विचार करना चाहिये, चुपचाप शांत बैठकर के कि क्या कर रहा हूँ ? क्या कह रहे हैं कि किसी के सत्कार का निषेध करना। बताइये किसी को अगर कोई सत्कार दे रहा है तो उसका निषेध करना मन ही मन, करते हैं, बहुत करते हैं, अपन किसी को वाहवाही मिल रही है, किसी को प्रशंसा मिल रही है, कोई अवार्डेड हो रहा है। अपन बैठे-बैठे कोने में। अरे क्या धरा है इन चीजों में। 
     
    एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि महाराज देखो तो कैसा संसार है। बोले हम यहीं खड़े थे और बच्चे लोगों को अवार्ड हो रहा था और एक जनाब बोले, नाम नहीं बताऊँगा। इन सब चीजों में क्या रखा हुआ है ? इन सब चीजों का धर्म से क्या सम्बन्ध है, और दुनिया भर की बातें वो कह रहे हैं कि हमसे तो आपको बताते ही नहीं बन रहा है। वो ऐसा कह रहे थे तो मेरे मन में आया कि देखो, कोई व्यक्ति तो प्रसन्नता पा रहा है और किसी व्यक्ति को ते सम्मान हो रहा है लेकिन हमें ऐसा लग रहा है जैसे हमारा अपमान हो रहा है और उसके सत्कार में बाधा डाल रहे हैं। कल के दिन हम अपने अन्तराय का इन्तजाम कर रहे हैं बैठे-बैठे। ऐसे बढ़ता है संसार और कुछ नहीं, कोई संसार अलग से थोड़े ही बढ़ता होगा, अपने हाथ से हम स्वयं बढ़ा लेते हैं। धर्म के कार्यों में भी बढ़ा लेते हैं, अपना संसार। संसार के कार्यों में तो बढ़ता ही है संसार। ऐसा पढ़ा मैंने सत्कार का निषेध करना। सत्कार किसी का भी हो, एक छोटे से बेटे से भी आप, 'आप' करके बात करेंगे ये उसका सत्कार है और आप डाँट-डपटकर बात करेंगे, ये उसका अनादर है, उसको मिलना चाहिये सम्मान, आपने दिया उसे अपमान। आपने उसके सम्मान में, उसके सत्कार में बाधा डाली। हाँ बहुत कठिन है भैया, मैं आपसे कह रहा हूँ पर प्रेक्टिकली तो बहुत मुश्किल लग रहा है। मैं सबेरे से सोच रहा हूँ कि मैं सब कहूँगा जाकर के तो वो सब कह देंगे कि बिल्कुल पोसिबल नहीं है। मगर यह तो कदम-कदम पर होता है, इसीलिये तो संसार है। इसीलिये तो अपन बैठे हैं संसार में। नहीं तो अभी तक मुक्त नहीं हो जाते। यही होता है, नहीं सँभाल पाते, अपन क्योंकि आदत ऐसी पड़ गई है। कह रहे हैं स्वयं के पास जो वस्तुएँ हैं उनका त्याग करने की भावना नहीं होना। ये अन्तराय का बंध, बताओ किसी के उसमें बाधा नहीं डाली अपन ने सोचो, लेकिन जो चीज अपने पास है वो दूसरे को देने का मन नहीं बन रहा है, इसका मतलब लग रहा है आपके अन्तराय बँधेगा। कोई व्यक्ति अगर त्याग नहीं करे तो अन्तराय कर्म का निरन्तर बंध हो रहा है। ये ध्यान रखना, इसलिये बहुत लोग पूछते हैं कि हम तो रात में खाते ही नहीं हैं तो क्या जरूरी है कि हम त्याग करें, हम तो वैसे ही नहीं खाते। आप भले ही नहीं खाते, अन्तराय का बंध निरन्तर हो रहा है। त्याग कितना कर सकते थे और त्याग नहीं किया, इसलिये निरन्तर अन्तराय का बंध हो रहा है, भले ही आप नहीं करते। बहुत सी चीजों को अपन नहीं करते लेकिन उनका त्याग करा कि नहीं अपन ने तो कह रहे हैं कि त्याग नहीं करा तो निरन्तर अन्तराय कर्म का बंध होता चला जाता है। बहुत सूक्ष्म है। दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत होना। सम्यग्दृष्टि दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत नहीं होगा। वो कहेगा पुण्य का फल है, ठीक है, बढ़िया है, विस्मृत होने की आवश्यकता नहीं है। विस्मृत होने से क्या होता है ? भीतर-भीतर, धीरे-धीरे करके उसके धन पैसे से ईर्ष्या जागृत होती है, फिर बाधा डालने की इच्छा होती है, इसलिये विस्मृत नहीं होना । मुनि महाराज भी जब अपनी तपस्या के फलस्वरूप किसी के वैभव को देखकर, नारायण इत्यादि के वैभव को देखकर विस्मृत होते हैं, मन में विचार आता है कि मुझे भी ऐसा मिले तो सारी तपस्या के फलस्वरूप इतना सा ही फल मिलकर के रह जाता है। जितने नारायण प्रति नारायण के जो पद हैं वे मुनि बन करके अत्यन्त तपस्या करने पर ऐसा निदान कर लेने पर प्राप्त होते हैं ये ध्यान रखना। ये वही है कि दूसरे का वैभव देखकर चकित मत होना, विस्मृत मत होना अन्यथा आप कल के दिन मन में वही चाहेंगे अपनी तपस्या के फलस्वरूप भी और ये अन्तराय के बंध का कारण है। बहुत मिल रही थी, इतनी सी ही मिलकर रह जाएगी। और कह रहे हैं त्याग करने के बाद उस चीज को पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना। भगवान् के सन्मुख जो भी हम भेंट स्वरूप चढ़ा देते हैं, मंत्र बोलकर के, उसको पुनः ग्रहण करने की भावना होना या ग्रहण कर लेना ये अन्तराय के बंध का कारण है। अर्थात् देवधन उस दिन अपन ने पढ़ा था अशुभ नाम कर्म के बंध के कारण में, भगवान् को जो अपन ने धार्मिक कार्य के लिये राशि भेंट की है, उसे रखना। देने में आनाकानी करना। साल भर बाद में दूँगा, ये सब निरन्तर अशुभ नाम कर्म और नीच गोत्र के बंध का कारण बनते हैं और जो सामग्री अपन ने भेंट स्वरूप, उपहारस्वरूप दे दी उसे पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना, काहे को दे दी हमारी है, देने के बाद भी हमारी है, हमने दी थी इनको। देखो तो गिफ्ट दे दी उसको। हमने उनको पेन दिया था, जब-जब उसके हाथ में पेन दिखा ये हमने दिया था इनको। अब बताओ आप अगर दिया था तो दे दिया अभी भी आपको उसके प्रति राग है और वो राग निरन्तर आपके अन्तराय का कारण बन रहा है। बहुत मुश्किल है। चीज़ देख कर अभी तक लगता है ये चीज मैंने दी थी। अभी तक उसके प्रतिराग भाव है वो राग भाव बंध का कारण बन रहा है। दे दी, त्याग कर दी, तो आचार्य भगवन्त वे कह रहे हैं दान की गई चीज के प्रति भी राग भाव ग्रहण करने का भाव बना रहे तो अन्तराय कर्म बँधता है और इतना ही नहीं द्रव्य के उपयोग में समर्थ होने के बाद भी सदुपयोग नहीं करना, भले ही दुरुपयोग नहीं कर रहे किन्तु उन चीजों का जो हमें मिली हैं, पुण्य के उदय से वस्तुएँ उनका अगर सदुपयोग नहीं करेंगे तो आगे मिलेंगी नहीं, अन्तराय पड़ेगा। 
     
    फिर कह रहे हैं कि दूसरे की शक्ति का अपहरण कर लेना। कैसे, अब किसी की शक्ति का थोड़े ही अपहरण कर सकते हैं, अपन किसी की सामर्थ्य का। लेकिन सामर्थ्य का अपहरण कैसे करते हैं ? जैसे कर्ण की सामर्थ्य का अपहरण शब्द ने किया था सारथी बन के। डिसकरेज करना, डिसकरेज कर रहे हैं हमेशा उसको, जैसे ही अर्जुन का रथ सामने आता तो कर्ण का रथ सारथी मोड़ देता। कर्ण कहता कि अरे अर्जुन से सामना करवाओ। तू क्या करेगा, सामना, एक ही बार में मर जाएगा, इसलिये बचा रहा हूँ तेरे को। इतना डरा दिया उसको। ये भी स्वय के अन्तराय में कारण है, अपन दूसरे को इस तरह से हतोत्साहित करते हैं। उसकी शक्ति को ऐसे छीन लेते हैं, उसकी सामर्थ्य होने के बावजूद भी हतोत्साहित कर देना। अपने बच्चों को अपने हाथ से हतोत्साहित करते हैं, पढ़ते-लिखते हो नहीं फेल होओगे, हो जाना, हमें क्या करना। ये यही कहते कि मेरा बेटा अभी कम पढ़ता-लिखता है, थोड़ा ज्यादा पढ़ेगा-लिखेगा तो देखना कितना होशियार हो जाएगा। पढ़ता-लिखता है ही नहीं, फेल होएगा और क्या एक बार अस्सी परसेन्ट आये थे, अस्सी में क्या होता, 90 प्रतिशत आयेंगे तब होगा। ये नहीं कहेंगे कि 80 आये, शाबास और मेहनत करेगा तो नब्बे आयेंगे। ये भाव कौनसा है, हतोत्साहित करने का है। दूसरे के सामने आप शिकायत कर रहे हैं ये उसका हतोत्साहित करने का काम है, उसे प्रोत्साहन नहीं मिलने वाला है उससे। छोटी-छोटी सी चीजों में आप दिन भर में देखेंगे अगर जो अपने मन का नहीं होता उसके लिये हम दूसरे को हतोत्साहित करते हैं, अरे क्या रखा है उसमें, छोड़ो, उसे क्या करना। अब उसका करने का मन था और आपने उसको हतोत्साहित कर दिया। हमारे अपने अन्तराय के बंध का कारण होगा और कह रहे हैं जो कुशल चारित्र वाले गुरुजन हैं, देवालय हैं उनकी पूजा का निषेध करना। क्या रखा है पूजा में, ये तो जड़ की क्रिया है, इस थाली से उठाकर उस थाली में रखने में कौनसा धर्म है ? अरे अपने परिणामों को सँभालो, पूजा पाठ में कुछ नहीं धरा। ऐसा प्ररूपण कर देना, ये अन्तराय कर्म का कारण है। रोज तो करते हो पूजा, क्या होता है ? आपने उसके पूजा की क्रिया में अन्तराय डाला। ये नहीं कहेंगे कि एक और कर लो। ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि आप समय का उल्लंघन करो, नहीं तो आप कहो कि धर्म के काम में क्या समय देखना ? अब समय का ध्यान ला गया तो समय तो पूरा हो गया। दो चीजें और बाकी रहीं। दीन-दुखियों को कोई अपर मदद करता है, करुणा दान देता है तो कभी मना नहीं करना। कभी भी दूसरे को दीन- :खी की मदद करने से विचलित नहीं करना, आर्गेमेन्ट नहीं देना कि क्या होता है इन सबसे। 
     
    एक उदाहरण है जब सत्याग्र हो रहा था देश में। गाँधीजी के नेतृत्व में तब सत्याग्रहियों के लिये एक वृद्ध बाबा रेल के डिब्बे में चढ़कर के थोड़ा-थोड़ा पैसा माँग रहे थे। तो एक कनस्तर में, खुला हुआ कनस्तर उसके अन्दर जो जितना भी देता था, डाल देता था उसी के अन्दर रसीद रखी थी कि बाब जी को ज्यादा दिखता नहीं था भैया अपने हाथ से लिख दो, कितने रुपये, सत्याग्रहियों को दिये, पाँच रुपये दिये, पाँच की रसीद अपनी ले लो। उसी में रसीद बनती रहती, उसी में सब पैसा रखा रहता। एक चोर ने देख लिया कि ये तो बढ़िया चीज है, इतने सारे कनर तर भर एक मिनिट में मिल जाएँगे। बाबाजी को क्या है ज्यादा दिखता भी नहीं है। एक पक्का देंगे सो काम हो जाएगा। अब उसको ये थोड़ी ही मालूम था कि ये पैसा किसलिये एक तो बाधक नहीं बनना चाहिये और बाधक बन जाये तो तुरन्त सँभाल लेना चाहिये कि भैया हमारा भाव ऐसा नहीं है, आपको जैसा करना है वैसा करो। हम क्यों बेकार में बाकि बनें आपके उसमें। छोटे-छोटे से कामों में। खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने से लेकर के ब जितने काम होते हैं संसार के सब में। अब उसमें तो उसको देर क्या लगनी थी चोर को बाबाजी जरा यहाँ-वहाँ हुये कनस्तर उठा लिया और उतर गया वो तो ट्रेन में से। अब उसने जाकर के जब देखा तो वह पानी, देखी सत्याग्रह की। मन में बड़ी कचोट हुई अरे यह तो मैंने इतने भले काम में बाधा डाल दी इससे तो पूरे का पूरा इतना बड़ा कार्य ही रुट जाएगा। मुझे तो 100-500 रु. मिलेंगे लेकिन इतना बड़ा कार्य रुक जाएगा अब क्र करूँ? भाग-दौड करके जैसे-तैसे उसी ट्रेन को उसने फिर पा लिया। उसी डिब्बे को ढकर के उस बाबाजी के पास जाकर के वो कनस्तर ज्यों का त्यों धरा और इतना ही नहीं देन भर में जो जितनी चोरी करी थी वो सब पैसे भी उसी में डाल दिये। आगे से कान पक: कि अब चोरी नहीं करूँगा। बताइये आप, कभी-कभी ऐसा कोई कार्य हमारे जीवन में जाता है भला कार्य जिससे कि हमारे जीवन के सारे बुरे कर्म भी नष्ट हो सकते हैं। हमें हमेशा इस तरह के कार्यों में, जो कि परोपकार के कार्य हैं उनमें तो बाधा कभी डालनी ही नहीं चाहिये और कभी कदाचित् परोपकार के कार्य में बाधा अपने से पड़ जावे तुरन्त सँभाल लेना चाहिए। 
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  6. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम अगर इस संसार को बहुत गौर से, सावधानी से देखें तो यहाँ हम जो भी पाते हैं वे हमारे ही कर्मों का प्रतिफल है। हम जैसा करते हैं वैसा हम पाते हैं। जिस दिशा में हम चलते हैं वहाँ हम पहुँचते हैं। हम पाना कुछ और चाहें और करें कुछ और तो शायद हमारे सोचने से पाने का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई व्यक्ति ये सोचे कि वो नदी के किनारे पहुँच जाये और उसके कदम बाजार की तरफ बढ़ रहे हों, तो कोई भी कह देगा कि आप सोच भले ही रहे हैं कि आप नदी पर पहुँचेंगे, लेकिन आपके कदम अगर बाजार की तरफ जा रहे हैं तो आप पहुँचेंगे तो बाजार। हम लोग अपने जीवन को अच्छा बनाना चाह रहे हैं, ये हमारा सोच है। लेकिन अकेले सोचने से हमारा जीवन अच्छा बन जाए, ऐसा संभव नहीं है। 

    हम अगर अपने जीवन में बीज कड़वा बोयें और फिर अगर सोचें की फल मीठे मिलेंगे तो क्या संभव है ? यदि हमें अपने जीवन को अच्छा बनाना है तो हमें ये भी देखना पड़ेगा कि जीवन को अच्छा बनाने वाली कौनसी चीजें हैं उनको मैं अपने जीवन में शामिल कर रहा हूँ या नहीं। या सिर्फ सोच रहा हूँ। हम लोगों के साथ एक मुश्किल और है कि हम दूसरे के प्रति विश्वास नहीं रखते लेकिन दूसरे से अपेक्षा रखते हैं कि वो हम पर विश्वास करे। हम दूसरों से घृणा रखते हैं लेकिन हमारी अपेक्षा होती है कि सब हमसे प्यार करें। ये दो चीजें हमारे जीवन को अच्छा बनने में बाधक बनती हैं। हम सोचते हैं कि अच्छा बनें लेकिन जीवन उस दिशा में ले जाते हैं जहाँ कि उसके बुरे बनने की संभावना है और दूसरी चीज दूसरे से हम अपेक्षा जैसी रखते हैं वैसा हम उसके प्रति अपना व्यवहार नहीं बनाते। हमने पिछले दिनों इन सब बातों को बहुत सावधानी से समझना शुरू किया है, ताकि हम थोड़ा बहुत परिवर्तन ला सकें। 

     

    आज हम मनुष्य हैं तो क्यों मनुष्य हैं ? आज अगर कोई पशु है तो क्या वह पशु होने के लिये मजबूर है या उसकी वो कमजोरी है। आज कोई नरक की तरह अपने जीवन को जी रहा है, अभावग्रस्त, दरिद्र, दीनहीन और दुःखी होकर के अपने जीवन को बिल्कुल नरक बनाकर जी रहा है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी है ? हाँ, यदि कोई बहुत सुख सुविधाओं के बीच स्वर्ग की तरह अपने जीवन को जी रहा है तो उसके लिये उसने ऐसा क्या किया होगा, इस पर हमें विचार करना है। 
    ये चारों ही चीजें देखने में आती हैं। हम अपना नरक अपने हाथ से निर्मित करते हैं। हम पशु जगत में उनकी पशुता से परिचित हैं। हम मनुष्यों को भी सुख-दुःख दोनों महसूस करते देखते हैं और हमारे अन्दर एक ऐसा भाव आता है कि कोई ऐसी स्थिति भी होगी जहाँ कि अत्यन्त सुख होगा। जीव इन चारों रूपों में अपने-अपने भावों के अनुसार भ्रमण करता रहता है। मैं जैसा हूँ, वैसा क्यों हूँ ? इस पर तो जरूर हमको सोचना चाहिये। और इसी के लिये हम लोगों ने पिछले दिनों दो बातें समझी हैं। यदि मैं दूसरे का ति स्कार करता हूँ तो मैं तैयार रहूँ इस बात के लिये कि मेरा भी तिरस्कार होगा और यदि मैं अपने जीवन में दूसरों के सुखों को देखकर के दुःखी होता हूँ या दूसरे के दुःखों को देखकर हर्षित होता हूँ तो मानियेगा कि मैं अपने जीवन को अपने हाथ से नरक बनाने की तैयारी कर रहा हूँ। अकेले सोचने से नहीं होता। तैयारी से ही जीवन बनता है। जैसी तैयारी होगी वैसा जीवन बनेगा। जैसा हम सोचते हैं सिर्फ वैसा ही जीवन नहीं बनता। सोचने के साथ-साथ जैसी हमारी तैयारी होती है, यदि हमारी तैयारी अपने जीवन को नरक के जैसे बनाने की है तो अन्ततः हम पायेंगे कि हमारा जीवन जैसे नरक में व्यतीत होता है वैसा ही व्यतीत हो रहा है और हम चाहें तो हमारे जीवन को स्वर्ग बना लें। 

    ये ठीक है कि स्वर्ग और नरक एक निश्चित जगह पर हैं लेकिन हमारा जीवन यहीं से जब नरक बनना शुरू होता है तो अन्ततः हमें नरक तक ले जाता है। ये मनुष्य एक ऐसी जगह है जहाँ से कि हम अपने जीवन को तय करते हैं कि हमें कहाँ ले जाना है। कौनसी हमारी तैयारी है। मैं फिर से मनुष्य होने की तैयारी कर रहा हूँ या कि मनुष्य से नीचे उतरकर के पशु होने की तैयारी कर रहा हूँ या अपने जीवन को यहाँ से नरक बनाना शुरू कर रहा हूँ या अपने जीवन को बहुत सुखी, समृद्ध और अच्छा बनाने के लिये मैं तैयारी कर रहा हूँ। ये चारों चीजें हमारे हाथ में हैं। इसमें कहीं कोई हमारी मजबूरी नहीं है कि हम वैसा ही अपना जीवन बनायेंगे जैसा कि हमारे कर्मों का उदय आयेगा। नहीं, हमारे अपने पुरुषार्थ से हम इन चारों दिशाओं में किसमें हमें जाना है, यह तय कर सकते हैं। सोचते जरूर हैं कि हम स्वर्ग जावें लेकिन जीवन भर तैयारी करते हैं नरक जाने की। ठीक ऐसे ही जैसे कि सोचते हैं कि नदी के किनारे टहलने जाने की, लेकिन कदम तो निरन्तर बाजार की तरफ जा रहे हैं तो पहँचेंगे कहाँ ? इस तरह यदि हम थोड़ा सा अगर विचार करें अपने जीवन के बारे में कि यहाँ जो भी हम ध्वनि करते हैं वो इस संसार में प्रतिध्वनि के रूप में हम तक लौटकर के आती है। जैसा हम करते हैं वैसा ही हमें अन्ततः जाना पड़ता है। आचार्यों ने हमें इसीलिये सावधान कर दिया कि यदि हम दूसरे के तिरस्कार के परिणाम रखेंगे तो हमारा तिरस्कार होगा। हम दूसरे के जीवन में दुःख देकर के खुशी होंगे तो अन्ततः हमारे जीवन में भी हमें दुःख पाना होगा। एक चीज और है, हम ये सोचते हैं कि हम जो चीज दूसरे के लिये कर रहे हैं, उससे हमारा कोई घाटा नहीं होगा। ऐसा लगता है कि हम दूसरे को तकलीफ पहुँचा रहे हैं लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि वो गाली हमारे ही मन को पहले गंदा करती है, उसके बाद बाहर आती है। जबान को गन्दा करते हुए आती है। 
     
    बहुत सीधा सा हम सबको मालूम है लेकिन उन क्षणों में हम भूल जाते हैं और हमें लगता है कि नहीं वो तो हम दूसरे के लिये कर रहे हैं, तो दूसरे की हानि होगी, मेरी नहीं होगी। पर ऐसा नहीं है। दूसरा हमारा शत्रु और मित्र बाद में होता है। अपने शत्रु और मित्र अपने परिणामों से हम स्वयं पहले होते हैं। 

    एक व्यक्ति रास्ते से चला जा रहा है और अगर उसे कहीं कोई पत्थर लग जाये, ठोकर लग जाये तो इस बात की संभावना ज्यादा है कि वो उस पत्थर को गाली दे या उस पत्थर को डालने वाले को गाली दे। या फिर तमाम व्यवस्थाओं को गाली दे। ऐसे बहुत थोड़े मौके हैं कि वो किसी को धन्यवाद दे कि पता नहीं और कौनसी बड़ी चोट लगने वाली थी, इतने ही में काम हो गया। ऐसा मन में आने वाले लोग पोइन्ट वन परसेन्ट होंगे। बाकी पहले नम्बर यही आयेगा कि पत्थर को गाली दें। फिर ध्यान आयेगा कि पत्थर को गाली लगेगी नहीं तो पत्थर डालने वाले को तो लगेगी, चलो उसी को दें, और नहीं फिर तो, पूरे सिस्टम को दें। पर गाली किसी को भी दी गई हो, पत्थर को दी गई हो या कि पत्थर डालने वाले को दी गई हो, लेकिन उससे उसको ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। देने वाले को फर्क पड़ेगा। जिसने मन कड़वा किया है, जिसने मन अपना खट्ठा किया है उसको फर्क पड़ने वाला है। ये छोटी सी चीज यदि हमारे समझ में आ जाये, तो फिर हम अपने परिणामों को आसानी से सँभाल पायेंगे। 
     
    हमने पता नहीं कितने बढ़िया भाव किये होंगे, अब तो उन भावों के बारे में विचार ही करना ऐसा लगता है कि क्या हमने कुछ ऐसा करा होगा। सचमुच मैं आपसे ईमानदारी से कह रहा हूँ कि जब-जब भी मनुष्य जीवन पाने के लिये मैंने पहले कौनसा पुरुषार्थ करा होगा, मैंने कैसे परिणाम करे होंगे, इस बात पर जब विचार करता हूँ तो लगता है इस बार मामला कुछ गड़बड़ है। मनुष्य बनने के भी चांसेस कम हैं, अब अगली बार। क्योंकि मनुष्य बनने के लिये जिस तरह के परिणाम करने होते हैं वो परिणाम तो आज बहुत रेअर हैं और इसी वजह से मनुष्य होना बहुत दुर्लभ कहा गया है। हम कितने अच्छे परिणाम करते होंगे जब हम मनुष्य होते होंगे और फिर उसके बाद के परिणाम आज हमारे किस तरह के हो गये हैं तो ऐसा लगता है कि हमारी तैयारी अब इतनी भी नहीं है जितनी पहले हमने मनुष्य होने के लिये की थी। अब तो हमारी तैयारी हमें और कहीं नीचे ले जाने के लिये ही है। मनुष्य कैसे बनता है कोई। “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य"व स्वभाव मार्दवं च”। दो सूत्रों में। मैं मनुष्य बना हूँ तो पहले क्या करा होगा। अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह। बहुत संतोषी रहा होऊँगा मैं पहले तब मैंने ये मनुष्य पर्याय पाई है। मैंने पाँच पाप किये होंगे अत्यन्त अल्प। न हिंसा की होगी, न झूठ बोला होगा, न चोरी की होगी, न मैंने किसी के प्रति अपनी आँख खराब की होगी। न मैंने किसी का शोषण करके अपनी सुख-सुविधा के लिए सम्पदा संचित की होगी। मैंने ऐसा कुछ किया होगा जिससे आज मुझे ये मनुष्य पर्याय मिली है और “स्वभाव मार्दवं च।" और मेरे स्वभाव में पहले से ही स्वाभाविक मृदुता रही होगी, कोमलता और सरलता रही होगी तब जाकर के मैं आज इस मनुष्य जीवन को प्राप्त कर पाया हूँ। 

    लेकिन आज हम गौर से देखें तो हमारे जीवन में कितना अधिक हमारे द्वारा किया जा रहा है पाप। इतना ही नहीं हमारे स्वभाव में मृदुता के स्थान पर कितनी दूसरे के प्रति कठोरता का व्यवहार होता चला जा रहा है। हमारी स्वाभाविक मृदुता धीरे-धीरे नष्ट होती चली जा रही है। जबकि हमने पहले इन सब चीजों को अपने जीवन में शामिल किया होगा। जिससे आज हम इस जीवन को पा सके हैं। और भी बहुत सारे कारण आचार्य भगवन्तों ने लिखे हैं। दो सूत्रों में तो बहुत संक्षेप में लिख दिया है और भी बहुत से कारण हैं। 

    आप इतने स्नेही, इतने ममतावान और इतने योग्य हैं, आप भूल रहे हैं। आपने तो पहले इतने बढ़िया-बढ़िया काम किये हैं तो यदि आज हम अपनी किसी अज्ञानतावश या किसी संस्कारवश और या कि इनवायरन्मेन्ट की वजह से और उन सब बातों को भूल जाते हैं और कोई याद दिला देता है तो फिर से हमारे मन में एक साहस आ जाता है। शायद ये जो प्रक्रिया, जिस पर हम विचार कर रहे हैं, हमारे साहस बढ़ाने की ही प्रक्रिया है कि संतोष क्या चीज है ? और असंतोष क्या चीज है ? जिस संतोष के द्वारा हमने ये जीवन पाया है वो कैसा होता होगा। संतोष के मायने है कि जो प्राप्त है, उसमें आनन्दित होना। इसका नाम ही संतोष है, पर इतना ही नहीं है और भी आगे बढ़ें, अपने जीवन से अधिक मूल्य वस्तुओं को नहीं देना। दूसरी चीज और तीसरी चीज जो प्राप्त नहीं हुआ है उसको लेकर के मन में कोई सोच नहीं होना। इतना सब होगा तब जाकर के मालूम पड़ेगा कि हाँ हमारे जीवन में संतोष है कि नहीं। नहीं तो सामान्य रूप से जब अपने पास सारी चीजें होती हैं तो अपन दूसरे से कहते पाये जाते हैं कि हम तो ठीक हैं, हमारा तो जीवन अच्छा चल रहा है, हमें तो ज्यादा हाय-हाय भी नहीं है, अब सब है इसलिये। नहीं, हमें और जरूरत नहीं है। हमें बहुत सेटिसफेक्शन है। हमें बहुत संतोष है हम बहुत संतुष्ट हैं अपने जीवन से। ऐसा कब कह रहे हैं जब सारी चीजें आपको उपलब्ध हो गई हैं तब। उसमें से एक-आध 'निल' कर दो और फिर भी कहो कि मैं तो संतुष्ट हूँ, तब समझ में आयेगा। जब आपके हाथ पर सारी चीजें मिल रही हैं हाथ बढ़ाते ही, तब आप कह रहे हैं कि हम तो बहुत सन्तुष्ट हैं। एक-आध दिन हाथ बढ़ाने पर ना मिले और तब भी चेहरे पर मुस्कुराहट ज्यों कि त्यों बनी रहे, तब समझ लेना कि अब आ गया है हमारे भीतर हर स्थिति में आनन्दित रहना। हर परिस्थिति में प्रसन्नचित्त बने रहना। तब कहलायेगी संतोष की साधना। समता की साधना इससे भी बहुत ऊँची है। जो प्राप्त है उसमें आनन्दित होना, जो प्राप्त नहीं है उसके लिये एफर्ट तो करना लेकिन वरीड नहीं होना। चिन्ता करने से थोड़े ही मुझे मिलेगा। 

    आचार्य महाराज कहते हैं किसी भी चीज की प्राप्ति संक्लेश से नहीं होती, विशुद्धि बढ़ाने से होती है और विशुद्धि बढ़ती कैसे है, जो प्राप्त है उसमें प्रसन्नता महसूस करना। उसमें मैं क्या बेहतर कर सकता हूँ ये भाव हमेशा बनाये रखना। तब जाकर के हमारे जीवन में ये अल्प परिग्रह और अल्प आरम्भ यानी संतोषपूर्वक जीवन-यापन होता है। कोई क्यों बहुत अधिक आरम्भ करता है, कोई क्यों बहुत अधिक परिग्रह की आसक्ति रखता है ? क्यों रखता है कभी सोचा है आपने, क्यों उसकी अपेक्षायें ज्यादा बढ़ जाती हैं ? अपेक्षाएँ बढ़ने का सिर्फ एक ही कारण है कि जो प्राप्त है वो दिखाई नहीं पड़ता। ..... ये साइक्लोजी है कि जो चीज प्राप्त हो जाती है लाइफ में, फिर उसकी इम्पोरटेंस खत्म हो जाती है। हम कर देते हैं उसकी इम्पोरटेंस खत्म। एक जगह लिखा है कि जिनके निकट हम रहते हैं उनसे प्रभावित नहीं होते और जिनसे प्रभावित होते हैं उनके निकट रह नहीं पाते। हाँ ये एक हमारी अपनी मानसिकता है कि जो-जो चीज हमें प्राप्त हो जाती है, ईजिली प्राप्त हो या कि बहुत एफोर्ट करने के बाद प्राप्त हो। बहुत एफोर्ट के बाद प्राप्त होगी तब भी कुछ दिन के बाद वो हमें उतना सुख नहीं दे पायेगी जितना कि वो जब प्राप्त नहीं थी तब दे रही थी। सोच-सोचकर और हम बहुत आनन्दित होते थे कि वो चीज जिस दिन मुझे मिलेगी अरे वाह। और जब मिल गई तो हाँ ठीक है। अब वो दूसरी दिखने लगी जो अभी नहीं मिली है। ..... ये मन की प्रवृत्ति है। असन्तुष्ट मन की प्रवृत्ति है। मिलने पर सुख नहीं मालूम पड़ता और मिलने पर और अधिक दुःख होना। मिल जाने के बावजूद भी देख लो मजा, मिल गई लेकिन कम मिली। जब तक नहीं मिली तब तक तो ठीक था। मिल गई है तो कम मिली है इस बात का दुःख। मोर एण्ड मोर फिर और चाहिये। ये असंतोष की तासीर है। इसको समझना पड़ेगा। अपने भीतर ये एनालेसिस करना पड़ेगा कि मुझे जब कोई चीज नहीं मिलती है, तब मैं कितना आकुल विकल होता हूँ या कि कम होता हूँ। नहीं मिली, ठीक है। मिल जाये ऐसी भावना भायें, उसके लिये प्रयत्न करें यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन नहीं मिली है कोई चीज, उस चीज के लिये निरन्तर चिन्तित हैं, आकुल-विकल हैं, जो मिली है उसका कोई आनन्द नहीं, उसका कोई सुख नहीं, तो ये अच्छी स्थिति नहीं है और दूसरी चीज कि अब मिल गई है, तो इतनी सी क्यों मिली, हम तो हमेशा इस चीज को देखते रहते हैं अच्छे-अच्छे धर्मात्मा लोगों में, हाँ थोड़ी मिली तो और क्यों नहीं ? 

    सामान्य अधर्मी की तो छोड़ो बात। आप पूजा-पाठ करने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं, मुनिजनों को, आहार देने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं, चौका लगाने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं ? तो फिर किसी के यहाँ अगर पहले दिन ही आहार हो जाये तो, उसके यहाँ पहले दिन हो गया ? उसके तो आनन्द है। लेकिन जिसके यहाँ नहीं हुए हैं उसकी तकलीफ देखो आप। और मजा ये है कि उसके यहाँ फिर हो भी जाये चार दिन के बाद तब एक नई तकलीफ, चार दिन बाद हमारे यहाँ गये, उनके तो दो बार हो चुके तब हमारे यहाँ गये। “हो गये” इसका कोई आनन्द नहीं, लेकिन वो जो उनके यहाँ पर दो बार हुए हैं, तब हुए हैं और दस दिन के बाद हुए हैं। बताइये, ये प्रवृत्ति हमारी सबके भीतर है। हमारा कोई लोस नहीं हुआ है, लेकिन दूसरे का बेनीफिट हो गया है ये तकलीफ। मजदूर लगाये गये हैं काम पर, सेठ के यहाँ बहुत बड़ा काम है और सुबह से मजदूर आ रहे हैं और वो काम कर रहे हैं। छत डाली जाती है ना, उस पर बहुत मजदूर चाहिये। अचानक थोड़ा मालूम पड़ा कि थोड़ा फास्ट करना पड़ेगा। वरना शाम पड़ने वाली है या कि बारिश आने वाली है तो जल्दी से हो जाये तो 100 मजदूर और बुलाये गये। 12 बजे बुलाये गये और बाकी मजदूर सुबह आये थे। लेकिन शाम को जब पेमेन्ट होने लगा और सबको बराबर दिया जाने लगा तो जो सुबह आये थे उनको बहुत तकलीफ। जबकि उनको पूरा दिया गया है। सुबह से शाम तक काम करने का जो उनको पूरा दिया जाना था वो उनको पूरा मिला है। किस बात की तकलीफ। ये 12 बजे से आये थे फिर भी इनको उतना ही मिल रहा है और मैं सुबह से आया हूँ तो भी इतना ही। मैंने बिल्कुल पूरा आहार बनाया सवेरे से और ये बीच में आ गये इनको चार और हमें एक। अरे भैया, वो जो एक दिया है उसका कोई सुख नहीं पर ये जो इसने चार दिये इसकी पीड़ा खाये जाती है। जबकि लोस कुछ भी नहीं हुआ।.... ये है असंतोष की तासीर। ये है असंतोष की भाषा। अपने भीतर झाँक करके देखना छोटी-छोटी चीजों में उदाहरण से। अपने भीतर। मैं कोई कमेन्ट नहीं कर रहा हूँ। आप समझ गये होंगे। अपन तो विचार कर रहे हैं, बैठ करके बड़े मजे से। जबकि अपन बैठे हैं कि देखो कैसी-कैसी बातें हैं हमारे भीतर। अगर हम एनालाइज करें अपने भीतर, कितनी जल्दी आ जाती हैं ये चीज। क्यों नहीं आ पातीं ऐसी बात ? क्यों नहीं मिलता इस चीज का आनन्द कि मुझे जो प्राप्त है उसको देखू ? और दूसरे को जो प्राप्त है उसको देख करके मैं ईर्ष्या ना करूँ। ये सारी चीजें मेरे फिर से मनुष्य होने की तैयारी की हैं। ये ध्यान रखना और यदि मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ तो इसका मतलब है कि मैं अब अगली बार मनुष्य नहीं बन पाऊँगा। अगर मेरे मन में इस तरह के विचार उठते हैं तो कहीं ना कहीं कोई कमी जरूर है। मुझे इन विचारों से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। 

    क्या हुआ, नेपोलियन के टाइम की बात है। नेपोलियन की आर्मी में बहुत लोग थे। और नेपोलियन को पढ़ने का बहुत शौक था। लाइब्रेरी में था उस समय तो कोई अपनी किताब निकालना चाह रहा था ऊपर से, तो चूंकि उसकी हाइट कम थी और नहीं बन रहा था तो आर्मी में एक व्यक्ति और था जो सैनिक था उसने कहा कि आई एम ओनली वन हायर इन योवर आर्मी। मैं निकाल देता हूँ मैं आपकी आर्मी में सबसे ऊँचा आदमी हैं। तब मालूम है नेपोलियन ने कहा नोट हायर बट टालर। हायर तो मैं हूँ। तुम ऊँचे हो ये बात मत कहो। तुम लम्बे हो ये कहो ऊँचा तो मैं हूँ। अब बताइये ये मानसिकता किस चीज की सूचना देती है। ऐसी ही मानसिकता हम सबकी है। हम किसी को अपने से ऊँचा देखना पसन्द नहीं करते। हम किसी को अपने से ज्यादा गुणवान देखना पसन्द नहीं करते। ये हमारी मानसिकता हमें कहाँ ले जाएगी? किस बात की तैयारी है ? देखें अपन, हम किसी को प्रशंसा के दो शब्द न स्वयं कह सकते हैं न सुन सकते हैं। ये कहाँ की तैयारी है ? ये हमें गौर से देखना पड़ेगा। 
     
    दो तरह की विनय होती है। एक होती है आत्मिक विनय और एक होती है वैधानिक विनय। जो कि आज बहुत है। मेरा स्वार्थ सध रहा है इसलिये विनय कर रहा हूँ। पर वो जो एक आत्मिक विनय है वह “स्वभाव-मार्दवं च"। अत्यन्त स्वाभाविक मृदुल। हम कई जगह मृदु बन जाते है, जहाँ हमारा काम सधता है। वहाँ हम हाथ-पैर जोड़ते हैं, साष्टांग हो जाते हैं। बटरिंग जिसको हम कहते हैं आज की भाषा में। सब समझते हैं वो भी एक विनय का तरीका है। लेकिन यहाँ कह रहे हैं कि “स्वभाव मार्दवं चः'। जिसके स्वाभाविक मृदुता है, जिसके आत्मिक कोमलता है, जिसको सहज रूप से ये चीज प्राप्त हुई है, जिसने कोई बाहर से एक आवरण की तरह ओढ़ा नहीं है, मृदुता को। तब आकर के हम मनुष्य बने होंगे। असल में, ये स्वभाव की मृदुता मनुष्यता के साथ-साथ थोड़ा सा आगे बढ़ने में मदद करती है। देवता बनने के लिये भी उस पर अपन अलग कल विचार करेंगे। “स्वभाव-मार्दवं च” में जो च शब्द लगता है, उसके लिये आचार्य भगवन्त कहते हैं कि स्वभाव की मृदुता मनुष्य बनने में भी कारण है और स्वभाव की मृदुता देवता बनने में भी कारण है। दोनों ही चीजें हैं। 
    अब और जो कारण हैं उन पर थोड़ा सा अपन विचार कर लें। बहुत भद्र परिणाम, दूसरे का जिसने कभी विरोध न किया हो। वो भद्र ! परिभाषा है आचार्य भगवतों की। हाँ जो कभी किसी का विरोध न करता हो। विरोध की भाषा नहीं बोलता हो। पापी का भी विरोध नहीं करता हो। पाप का विरोध करता है पापी का नहीं करता। वो भद्र है। भद्र मिथ्यादृष्टि जो कि विदेह जाकर के अपना कल्याण कर लेंगे, यहाँ से जायेंगे 123, उसमें भद्र की परिभाषा बनाई कि जो सच्चाई का विरोध नहीं करता है। हमेशा दूसरे का हित चाहने वाला परिणामी ही भद्र परिणामी है, तब जाकर के मनुष्य जीवन मिला होगा अपन को। ऐसे परिणाम अपन ने किये होंगे। बहुत विनीत स्वभाव, कषाय अत्यन्त अल्प, चार बातें शांति से सुनने की क्षमता। चालीस कहने की क्षमता नहीं है। हाँ चार सुनने की क्षमता तो है लेकिन चालीस तो क्या अपन को तो दो कहने की भी नहीं, क्यों भैया अपन को क्या करना। वर्णी जी के जीवन का उदाहरण है। उनसे चाहे जो जैसी कह देवे या कि कोई अपनी सुना जावे कि वर्णी जी उनने हमसे ऐसी कर ली और उन्होंने हमारे प्रति ऐसा व्यवहार कियो, 'ऐ भैया' कर लेने दो अपन ने तो नहीं करो, कोई बात नहीं। ये है कषाय की अल्पता। हमें भीतर देखना पडेगा कि जब कहीं कोई बात आती है तो हम उसे प्रोलाँग करते हैं, बढ़ाते हैं या उसे वहीं का वहीं सबसाइड करके समाप्त कर देते हैं। जब भी कोई झगडे की बात आती है. जब भी कोई बैर विरोध की बात आती है उसे हम बढ़ाते चले जाते हैं या कि तुरन्त उसमें पानी डाल देते हैं। जैसे आग जलती है और हम पानी डाल देते हैं आगे नहीं बढ़ने देते। ये भीतर अपने झाँक कर देखना पड़ेगा तब मालूम पड़ेगा कि कषायें मंद हैं, अल्प हैं या ज्यादा ? 

    फिर कह रहे हैं स्वभाव सरल। न ऊधो को लेने, न माधो को देने। ठीक है भैया जैसा है वैसा ठीक है। फिर कह रहे हैं स्वागत तत्परता। अपन लोगों ने पिछले दिनों मनुष्य आयु के लिये थोड़ी सी तैयारी करी थी, धर्म ध्यान किया था। मैंने पहले ही कह दिया था कि जो लोग शामिल हों वो संक्लेश न करें जैसे ही संक्लेश होने लगे किसी भी काम में वहाँ से हट जाना क्योंकि हम अगर इस कार्य को कर रहे हैं तो सिर्फ आत्म-कल्याण की दृष्टि से कर रहे हैं। स्टेशन पर किसी को लेने पहुंचे हैं तो बहुत धर्मध्यान कर रहे हैं। लोग कहने लगे इसमें भी धर्मध्यान। देख लो धर्म ध्यान। स्वागत तत्परता। मनुष्य आयु के बंध का कारण है स्वागत तत्परता। पधारे आपके लिये और कोई सेवा मेरे योग्य। हो गया। फिर कह रहे हैं शुभ समाचार कहने में रुचि। अच्छे समाचार अभी तो अपन लोगों की रुचि है, "काहे तुमने सुना उनको ऐसा हो गयो” “कैसो' ? खराब हो गयो तभी तो इतने धीरे से कह रहे हैं। अच्छा हो गया इसके बारे में नहीं। शुभ-समाचार देने की रुचि नहीं है अशुभ समाचार तो आप पेम्फलेट बिना छपवाये एक से भर कह दो आप। पूरे जयपुर में फैल जाएँगे। लेकिन अगर कोई बहुत अच्छा काम होना है, हमें तो पता ही नहीं लगा। और इससे मालूम पड़ता है कि रुचि किसमें है। अशुभ समाचार देने में रुचि है या कि शभ समाचार देने में रुचि है। अकलंक स्वामी तत्वार्थ राजवार्तिक में लिख रहे हैं, बहुत व्यवहारिक सी बात कि जो हमेशा शुभ समाचारों को देने में तत्पर है, अशुभ समाचार किसी को नहीं सुनाता हो। बताइये वो मनुष्य हुआ होगा। अपन ने पहले ऐसा करा होगा।
     
    लोकयात्रानुग्रह, जो तीर्थ यात्राओं को स्वयं ले जाते हैं और तीर्थ यात्रियों की सेवा करते हैं जैसे कि कोई अपने यहाँ से तीर्थ यात्रा निकले और अपन को पता चल जावे तो तीर्थ यात्रियों की सेवा कर रहे हैं तो कह रहे हैं कि मनुष्य बनने की तैयारी है। लोकयात्रानुग्रहः उसकी धर्म की यात्रा में हमेशा सहयोगी बनना। फिर कह रहे हैं ईष्या-रहित परिणाम वो तो अपन विचार कर चुके हैं। अतिथि सत्कार में रुचि। अतिथि दो प्रकार के हैं एक लौकिक अतिथि जो अपने घरों में आते हैं और एक पारलौकिक अतिथि जो कि संयमपूर्वक और अपने जीवन को व्यतीत करते हुये और मोक्ष-मार्ग की यात्रा में यहाँ से वहाँ चले जाते हैं बिना बताए। जिनके आने-जाने के लिये तिथि निश्चित नहीं होती, ऐसे संयम को पालन करने वाले साधुजन, आचार्य, उपाध्याय अतिथि हैं, इनकी सेवा करना और जो लौकिक अतिथि हमारे घरों में आते-जाते हैं वे अतिथि उनकी सेवा करना। दोनों तरह से। ये अतिथि सेवा में जिनकी रुचि होती है कई लोग होते हैं जिनकी अतिथि सेवा में बहुत रुचि होती है और दानशीलता, ये सारी चीजें हमें मनुष्य बनने के लिए तैयारी के लिए जरूरी हैं। अपन ने पहले ऐसी तैयारी करी होगी। अभी तो अपन को संसार की चीजें पाने की तैयारी है। अगर पाना ही है तो मनुष्य पर्याय पाने की तैयारी करें ना। क्या-क्या पाया अपन ने ये तो देखें। कैसे पाया होगा ? दुरस्त हैं दोनों आँखें, दुरस्त हैं दोनों हाथ-पैर, बढ़िया है शरीर, मन भी विकल नहीं है। मन भी स्वस्थ है अब इतनी सब चीजें कैसे पायीं होंगी? ये सब, इनको देखें। अभी तो अपन ये देखते हैं कि ये खाने-पीने की चीज अच्छी नहीं मिली। पहनने-ओढ़ने की चीज अच्छी नहीं मिली। ये ऐसा नहीं मिला। अरे ये चीजें जो अपन थोड़ा सा प्रयत्न करें, मिल जाती हैं लेकिन जो पाया है वो कितने प्रयत्न करने से पाया होगा, आगे हमें ऐसा ही पाने का प्रयत्न करना चाहिये। ये छोटी-मोटी चीजें पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ये इतना बड़ा स्थान जो मिला है जिसमें हम रह रहे हैं, ये छोटा-मोटा मकान तो कोई भी कन्सट्रक्ट कर सकता है। इसको कन्सट्रक्ट करने के लिए कैसे परिणाम किये होंगे, कैसे कर्म किये होंगे। कर्म जिससे कि ये बना जिसमें कि हम रह रहे हैं। अपने रहने के लिये तो ये बनाया है। खिड़की बनाते हैं और खिड़की में कौनसे वाले परदे (करटेन) डालते हैं इसकी तैयारी करते हैं और ये वाली खिड़की जिससे देखते हैं इसकी कितनी तैयारी करना पड़ी होगी इसके बनाने की। इससे ठीक-ठीक दिखाई पड़े, उसकी जैसे खिड़की बनाने की और दरवाजे से निकलने की कितनी बढ़िया डिजाइन करते हैं। ऐसा ही इसके लिये कितना एफोर्ट किया होगा, ये विचार करना पड़ेगा। 

    एक बाबाजी के पास पहुँचा था एक युवक, उसने सुना था कि बाबाजी के पास में एक ऐसा पत्थर है जिससे सब सोना हो जाता है। सुनी आपने कहानी। अरे ऐसी कहानी सुनना चाहिये आपको। पढ़ना भी चाहिये ऐसी कहानी बढ़िया सी। सुनी होगी आपने लेकिन हम दूसरे ढंग से सुना देंगे। अगर हमने सुनाई भी होगी तो। तो वो बाबाजी के पास पहुँचा और उसने कहा मुझे मिल सकता है क्या पारस पत्थर। कहा नहीं उसने। वो तो सेवा करने लगा। सेवा से प्रसन्न होकर ये अपने आप दे देंगे। और वाकई में 12 साल तक सेवा करी उसने। एक दिन उसने कहा कि बाबा अब जाऊँगा मैं। तो बाबा ने कहा बोल क्या माँगता है ? वो पारस पत्थर दे दो बाबा। बाबा तो पहले ही जानते थे कि पारस पत्थर माँगेगा और उसी के लिये सेवा कर रहा है। यह “स्वभाव-मार्दवं च"। स्वभाव की मृदुता है। मेरा सत्कार सेवा कर रहा है उसके पीछे इसका इन्टेन्शन है तो उतना ही मिल के रह जाएगा। अगर कोई वैधानिक विनय होगी, अगर किसी स्वार्थवश हमने विनय की होगी तो बस स्वार्थ की पूर्ति हो जाएगी और अगर सहज विनय होगी, स्वाभाविक विनय होगी तो वो प्राप्त हो जाएगा जो उस विनय से वास्तव में प्राप्त होना चाहिये। बाबाजी ने वो खप्पर है ना, उसके नीचे वहाँ रखा हुआ है। बड़ा आश्चर्य हुआ उसको कि इतनी कीमती चीज जिसके लिये मैं 12 वर्ष से तपस्या कर रहा हूँ। हम तो सोच रहे थे कि कहीं छिपा के रखा होगा। निकालेंगे हमारे सामने। कहीं नहीं, उधर रखी है खप्पर में। अरे इतने दिन से हमें मालूम होती तो कभी के उठा के चलते बनते। ऐसे विचार आ गये देखना। उठाकर के प्रणाम करके थोड़ी दूर गया। लेकिन साधु के समीप रहा हुआ व्यक्ति था। हाँ, भले ही झूठ मूठ रहा था लेकिन उसके मन में थोड़े परिणामों की निर्मलता आ गई थी। सो उस परिणामों की निर्मलता से विचार आया कि इन्होंने इतनी सहजता से इतनी कीमती चीज दे दी। इसका मतलब है कि कोई और कीमती चीज इनके पास है। लौट आया वापिस, नहीं चाहिये। क्यों नहीं चाहिये ? अब मुझे वो चाहिये जिसकी वजह से आप इतनी कीमती चीज को छोड़ पा रहे हैं। बस ये है संतोष जिसमें हम संसार की चीजें छोड़ने को तैयार हो जाते हैं अपने आत्म-कल्याण के लिये। ऐसा व्यक्ति ही अपना आत्म-कल्याण कर सकता है जो इतना संतोषी होगा और कोई विशेष बात नहीं है। हम चाहें तो अपने जीवन में इन सब बातों से शिक्षा लेकर के और अपने जीवन को बहुत अच्छा बना सकते हैं। इसी भावना के साथ कि हम रोज-रोज थोड़ी-थोड़ी सी बातें करके और बैठ रहे हैं, सीख रहे हैं, इसमें से जितना भी जिसके जीवन में रह जाये। मुझे तो बार बार यही लगा करता है और कई बार मैं कह भी देता हूँ आपसे कि बहुत कुछ अपने को इस जीवन में करना है। आज करें तो अपने को करना है, कल करें तो करना है। इस जीवन में करें तो, अगले जीवन में करें तो करना अपने को ही है। क्यों ना फिर हम आज ही से शुरू करें। थोड़ा-थोड़ा शुरू करें। जितना हमें लगता है कि हम कर सकते हैं उतना करें। कल कर लेंगे ऐसा नहीं सोचें। आज कितना कर पायेंगे ऐसा सोचे। जो मिला है उसे मैंने कैसे पाया होगा। ये सोचकर के आगे मुझे अगर ऐसा ही पाना है तो मुझे क्या करना चाहिये। ये करना हम शुरू करें और अपने जीवन में वस्तुओं से ज्यादा महत्व हम अपने आपको दें। चेतना को दें और जो प्राप्त नहीं है उसको लेकर के चिन्तित ना हों क्योंकि ये संसार की चीजें एक दिन मिलती हैं, एक दिन बिछुड़ जाती हैं। मुझे जो पाना है वास्तव में, मैं उसके लिये क्यों न प्रयत्न करूँ। इनके नहीं मिलने पर मैं चिन्तित नहीं होऊँ। इस तरह अगर इन दो-तीन बातों को हम ध्यान में रखकर के और अपने जीवन को कोई अच्छी स्टाइल दें तो हमारा जीवन अच्छा बन सकता है। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय। 
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  7. Vidyasagar.Guru
    वैभाविक आत्म पर्याय विलीन हो रही है, स्वभाव से ओतप्रोत आत्म पर्यायें प्रादुर्भूत हो रही हैं। इस संसार की एक और पर्याय छूट गयी, कहीं दूरबहुत दूर इसी संसार समुद्र में और अब शेष है चतुर्गति रूपी महासंसार समुद्र की मात्र चार भौतिक परिणतियाँ । इस चतुर्थ संसार की परिणति प्रारम्भ हुई, वहाँ जो चित्रा पृथ्वी से छह राजू ऊँचा है। मेरु की चूलिका से उत्तरकुरुवर्ती मनुष्य के एक बाल मात्र अन्तर से प्रथम इन्द्रक विमान स्थित है। यहीं से वैमानिक देवों का प्रारम्भ होता है। एक-एक इन्द्रक से असंख्यात योजन अन्तराल को लेकर ऊपर-ऊपर के इन्द्रक विमान अवस्थित हैं। मध्य में होने से इसे इन्द्रक विमान कहते हैं और यत्र-तत्र जो बिखरे पड़े हैं, वे प्रकीर्णक विमान कहलाते हैं । कुल त्रेसठ इन्द्रक विमानों में से सुविधि का जीव बावनवें अच्युत इन्द्रक में उत्पन्न हुआ। अच्युतकल्प के ये विमान न जल के ऊपर स्थित हैं और न पवन के आश्रित किन्तु शुद्ध आकाश तल पर प्रतिष्ठित हैं। जैसे ही सुविधि का जीव उपपाद शय्या पर जन्म लिया तो वहाँ के अनुद्घाटित कपाट खुल गए। मात्र एक अन्तर्मुहूर्त में परिपूर्ण युवा देव होकर अद्भुत वातावरण को देखकर एक क्षण के लिए कुछ विस्मित हुआ, तभी संप्राप्त अवधिज्ञान से पूर्व जन्म का स्मरण किया और ज्ञात हुआ अहो! धन्य है यह जिनेन्द्र प्रणीत धर्म; जिसके अनुपालन से आज यह वैभव मिला है। सर्वप्रथम अब मुझे जिनेन्द्रदेव के अलौकिक अकृत्रिम बिम्बों का दर्शन करना है, पूजा करनी है, इन्हीं भावों से वह देवद्रह में स्नानकर दिव्य अभिषेक मण्डप पर अन्य देव-देवियों के द्वारा अभिषिक्त हुए। भूषण-शाला में प्रविष्ट हो दिव्य उत्तम रत्नों को लेकर हर्ष से वेशभूषा ग्रहण की। तत्पश्चात् अपने परिवार देव और देवियों के साथ पूजा के योग्य दिव्य द्रव्य को ग्रहण कर अतिशय भक्ति से युक्त हो छत्र, चँवर, ध्वजाओं से शोभायमान जिनभवन में प्रविष्ट हुए और विस्मयकारी जिनबिम्बों को देखकर जय-जय के उत्तम शब्दों से सारा दिग्मण्डल आपूरित कर दिया। पश्चात् हर्षाश्रु युक्त अनिमेष नेत्रों से जिनबिम्बों की स्तुति करते हुए, अभिषेक, पूजन आदि करता हुए अत्यन्त संतोष को प्राप्त हुए। सुविधि बनाम अच्युतेन्द्र सदा कर्मक्षय के लिए, मुक्ति की प्राप्ति के लिए विचित्र शैलियों से नाना रसों और भावों से युक्त होकर जिनेन्द्रदेव की परिवार सहित पूजा करते हुए भी मूल शरीर तो जन्म स्थान पर रहता और उत्तर शरीर नाना विक्रियाओं से युक्त हो देवाङ्गनाओं के मन को हरण करता था। वैसे तो अच्युतेन्द्र मात्र मनः जन्य प्रवीचार से युक्त होते हैं, पर वह इन्द्र उन देवियों के कोमल हाथों के स्पर्श से, मुख कमल को देखने से, स्पर्श और रूप प्रवीचार भी करता था। अनेक लीलाओं से युक्त मधुर शब्द गाती हुई राग-रागनियों से शब्द प्रवीचार भी करते हुए देव-देवियाँ एक दूसरे के मन को रञ्जित और सन्तुष्ट करती हुई कालयापन करती थी। इस प्रकार बाईस सागर प्रमाण आयु को आनन्द क्रीड़ा से सुखपूर्वक व्यतीत कर दिया। महापुरुषों की संगति ही महान् फलदायी होती है, यदि उनके आचरण का अनुसरण भी किया जाय तो फिर कहना ही क्या? वह श्रीमति का जीव जो स्त्री पर्याय में था, इस महापुरुष के साथ ही सम्यग्दर्शन ग्रहण करके स्त्रीलिङ्ग का छेदकर तत्पश्चात् इसी आत्मा का पुत्र बना और सुविधि के समाधिमरण पश्चात् उस केशव पुत्र ने भी पिता के पद-चिह्नों पे चलकर समस्त बाह्य और अन्तरङ्ग आडम्बर त्याग कर निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की । फलश्रुति अच्युत स्वर्ग में अपने पिता इन्द्र के साथ प्रतीन्द्र पद पर शोभायमान हुआ। उस अच्युत स्वर्ग में सभी देव अपने-अपने पुण्य से प्राप्त विभूति से सन्तुष्ट रहते हैं। सौधर्म इन्द्र की महाविभूति को देखकर भी मन में ईर्ष्या नहीं, म्लानता नहीं, वस्तुतः यहाँ शुक्ललेश्या से प्राप्त सन्तोष ही यथार्थ सुख है। इन्द्र ने और प्रतीन्द्र ने परस्पर यह जान लिया कि हम दोनों का यह स्वर्ग में अपूर्व संयोग भी पूर्व जन्म की छाया है। प्रतीन्द्र का इन्द्र से अनुराग और बढ़ जाता है, जब वह सोचता है कि मेरा राग एक महान् आत्मा से है, जिनके पद चिह्नों पर चलते-चलते मैं भी मुक्ति वधु का मुख देखूँगा। जब उसे पूर्व जन्म की तपस्या का स्मरण हो आता है तो सोचता है कि देखो! निरतिचार चारित्र का यह सुफल अत्याज्य है। जो लोग जिनलिङ्ग को धारण करके भी उसकी महत्ता से अनभिज्ञ हो यद्वा-तद्वा प्रवर्तन करते हैं, उन्हें देवगति में भी \कष्ट सहना पड़ता है। बिना सम्यग्दर्शन के लिङ्ग मात्र धारण करके तप तपने वाले भी इस महती पदवी को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
     
    दूसरे ही क्षण स्मरण हो आता है अरे! हम भी कहाँ आकर अटक गए! निश्चित ही मेरे मोक्ष पुरुषार्थ में कुछ कमी थी, अन्यथा मोक्षपुर की जगह ये विलास-पुर कहाँ से आ जाते? अभी भी प्रतिपल जागृति की महती आवश्यकता है। इन वैभवों की चकाचौंध में भी ज्ञान की अजस्र धारा का अनुस्यूत रहना ही परम पुरुषार्थ है। इन देवियों की नियोग प्राप्त कमनीयता में मन का रमण और भ्रमण भी पर्यायगत स्वाभाविकता बन गयी है । सम्यक् विज्ञता होने पर भी यह मोह की धारा भी अविरल बह रही है। जिस रूप में मैं स्त्रीत्व को देखना नहीं चाहता फिर भी उसमें वही वनिता विलास लखता हूँ और उसे भी स्मित मुख से वही सुख देखना पड़ता है, जिस सुख को मैं उससे प्राप्त करता हूँ। हे आत्मन् ! तुम पुरुष हो, दूसरों में भी वही पुरुषत्व और पौरुषता का दर्श करो। आज यह पुरुषार्थ कितना वैभाविक हो गया और कितना सुखद । पुद्गल के बने पिण्ड में तदनुरूप उपयोग का प्रवाह, वाह रे! मोह की शक्ति, अहो! इस पुद्गल पिण्ड में यह मोह उपजावने की शक्ति स्वतः नहीं, मेरे ही कुपुरुषार्थ का विपरीत परिणाम है। भोगो-भोगो इसको पर और मत जोड़ो, निकल जाने दो यह कर्म का विपाक, निकल जाने दो इसका शक्ति रस, अब खाली होना है। पर यह सब तो वैचारिक परिणति है वस्तुतः कर्म रज का लेपन जारी है, मोह का प्रभाव भारी है, बस अब मनुष्य जन्म की बारी है किन्तु काल की बलिहारी है कि निश्चित अवधि तक यह वैक्रियिक शरीर विकार ग्रस्त ही रखेगा, स्वभाव की स्वीकारता का समय कहाँ? परतन्त्रता का यह समीचीन परिणाम ही पराधीनता का सम्यक् बोध दिला कुछ सुख दिला जाता है। इन अनन्त ऊहापोह की सरिता में समय की अनवरत गति जारी है और सागर से मिलन हो, उससे पूर्व पुनः मिला इक नव जीवन जो एक नया पुरुषार्थ और अभिनव प्रवाह से ले जाएगा सागर की ओर............
     
     
     

  8. Vidyasagar.Guru
    बंटवारा 
     आकाश सबका
     दीवारें हमारी अपनी 
     नदी सबकी
     गागर हमारी अपनी
     धरती सबकी
     आँगन हमारा अपना
     विराट सबका
     सीमाएं हमारी अपनी
     
    Division
     The sky belongs
     To everyone,but
     Walls? They are our own.
     The river is for all.
     But vessels
     Are our own.
     The earth is for everyone.
     But courtyards
     Are our own.
     This limitless world
     Is for all. But boundries
     Are our own.
  9. Vidyasagar.Guru
    सर्वप्रथम उन षट्कुमारी देवियों ने पवित्र पदार्थ से गर्भ का शोधन किया। गर्भस्थ शिशु के होने पर जो लक्षण जननी में प्रकट होते हैं, वे मरुदेवी में उत्पन्न हुए नहीं थे। षदेवियों की सेवा सुश्रुषा से वे मन, वचन, काय से प्रशस्त थी। वन विहार हो या सीढ़ी पर आरोहण देवी मरु को यह पता ही नहीं पड़ता कि वे कब वन में पहुँच गयीं और कैसे बिना कष्ट छत पर। जैसे-जैसे बालक गर्भ में बढ़ रहा था, माँ और अधिक प्रसन्न और कान्ति से दीप्त हो रही थीं, मानो बालक का ही अन्तः तेज उनकी देह में प्रसरित हो रहा है। नाना पहेलियों, काव्यों, कविताओं और वीर पुरुषों की कहानियों तथा महापुरुषों के चरित्रों का नित्य श्रवण-श्रावण सुखद था। उन देवांगनाओं द्वारा माँ की परिचर्या में हर सम्भव क्रिया की जाती थी, जो माँ को सहज स्वीकृत हो । नृत्य गोष्ठियों में सभी हाव-भाव.विलास.वादित्र गोष्ठियों में गीतों और कव्वालियों की लय तालता, कभी जल क्रीड़ा, कभी वन क्रीड़ा, तो कभी जादूखेल, कभी नाभिराजा की कीर्ति का गान, तो कभी माँ की सौभाग्यता का बखान, कभी अपूर्व आश्चर्यों का वर्णन, कभी मिष्ट भोजनपान की रोचकता, कभी माँ के अद्भुत श्रंगार सौन्दर्य की प्रशंसा, कभी उनकी सेवा, ऐसा करने से माँ के नवमास कुछ क्षण के समान बीत गए। तदनन्तर चैत्र कृष्ण नवमी के दिन जब सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र था और ब्रह्म नामक महायोग था तब कलिकाल का अग्रणी प्रणेता, सन्त्रस्त अनन्त प्राणियों को माया मोह के जंजाल से मुक्त कराने का अचूक संकल्प लिए विश्व के द्वारा सदा उपगम्य, सोलह महा भावनाओं की प्रभावना का एक मात्र स्रोत, देवों के वचनों से प्रशंसित, रवि के समान तेजस्वी और प्रभावी रविवार को इस धराखण्ड पर प्रसूत हुआ कि तत्क्षण.........।
     
    स्वर्गलोक, भूलोक और अधोलोक में खलबली मच गयी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित हो गया। शची डर गयी। इधर ज्योतिर्लोक में भयंकर सिंहनाद हुआ। व्यन्तर आवासों में और शिविरों में भेरी गरज उठी। भवनवासीदेवों के निलय भी शंखध्वनि से क्षुभित हो गए और कल्पवासी विमानों में झन   झन घण्टियाँ झनझनाने लगीं। विश्व में इस क्षोभ का कारण अवधिज्ञान से जानकर महाइन्द्र सपरिवार चतुर्निकाय के देवों के साथ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नृत्यांगना, पियादे और बैल से सज्जित सात बड़ी-बड़ी सेनाओं को लिए प्रस्थान किया। अपने-अपने विमानों और अपने-अपने वाहनों पर सकल देव, समाज, सेना प्रचुर कोलाहल के साथ सम्पूर्ण आकाश मण्डल में व्याप्त हो गयी। तदनन्तर शीघ्र पवित्र भू पर उतर शोभायमान अयोध्यानगरी को चहुँ ओर से घेर लिया। जम्बूद्वीप के समान विस्तार से युक्त महावैभवशाली ऐरावत हाथी से सौधर्म इन्द्र उतरकर राजा नाभिराज के प्रांगण में पहुँचा। पश्चात् इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव के साथ प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। कुमार जिन के साथ जिनमाता को देख हर्ष और अनुराग से आपूरित हो जिनबालक को प्रणाम किया और माँ श्री की भूरि-भूरि स्तुतियों से स्तुति की। पश्चात् माँ को मायामयी निद्रा में सुलाकर और मायामयी बालक को निकट रखकर शची उस तेजपुञ्ज को अपनी गोद में लिए इतनी विभोर हो गयी मानो आज उसने तीन लोक को अपने आँचल में समेट लिया हो और स्त्रीत्व की उत्कृष्टता को प्राप्त कर लिया हो। यह सुख इन्द्राणी का समस्त ऐन्द्रिक-सुख से विलक्षण था। इन्द्र के कर कमलों में सौंपते हुए बालक ऐसा लगा मानो इन्द्र ने तप्त सूर्य को अपने हाथों में कैद कर लिया हो।तभी ईशानेन्द्र ने ऊपर धवलछत्र तान दिया और सनतकुमार और माहेन्द्रपति दोनों ओर चँवर युगल ढोरने लगे। इन्द्र ने सहस्र नेत्रों से उस यशो पुञ्ज को देखा, अतृप्त मन ने अपनी देह के अंग-अंग का साफल्य घोषित किया और ऐरावत हस्ती पर बैठ आकाश को सुदूर तक लांघता हुआ इस मध्यलोक के चूड़ामणि, विश्वकीर्ति की पताकाओं से कीर्तिमान्, चारणयुगलों से पूजित, स्वर्गलोक की हँसी करने वाले, चतुर्दिग् तीर्थकृतों की कीर्ति फहराने वाले महामेरु सुमेरुपर्वत के सर्वोच्च सिंहासन पर आदर से बैठाया। वह सिंहासन ऐशान दिशा में बड़ी भारी स्फटिक निर्मित पाण्डुकशिला पर प्रतिष्ठित है। सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊँची, अर्धचन्द्रमा के समान आकारवाली उस शिला पे बैठे जिन बालक ऐसे सुशोभित हो रहे थे कि मानो मोक्ष शिला पर विराजमान हों। नवजात शिशु है और सिंहासन पर बैठा है। सब कछ समय से पहले गतिमान हआ-सा लगता है. पर इन्द्र है कि निःशङ्क हो योजनों व्यास वाले हेमकुम्भों से अभिषेक किए जा रहा है और क्षीरसागर का वह जल पवित्र होता हुआ पूरे सुमेरु को पवित्र कर गया।
    चन्दन से युक्त वह जल सकल देव-देवाङ्गनाओं के अन्तस् को धोता चला जा रहा है। सभी ने उस पवित्र उदक से अपने को पवित्र किया पश्चात् उस जल प्रवाह ने समस्त लोक नाली को पवित्र किया। ऐसा लगता है कि उस प्रेम गुलाल में रंगे सब देवों को आनन्दित देख मनुष्यों ने होली खेलना सीखा हो। तदनन्तर इन्द्राणी ने हर्ष से जगद् गुरु के निर्विकार शरीर को अलंकृत किया, जो अपनी ही शोभा से परिपूर्ण थे। दिव्य वस्त्रों से उस पीताभ को छिपाने का प्रयास किया पर वह छिपी नहीं। स्नान कराया उसका, जो निर्मल है पहले ही अन्तरङ्ग और बाह्य में। स्वर्ण की चमकीली काया पे चन्दन विलेपन क्यों किया? शायद चन्दन को पूज्य बनाने के लिए। उस वीतराग निरम्बर काया को अम्बर से आवरित क्यों किया? सच है रागी को वीतरागता पसन्द कहाँ? अपने ही रंग में वह दुनिया को रंगना जो चाहता है। पहले से ही जिनके दोनों कर्ण छिद्र युक्त हैं, मानो राग और द्वेष जहाँ रहने का स्थान नहीं पाते हैं, पर उन रिक्त कर्णों में कुण्डल पहनाये गए; क्यों? शायद सूर्य और चन्द्रमा दोनों उनके कपोलों की बलिहारी देने आये हों । गले की तीनों रेखाओं पे चमकीली मणियाँ लगा दी गयीं क्यों? शायद बताना चाह रही थी इन्द्राणी, कि ये रत्नत्रय से पूरित हैं। सम्यग्दर्और सम्यग्ज्ञान तो अवधिज्ञान के साथ जन्म से ही लेकर आये हैं और सम्यक् चारित्र, उसकी कमी कहाँ ?
     
    बड़े-बड़े चारित्रवन्तों में जो धीरता, गम्भीरता न हो, वह यहाँ आकर सीखे। उस ललित आस्य पर सुन्दर बिखरा हास यह सब सोचकर ही मानो मन ही मन रागियों के राग की उत्कटता पे हँस रहा था। सब जान रहा था इसीलिए सोचा इनको भी कर लेने दो अपने अनुरूप, अपने मन का। पर यह पृथक् है हमारे सौन्दर्य से; एकदम पृथक् । ये गले में पड़े मोतियों के हार; अहो। जड़ से उत्पन्न हुए हैं, फिर भी इतने प्रसन्न हैं; अपनी ही मस्ती में डोल, हिलोरें ले रहे हैं, मानो यहाँ पर वे भी चैतन्य हो गए हों। कैसा विचित्र है मोह का भाव; अखण्ड मुक्ता को भी छिद्रित कर दिया और गुम्फित करके हार बनाया, खण्डित में आनन्द मनाता है संसार। खण्ड-खण्ड को जोड़कर अखण्ड सुख पाना जो चाहता है। प्रकृति आपो आप अपने सौन्दर्य से सुन्दरित है, पुरुष अपने पुरुषाकर चैतन्य से चमत्कृत है, दोनों के स्वभाव विपरीत हैं, फिर भी कहीं से कुछ लेकर अपने में लगाकर दूसरे से छुड़ाकर, इसी जोड़-तोड़ में हर्षितमुदित होता रहता है।
     
    दाहिने पैर के अंगूठे में वृषभ का चिह्न देख इन्द्र ने बालक का नाम वृषभदेव घोषित किया और स्तुति कर, जय-जयकार कर, इन्द्र ने अपनी चेष्टाओं से खूब पुण्य का संचय किया। तदनन्तर अयोध्या नगरी में देव समूह के साथ आकर नाभिराज और मरुदेवी की स्तुति वन्दना की। मरुदेवी की निद्रा दूर की और बालक को उनकी गोद में इन्द्राणी ने सौंप दिया। त्रैलोक्येश्वर की जननी! तुम ही से यह धरा पवित्र हुई, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे महाभाग पुण्य तीर्थ नदी का स्रोत भी शीघ्र शिवपथ गामी होगा। हे माँ! आप धन्य हैं। धन्य हैं। आपका अंग-अंग पवित्र है। आपने बता दिया कि काम पुरुषार्थ कितना बड़ा धर्म है। आपने निंद्य स्त्री पर्याय को अनिंद्य बना नारी का सम्मान बढ़ाया है। आपने जननी की महत्ता का प्रकाश किया है। इस सृष्टि के सृजेता का श्रेय मात्र मातृ शक्ति है। इस विश्व को करुणा का पाठ पढ़ाने वाली आप ही आद्य विदुषी हैं। क्षमा सहिष्णुता का उत्कट पाठ पुरुष माँ की गोद में रहकर ही सीखता है। आपने सारस्वत पुत्र को जन्म दिया इसलिए आप ही सरस्वती हैं। इस भारत भूमि की आप आद्य स्त्री हैं इसलिए हे भारती आप जयवन्त रहें। शंसुख अब्रह्म, कामिनी के रूप आप से ही प्रादुर्भूत होते हैं इसलिए आप ही शारदा देवी हैं। आप सदा कुशल रहें। हे ज्ञानदायिनि, शान्तिकामिनि इस विवेक हंस की जनयित्री आप गुणों की खान हैं। नर से नारी बहुत महान् है यह नारी शब्द की बड़ी-बड़ी मात्राओं से भी ज्ञात है। आपकी वात्सल्य गोद में भरा श्वेतक्षीर इस कलिकाल के कलंक का प्रक्षालक है। निःसन्देह आपकी गरिमा से यह नारी जगत् आलोकित हुआ।
     
    तभी इन्द्र ने त्रिवर्गसम्बन्धी नाटकों को अयोध्या के आंगन में खेला। हर्ष से नृत्य क्रीड़ा का ताण्डव रूप दिखा जन-जन को रोमाचिंत कर दिया। अपनी हजारों भुजाओं पर हजारों दिव्यांगनाओं का नृत्य दिखा लोगों को आश्चर्यचकित किया। इन्द्र ने रंगभूमि पे भगवान् के पूर्व के दश जन्म के नाटक खेले। यह नट क्रीड़ा, नाटक, नृत्य, नाट्यशास्त्र तभी सब लोगों ने सीख लिए और स्वयं उत्सव मनाने लगे। अन्त में आनन्द नृत्य को समाप्त कर, प्रभु की सेवा में अनेक धाय देवियों को नियुक्त कर इस समय की सार्थकता को सराहता हुआ इन्द्र, अपने लोक चला गया। पश्चात् पिता नाभिराज ने जन्मोत्सव मनाया। ऐसा कौन-सा व्यक्ति था, जो उस बालक को देखने नहीं आया हो? ऐसा कौन विद्याधर जिसने अपनी आँखों को सफल नहीं बनाया? ऐसा कौन-सा व्यन्तर देव, दानव, गन्धर्व, जिसने अपने अंग-अंग को न थिरकाया हो? ऐसी कौनसी जननी जिसने माँ की कोख को सराहा न हो? ऐसा कौन-सा जीव जो उस परिसर में आकर दुःख न भूल गया हो? ऐसी कौन-सी माता जो अपने पुण्य पाप के फल का विचार न कर रही हो ? ऐसी कौन-सी दिक् कन्या जो बालक को गोद में लेने का भाव न करती हो? ऐसी कौन-सी रूपसी जो जिन सूर्य को लुभा न रही हो? ऐसा कौन-सा बालक जो उन्हें अपना गुरु न मानता हो? हर नगर की हर गली में हर घर में हर व्यक्ति की हर जुवां पर उसी बाल प्रभु के चर्चे, उन्हीं की बाल क्रीड़ा का सुखद अवलोकन, देवताओं का किंकर-सा रूप बनाकर रिझाने का आनन्द, सब कुछ अद्भुत, अलौकिक, अतीव विस्मयकारी और अनुपम।
     
    पर शिशु शैशववय में भी इतना अनोखा कि माँ-पिता, देव-दानवों सबकी समझ से परे। देवियाँ भी समझ नहीं पाती कि इनकी वय क्या है ? और इस वय में इनसे क्या बर्ताव करें ? धीरता, गम्भीरता की सीमा नहीं है, तो हास्य क्रीडा के आनन्द का भी पार नहीं। कभी चलता-चलता खडा हो जाता है तो कभी ऐसे लेट जाता है मानो वर्षों से सो रहा हो। कभी रोता नहीं, कभी तड़फता नहीं, कभी कुछ भूख नहीं, कोई इच्छा नहीं मानो पूर्ण तृप्त है। कब धरती पर चला, कब खिसक-खिसक कर चला, कब लेट कर चला, कब बैठा और कब खड़ा हो गया कुछ समझ नहीं आया। अभी पिता की अंगुली को पकड़ झट से खड़ा हुआ, पिता ने गोद में उठाना चाहा पर ऐसा दृढ़ मानो किसी पृथ्वी पर पैर जमा दिए हों, पिता ने थककर छोड़ दिया, तो तुरन्त वह अप्रतिम वीर्य गोद में जा बैठा और नाभिराज की खुशी का पार नहीं। माँ चाहती है अपने वात्सल्य कुम्भों का करुणक्षीर उसे पिलाना, पर उसे कोई इच्छा नहीं, जब कभी आंचल में छिपकर बैठता है तो माँ अपनी गोद में ऐसे समेट लेती मानो अपने दुग्ध को बालक के श्वेत रुधिर से एकमेक ही करने का प्रयास कर रही हो। न कभी स्वेद की बूंद, न मल, न धूलि का जमाव, उत्तम संहनन और समीचीन आकृति, सर्वश्रेष्ठ रूप की सौन्दर्य छटा पे सुरभि से आकृष्ट मधुलेहि पंक्ति, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, मीन आदि सहित आठ मंगल द्रव्य को आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और तिल, लहसुन, मसूरिका आदि 900 व्यञ्जनों से खचित रचित बाल भानु का शरीर ऐसा शोभित होता, मानो विधाता ने बहुत प्रयास से इतना सुन्दर शरीर बना पाया हो और प्रिय, हित वचनों से आकर्षित, मनमुग्ध करना तो पूर्व जन्म से लाये हुए अतिशय गुण थे, जो स्वाभाविक थे। चन्द्रमा की कला से बढ़ते-बढ़ते अंग-अंग के सौन्दर्य की वृद्धि से अन्तस् से त्रि-सम्यग्ज्ञान भी स्फुरायमान होने लगे। बिना किसी की शिक्षा के ही पूर्व और अंगों की सम्यक् स्मृति ताजा होने लगी। अपने दिव्यज्ञान से कार्य अकार्य का विचार कर कर्त्तव्य बोध जागृत होने लगा। नीति, निपुणता, वादित्र कला, नृत्य अभिनय,गोष्ठी का संचालन, आदि पौरुषिक कलायें समयोचित प्रकट हो गयीं, जैसे वर्षा ऋतु में आपो आप वर्षा होने लगती है या शरद् ऋतु में पूर्ण सूर्य प्रकट हो जाता है।
     
    यौवन की दहलीज पर खड़ा हुआ कल्पवृक्ष-सा सर्व का भाग्य विधाता, आपो आप ही युवराज था। देवराज, सिंहराज के सिंहासन पर स्वयं वे बैठे। विविध आभूषणों से उनका क्या सौन्दर्य बढ़ेगा, वे वस्त्र और आभूषण ही इस देह से चिपट के सुन्दर हो जाते हैं। कौन इन्द्र, कौन-सा धरणेन्द्र? कौन-सी वह शक्ति? जो इनकी आँखों में आँखें मिलाने का साहस करे। कौन-सा वह गुण जो इस चिति में अनुपलब्ध हो? कौन-सी वह विद्या जो यहाँ अपनी हार नहीं मानती हो? दिग्गजों की पुष्कर से पुष्कल महाभुजाओं पर बाजूबन्द थे, या अपनी मणियों को दिखाते हुए भुजंग थे। हार और तुषार-सी निर्मल देह में क्या प्रतिबिम्ब नहीं हो रहा था? सदा युवा, सदा बलिष्ठ देह यष्टि की क्या बात? पाद कमलों का वह प्रक्रम जब इस मेदिनी पर आता तो वह धरित्री भी प्रसन्न हो उन चरणों को अपनी छाती पर थामना चाहती थी, पर वो रुकते नहीं, तो पीछे उड़ी धूलि से वह रोने लगती। विशाल वक्षः स्थल पर लक्ष्मी क्रीड़ा करतेकरते थक जाती पर तृप्त नहीं हो पाती। प्रत्येक उर्वशी के उरोज उन नयनों को ऊपर उठाना चाहते पर सफलता कहाँ? कामिनी विह्वल है, कामदेव दुःखी है, आज हमारा यहाँ आदर क्यों नहीं? यम की विजय यहाँ असम्भव, क्यों? कुबेर वसुन्धरा पर लोट रहा है पर कुछ स्वीकारते क्यों नहीं?
     
    ये सब प्रश्न अनुत्तरित हो माता-पिता क्या पुरवासियों के ओठों पर भी सदा विद्यमान हैं । यौवन और प्रज्ञा का उत्कर्ष देखकर और प्रभु का सरस्वती में अतिशय प्रेम देखते हुए भी एक दिन महाराज नाभिराज ने कहा- पुत्र वृषभ ! मैं जानता हूँ इस सृष्टि के ज्ञान सूर्य में मोह, राग जैसे अन्धकार को कहीं भी स्थान नहीं। मैं जानता हूँ आपका आचरण समुद्र-सा अगाध है गंभीर है और उसमें रत्नत्रय के मोती गहरी पैठ ले अपनी शक्ति बढ़ा रहे हैं, पर हे मोहसूदन! वह समुद्र भी तो बाहर से कितना आनन्दित हो ज्वारभाटों से अपनी बेला तक कल्लोलें फैला कर हिलोरें लेता है, इससे उसकी गंभीरता में कोई अन्तर नहीं आता। इस बात को मैं इसलिए कह रहा हूँ कि, हम प्रकृति के इन उपमानों से ही जीने की कला सीखते हैं। इन महान् उपमानों का अनुसरण कर उपमेय बनते हैं महाधीर मानव और उन महामानवों का ही अनुगामी यह विश्व स्वतः होता  है। इस युग की आदि में आपका प्रत्येक आचरण इस आगामी काल के लिए अदम्य देन होगा। यह विश्व आपसे ही गतिमान होगा। आप जब चलेंगे तो यह विश्व भी चलेगा, आप जब मचलेंगे तो यह विश्व भी अपने में कुछ स्फूर्ति महसूस करेगा। इस जड लोक को आप नयी ऊर्जा से स्फूर्जित करें। विश्व कल्याण का यह सन्तति जनक कर्म भी धर्म है, यह तभी प्रमाणित होगा जब आप इसके आद्य प्रवर्तक बनेंगे। जिस प्रकार सूर्य के उदित होने में पूर्व दिशा का उदयाचल निमित्त मात्र है सूर्य तो स्वयं उदित होता है, उसी प्रकार आपकी गोद में उदित होने को आतुर सूर्य पुत्र भी अपनी ही सत्ता में झूलते हुए आपके नैमित्तकपने को प्राप्तकर गौरव अनुभव करेंगे। इस परम्परा से ही धर्म टिकता है और कर्म भी। धर्म और कर्म की यह समष्टि ही सृष्टि है, इस सृष्टि को आलोक दो। हे आर्यश्रेष्ठ! इस सृष्टि को बाहुबल दो, अन्यथा आपकी स्वाभाविक गंभीरता से यह अकर्मण्यता का पाठ सीखेगी, अन्य कुछ नहीं। हे युग के उन्नायक! अपनी ऊर्जा की संचेतना से इस भारतखण्ड को मथ दो ताकि इस समूचे ब्रह्माण्ड में कल्पकाल तक आपकी ऊर्जा घुमड-घुमड कर तीव्र चक्र सी प्रवर्तक बन इसमें आन्दोलित होती रहे। हे दूरद्रष्टा! यह सब आपको समझाने का उपालम्भ नहीं किन्तु अपने कर्त्तव्य से मुक्ति पाने की यह राह है, ताकि आगामी विश्व नाभिराज को कर्त्तव्य विमुख न कह सके। मुझे विश्वास है कि आप जैसा महामनीषी इस लोक को गुरुजनों के वचन उल्लंघन का अविनीत पाठ नहीं पढ़ा सकता, फिर भी आपकी स्वीकारता की प्रतीक्षा के उपरान्त ही मेरा यह मनः भार हल्का होगा। इसलिए हे प्राज्ञ! कुछ कहो, मध्यस्थता भी मध्य स्थित प्रचण्ड सूर्य की तरह ताप देने वाली होती है, इसलिए मेरे उर के ताप को दूर करो! अस्तु! और तभी एक क्षण पलक बन्द कर अन्तस् का अवलोकन किया कि, भव्य पुण्डरीक आनन पर मुस्कान फैल गयी, जिसे देखते ही पितृदेव का मनः सन्ताप दूर हो गया और स्वीकारता की एक अखण्ड ध्वनि ओम् ओम्......ओम् समूचे लोक में पल भर में फैल गयी। यह एक मुस्कान ही पर्याप्त थी, उस महासमुद्र को तेरह लाख पूर्व तक बाँधे रखने के लिए। लोक व्यवहार की स्वीकारता ही एक आत्मकल्याणी के लिए महाबन्धन है। यह स्वीकृति पिता के वचनों की चतुराई से आयी; प्रजा के उद्धार की इच्छा से आविर्भूत हुई; मैं नहीं मानता। यह मुस्कान से स्वीकृति अपने अवधिज्ञान से चारित्रावरणकर्म की अलंघ्य स्थिति को देखकर हुई; मैं नहीं मानता, यह स्वीकारता के स्वर क्या एक नियति थी; मैं नहीं जानता, पर इतना जानता हूँ कि तात्कालिक भावुकता से दूर आत्मार्णव में से यह लहर ऊपर तक आयी जो उसी समुद्र की थी क्योंकि बाहर की छोटी-छोटी हवाओं से समुद्र नहीं मचला करते। वो तो अपने ही उपादान से उमडते और घुमडते रहते हैं क्योंकि यह उसका स्वभाव है जो दूसरों के द्वारा अनुलंघनीय है।
     
    तभी महाराज नाभिराज, इन्द्र की अनुमति से सुशील, सात्त्विक और सुन्दर दो कन्याएँ जो कि कच्छ और महाकच्छ की बहिनें थी, परिणय स्नेह में बाँध कर कर्त्तव्य मुक्त हो निश्चिन्त हो गए। अश्व, गज और पक्षियों की सवारी से युक्त देवता गणों ने आनन्दोत्सव को बढ़ाया। विद्याधरों और गन्धर्वों से राजमहल भर गया। किन्नरियों की नुपुरों से झंकृत ध्वनि से वर्षों का सोया वह कामदेव जाग गया। काहल पटवादकों पे अंगुलि ताड़न की धक् धक् ध्वनि ने कन्याओं की धड़कन को बढ़ाया। उस नारी युगल ने विशाल हस्ती को स्तम्भित कर लिया और प्रचुर काल तक यह मोद निराबाध बढ़ता रहा। यशस्वती और सुनन्दा में रत युवा वृषभ ने मर्यादित आचरण किया और तृतीय पुरुषार्थ की फलश्रुति में यशस्वती से प्रथम चक्री भरत को आदि लेकर सौ पुत्र और ब्राह्मी कन्या को प्रसूता तथा सुनन्दा से उन्होंने प्रथम कामदेव बाहुबली और सुन्दरी पुत्री को पाया। हिमवान् पर्यन्त से समुद्र पर्यन्त फैली वसुन्धरा का स्वामी प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम से ही इस भूमि का नाम 'भारत वर्ष' पड़ा। तब एक दिन भगवान् वृषभदेव जब सिंहासन पर सुख से विराजमान थे, कि सुन्दर आकृति पर सौम्य हाव-भावों वाली दोनों पुत्रियाँ पिता के पास आयीं और उन्हें प्रणाम किया। पिता वृषभ ने दोनों पुत्रियों को उठाया और अपनी गोद में बिठा कुछ देर क्रीड़ा कर कहा हे नम्र बालाओ। आप लोग शील और विनय से शोभित सरस्वती और कीर्ति की लक्ष्मी समान हो।अनेक गुणों से युक्त होने पर भी यदि विद्यागुण नहीं है, तो सब कुछ कागज के पुष्प सम निर्गन्ध होता है। यह विद्या, यशः प्रदाता, परम कल्याणी और मनुष्यों का प्रथम आभूषण है। यह विद्या ही महाबल है, परम मित्र है और विपत्तियों में सहायक सखी है जिस प्रकार रत्न को तराश-तराश कर अनेक पहलुदार बनाया जाता है तो वह अतिशय कान्तिमान् और कीमती हो जाता है, इसी प्रकार अनेक विद्याओं से युक्त शील, विनय, क्षमा आदि गुण और अधिक शोभित होते हैं। उचित समय पर पुत्र और पुत्रियों को समुचित विद्या देना माता-पिता का आद्य कर्तव्य है। अच्छे संस्कारों से युक्त पुत्री ही उभय कुलवर्धिनी होती है। तभी भूरि-भूरि आशीषों से पुत्रियों का चित्त प्रसन्न कर अपने अन्दर बैठे श्रुत देवता को ‘सिद्धं नमः' के मंगलाचरण पूर्वक स्वर्ण पट्ट पर लिखा। प्रभु वृषभ के द्वारा यह सिद्ध मातृका जो स्वर और व्यञ्जनमय है, सिद्ध वर्ण बन गए और यह आम्नाय तभी से पुनः स्थापित हो गयी। प्रभु ने अपने दाहिने हाथ वर्णमाला के अकार आदि हकार पर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्यमानीय इस अयोगवाह सहित शुद्ध अक्षरावली को पुत्री ब्राह्मी को सिखाया तथा बांये हाथ से इकाई, दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को सुन्दरी पुत्री को सिखाया। प्रभु के बांये हाथ से अंकों के लिखने के कारण ही अंकानां वामनो गतिः यह आम्नाय चल पड़ी। व्याकरण, छन्द और अलंकार शास्त्र ही वाङ्गमय कहलाता है। इस वाङ्गमय से अलंकृत दोनों पुत्रियाँ साक्षात् सरस्वती की तरह प्रतिष्ठित हो गयीं। पश्चात् पुत्र भरत को स्वयंभू वृषभ ने कहा- हे प्रथम नरेश्वर! आप व्यवसाय में समुन्नति का मूल यह अर्थशास्त्र सुनो। सुदृढ़ शासन व्यवस्था के लिए राजनीति शास्त्र सुनो। सभी विद्याओं में पारंगत पुरुष ही इस संसार की रंगभूमि पर सफल होता है। विद्यावान् पुरुष अरण्य में असहाय नहीं होता। दुनियाँ में शत्रु और मित्र नहीं होते पुत्र! वे तो बनते हैं हमारे अपने व्यवहार से। इसलिए एक कुशल शासक के लिए दण्डनीति का ज्ञान परमावश्यक है। इसके अतिरिक्त मल्लग्राह, युद्ध, चक्र, धनुषों का प्रारोहण विधान, नृत्यविज्ञान आदि विद्यायें भी सीखो। भरत के अनुज अनन्तविजय पुत्र के लिए वास्तुशास्त्र, चित्रकला आदि विद्याओं का उपदेश मिला। पुत्र बाहुबली ने कामशास्त्र, सामुद्रिक ज्ञान, आयुर्वेद आदि शास्त्र सीखे। इस प्रकार प्रभु ने समस्त वत्सों के लिए बिना भेदभाव के गोदुग्ध की तरह विद्या पान करा सदा के लिए तुष्ट कर दिया। अपने इष्ट पुत्रों और पुत्रियों से घिरे स्वयंभूदेव ज्योतिष्मान् चन्द्र की तरह जो कि अनेक नक्षत्रों और तारों से घिरा हुआ हो, ऐसे लगते थे। अपने पुत्रों के अतुल पराक्रम, वैभव, राजमान्य सुख, सौभाग्य और लावण्य को देखकर किस पिता का चित्त खुश नहीं होता?
     
    कल्पवृक्षों के अभाव से दु:खी प्रजा के सामने नित नए संकट उपस्थित होने लगे। स्वभाव से अत्यन्त भोले प्राणी, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के ज्ञान से प्रायः परेशान रहते। तभी एक दिन प्रजाजन नाभिराज के पास आकर अपने दुःखों को कहने लगे। नाभिराज ने समस्त प्रजा को वृषभकुमार के पास भेजा। प्रजा ने वृषभकुमार को अपनी अन्तर्वेदना बतायी। तब भगवान् ने पूर्व और अपर विदेह की स्थिति को अपने ज्ञान में देखा। उसी स्थिति के अनुरूप यहाँ कर्मभूमि का वर्तन कराने के लिए वृषभकुमार के स्मरण मात्र से इन्द्र स्वयं यहाँ उपस्थित हुआ। सर्वप्रथम इन्द्र ने वृषभकुमार की आज्ञा से अयोध्यापुरी के मध्य में जिनमन्दिर बनाया और इस मंगल कार्य के उपरान्त अवन्ती, सुकोशल, अंगवंग आदि देश, नदी, नहर, वन, खेती और ग्राम के सुनियोजित बँटवारे किए और नामकरण किया। पश्चात् वृषभकुमार ने प्रजाजनों के लिए असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म आजीविका के लिए बतलाये। गुणों के अनुरूप कार्य करने से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र तीन वर्ण की स्थापना की। उनमें जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय कहे गए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य घोषित किए गए और जो उनकी सेवा-सुश्रुषा करते थे उनको शूद्र कहा गया। वर्ण व्यवस्था से सब कुछ बिना दोष के प्रवृत्त हुआ। विवाह, जाति सम्बन्ध और व्यवहारिक अन्य कार्य भी भगवान् आदिनाथ की आज्ञा से सुनियोजित तरीके से चले। प्रजा जनों के लिए इस कर्मयुग का प्रारम्भ आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन किया गया, इसलिए भगवान् प्रजापति कहलाने लगे। इस प्रकार षट्कर्मों के कुशलतापूर्वक परिपालन से जब प्रजा सुख से रहने लगी, तब श्री वृषभ का राज्याभिषेक किया गया जिसे धूमधाम से देवों, विद्याधरों और कुलांगनाओं ने मिलकर मनाया। पश्चात् वृषभ राजा ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान कर उन्हें क्रम से हरिवंश, नाथवंश, उग्रवंश और कुरुवंश का राजशिरोमणि बनाया तथा कच्छ, महाकच्छ राजाओं को अधिराज पद दिया। मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह का उपदेश दिया इसलिए वे इक्ष्वाकु कहे गए। कुल-वंशों का विभाजन संचालित किया, इसलिए आप कुलकर कहलाये। युग की आदि में प्रजा को सुखपूर्वक आजीविका बतायी, नगर, ग्राम आदि बनवाये इसलिए आप विधाता, विश्वकर्मा, स्रष्टा कहे गए। ऐसे भगवान् वृषभदेव ने युग की आदि में इस विश्व का संचालन अपनी प्रज्ञा से किया और समुद्रान्त तक फैली सती सी इस महाधरा का शासन किया और सभी को अनुशासित किया।
  10. Vidyasagar.Guru
    *सिद्धोदय_सिद्ध_क्षेत्र #नेमावर*
    *आहारचर्या*  *शुभ संदेश*🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈
        *🗓११,सितंबर,१९ बुधवार🗓* 
    *पर्वाधिराज दशलक्षण पर्व का  नवा दिन ( उत्तम आकिंचन  धर्म )*
    *✨आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज✨*को आहार कराने का सौभाग्य*
      *⛳ब्र. बहन दिव्या दीदी , संजय कुमार जी जैन  आष्टा निवासी एवं उनके पूरे परिवार को प्राप्त हुआ⛳*
    *👏🏽आहार दान देने वालों की अनुमोदना👏🏽*
    ✍🏻 *अक्षय बाकलीवाल खातेगांव*
        
     
  11. Vidyasagar.Guru
    खेल
     देखा,
     एक वृक्ष के नीचे
     टूटे गिरे
     छिन्न सूखे
     पत्तों पर
     उछल-कूद करती
     चिड़ियों का 
     अपने ही पैरों की
     ध्वनियां सुनना
     और मुग्ध हो
     कुछ कहकर
     फिर चुप रहकर
     विस्मय से
     सब ओर देखना!
     लगा, जगत का खेल
     यही है इतना,
     अपनी ही प्रतिध्वनियों में
     विस्मय विमुग्ध हो
     खोये रहना!
     
    Play
     I saw
     Under a tree
     On dry leave, birds playing
     And listening
     To the music
     Of their own footfall.
     They seemed so happy
     As they looked about;
     So much in love
     With the sound of their own making.
     I realized
     That all we do on the world-stage
     Is only this:
     To hear the echoes
     Of our own voices,
     And remain oblivious
     To everything else.
  12. Vidyasagar.Guru
    वृक्षारोपण महोत्सव सुचना
    क्या आपने वृक्षारोपण किया ?
    वृक्षारोपण करने के बाद ऐसे डाले सुचना 
     
    उदहारण 
    स्वर्ण पथ मानसरोवर जयपुर पार्क में वृक्षारोपण कर गुरुवर को दी दीक्षा दिवस पर विनयांजली
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1190-vidyasagar-guru/
     
    सोशल मीडिया पर हैश टैग लगाके पोस्ट करें 
    https://www.facebook.com/saurabh.jain.jaipur/posts/10157174624300941
    52 वाँ दीक्षा दिवस - #गुरुजीकादीक्षादिवस #हरियालीसे_विनयांजलि  
    पोस्ट करने के लिए  इस लिंक पर 
    https://vidyasagar.guru/forums/forum/249-topics/  न्यू टॉपिक पर क्लिक करे 
    ४ से ५ फोटो ही डाले
  13. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री प्रणम्यसागरजी  मुनिश्री चन्द्रसागर जी   
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/337-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
     
  14. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हमने अपने जीवन में जो भी पाया और जो भी खोया है वो अपने ही कर्मों से खोया है और कर्मों से ही पाया है। हम यहाँ जो जैसे और जितने हैं उस सबकी जिम्मेदारी हमारी अपनी और हमारे अन किये गये कर्मों की है। सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो ऐसा नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि यदि सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो तो ऐसा लगेगा कि दूसरे के कर्मों से भी हमें अपने जीवन में सुख-दुख मिलेगा; दूसरे के किये गये कर्म हमारे जीवन में प्रभाव तो डाल सकते हैं, पर हमारे जीवन के निर्माण में तो हमारे किये कर्म ही कारण बनते हैं। हमें अच्छा शरीर मिला है या कि नहीं मिला है, हमें अच्छी वाणी मिली है या कि नहीं मिली है, हमें अच्छा मन मिला है या कि मन की विकलता है। हमारे शरीर का रूपरंग अच्छा है या बुरा है। हमें जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ सम्मान मिलता है या अपमान मिलता है, हमारा यश फैलता है या कि अपयश फैलता है ? हम इन सब बातों के लिये स्वयं निर्धारित करते हैं। हम जैसे कर्म वर्तमान में करते हैं उससे ये सारी चीजें निर्धारित होती हैं। 

    कुछ ऐसे भी कर्म हैं जो कि हमें जिस स्थान पर पहुँचना है और उस स्थान पर जाते समय, ट्रांसमाइग्रेशन करते समय कौन-कौनसी चीजें हमारे साथ अटेच होकर जाने वाली हैं ये भी हम निर्धारित करते हैं ठीक ऐसे ही जैसे कि सर्विस में ट्रांसफर होता है तो ट्रांसफर किसी अच्छी जगह भी हो सकता है और सम्भावना है अच्छा पड़ौस मिले, हो सकता है कि अच्छे संस्कारवान लोग मिलें और ऐसा भी सम्भव है कि स्थान अच्छा ना मिलें, पड़ौसी अच्छे ना मिले और संगति वहाँ पर खोटी मिले, ये सारी सम्भावनाएँ हैं। इनको कौन रेग्युलेट करेगा ? इनको हमारा अपना पूर्व का किया हुआ पुरुषार्थ जिसे हम पुण्य और पाप कहते हैं और वर्तमान के किये गये हमारे कर्म जैसा हमारा परफॉरमेन्स होगा, जैसी हमारी सर्विस का एक्सपीरियंस होगा, जैसा हमारा अपना नेचर हमने बना लिया होगा ठीक वैसा ही हम दूसरी जगह पायेंगे तो हमें वैसी ही सिचुएशन, वैसा ही परिवेश, वैसा ही एनवायरनमेंट सब कुछ वैसा ही मिलेगा। ठीक ऐसा ही जीवन में कर्मों के साथ है, कर्म हम जैसे करेंगे वैसी गति मिलेगी, वैसा स्थान मिलेगा, वैसा शरीर मिलेगा, वैसा शरीर का रूप-रंग होगा और इतना ही नहीं, सौभाग्यशाली शरीर मिलना है। कि दुर्भाग्य से युक्त शरीर मिलना है शरीर के सारे अवयव बहुत सुन्दर व सुडौल होने के बावजूद भी दुर्भाग्य इतना है कि कोई पसन्द ना करे और शरीर के अवयव सुन्दर नहीं हैं। लेकिन सौभाग्य इतना है कि जिसकी दृष्टि पड़ जाये वो अपने को सौभाग्यशाली मानने लगे। जिसके साथ दो बातें करने का मन हो और अपने को सौभाग्यशाली माने, ऐसा भी हम ही कर्म करते हैं, और उसका हम फल चखते हैं। यहाँ अगर किसी को अच्छा शरीर मिला है तो उसने पूर्व जीवन में क्या किया होगा और आज अगर वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तो हमने पहले ऐसा क्या दुष्कर्म किया होगा जिसके परिणामस्वरूप हमें ये स्थिति प्राप्त हुई। अगर हमें वाणी अच्छी मिली है तो हमने ऐसा क्या भला किया होगा जिससे सुस्वर मिला। सुस्वर नाम कर्म कैसे मिला होगा और अगर वाणी कर्कश है और कठोर है तो मानियेगा कि हमने ऐसा कौनसा दुस्वर नाम कर्म अपने साथ बाँध लिया होगा। 

    ये सारी चीजें हमारे कर्म निर्धारित करते हैं इसके लिये एक बहुत बड़ी प्रकृतियों वाला कर्म है सारे कर्मों में, जिसकी फैमिली सबसे बड़ी है वो नाम कर्म, 93 इसके भेद प्रभेद हैं जिससे कि पूरी बॉडी कन्सट्रक्ट होती है और वाणी मिलती है, मन की सामर्थ्य मिलती है। द्रव्य, मन, भाव मिलते हैं। मन तो हमारे अपने क्षयोपशम से. ज्ञान के क्षयोपशम से, नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मिलता है लेकिन जिसका आलम्बन लेकर के हम विचार करेंगे, वो मन भी हमारे भीतर इसी तरह कसट्रक्ट होता है। हम स्वयं अपना शरीर निर्मित करते हैं और एक चीज और ध्यान रखना, रॉ-मैटेरियल कैसा भी हो अगर हम बहुत अच्छे आर्टिस्ट हैं, तो हम बहुत अच्छी चीज कन्सट्रक्ट कर लेंगे, उसमें से, हाँ। वो आर्ट कैसे आयेगी, हमारे अपने कर्मों से आयेगी। जैसे कि हम किसी अच्छे कारीगर को बुलाते हैं और सामान बता देते हैं कि इत्ता-इत्ता सामान है और उसमें इस तरह से बिल्डिंग-कन्सट्रक्ट करनी है। बहुत अच्छा अगर कलाकार हो, बहुत अच्छा आर्टिस्ट हो, बिल्डिंग कन्सट्रक्टर हो तो बहुत अच्छी बिल्डिंग बनाकर के रख देगा। उसमें रंग-रोगन भी बहुत अच्छे से कर देगा, भले ही आपने उसको मेटेरिय - अच्छा नहीं दिया हो और जिसको उसका आर्ट नहीं मालूम उसको बहत अच्छा मेटेरियल भी देवें तो वेस्ट कर देगा। वो सब ठीक ऐसे ही हमारे अपने जीवन में भी है, हमारे अपने कर्म जैसे होंगे वैसी सारी सिचुएशन्स हमारे चारों तरफ क्रिएट होगी और फिर इतना ही नहीं जैसी सिचुएशन क्रिएट हुई है उसमें हमारा अपना क्या बिहेवियर है इस पर भी डिपेंड करेगा। हमें जैसा जो कुछ भी मिलता है उसमें हम सुख 
    और दुःख अनुभव कैसे करते हैं। ये हमारे अपने एटीट्यूड पर निर्भर करता है, ये हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं। चीजों से हमें सुख नहीं मिलता। ये चीजें और उनसे हमारे क्या सम्बन्ध है उससे हमारा सुख और दुःख रिलेटेड है। हमें अच्छा शरीर मिला है जरूरी नहीं है कि सुख मिले ही। ये हमारे ऊपर निर्भर करता है इसलिये ये चीज भी इसके साथ जोड़कर के हम देखने की कोशिश करेंगे कि हमें सब कुछ अपने पूर्व संचित कर्मों से मिल जाने के बाद भी उसमें हर्ष करना है या विषाद करना है और आगे के लिये क्या तैयारी करना है। ये सब हमारे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं।
     
    ये ठीक है कि आज हमें जिस तरह का शरीर मिला है उसकी जिम्मेदारी हमारे पुराने कर्मों की है लेकिन उस शरीर का, उस वाणी का और उस मन का हमें करना क्या है ये आज वर्तमान में हमारे ऊपर निर्भर है। अब जरा विचार करें कि जैसा शरीर मिला है उसके लिये कौनसे कर्म जिम्मेदार होंगे, कौनसे भाव हमारे जिम्मेदार होंगे तभी हम आगे के लिये अपनी जरा जो तैयारी कर रखी है उसमें परिवर्तन कर सकेंगे क्योंकि अगर मालूम पड़ जाये कि इस तरह की तैयारी करने से और हम जो सोच रहे थे वो चीज नहीं मिलेगी, मालूम पड़ जाये कि हमने तो तैयारी दूसरे प्रश्न की कर रखी थी उत्तर की और लगता है कि शायद कोई और चीज सामने आने वाली है तो हम जल्दी से अपनी तैयारी बदल सकते हैं। 

    हमारे अपने परिणामों को हम टटोल सकते हैं कि वे किस दिशा में जा रहे हैं और आगे जाकर के हमें कैसी स्थिति और कैसा एनवायरनमेंट मिलेगा; सब चिंतित होते हैं इस चीज के लिये कि कहीं दूसरी जगह जाना पड़ेगा तो कैसी-कैसी स्थिति मिलेगी, कौन-कौन मिलेंगे, कैसा शरीर मिलेगा, शरीर मतलब कैसा मकान मिलेगा रहने का। यही तो ये शरीर भी तो मकान ही है, कैसा वाला मिलेगा और कौनसी जगह मिलेगी। गति क्या है, उस जगह का नाम ही तो है जहाँ हम पहुँच जाते हैं और कौनसी जाति मिलेगी, एक इन्द्रिय होंगे, कि दो इन्द्रिय होंगे कि तीन इन्द्रिय की, वार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय कौनसी तैयारी है जिससे कि हम उस प्रकार के शरीर को पायेंगे। एक इन्द्रिय का शरीर मिलेगा, कि दो इन्द्रिय का मिलेगा, कि पंचेन्द्रिय का और पंचेन्द्रिय में भी नारकी जीव का शरीर मिलने वाला है, कि देवों का शरीर मिलने वाला है, कि किसी मनुष्य का शरीर मिलने वाला है, या कि हाथी-घोड़े का शरीर प्राप्त करेंगे, कौनसा करेंगे साथ कुछ एक ब्लू प्रिंट की तरह हमारे साथ अटेच हो जाता है, एक प्रिंट बन जाता है हमारे अन्दर उन सब चीजों का कैसे ? आश्चर्य होता है जब नाम कर्म की प्रकृत्तियाँ पढ़ते हैं कि अगर इसमें जितने बाल हैं तो उतने ही क्यों हैं और उनकी स्टाइल क्या है ये सब हमने निश्चित किया है। शेप, साइज सारा कुछ, आँख यही लगानी है तो यहीं लगेगी, साइज कितनी है, प्रपोर्शनेट है या अनप्रपोर्शनेट है। बॉडी में जो-जो चीजें फार्म हुई हैं वो प्रपोर्शनेट हैं कि नहीं हैं, शरीर का कैसा संहनन है, कैसे हमारे ज्वाइट्स हैं, उनमें कितनी ताकत है, ये सब भी हम अपने कर्मों से निश्चित करते हैं, इन सबके लिये अलग-अलग कर्म हैं और उन सबके अलग-अलग परिणाम हैं। 

    मजा ये है इतना बारीकी हिसाब कोई अगर बता सकता है तो सिर्फ सर्वज्ञ बता सकते हैं ये कर्म प्रकृतियाँ और इनके होने वाले परिणामों को जब हम जानते हैं तो ऐसा लगता है कि ये तो हमारी बुद्धि के बहुत पार है। ये कोई बहुत अत्यन्त ज्ञानवान ही जान सकता है। दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते कभी भी, टिव्न्स भी क्यों ना हों। उनके बॉडी कन्सट्रक्शन में कहीं ना कहीं चेन्ज जरूर से होंगे, क्योंकि दो सेपरेट जीव हैं, अलग अलग जीव हैं तो अलग-अलग ही उनके अपने शरीर की बनावट और बुनावट दोनों चीजें होंगी, हाँ! जैसे कपड़े की बनावट और बुनावट दोनों ताना-बाना किस तरह का है ये बुनावट कहलाती है इसी तरह शरीर में भी किस तरह से हमने ताना-बाना बनाया है और कैसा उसका शेप है और साइज क्या है, ये सब हम निर्धारित अपने भावों से करते हैं। दो सूत्रों में आचार्य भगवन्तों ने शॉर्ट में लिखे में, सारी चीज कह दी अब और शरीर के मामले में, गति के मामले में, जाति के मामले में, सौभाग्य और दुर्भाग्य, यश और अपयश के मामले में, अगर सारी चीजें आपको खोटी मिली हैं तो मानियेगा आपने पहले मिली हुई मन, वाणी और शरीर का दुरुपयोग किया होगा, ये तय है। बस इतने शॉर्ट में कह दिया अपन डिटेल कर लेंगे उसका समझने के लिये और इतनी ही बात है “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।" 

    अगर हमारा शरीर अशुभ मिला है और भी सारी चीजें अशुभ मिली हैं तो मानियेगा कि हमने योग यानी मन, वचन, काय इनकी सरलता नहीं रखी होगी। इन मन, वचन काय का सदुपयोग नहीं किया होगा, उनका दुरुपयोग किया होगा, या कि इनके द्वारा कुटिलता की होगी, मन में कुछ, वाणी में कुछ, शरीर से एक्शन कुछ। और कोई भी चीज हमने दूसरे के प्रति शुभ नहीं करी होगी। मन में खोटा सोचा होगा, वाणी खोटी बोली होगी और शरीर से भी हमने दूसरे का उपकार करने की जगह अपकार किया होगा, जिससे कि आज हमें मन, वाणी और शरीर की सामर्थ्य सब अशुभ मिली हुई है। हम किसी का कुछ भला कर ही नहीं पाते। हमसे न वाणी से दूसरे का भला होता है, ना शरीर से ही दूसरे का भला किया; ना हमारे मन में कभी दूसरे का भला करने का विचार आता। सब खोटा ही खोटा आता रहा; इसके मायने है कि पहले हमने इस तरह का कर्म किया होगा और निरन्तर किया होगा और “तद्विपरीतं शुभस्य” उससे विपरीत अगर कोई है तो सारी चीजें शुभ मिली होंगी। आज हम देखें गौर से अगर हमें अच्छा सुन्दर शरीर मिला है, इसका मतलब है कि हमने दूसरे के लिये जरूर अपने शरीर से मदद की होगी, हाथ सुन्दर मिले हैं इसके मायने है कि मैंने दूसरे का उपकार किया होगा, आँखें सुन्दर मिली हैं, मैंने दूसरे की बुराई ना देखकर के भलाई देखी होगी, इन आँखों से इसलिये आज मेरी आँखें सुन्दर हैं। मेरी आँखों में चमक है, और अगर ये सारी चीजें मैंने खोटी की होंगी, आँखों से सिर्फ दूसरे की बुराई देखी होगी और कानों से दूसरे की बुराई सुनी होगी तो मानियेगा कान वैसे ही मिलेंगे-“स्वदोषः ......" बड़े-बड़े कान मिलते हैं हाथी को ऐसे सूपा जैसे, और आँखें इतनी-इतनी सी मिलती हैं क्यों? अपने दोष देखने में तो इतनी सी आँख और दूसरे के दोष सुनने में इतने बड़े-बड़े कान। पहले हम जिस तरह के परिणाम और जिस तरह का उपयोग मन, वाणी और शरीर का करते हैं वैसा ही मन, वाणी और शरीर हम यहाँ पुनः पाने के लिये मजबूर हो जाते हैं। बचपन में जो शरीर मिलता है वह सबको क्यों अच्छा लगता है, कभी सोचा। बड़े होने पर वही शरीर अच्छा नहीं मालूम पड़ने लगता। 

    शरीर तो ऐसा है कि जीर्ण-शीर्ण होता है उसका स्वभाव है ही। एक बात तो ये है और दूसरी बात और है बचपन में क्योंकि भोलापन है, क्योंकि सरलता है, मन वाणी और शरीर की तब शरीर कुरूप भी क्यों ना हो, भला मालूम पड़ता है और कई बार शरीर बहुत सुन्दर हो और अगर कुटिलता हो, सरलता ना हो तब भी शरीर सुन्दर नहीं मालूम पड़ता। हालाँकि ये कर्म पुदगल विपाकी है। नाम कर्म की अधिकांश प्रकृतियाँ शुभ और अशुभ दोनों रूप हैं लेकिन इससे जीव का भी सम्बन्ध है इसलिये मैंने दोनों बातें आपसे कह दीं कि शरीर अत्यन्त सुन्दर होने के बावजूद भी यदि दूसरे नाम कर्म का उदय है तो वो शरीर किसी को पसन्द नहीं आयेगा और शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से और कुरूप मिला हुआ है लेकिन सुभग नाम कर्म का उदय है तो सबके लिये भला जान पड़ेगा। इसलिये ये दोनों चीजें ध्यान में रखकर के हमारा अपना वर्तमान का राग-द्वेष भी उसमें है अच्छे और बुरे होने में।

    गुलाब का फूल सबको अच्छा मालूम पड़ता है। देखियेगा उसका नामकर्म देखियेगा। ठीक उसके अकेले नामकर्म नहीं है उसके सुभग नामकर्म भी है साथ में। उसके अवयव तो अच्छे हैं ही उसका कलर अच्छा है, उसके साथ-साथ उसकी सुगन्ध अच्छी है, सब कुछ अच्छा है काँटों के बीच खिला होने के बावजूद भी सुभग नाम कर्म है। हर आदमी पाने के लिये उत्सुक हो जाता है। वनस्पतियाँ कितने प्रकार की हैं। उनके भी नाम कर्म हैं कितने-कितने प्रकार के लोग हैं उनके अपने-अपने नाम कर्म हैं, कैसे ये सब बनते होंगे। बचपन में क्यों ये सब अच्छे लगते हैं, छोटे होने पर क्यों अच्छे लगते हैं, और बचपन में रास्ते से चले जाने पर क्यों हमें कोई गाय का बछड़ा मिल जाता है तो उसकी पीठ थपथपाने का मन होता है। कोई अच्छी चीज दिख जाती है तो खड़े होकर देखने का मन होता है। क्यों होता है ये सब ? क्योंकि उस समय चित्त अत्यन्त निर्मल होता है। और ये जो चित्त की निर्मलता है वो इन सब चीजों के प्रति हमारे मन को आकृष्ट करती है और इतना ही नहीं बड़े होने पर भी कुछ लोग जब समय पर भोजन करने आते हैं ये सोच करके कि मेरी वजह से दूसरे को तकलीफ ना पहुँचे तब, तब देखियेगा उनके अपने जीवन की सुन्दरता, उनके व्यक्तित्व की सुन्दरता इससे मालूम पड़ती है। 

    हमने मन, वाणी और शरीर से अपना स्वार्थ नहीं साधा होगा, परमार्थ साधा होगा इसलिये ये शुभ मिले हैं। हमारा अपना स्वार्थ साधेगे तो आगे जाकर के ये सब अशुभ ही मिलने वाले हैं और इतना ही नहीं हमने इस सारी सामग्री को इतना महत्व नहीं दिया होगा। शरीर, मन और वाणी मिली है और भी जो सामग्री मिली है उसके संचय का उतना ध्यान नहीं रखा होगा बल्कि अपने सदगणों के संचय का ज्यादा ध्यान रखा होगा इसलिये अच्छा शरीर मिला है और उसके विपरीत अगर होगा तो बुरा शरीर मिला होगा। हमारे किये पहले जो मन, वाणी और शरीर मिला था उसका हमने सदुपयोग किया होगा। सदुपयोग करना मतलब दूसरे के काम आना, दूसरे का ख्याल रखना। समय से भोजन के लिये पहुँच जाता हूँ, मुझे दूसरे का ध्यान है मेरी वजह से उसको प्रोब्लम नहीं होनी चाहिये। ये है मन और वाणी का सदुपयोग। मुझे वाणी मिली है मैं बोलूं ऐसा जिससे मुझे बाद में क्षोभ उत्पन्न ना हो, मैं काम करूँ ऐसा जिससे बाद में मुझे पश्चाताप ना हो और मैं विचार करूँ ऐसा जिससे बाद में मेरे मन में ग्लानि न हो। चलिये हो गया, तीनों का सदुपयोग। हम आसानी से इस तरह से सदुपयोग कर सकते हैं। बस जरा सा विचार करना पड़ेगा कि वाणी मैंने बोली है तो बाद में फिर मुझे अपने ही बोले पर कहीं मन में क्षोभ न हो कि ऐसा क्यों बोला ? सामने वाले को तो क्षोभ हुआ सो हुआ पर मुझे बाद में अपने बोले हुए का क्षोभ ना हो तो समझना कि ठीक सदुपयोग किया है वाणी का शरीर। की क्रियाएँ करने के बाद, पश्ताचाप ना हो तो मानियेगा कि शरीर का सदुपयोग किया है। और मन में किसी के बारे में विचार करने के बाद ग्लानि ना हो मैंने ऐसा क्यों विचार किया? 
    हम मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग इन बातों का ध्यान में रखकर के आसानी से करना चाहें तो कर सकते हैं और अगर हम आज वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तब भी आगे के लिये अच्छे शरीर की तैयारी कर सकते हैं। वर्तमान में अच्छी गति नहीं मिली है तब हम आगे की अच्छी गति की तैयारी कर सकते हैं और आज अगर अच्छी मिली है तो आगे के लिये बुरी की तैयारी भी कर सकते हैं। ऐसा नहीं है आज मनुष्य गति मिल गई है, सबसे सौभाग्यशाली है, चार गतियों में हमने कोई पहले ऐसा मन, वाणी और शरीर की वक्रता नहीं की होगी, सरलता ही होगी जिससे कि हमें आज मनुष्य गति मिली है। मनुष्य आयु मिलना अलग बात है देखो और मनुष्य गति मिलना अलग बात है। ये चारों गतियाँ निरन्तर 24 घण्टे बँधती रहती हैं, ध्यान रखना और आयु तो किसी एक निश्चित समय के आने पर बँधती है और गति तो हम हमेशा बाँधते रहते हैं। हमारे अपने मन, वाणी और शरीर का जैसा शुभ और अशुभ परिणमन होगा वैसी गति, वैसी एकन्द्रिय, दो इन्द्रिय इत्यादि जाति और फिर उसके हिसाब से बहुत सारे गति, जाति, शरीर, अंग-उपांग, निर्माण बंधन, संघात, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरूलघु उपघात। बारहसिंहा का अपना शरीर अपने ही घात में कारण बनता है। 

    चमरी गाय की अपनी सुन्दर सी पूँछ एक बार झाड़ी में अटक जाये तो कई दिन खड़ी रहेगी जब तक कि सुलझ न जाये, मर जायेगी वहीं पर, प्राण दे देगी क्योंकि अपनी पूँछ से बड़ा प्यार होता है उसको । एक बाल अटक गया है पूँछ का झाड़ी में वहीं खड़ी रहेगी, टूट जायेगा, उसको बहुत दुःख होता है। टूटना नहीं चाहिये। अपने ही घात करने वाला शरीर हमें मिल जाता है कई बार और ऐसा शरीर जैसे कि सिंह का दूसरे के घात करने के जैसे नख, ये सब कैसे होता होगा? हमारे अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से होता है, वे शुभ होती हैं तो सारी चीजें शुभ मिल जाती हैं; वे अशुभ होती हैं तो सारी चीजें हमारे जिम्मे अशुभ आती हैं। ये तो ठीक है लेकिन अशुभ मिल जाने के बाद भी हम उनको कैसे शुभ बनायें। अभी तो वर्तमान में सारी चीजें अच्छी मिल जाने पर हम तैयारी बुरे की कर रहे हैं अगर गौर से देखा जाये तो, अपने मन, वाणी और शरीर को बिगाड़ करके और आगे के लिये इन सबकी जो सामर्थ्य है उसको बुरा बनाने की कोशिश में हैं, अगर इस चीज का हम विचार करें। जो शक्ति मिली हुई है उसका सदुपयोग नहीं करेंगे तो संहनन हीन मिलेगा अभी भी हीन संहनन मिला हुआ है। बज्र वृषभनाराच संहनन यहाँ किसी को नहीं मिला। क्यों नहीं मिला ? हम सबने इस शरीर का सदुपयोग नहीं किया होगा। शरीर का सदुपयोग है कि इस शरीर से तपस्या करना या कि दूसरे की सेवा करना और उसमें विशेष रूप से गुरुजनों की सेवा करना। 
    जब भी आचार्य महाराज इस बात को सुनाते हैं कि हनुमान जी को वज्र का शरीर कैसे मिला, भीम को वज्र का शरीर कैसे मिला ? पूर्व जीवन में उन्होंने अपने शरीर के द्वारा मुनिजनों की भारी सेवा करी। आचार्य शांतिसागर महाराज को ऐसा बलिष्ठ शरीर मिला था कि दो-दो मुनि महाराज को दोनों कंधे पर बिठा के वेद-गंगा और दूध-गंगा के संगम को पार करते थे। इस जीवन में भी और पहले जीवन में भी उन्होंने ऐसा ही किया होगा और जब कोई बैल अस्वस्थ हो जाता था तो उससे काम नहीं लेते थे और उसे बाँध देते थे। अब बैल की जगह बैलगाड़ी में स्वयं काम किया करते थे। इस शरीर का हमने अगर सदुपयोग किया है तो आगे फिर ये शरीर मजबूत मिलेगा। इस वाणी का अगर दूसरे के कल्याण की बात कहने में उपयोग किया होगा तो हमें फिर से ये वाणी सुस्वर मिलेगा अन्यथा फिर दुस्वर मिलेगी जैसे कि गधे की वाणी और कौए का स्वर कोई सुनना नहीं चाहता है लेकिन कोयल की वाणी सबको पसंद है। क्या किया होगा कोयल ने, वैसी वाणी पाने के लिये? सबसे मधुर बोला होगा इसलिये वाणी मधुर है। बहुत ज्यादा डिसक्शन करने की चीजें नहीं हैं, बहुत अनुभव करने की चीजें हैं मैं तो सोचता हूँ। 

    अपने जीवन में थोड़ा सा गौर से एक दृष्टिपात करें सामने तो सब समझ में आता है कि वाकई में ये सब चीजें ऐसे ही बनी होंगी और आचार्यों ने वही चीज हमें इशारा किया है, लिखा है कि और कई कारण हैं उन पर अपन विचार कर लेते हैं। जब हम अपनी इस वाणी से दूसरे की चुगली करने का काम करते हैं तो पिशुनता जिसको कहते हैं, चुगलखोरी इसकी बात उसको ट्रांसफर करना, वो भी अपनी तरफ से कुछ मिक्सअप करते हैं। वाणी तो मिली है अब उसका उपयोग कैसे करना ये हमारे ऊपर निर्भर करता है।
     
    एक घटना है बैल और शेर में बढ़िया दोस्ती थी। ये बच्चों की कहानी है। बच्चों के लिये लिखी है। दोनों में अच्छी दोस्ती थी पर किसी को सुहाती नहीं थी। किसी की भी दोस्ती किसी को सहाती है आज. बताओ इससे मालूम पडता है कि हमारा अपना मन कितना-कितना विकृत है। किसी का अच्छा कुछ हो रहा हो तो हमारे मन में जैसे आग लग गई हो, ऐसा क्यों हो जाता है ? कैसा मन पाया हमने, खोटा मन तो पाया है किसी के बारे में भला कुछ थोड़ी देर सोचेगा, बुरा ही बुरा सोचता है, वाणी थोड़ी देर को किसी से प्यार से बोलेंगे जिनसे हमारा स्वार्थ है ये क्या चीज है ? अब वो नहीं सुहाई लोमड़ी महारानी को तो बिल्कुल नहीं सुहाई। हाँ, उसने कहा कहाँ शेर और कहाँ बैल इन दोनों की क्या दोस्ती, अरे बराबरी वालों से दोस्ती करो तो जाकर के बैल से कहा कि सुनो मालूम है शेर राजा आज आपसे बहुत नाराज हैं। अरे नाराज क्यों होंगे, होंगे भी तो मैं मना लूँगा, हमारी तो दोस्ती है। बोली, नहीं-नहीं आज तो तुम्हारी बहुत बुराई कर रहे थे वो शेर, संभव ही नहीं है, कर ही नहीं सकता। हमारी इतनी अच्छी दोस्ती है। ठीक है मत करो हमारी बात का विश्वास पर आप जाकर के देख लेना सब समझ में आ जायेगा। जैसे ही दूर से देखोगे ना तो गुर्राते दिखाई पड़े शेर, तो समझ लेना कि हमारी बात सच्ची है और तो, नहीं तो झूठ है। लोमड़ी ने इस तरह से बैल को जाकर के सलाह दे दी। ऐसी खोटी सलाह देने में अपन बहत होशियार हैं. दसरे के बीच में बैर पैदा करने की आदत अन्ततः हमें अशुभ नाम कर्म में ले जायेगी और दूसरे का मेल-मिलाप करने की आदत हमारे जीवन को ऊँचा उठायेगी। आज तक हमने दूसरे को एक-दूसरे के प्रति विलग करने और एक-दूसरे से द्वेष उत्पन्न करने का तो काम किया है, लेकिन प्राणी मात्र से प्रीति उत्पन्न हो ये काम नहीं किया। ये परमार्थ का काम है। दूसरा स्वार्थका काम है बहत सावधानी की आवश्यकता है, जीवन में। अब शेर के पास पहुंच गई लोमड़ी महारानी। वो बैल अरे, क्या तो आपने उससे दोस्ती करी है कहीं आपकी बराबरी का है क्या वो। शेर ने कहा कि आज क्या बात है तुम ऐसी कैसी बातें कर रही हो? वो तो मेरा इत्ता अच्छा मित्र है। अरे होगा तुम्हारा मित्र कितनी तो बुराई करता है तुम्हारी, और फिर भी उसको अपना मित्र बनाये रखा है। शेर अपने को क्या जंगल का राजा मानता है, मेरे से जरा दो-दो हाथ तो हो जाये पता लग जाये कि कौन बलशाली है ? अच्छा, ऐसा कह रहा था। हाँ ! और अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आज मिलना जब दूर से ही आप उसको जरा गौर से देखना हाँ, पास से मत देखना जरा वो ऐसे सींग करे दिखे ना तो समझ लेना कि मेरी बात सच्ची है, नहीं तो झूठी मान लेना। बस दोनों जन को बता दिया एक से कह दिया जरा गौर से देखना और दूसरे से कह दिया कि वो घूर के देखेगा तो समझ जाना सो उसमें लिखा हुआ है कि बच्चो इसका मोरल क्या है ? ऐसे दूसरों की बातों में आकर के कभी लड़ना नहीं चाहिये। लड़ने से दोनों की हानि हुई, मित्रता तो खत्म हुई, जीवन भी खत्म हो गया। 

    ये तो समझ में आती है बच्चों की कहानी। अपने जीवन में नहीं आ रही समझ में। ऐसे दूसरे से लड़ने से, दूसरों की बुराई करने से अपनी ही हानि होती है, बच्चों को तो समझाते हैं लेकिन ये जो अपन बड़े बच्चे हैं इनके समझ में नहीं आती और अपने जिस दिन समझ में आ जाये कि ये वाणी और मन इसके लिये नहीं मिला है, ये दाँव-पेच करने के लिये,कुटिलता है मन, वाणी और शरीर की। इस कुटिलता से तो मेरे को कल मन, वाणी और शरीर जो भी मिलेंगे सब अशुभ ही मिलने वाले हैं; मैं दूसरे का अशुभ नहीं कर रहा हूँ, मैं तो अपने हाथ से अपना अशुभ कर रहा हूँ। भैया इतनी सी बात क्यों नहीं समझ में आती। कह रहे हैं कि अस्थिर चित्त, हमेशा चित्त बदलता रहता है। कई लोग जिनको अपन कहते हैं बड़े मूडी हैं। भैया ये अस्थिर चित्त है 'क्षणे तुष्टम् क्षणे रूष्टम् क्षण भर में रुष्ट है, क्षण भर में संतुष्ट है, ऐसा मन लेकर के अपन आये हैं। ऐसे अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति अशुभ नाम कर्म का ही बंधन करते हैं और झूठे नाप-तौल ये भी अशुभ नाम-कर्म के बंध में कारण हैं। आचार्य विद्यानन्द जी महाराज की सभा में कोई टेढ़ा-मेढ़ा बैठा हो तो एक ही सूत्र बोलते हैं वो “योगवक्रता विसंवादनं चशुभस्य नाम्नः'। बोलते हैं कि ठीक-ठीक बैठो, टेढ़े-मेढ़े बैठोगे तो योगों की वक्रता, मन, वचन, काय की वक्रता अगर होगी तो आगे जाकर के अशुभ मिलने वाला है सब नाम कर्म। कृत्रिम रत्न इत्यादि का निर्माण करना, मिलावट करना इससे अशुभ नाम कर्म, झूठी गवाही देना इससे अशुभ नाम कर्म, दूसरों के अंग-अपांग का छेदन भेदन कर देना इससे अशुभ नाम-कर्म, असभ्य कठोर वचन बोलना, इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध हो रहा है अपने लिये, अपना घाटा अपने हाथ से, बच्चे को कान पकड़ के डाँट देते हैं। हम तो सुधारने के लिये डाँट रहे थे, ठीक है वो सुधर जायेगा। आपका तो बिगड़ गया काम कठोर वचन बोल कर के और बच्चे को आप प्यार से भी समझा सकते थे, प्यार की भाषा से बड़ी कोई भाषा नहीं होती, लेकिन हमें लगता है कि जब हम अपने-अपने लोगों के साथ कठोरता से पेश आयेंगे. तभी तो हमारा दबदबा होगा, तभी तो वो हमारी बात. हमारा टेरर जब तक नहीं होगा, बच्चे मानते ही नहीं बात। बच्चे मानते ही नहीं प्यार से हम कितना समझाते हैं उनको। लेकिन वो माने या ना माने, वो अपना कल्याण करें या ना करें हम अपना अकल्याण अपने हाथ से कर लेते हैं। 

    आचार्य भगवन्त लिख रहे हैं कि असभ्य जो कि सभ्य लोगों के बीच कहे जाने योग्य वचन नहीं हैं, जो कठोर हैं, मर्मभेदी हैं, उन वचनों से अशुभ नाम कर्म का ही बंध होता है और मंदिर के गंध, माल्य. दीप, धूप इत्यादि हडप लेना इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। देव-धन और देव-द्रव्य दो प्रकार की द्रव्य होती है वो जो गुल्लक में डालते हैं, रसीद कटवाते हैं, वो सब देवधन है और वो जो चावल चटक और बादाम चढ़ाते हैं मंदिर में, वो सब देवद्रव्य है। और दोनों का भक्षण करना, ये दोनों ही चीजें अशुभ नाम कर्म के लिये कारण बनेंगी। बहुत लोग करते हैं, बोली बोल देने के बाद अब रखे हैं पैसे अपने पास, सालों नहीं दे रहे। जितने दिन तक रखे हैं उतने दिन तक अशुभ नाम कर्म का बंध ही रहा। ये अपने मन से नहीं कह रहा हूँ बुरा मानने की बात नहीं है, ऐसा है। अब है तो क्या करें? दिया के मैं ऐसा-ऐसा और अब मन कच्चा हे पोछे हट रहा है, कमती में का हो जावे। हाँ, ऐसा हो जाता है भाव। सबसे अच्छा ।लखा है कि अगर पॉकेट में है तो ही बोलो, देओ और निश्चित होकर वापस लौटो। कौन आगे का हिसाब रखे कल के दिन, शाम को मन पता नहीं कैसा हो जाये, दे दो तुरन्त, नहीं तो वह देवधन जब से आपने बोल दिया तब से वह देवधन हो गया। आपने कह दिया कि इतना रुपया मेरा बोली में बोल दिया और अब घर तक चले गये हैं, जितनी देर होती जायेगी उतनी देर आप उस देवधन को जो बोला हुआ है 10,000 बोल दिये तो अब। वो देवधन आपके पास रखा है। अब उसको जितने दिन तक रखे रहोगे, उतने दिन तक परिणाम अगर नहीं देने के बन गये, दे दूंगा क्या फर्क पड़ता है कौन खाये जा रहा हूँ ? दूसरे अपने सुख-सुविधा के साधनों में तो लगाये हैं उस देवधन को और दे नहीं रहे हैं। चार दिन बाद देंगे, ये सारा अशुभ नाम कर्म के बंध, कभी रयणसार पढ़ियेगा, कुन्द-कुन्द स्वामी का उसमें, बहुत डिटेल लिखा हुआ है। एक ही फैमिली हमने अभी तक देखी है अपने जीवन में और भी होंगी लेकिन मेरा ऑब्जरवेशन जितना है उतना बता रहा हूँ। एक फैमिली मिली उनके यहाँ नियम है कि आपने जितने पैसे सभा में बोले हैं या तो वहाँ लेकर के जायें सो वहीं देकर के आयें या कि पहला काम घर लौटकर के जितने बोले हैं उतने रुपये. सोने से पहले निकाल दो घर में से। दूसरे दिन रखा नहीं होना चाहिये। उन्होंने जबलपुर में कलश की बोली ले ली डेढ़ लाख रुपये की और उतने तो लेकर कोई नहीं जाता पॉकेट में। वापिस आकर सबसे पहले गड्डी निकाली, उतने पैसे की एक तरफ रखी फिर उसके बाद दूसरा काम, और जाकर के कहा कि ये ले लो, सम्भालो। 

    उसने कहा हम नहीं जानते आपको जो करना हो वो करो, जैसे सम्भालना हो आप सम्भालो, हम नहीं रखेंगे अपने घर में, ये इत्ते रुपये आप रखो। क्या पता कल के दिन मेरा मन बदल जाये इन रुपयों को लेकर, मैं अपने पाँचों इन्द्रिय और मन के भोगों में उपयोग करने लगूंगा और बाद में मेरे पास देने को नहीं बचे और मैं फिर मुश्किल में पड़ जाऊँ इसलिये जो सामग्री हम अपने मन, वचन, काय से सोचकर के एक बार चढ़ा देते हैं, उसके प्रति अपने मन में कलुषता नहीं आनी चाहिये, कुटिलता नहीं आनी चाहिये। नहीं देने का भाव अगर थोड़ा भी मन में आ गया, देरी से देने का भाव आ गया, तो अशुभ नाम कर्म बँधेगा। ईंटों का भट्टा इत्यादि लगवाना और ऐसे कर्म करना जिनसे बहुत हिंसा होती है, अशुभ नाम कर्म का बंध होगा। 

    इतना ही नहीं, सबके ठहरने के स्थानों को नष्ट करवा देना, अच्छे लगे हुए उद्यान इत्यादि बाग-बगीचे और उनको नष्ट करवा देना, ये सब जो हैं हमारे अशुभनाम कर्म के बंध के कारण हैं। लेकिन वो तो मास्टर प्लानिंग हो रही है। बुलडोजर आयेगा सबके मकान जो हैं उनको तोड़-ताड़ करके एक तरफ रख देगा। अपन समर्थन करो तो अपना ही अहित। बहुत सम्भलकर जीने का है मामला। संसार कहाँ जा रहा है किस तरफ, जाने दें अपन, अपना लौटा छानें। अरे, ऐसे कैसे काम चलेगा ? तो क्या आप संसार बढ़ाना चाह रहे हैं क्या ? नहीं, हम तो संसार घटाना चाह रहे हैं तो अपना काम जरा होशियारी से, जिम्मेदारी से करना पड़ेगा। जिसके द्वारा सबके कल्याण के लिये शरीर की क्रियाएँ होती हैं, जिसका मन सबके कल्याण के लिये भरा हुआ है, जिसकी वाणी सबके कल्याण के लिये और निरन्तर अच्छे वचन बोलती है वही अपने मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग कर रहे हैं। और आगे भी उन्हें ऐसी ही शुभ मन, वचन और काय की सामर्थ्य मिलेगी। और अगर अपन इससे विपरीत करेंगे तो समझ लो भैया। मेरा शरीर कमजोर क्यों हुआ ? माँ ने मेरा शरीर कमजोर नहीं बनाया ? मैंने अपने कर्मों से शरीर कमजोर बनाया है। मुझे अच्छी बुद्धि क्यों नहीं मिली ? तो मेरी माँ ने मुझे ऐसी छोटी बुद्धि वाला बनाया हो, ऐसा नहीं है। मेरी बुद्धि अगर कम है तो मैंने कभी किसी दूसरे की बुद्धि की प्रशंसा नहीं करी होगी। कभी किसी दूसरे के ज्ञान की प्रशंसा नहीं करी होगी बल्कि उसकी बुद्धि को नष्ट करने का उपाय करा होगा। उसके मन को चोट पहुँचाने का विचार किया होगा जिससे कि मेरे मन को आज क्षुद्रता ही मिली हुई है ऐसा विचार करना चाहिये। 

    एक छोटा सा उदाहरण है। कोई एक रामानुजम का बालक था। मन, वाणी और शरीर सबको मिलते हैं, कौन कैसा उपयोग करेगा यह उस पर निर्भर करता है। यह उसकी च्वाइस पर निर्भर करता है। 
     
    बचपन में एक यज्ञोपवीत संस्कार होता है। दक्षिण भारत में तो ये बहुत होता है। आचार्य महाराज का भी 11-12 साल में ही हुआ था। जी बन्धन कहते हैं उसको। तो उसमें, उस संस्कार में मंत्र भी दिया जाता है, जीवन भर गुरुमंत्र इसका जाप करना। यदि विपत्ति आये तो उससे बचने के लिये है। चाहे शुभ दिन हो, चाहे अशुभ दिन हो सब में जाप करना तो वो मंत्र दिया उनके गुरुजी ने और समझा दिया कि सुनो इस मंत्र के जपने और सुनने मात्र से कल्याण हो जाता है। बड़ा अलौकिक मंत्र है, पर सुनो इसको सावधानी से पढ़ना और अपने पास ही चुपचाप रखना, किसी को बताना मत, ऐसा बोल दिया। 

    अब छोटा सा बालक, उसने रात भर विचार किया कि एक तरफ तो ये कहते हैं कि ये मंत्र अलौकिक है, जो भी सुन ले तो उसका कल्याण हो जाएगा और एक तरफ कह रहे हैं किसी को बताना नहीं, ये दोनों ही बातें समझ में नहीं आयीं। सो सवेरे से जाकर के छत के ऊपर और जोर-जोर से मंत्र का पाठ करने लगा। अब गुरुजी को मालूम पड़ा तो वो बड़े दुःखी हुए, बोले हमने तुमसे कहा था कि ये किसी को मत बताना, ये तो चुपचाप करने का है। पर गुरुजी आपने यह भी तो कहा था कि ये मंत्र बहुत अलौकिक है और जो भी इसे सुनेगा उसका कल्याण हो जाएगा। तो मैंने सोचा कि सभी सुन लें जिससे सबका कल्याण हो जाये। गुरुजी ने पीठ थपथपाई की, अब तो जरूर तुम्हारे पास ये मंत्र तुम्हारा ही नहीं, सबका कल्याण करेगा। जो उसको सुनेगा। भैया मंत्र और कोई बड़ी चीज नहीं है। मंत्र तो सबके पास है। उसमें सामर्थ्य कौन डालता है? 
    हमारी अपनी सद्भावनाएँ, उसमें सामर्थ्य डालती हैं। मन, वाणी और शरीर से जो भी करें, वो सद्भावना से करें तो फिर देखियेगा कि हमारे जीवन में जो मिलेगा वो सब शुभ ही मिलेगा और दुर्भावना से अगर मन, वाणी और शरीर का हम उपयोग करेंगे तब फिर मानियेगा कि हमें भी आगे शरीर वैसा ही मिलेगा। इसी भावना के साथ कि हम अपने प्राप्त हुए मन, वाणी और शरीर इनका आगे सदुपयोग कर लें और अगर हमें कमजोर मिले हैं तो हम विचार करें कि हमने कुछ अच्छा नहीं किया होगा। नहीं किया हो कोई बात नहीं, अब तो शुरू कर सकते हैं। ऐसा विचार करके अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये पुरुषार्थ करें। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागरजी मुनि महाराज की जय। 
    ००० 
  15. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री प्रयोगसागर जी  मुनिश्री प्रबोधसागर जी   
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/333-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
  16. Vidyasagar.Guru
    सिद्धोदय है तीर्थ क्षेत्र
    नेमावर वसुधा प्यारी
    आहारों को निकल रहे
    तीर्थंकर चर्या धारी
      मंगलवार,10"सितम्बर 2019
    🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊
    🌈 आचार्य श्री के आज के आहार दान का सौभाग्य श्रीमान प्रभात जी , पंकज जी जैन मुम्बई  एवं दयोदय महासंघ के पदाधिकारी गण को मिला पुण्योदय विद्यासंघ परिवार उनके पुण्य की अनुमोदना करता है, बधाई🌈
  17. Vidyasagar.Guru
    अकिंचन
     देने के लिए
     मेरे पास 
     क्या है
     सिवाय इस अहसास के
     कि कोई
     खाली हाथ
     लौट न जा
     
    The One With Nothing
    What do I have
    To give?
    Except this
    That no one may
    Go without
    Something.
  18. Vidyasagar.Guru
    आदत
     चिड़िया का 
     आकाश में 
     ऊँचे उड़ना
     प्रकृति का 
     सहज-सरल
     और उन्मुक्त होना,
     अब हमें प्रेरणा नहीं देता!
     वृक्षों का 
     हवाओं में लहराना
     और फल-फूलों से भरकर
     कृतज्ञता से झुक जाना
     अब हमें आंदोलित नहीं करता !
     किसी का 
     सच्चा होना
     भला और अच्छा होना
     अब हमें चुनौती नहीं देता !
     असल में 
     हमारी आदत नहीं रही
     आदतें बदलने की !
     
    Habit
     The bird
     Flying high in the sky,
     And nature
     Vast in its spontaneity,
     No longer
     Inspire us.
     The tree swaying with the wind,
     Bending low with its
     Flower and fruit blessings,
     No longer thrills us.
     We are not impressed also,
     By anyone’s
     Uprightness
     Or honesty.
     I think, we no longer
     Wish to change
     Our set habits.
  19. Vidyasagar.Guru
    ╭─━══•❂❀🌸🌸❀❂•══━─╮
          ● *सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर* ●
       *आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज*
                     *की आहारचर्या* 
        
             *दिनांक: 01 अक्टूबर 2019*          
                   *◆ सौभाग्यशाली ◆*
            ब्र. आराधना दीदी परिवार, गुना
    ╰─━══•❂❀🌸🌸❀❂•══━─╯
     
  20. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका आदर्शमति जी आर्यिका अक्षयमति जी  आर्यिका अमंदमति जी आर्यिका संवरमति जी  आर्यिका मेरुमति जी  आर्यिका निर्मदमति जी  आर्यिका अवायमति जी   
     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/355-group/
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    संघ मे कोई परिवर्तन हुआ तो भी अवगत कराएँ 
  21. Vidyasagar.Guru
    रास्ते 
     चिड़िया!
     पूरा आकाश
     तुम्हारा है
     हर बार
     तुम अपने लिए
     अपना रास्ता बनाती हो
     सुदूर क्षितिज तक
     आती-जाती
     और चहचहाती हो
     दुनिया ने
      जितने रास्ते बनाये 
     उनमें लोग 
     कभी भरमाये
     पर तुम्हारा 
     रास्ता साफ़ है
     जिससे गुजरने पर
     सारा आकाश
     जैसा है
     वैसा ही 
     रहता है!
     
    Paths
     Bird, the entire sky
     Is yours. Each time
     You fly you make
     Your own path. Then you travel
     From one end of the horizon
     To the other singing all the while.
     But the world gets lost,
     Or is ruined,
     Or loses itself
     Travelling the paths
     It made for itself.
     Your path, Bird, however,
     Is always defined.
     In using it
     You leave the sky pristine.
  22. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    और इधर अगणित काल से सोये हुए मनुष्य के समान भोगों की निद्रा टूटने लगी। जागृति की अवभासना होने लगी। कल्पवृक्षों से प्राप्त सम्पदा का शनैः, शनैः लुप्त होना यही बता रहा था कि मनुज! अब आँखें खोलो, बहुत सो लिए पुरुषार्थ करने को कटिबद्ध हो जाओ। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक के बाद एक, ऐसे चौदह कुलकर जन्मे । जब इसी भरतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि के समान व्यवस्था चल रही थी और पल्य का आठवाँ भाग मात्र शेष रहा तब प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यन्त चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने समय-समय पर भोगों की व्यवस्था के लुप्त हो जाने से डरे हुए मनुष्यों को प्रतिबोधित किया। अन्तिम कुलकर नाभिराजा की आयु एक करोड़ पूर्व की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष थी। पहले, युगलों का जन्म होते ही माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। धीरे-धीरे लोग अपनी सन्तान का मुख देखने लगे और जब बालक की नाभि में नाल दिखायी देने लगा तो उसे ठीक तरह से काटना आप नाभिराज ने ही सिखाया, इसलिए आपका नाभि यह सार्थक नाम हुआ।
     
    भोगभूमि का अवसान हो गया, कल्पवृक्ष समूल नष्ट हो गए। काल की गणना में अभी तृतीय काल चल रहा है पर क्षेत्र विपरीत हो चला है। जो कभी नहीं देखा ऐसा विस्मयकारी वातावरण सामने आ रहा है। मन में इच्छा होते ही सब कुछ सुलभ प्राप्त था, भूख-प्यास की पीड़ा नहीं थी पर अब हे नाभिश्रेष्ठ! यह सब क्या हो रहा है? यहाँ उदर में कुछ जलता-सा लगता है, जब कुछ खाने का समय आता है तो समझ नहीं पड़ता क्या खाऊँ? और प्रभो! ये ऊपर काले-काले क्या घिर आते हैं? जिनके आते ही अंधेरा छा जाता है, फिर थोड़ी देर बाद बहुत तेज आवाज होती है, कुछ चमकता है, फिर कुछ गिरता है और एकाएक हम लोग जलमय हो जाते हैं, थोड़ी ही देर में ठण्डीठण्डी क्या आती है? जो दिखती नहीं पर महसूस होती है, इतना ही नहीं भगवन् ! अब वे विशालकाय वृक्ष दिखते नहीं जो हमारा भरणपोषण करते थे, अब तो जगह-जगह ये ही दिखाई देते हैं और ये देखो यहाँ पर कुछ थोड़ाथोड़ा, छोटा-छोटा कुछ ऊपर को निकलता आ रहा है, धीरे-धीरे यह ही बड़ा हो जाता है। हे कृपालो! हम सबकी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि यह क्या है? हे नाभिराज! आप ही सबके पिता हैं, हम लोगों को बताओ ताकि अनाकुलता से जी सकें।
     
    अपने दिव्यज्ञान से इन लोगों का भोलापन देखकर नाभिराज ने सब कुछ यथार्थ समझा और कहा देखो! पहले यहाँ बड़े-बड़े वृक्ष थे, वे वृक्ष अब आप लोगों को नहीं मिलेंगे। अब तो जो यह दिख रहा है, उन्हीं फल को खाकर भूख को दूर करना होगा और ये ऊपर जो काले-काले दिखते हैं, वे बादल कहलाते हैं जब वे बादल आपस में रगड़ते हैं तो उनसे जो चमकती दिखती है, वह बिजली है। ये ठण्डी-ठण्डी जो बहती है, वह हवा है। जो ऊपर से मोती से छोटे-छोटे बिन्दु गिरते हैं, वह जल है और यह वर्षा कहलाती है। ये जो धरती में से हरे-हरे अंकुर निकल रहे हैं, ये ही बड़े होकर पेड़ पौधे बनेंगे फिर इनमें फल लगेंगे उनको खाकर आपको तृप्ति होगी, इसलिए डरो मत । ये चावल हैं, ये गेहूँ हैं, ये सरसों हैं और इधर मूंग, अरहर, चना। ये ईख हैं, इनका रस निकालकर पीना। ये केले हैं, इनको ऐसे छीलना फिर खाना। ये द्राक्ष हैं, ये नारियल हैं, इनके अन्दर पानी है, इसकी ये गरी है .......आदिआदि।
     
    सच! प्रजा की सन्तुष्टि ही राजा का सुख है। भयभीत को अभय बनाना ही सबसे बड़ा दान है। समय पर समझ देने वाला ही गुरु है। हे आर्यश्रेष्ठ! आपने प्रजा को जीने के उपाय बताये इसलिए आप मनु हैं। आपने इन आर्य जनों को कुल की तरह एक साथ रहने को कहा इसलिए आप कुलकर हैं । आपने अनेक वंश स्थापित किए इसलिए आप ही कुलधर हैं। इस युग के प्रथम उपदेष्टा आप ही युग ज्येष्ठ हैं। नहीं, मरुदेवी नहीं। यह विश्व स्वयं अपनी शक्तियों से संचालित है। बोध-प्रतिबोध तो हमें इन्हीं से प्राप्त होता है। इन्हीं प्रजाजनों के पुण्य से मुझमें यह ज्ञान उद्भूत हुआ सो इन्हीं को दे दिया?
     
    मानो नाभिराज की निश्चिन्तता से ही इन्द्र को चिन्ता हुई, क्योंकि जब पुरुषार्थी निश्चिन्त बैठता है तो देवों के भी आसन कँपने लगते हैं, कि कहीं ये मेरी सम्पदा को न ले जायें। अब इस आर्यक्षेत्र में हे कुबेर! कुछ अघटित घटित होगा, इसलिए मेरी इच्छानुसार एक विस्मयकारी अपनी प्रवीण कला से एक नगरी का निर्माण करो। जहाँ स्वर्ग के विमानों से गृह हों, उन पर विमान के शिखर की चोटी की ध्वजाओं की तरह चंचल साकेतायें लहरायें और उसका शाश्वत नाम साकेत हो । जो किसी भी परचक्र से युद्ध में विजित न हो इसलिए चाहो तो उसका नाम अयोध्या रख दो। रमणीय सुकोशल देश में निर्मापित होने से उसको सुकोशला कहकर घोषित करो। जहाँ सभ्य जनों का, शिक्षित चेष्टितों का ही प्रवास होगा इसलिए नय विनयवन्त जनों से भरी उस नगरी को विनीता भी पुकारो। यह कार्य अविलम्ब हो; क्योंकि महाकर्म जेता विश्वस्रष्टा धर्माधिपति युगप्रमुख, आदितीर्थ प्रवर्तक का जन्म होना है। उस महा-भाग को जन्म लेना है जो समय का विज्ञाता है, जिसकी प्रत्येक क्रिया आने वाले युग की धरोहर होगी। जिसके मन का एक-एक अणु विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत होगा। जो स्वयं चलेगा फिर भी ऐसा लगेगा कि प्रत्येक काल कणिका उन्हीं का अनुसरण कर रही हो। इन्द्र ने कहा और कुबेर ने अपने कला कौशल से कुछ ही क्षण में निर्मित कर दी, वह अयोध्या नगरी।
     
    इन्द्र ने जब निर्मित नगरी का सिंहावलोकन किया तो वह आश्चर्य चकित हो उठा। अरे! देव कुबेर! यह आपने क्या बनाया? कहीं स्वर्ग का ही कोई रूप उठाकर तो नहीं ले आये। नहीं-नहीं, स्वर्ग से भी सुन्दर मनोहारी इस नगरी में भवनों, राजप्रासादों, लतावनों, मण्डपों, छज्जों और छतों की बेसुमार कला कौशलता यह आपने कहाँ से सीखी। नहीं प्रभो! यहाँ मेरा कुछ नहीं, सच कहूँ देवेन्द्र ! यहाँ आपका भी कुछ नहीं । यह सब वैभव और चकाचौंध तो उसी अजन्मा की है जिसके निमित्त यह निर्मित हुई। यहाँ कुछ मैंने किया, उसके लिए किया, ऐसा वैसा इन बातों का कोई स्थान नहीं । पुण्य रूपी बालक की ये विचित्र लीलायें हैं, जो अपने पिता की गोद में ही खेलता है और उसी पालक की गोद में स्वतः तिरोहित हो जाता है। पश्चात् सभी देवों ने आकर शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में अतिशय समृद्धवान् अयोध्यानगरी में निवास प्रारम्भ कराया। नाभिराज और मरुदेवी यह सब देख अत्यन्त विस्मित थे। स्वयं इन्द्र अपने सहायक अन्य देवों के साथ पुण्य तीर्थ के उत्स पदों को पूजकर अपने निवास स्थान पर चला गया।
     
    प्रभु के जन्म लेने के छह मास पूर्व से इन्द्र की आज्ञानुसार नाभिराज के नवनिर्मित विशालकाय भवन में गणनातीत रत्नवृष्टि होने लगी। महारानी मरुदेवी विस्मय से सोच उठी कि ये महार्घ्य रत्न इस महल में कैसे बिछे पड़े हैं ! मानो आकाश के सभी ग्रह और नक्षत्र ताराओं सहित इस प्रांगण में आ पड़े हों। कहीं यह नील कुलाचल ही चूर्ण-चूर्ण तो नहीं हो गया। परस्पर में घुली मिली इन रंग बिरंगे रत्नों की आभा से सारा महल आपस में किसी से बोलता-सा लगता है। महल की छतें ऐसी पट गयी हैं कि, लगता है मैं किसी नील सरोवर में तैर रही हूँ। इन भित्तियों पे मरकत मणियों की आभा, यहाँ पन्नारत्न, ये मूँगा माणिक्य के ढेर, प्रत्येक गृह में रत्नों के तरह-तरह से उपयोग हो रहे हैं। कोई उन रत्नों से अपनी पगतलियाँ घिसता है, तो कोई गले में संजोकर आभूषण बना लेता है। कोई उनमें अपने चेहरे देखता है, तो कोई उनसे खेलता रहता है। पड़ोसी जन इन दिव्य रत्नों को बटोरते नहीं थकते। सारी अयोध्या का वैभव स्वर्ग की नगरियों से भी अग्रणी है।
     
    और एक दिन - हे नाभि श्रेष्ठ! छह महीने होने को हैं अनवरत यह क्या चल रहा है। ये वैभव, विलास, सौन्दर्य की उत्कटता का प्रयोजन क्या? इन झिलमिलाती नीलाभ, रक्ताभ, हरिताभ, पीताभ, श्वेताभ मणियों की राशि में डूब-डूब कर मैं अपनी देह के रंग को भी भूल गयी हूँ। आपके दिव्यज्ञान में सब परिलक्षित हैं, पर आपने मुझे इससे क्यों बेखबर रखा है? मैं अब कुछ रहस्य समझना चाहती हूँ प्राणनाथ! रहस्य! रहस्य तो प्रकृति में हमेशा से रहा है। समय पर उसका उद्घाटन होगा और वह समय आने वाला है, आर्ये! बस उतनी ही दूर है वह, जितनी देर अभी मयंक को ऊपर आने में है। सब कुछ यहाँ व्यवस्थित है। प्रत्येक कण इस ब्रह्माण्ड का अपनी ही गति से गतिमान है। उद्घाटित होने से पहले वह रहस्य लगता है, बाद में तो वह अपना ही परिचित सा लगता है। इस तरल मृदिम शय्या की स्फुटता कुछ कह रही है उसे समझो। तन्वंगि! विशाल खांङ्गण में द्योतित. चन्द्रमणि को निगल जाने को जी कर रहा  है। शशि की इस शीतलता में सुख का झरना झर रहा है और ये छोटे-छोटे चमकीले तारे मानो कुमुदिनी की मुंदी पँखुरियों में छिपे पराग से खेलना चाहते हैं। इस नीलम रज:आर्णव में डूबे और छिपे शुक्तिपुट में मुक्ताधारण की सम्भावनायें किसी तेजो राशि की प्रतीक्षा में हैं। अन्धकार गहराता ही चला जा रहा है। समूचा विश्व निःशब्द हो गया है और तभी ब्रह्मविप्रुष् कर्मभूमि के विश्वभर्ता की शक्तिमान् आत्मा को अवकाश देने के लिए कूर्मोन्नत प्रदेश समूह की पृष्ठ ग्रन्थि को भेदकर एकमेक हो, वहीं ठहर गया।
     
    गगनमणि कहीं दूर तक यात्रा कर चुका। विभावरी का पिछला प्रहर उपस्थित होने वाला है। गहरी तन्द्रा में लीन मृदु मरुदेवी को लगा कि, मेघों को चीरता हुआ एक महाकाय गन्धहस्ति जो अपने दोनों कपोलों और सूंड से मद जल की वर्षा करता हुआ दौड़ा-दौड़ा आया और मध्य में ही कहीं विलुप्त हो गया और मानो उसने ही शुभ्र शुक्ल वर्ण के बैल का रूप धारण कर लिया; पर यह क्या? मेरे पास आते-आते वह कहाँ अन्तर्धान हो गया और उसके स्थान पर शशाङ्ग-सा शुक्ल स्वप्निल काया में रक्त दाढ़ी को तीक्ष्णता से घुमाता हुआ, क्रुद्धपीत नयनों से युक्त भीषण रव करता हुआ कोई वन सिंह आया ही था कि वह भी कहीं तिरोहित हो गया। तत्क्षण मैंने अपने ही रूप वाली कोई रूपसी लक्ष्मी को देखा, जो स्वर्ण कमल पर आसीन है और देवनगों ने तभी कनकमय पूर्णकलशों से अभिषेक किया। फिर मधुरों की झंकार युक्त दो पुष्प मालायें दिखीं और लुप्त हो गयीं। अरे! ये धवल चाँदनी और असंख्य तारिकाओं से युक्त पूर्ण मण्डल चन्द्रमा।
     
    फिर मानो मैं किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गयी, जो विचित्र सूर्य की प्रभा और प्रकाश से परिपूर्ण है। तत्क्षण ही लगा कि उस सूर्य ने अपनी प्रभा को समेट लिया और दो तपनीय कलशों का रूप ले लिया। फिर स्वच्छ और निर्मल सरस में मछलियों का चंचल युगल । ये मछलियाँ ओझल हो गयीं और सामने है, मात्र वह सरः जो अपने जलज की पराग छटाओं से आच्छादित है। फिर भयंकर गर्जना से नक्रचक्रों को उछालता हुआ सीमाक्रान्त महासमुद्र, लगा कि अचानक यह तालाब इतना शान्त हो क्षुब्ध क्यों हो गया ? और इतना मनोहारी मणिखचित स्वर्णमय सिंह युग्म सहित सिंहासन । तभी झलका एक स्वर्ग का विमान मानो वह मेरे उदर के पार्श्व भाग पे गिरा हो। साथ ही पृथ्वी भेदकर आ गया एक नागेन्द्र भवन, जो स्वर्ग के विमान से ईर्ष्या के कारण सहसा निकल पड़ा, मेरी देह की किरणों से यह आकाश रत्नराशि से आप्लावित हो गया और विलीन हो गया। शेष है मात्र चमकती निधूम अग्नि । वह सब देखने के बाद ऊँचे-ऊँचे कन्धों वाला स्वर्णिम आभा लिए एक सुन्दर बैल मेरे पास आया और इतना निकट कि वह मुझमें समाता ही जा रहा है, मानो मेरे अंग-अंग में व्याप्त हो गया उसका अस्तित्व।
     
    यह वह रात थी जब इस जघन्य भोगभूमि नामक तीसरे काल के मात्र चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन अवशिष्ट थे, अर्थात् आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीया का शुभ दिन जब चन्द्रमा उत्तराषाढ़ नक्षत्र से शोभित था।
     
    रात्रि का अवसान हुआ और ऊषा की अब शान हुई। कुमुदिनी का निरादर हुआ और कमलिनी का आदर हुआ। शीतांशु अस्तंगत हुआ खरांशु मुदित हुआ। चक्रवाकी का मिलन हुआ और कंचुकी का विरह। भोगी उठ गया कि योगी सो गया। प्रकृति की विचित्रता के ये मूक उपदेश कहीं कोई श्रमण पढ़ रहा था कि कहीं पर मृत्यु का दरवाजा खुला और पक्षी निकलकर बाहर आया ही था कि वह फिर कैद हो गया; शुक्तिपुट में मुक्ता की तरह।
     
    भोर हुई, बन्दीजनों के मंगलगीतों की शोर शुरू हुई, तन्द्रा चोर हुई और मरुदेवी विभोर हुई। मंगल स्नान और वस्त्राभूषण धारण कर वह कमलनयनी अपने प्राणेश्वर के निकट पहुँची और रात्रि में देखे सोलह स्वप्नों को निवेदित कर कहा हे महावल्लभ! मैंने आपसे पहले भी रत्नवृष्टि का रहस्य जानना चाहा था और आपने कुछ बताया या मुझे भुला दिया, मैं समझ न पायी, अब मैं इन विचित्र स्वप्नों से भी अज्ञात हूँ। आज मैं यह रहस्य स्पष्टतया जानना चाहती हूँ।
     
    हे कल्याणि! आज समय आ गया, उस रहस्योद्घाटन का। सुनो, आपके गर्भ में पिछली निशा में एक महाभाग प्रविष्ट हुआ जो हाथी के समान उत्तम बैल जैसा ज्येष्ठ तथा सिंह सा पराक्रमी होगा। जो मन्दराचल पर लक्ष्मी युत देवों से अभिषिक्त होगा। जो माला गुम्फन की तरह धर्म परम्परा का वाहक होगा। वह चन्द्रमण्डल की तरह जगत् को आनन्दित करने वाला होगा। सूर्य सी जाज्वल्यमान प्रभा का धारक वह दो कलशों सी मंगल निधियों का स्वामी होगा। मत्स्य युगल-सा सुखी, सरोवर की तरह अनेक पुष्पित लक्षणों से भरा हुआ, समुद्र-सा अनोखा केवली होगा। सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने वाला वह विश्व कल्याण की भावनाओं से स्वर्ग विमान से अवतीर्ण होगा। वह अधो गतिमान् अवधिज्ञान से युक्त होगा इसलिए नागेन्द्र भवन दिखा। रत्नराशिवत् गुणों की खानि वह कर्मरूपी ईंधन को जला निर्धूम अग्नि शिखा-सा प्रदीप्त होगा। गर्भ में आने से पूर्व उसके पुण्य प्रताप से यह रत्नवर्षा हो रही थी और चूंकि आज वह गर्भ में आ गया है इसलिए अन्त में सोलह स्वप्न देखने के बाद वह पीताभ, वृषभ आपके कमलमुख से प्रविष्ट करता दिखा। यह रहस्य अपने दिव्यज्ञान अर्थात् अवधिज्ञान से जानकर मैंने कहा।
     
    वह मुक्ता कैद तो हो गया पर उसकी कसमसाहट से ब्रह्माण्ड कसमसा गया। स्वर्गालय में प्रकट होने वाले विशेष चिह्नों से इन्द्र ने जान लिया कि सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर वह देव मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। इन्द्र स्वयं अनेक-अनेक देवों-देवियों से सहित वहाँ आये और नगर प्रदक्षिणा कर भगवान् के माता-पिता की वन्दना की। सारा महल देवों से खचाखच भरा है, चारों तरफ संगीत और मंगलवाद्य बज रहे हैं। देवांगनाओं के नृत्य से मरुदेवी को अतिशय रिझाया जा रहा है। तभी इन्द्र ने दिक्कुमारियों को याद किया। बिजली की पंक्ति के समान वे श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी ये षट्कुमारियाँ अवतरित हुईं, जो इन्द्र में पहले से ही अनुराग रखतीं थीं। फिर स्वयं स्वामी ने याद किया, इससे अधिक प्रसन्नता और क्या हो? यह सोच इन्द्र के सम्मुख चन्द्रमुखी-सी खड़ी हो गयीं। इन्द्र की आज्ञानुसार वे, माँ मरुदेवी की सेवा में नियुक्त की गयीं और सब ही देव माता-पिता का अतिशय वचनों से आदर कर अपने-अपने लोक में चले गए।
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