8. सर्वोत्कृष्ट भोग का पुजारी
वैभाविक आत्म पर्याय विलीन हो रही है, स्वभाव से ओतप्रोत आत्म पर्यायें प्रादुर्भूत हो रही हैं। इस संसार की एक और पर्याय छूट गयी, कहीं दूरबहुत दूर इसी संसार समुद्र में और अब शेष है चतुर्गति रूपी महासंसार समुद्र की मात्र चार भौतिक परिणतियाँ । इस चतुर्थ संसार की परिणति प्रारम्भ हुई, वहाँ जो चित्रा पृथ्वी से छह राजू ऊँचा है। मेरु की चूलिका से उत्तरकुरुवर्ती मनुष्य के एक बाल मात्र अन्तर से प्रथम इन्द्रक विमान स्थित है। यहीं से वैमानिक देवों का प्रारम्भ होता है। एक-एक इन्द्रक से असंख्यात योजन अन्तराल को लेकर ऊपर-ऊपर के इन्द्रक विमान अवस्थित हैं। मध्य में होने से इसे इन्द्रक विमान कहते हैं और यत्र-तत्र जो बिखरे पड़े हैं, वे प्रकीर्णक विमान कहलाते हैं । कुल त्रेसठ इन्द्रक विमानों में से सुविधि का जीव बावनवें अच्युत इन्द्रक में उत्पन्न हुआ। अच्युतकल्प के ये विमान न जल के ऊपर स्थित हैं और न पवन के आश्रित किन्तु शुद्ध आकाश तल पर प्रतिष्ठित हैं। जैसे ही सुविधि का जीव उपपाद शय्या पर जन्म लिया तो वहाँ के अनुद्घाटित कपाट खुल गए। मात्र एक अन्तर्मुहूर्त में परिपूर्ण युवा देव होकर अद्भुत वातावरण को देखकर एक क्षण के लिए कुछ विस्मित हुआ, तभी संप्राप्त अवधिज्ञान से पूर्व जन्म का स्मरण किया और ज्ञात हुआ अहो! धन्य है यह जिनेन्द्र प्रणीत धर्म; जिसके अनुपालन से आज यह वैभव मिला है। सर्वप्रथम अब मुझे जिनेन्द्रदेव के अलौकिक अकृत्रिम बिम्बों का दर्शन करना है, पूजा करनी है, इन्हीं भावों से वह देवद्रह में स्नानकर दिव्य अभिषेक मण्डप पर अन्य देव-देवियों के द्वारा अभिषिक्त हुए। भूषण-शाला में प्रविष्ट हो दिव्य उत्तम रत्नों को लेकर हर्ष से वेशभूषा ग्रहण की। तत्पश्चात् अपने परिवार देव और देवियों के साथ पूजा के योग्य दिव्य द्रव्य को ग्रहण कर अतिशय भक्ति से युक्त हो छत्र, चँवर, ध्वजाओं से शोभायमान जिनभवन में प्रविष्ट हुए और विस्मयकारी जिनबिम्बों को देखकर जय-जय के उत्तम शब्दों से सारा दिग्मण्डल आपूरित कर दिया। पश्चात् हर्षाश्रु युक्त अनिमेष नेत्रों से जिनबिम्बों की स्तुति करते हुए, अभिषेक, पूजन आदि करता हुए अत्यन्त संतोष को प्राप्त हुए। सुविधि बनाम अच्युतेन्द्र सदा कर्मक्षय के लिए, मुक्ति की प्राप्ति के लिए विचित्र शैलियों से नाना रसों और भावों से युक्त होकर जिनेन्द्रदेव की परिवार सहित पूजा करते हुए भी मूल शरीर तो जन्म स्थान पर रहता और उत्तर शरीर नाना विक्रियाओं से युक्त हो देवाङ्गनाओं के मन को हरण करता था। वैसे तो अच्युतेन्द्र मात्र मनः जन्य प्रवीचार से युक्त होते हैं, पर वह इन्द्र उन देवियों के कोमल हाथों के स्पर्श से, मुख कमल को देखने से, स्पर्श और रूप प्रवीचार भी करता था। अनेक लीलाओं से युक्त मधुर शब्द गाती हुई राग-रागनियों से शब्द प्रवीचार भी करते हुए देव-देवियाँ एक दूसरे के मन को रञ्जित और सन्तुष्ट करती हुई कालयापन करती थी। इस प्रकार बाईस सागर प्रमाण आयु को आनन्द क्रीड़ा से सुखपूर्वक व्यतीत कर दिया। महापुरुषों की संगति ही महान् फलदायी होती है, यदि उनके आचरण का अनुसरण भी किया जाय तो फिर कहना ही क्या? वह श्रीमति का जीव जो स्त्री पर्याय में था, इस महापुरुष के साथ ही सम्यग्दर्शन ग्रहण करके स्त्रीलिङ्ग का छेदकर तत्पश्चात् इसी आत्मा का पुत्र बना और सुविधि के समाधिमरण पश्चात् उस केशव पुत्र ने भी पिता के पद-चिह्नों पे चलकर समस्त बाह्य और अन्तरङ्ग आडम्बर त्याग कर निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की । फलश्रुति अच्युत स्वर्ग में अपने पिता इन्द्र के साथ प्रतीन्द्र पद पर शोभायमान हुआ। उस अच्युत स्वर्ग में सभी देव अपने-अपने पुण्य से प्राप्त विभूति से सन्तुष्ट रहते हैं। सौधर्म इन्द्र की महाविभूति को देखकर भी मन में ईर्ष्या नहीं, म्लानता नहीं, वस्तुतः यहाँ शुक्ललेश्या से प्राप्त सन्तोष ही यथार्थ सुख है। इन्द्र ने और प्रतीन्द्र ने परस्पर यह जान लिया कि हम दोनों का यह स्वर्ग में अपूर्व संयोग भी पूर्व जन्म की छाया है। प्रतीन्द्र का इन्द्र से अनुराग और बढ़ जाता है, जब वह सोचता है कि मेरा राग एक महान् आत्मा से है, जिनके पद चिह्नों पर चलते-चलते मैं भी मुक्ति वधु का मुख देखूँगा। जब उसे पूर्व जन्म की तपस्या का स्मरण हो आता है तो सोचता है कि देखो! निरतिचार चारित्र का यह सुफल अत्याज्य है। जो लोग जिनलिङ्ग को धारण करके भी उसकी महत्ता से अनभिज्ञ हो यद्वा-तद्वा प्रवर्तन करते हैं, उन्हें देवगति में भी \कष्ट सहना पड़ता है। बिना सम्यग्दर्शन के लिङ्ग मात्र धारण करके तप तपने वाले भी इस महती पदवी को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
दूसरे ही क्षण स्मरण हो आता है अरे! हम भी कहाँ आकर अटक गए! निश्चित ही मेरे मोक्ष पुरुषार्थ में कुछ कमी थी, अन्यथा मोक्षपुर की जगह ये विलास-पुर कहाँ से आ जाते? अभी भी प्रतिपल जागृति की महती आवश्यकता है। इन वैभवों की चकाचौंध में भी ज्ञान की अजस्र धारा का अनुस्यूत रहना ही परम पुरुषार्थ है। इन देवियों की नियोग प्राप्त कमनीयता में मन का रमण और भ्रमण भी पर्यायगत स्वाभाविकता बन गयी है । सम्यक् विज्ञता होने पर भी यह मोह की धारा भी अविरल बह रही है। जिस रूप में मैं स्त्रीत्व को देखना नहीं चाहता फिर भी उसमें वही वनिता विलास लखता हूँ और उसे भी स्मित मुख से वही सुख देखना पड़ता है, जिस सुख को मैं उससे प्राप्त करता हूँ। हे आत्मन् ! तुम पुरुष हो, दूसरों में भी वही पुरुषत्व और पौरुषता का दर्श करो। आज यह पुरुषार्थ कितना वैभाविक हो गया और कितना सुखद । पुद्गल के बने पिण्ड में तदनुरूप उपयोग का प्रवाह, वाह रे! मोह की शक्ति, अहो! इस पुद्गल पिण्ड में यह मोह उपजावने की शक्ति स्वतः नहीं, मेरे ही कुपुरुषार्थ का विपरीत परिणाम है। भोगो-भोगो इसको पर और मत जोड़ो, निकल जाने दो यह कर्म का विपाक, निकल जाने दो इसका शक्ति रस, अब खाली होना है। पर यह सब तो वैचारिक परिणति है वस्तुतः कर्म रज का लेपन जारी है, मोह का प्रभाव भारी है, बस अब मनुष्य जन्म की बारी है किन्तु काल की बलिहारी है कि निश्चित अवधि तक यह वैक्रियिक शरीर विकार ग्रस्त ही रखेगा, स्वभाव की स्वीकारता का समय कहाँ? परतन्त्रता का यह समीचीन परिणाम ही पराधीनता का सम्यक् बोध दिला कुछ सुख दिला जाता है। इन अनन्त ऊहापोह की सरिता में समय की अनवरत गति जारी है और सागर से मिलन हो, उससे पूर्व पुनः मिला इक नव जीवन जो एक नया पुरुषार्थ और अभिनव प्रवाह से ले जाएगा सागर की ओर............
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