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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -18


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोग यहाँ निरन्तर सुबह से शाम और शायद पूरे जीवन कोई ना कोई कर्म करते रहते हैं। और उन कर्मों का फल भी हमारे जीवन में हमको भोगना पड़ता है। उन कर्मों का फल भोगते समय जैसी हमारी विचारधारा होती है, वैसा नये कर्म का संचय भी हमारे साथ हो जाता है। अगर गौर से हम देखें तो कर्म उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उस कर्म के पीछे जो विचारधारा है या कि हमारी जो भाव दशा है वो महत्वपूर्ण है। सुबह से जो लोग घूमने जाते हैं, रास्ता वही होता है जिस रास्ते से दोपहर में अपने ऑफिस अपनी दुकान या फिर किसी और सांसारिक कार्य से जाते हैं। एक ही रास्ते पर चलने की, आने-जाने की प्रक्रिया वही है लेकिन सुबह जिस आनन्द के साथ हम उस रास्ते से निकलते हैं. दोपहर हम एक नई जिम्मेदारी का बोझ सिर पे लिये उसी रास्ते से निकलते हैं। इतना फर्क है। एक कर्म हम अत्यन्त सहज होकर करते हैं जैसे घूमने जाना, कोई टेंशन नहीं है मन में.बडी प्रसन्नता है। दोपहर काम से जा रहे हैं काम की जिम्मेदारी, काम का बोझ सिर पर है। तो हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि हम जो भी कर्म करें उसमें हमारी भाव दशा जरूर हम ध्यान में रखें।

 

कर्म तो सभी कर रहे हैं सुबह से शाम तक एक गृहस्थ को भी करना पड़ता है, एक साधु को भी करना है। दोनों के कर्म कुछ हद तक एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। आना-जाना, खाना-पीना, बोलना, उठना-बैठना, सोना यही कर्म हम दिन भर में करते हैं। श्रावक भी करता है और साधु भी करता है। एक में सहजता है और वीतरागता है। तो बंधन अल्प है और कर्मों का संचय भी अल्प है। बल्कि जो संचित कर्म हैं वो धीरे-धीरे डिसोसिएट भी हो रहे हैं, आत्मा से हट भी रहे हैं और दूसरी प्रक्रिया है जिसमें बहत इनवाल्व होकर के, बहत राग-द्वेष से युक्त होकर के, बहत तनावग्रस्त होकर के, बहुत चिन्तित होकर के, मन को मलिन करके हम कर्म कर रहे हैं। आगे के लिये हमारा संचय भी इतना ही अधिक हो रहा है और इतना ही नहीं जो कर्म पहले बाँधे थे वो हटे तो बिल्कुल नहीं। बल्कि वे हमारे साथ और अधिक प्रगाढ़ रूप से, और अधिक डोमिनेट होकर के हमारे साथ वाइन्ड हो गये। कितनी सीधी सी चीज है अगर हम समझना चाहें तो। हम इतना ध्यान अपने कर्मों पे ना दें जो शरीर से किये जाने वाले हैं, उससे ज्यादा हम ध्यान दें जो हम निरन्तर अपने मन में विचार करते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम वाणी बोलते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम शरीर से क्रिया करते हैं। वाणी और शरीर से होने वाली क्रियाएँ हमारे अपने मन से रेग्युलेट होती हैं तो हम क्यों ना अपने मन को ठीक-ठीक सँभालें। मन ही बंधन का कारण है, मन ही मुक्ति का कारण है। आचार्य भगवन्तों ने बहुत संक्षेप में बंध और मोक्ष की प्रक्रिया लिख दी। “रत्तो बन्ध कम्मम-जीवो विराग सम्पन्नोः ऐसो जिनोपदेसी, तम्मो कम्मो।” एक गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के चरणों में बैठे तो वे कहते हैं। हम स्वयं अपने राग-द्वेष से बंधक हैं। कोई हमें यहाँ बंधन में डाल रहा है ऐसा नहीं है। लगता तो यही है कि जैसे किसी ने हमें इस संसार में, इस संसार के बन्धनों में डाल दिया हो। मजबूर कर दिया है। अगर ऐसा कुछ होता तो हम तो जाकर के, उस व्यक्ति के पास में जाकर के दया की भीख माँग लेते कि भैया बहत दिन हो गये। अब तो छोड़ो। लेकिन ऐसा नहीं है, हम छूटना चाहें तो क्षण भर में छूट सकते हैं। लेकिन क्या करें, हमारी आदत जगह-जगह बँधने की हो गई है। कोई हमें बाँधता नहीं है। हम अपने शरीर से बँधे हुए हैं। हम अपने विचारों से बंधे हुए है। अपनी भावनाओं से बँधे हए है हम अपने परिवार, अपने प्रान्त, अपनी भाषा, अपनी जाति, अपने देश, पता नहीं किन-किन चीजों से हम बँधे हुए हैं। हम लोग हमेशा कहते हैं कि कमिट करो, किसी भी चीज के लिये तय करो। हम इसी तरह से अपना बंधन स्वयं अपने हाथ से बाँधते हैं। कमिट करना क्या चीज है? बंधक होना है। एक बँधन है लेकिन ये बँधन बड़ा सुखद मालूम पड़ता है। तय कर लेना सुखद मालूम पड़ता है। महाराज आप तो कह दो क्या करोगे? शाम को क्या करोगे? कल क्या करोगे? आप तो चार महीने तक का हिसाब बता दो आगे तक का, हम लोगों को इस तरह के बंधन में रुचि है। हम प्रतिक्षण उन्मुक्त होकर के सहज भाव से जीना पसन्द नहीं करते। हम आगे तक का हिसाब बनाकर के उसके बाद वर्तमान में जीने की कोशिश करते हैं। और सारा झगड़ा संसार का इतना ही है। जो वीतरागी हैं वे इस तरह के किसी भी बंधन में पड़ना स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिये वे सबके बीच रहकर के भी उससे मुक्त हो जाते हैं। 

 

इसी संसार में रहकर के कोई मुक्त भी हो सकता है। अरहंत भगवान शरीर में रहकर के भी शरीर से मुक्त हैं। जन्म-मरण से मुक्त हो गये और इसी संसार के बीच हैं। हमने उनको एक समवसरण के बीच बिठा रखा है। लेकिन वे समवसरण के बीच गंध कुटी में भी सिंहासन और कमल से भी चार अंगुल ऊपर सबसे अलग दिखाई पड़ते हैं। वे इस बात का मैसेज देते हैं कि हमेशा इन चीजों से, इनके बीच रह कर भी अलिप्त होने की कोई विद्या सीख लो। चीजें सब ज्यों कि त्यों है, लेकिन हमारी अल्पिता उनके साथ बनी रहे तो फिर चीजें हमें बंधन में नहीं डालती हैं। हम स्वयं बंधन स्वीकार कर लेते हैं। आचार्य महाराज से जब भी कोई पूछता है, वो बड़े मजे से जवाब देते हैं। किसी ने कहा कि महाराज हम बड़े परेशान हैं हमारी आदत से। क्यों क्या हुआ ? महाराज ! सिगरेट की आदत हमारी पड़ गई है वो छूटती ही नहीं है। क्या करें महाराज, कुछ उपाय बताओ। तो आचार्यश्री ने क्या जवाब दिया अरे तो ज्यादा कुछ नहीं करना है। आप ऐसा कर लिया करें, दोनों उँगलियों को ऐसे जोड़ा मत करें। दोनों उँगलियों को ऐसे खाली छोड़ दिया करें। मतलब क्या है ? सिर्फ इशारा है इस बात का। हमारी मुट्ठी कैसे खुले, हमारे बंधन से हम मुक्त कैसे हों, ये पूछने पर मुट्ठी ही बाँधते क्यों हैं वो तो खुली हुई है। मुक्ति हमारा स्वभाव है, बंधन हमारा स्वभाव नहीं है। जिस दिन हम बंधन छोड़ देवें अपने हाथ से, तो मुक्त तो हम हैं ही। मुक्ति का कोई अतिरिक्त उपाय करने की आवश्यकता नहीं है। वो जो बंधन का हम अतिरिक्त उपाय करते हैं, उस बंधन के उपाय को हम अगर छोड़ देवें तो कोई हमें यहाँ पर बंधन में डाल नहीं सकता। बंधन का कारण एक ही है राग और द्वेष। इसलिये कर्मों में रचो, पचो मत। कर्म तो करो लेकिन कर्म में रचो-पचो मत। उसके फल में भी आसक्त मत होवो। बताइये कितनी आसानी से हमें ऐसे कर्म करने हैं जिससे कि बँधे हुए कर्मों को काटा जा सके, उसकी सलाह दे रहे हैं। सब तो यह कहेंगे कि कर्म मत करो। कर्म किये बिना कर्म के बंधन से मुक्त कैसे होवोगे। एक कर्म वो है जिसके करने से हम और अधिक बंधन में पड़ जाते हैं। एक कर्म वो है जिसके करने से हम अभी तक के सारे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। कर्म तो दोनों हैं। सामान्य रूप से जो हम सुनते हैं कि कर्म तो हमें ऐसा लगता है जो हमारे साथ बँधे हुए हैं जो हमें बाँध लेते हैं वो कर्म। वर्तमान में जो हम कर्म करते हैं, पूजा करते हैं, पूजा भी एक कर्म है, स्वाध्याय करते हैं, वह भी एक कर्म है, मुनिजनों की सेवा करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, ये भी एक कर्म है। ये सारे आध्यात्मिक कर्म हैं और हम इन आध्यात्मिक कर्मों को करके अपने सांसारिक बंधन से मुक्त हो सकते हैं। 


इतना सीधा सा उपाय है लेकिन क्या करें हमारे अपने जो हमने पहले कर्म किये हैं उनका दबाव हमारे ऊपर इतना है कि वर्तमान के हमारे कर्म जो कि आध्यात्मिक हों या कि सांसारिक दोनों में बहुत मुश्किलें, बहुत बाधाएँ आती हैं। अपन जरा इस चीज को समझते हैं एक छोटे से उदाहरण से कि कैसे हम अपने हाथ से कर्म के बंधन से बँध जाते हैं और कैसे हम चाहें तो इसके मुक्त हो सकते हैं। मैंने यह उदाहरण शायद पहले भी सुनाया हुआ है पर अपन इसको एक बार रिवाइज कर रहे हैं कि एक छोटा सा बच्चा (बेटा) पहुँचा था साधु बाबा के पास में कि महाराज यहाँ इस संसार में जो है बंधन कैसे होता है और कैसे हम मुक्त हो सकते हैं तो उन्होंने कहा, ठहरो तुम हमारे पास रहो हम बता देंगे। जाओ पहले तुम हमारा काम करो। ये जो सामने पेड़ लगा है, उस पेड़ को तुम जितना तकलीफ दे सको उतनी तकलीफ दो। तोड़ो, उसको पत्थर फेंको। उसके फल सब तहस-नहस कर दो। जितना तुमसे बने उसका अहित उतना करो। उसने कहा ये कौनसा काम सौंपा है? गया वो उससे जितना बना उतना बिगाड़ किया उसका। वापिस लौटा। पूछा कैसा लग रहा है। अच्छा नहीं लग रहा। मन बहुत भारी है। सो जाओ। सुबह उठा, ढंग से नींद नहीं आयी। यही लगता रहा कि कौनसा ऐसा काम मैंने कर लिया। जिससे मन बहुत भारी हो गया। ये काम तो अच्छा नहीं है। दूसरे दिन गुरुजी ने पूछा, रात नींद आयी। बिल्कुल नहीं आयी। बहुत दुःख होता रहा। आपने ऐसा काम क्यों मुझे करने को कहा? अरे तो जाओ फिर जाकर के उससे क्षमा माँगो कि मैंने जो तुम्हारा बिगाड़ किया था, वो मेरी गलती हो गयी और जरा उसको पानी देवो, पत्तों को सँभालो। उधर जो कचरा फैल गया है उस सबको हटाओ। लग गया वो काम में। माफी माँगी पेड़ से जाकर। रोया खूब पेड के पास जाकर के. पत्ते सब ठीक-ठाक किये। फल जो टूट गये थे उनको भी दरस्त किया। पानी सींचा। बड़ा मन गदगद् हो गया। शाम को लौटा। गुरुजी ने कहा, कैसे लगा ? बहुत अच्छा लगा है, बहुत आनन्द आ रहा है। तो वो जो कल तुमने कर्म किया था उससे थोड़ी सी राहत मिली। बहुत राहत मिली। कल तो मन बिल्कुल भी शांत नहीं था। बड़ा अशांत था। लेकिन आज जब मैंने वृक्ष के प्रति ऐसा व्यवहार किया तो मुझे लगा कि वृक्ष ने मुझे माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म को वृक्ष ने माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म से, मैं, आज का कर्म करके ऐसा लगता है, जैसे मुक्त हो गया हूँ। कल के मेरे अपराध से आज मुझे मुक्ति लग रही है। 


बताइयेगा ये तो एक छोटा सा उदाहरण है। क्या यही उपाय नहीं है अपने बंधन और मुक्ति का। जिस कर्म के करने से हमारे ऊपर जैसे छाती पर किसी ने पत्थर रख दिया हो, सारा दिन व्यथित होता है। वे सारे कर्म हमारे संसार बढ़ाने वाले हैं और वे सब सांसारिक हैं। और जिन से हमारा मन प्रफुल्लित होता है, जिनके करने से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है, वे कर्म हमारे उन कर्मों को काटने वाले हैं, अभी उनसे मुक्ति दिलाने वाले हैं, लेकिन संसार से मुक्ति दिलाने वाले नहीं हैं। हमारे पाप से मुक्ति दिलाने वाले हमारे सत्कर्म हैं। लेकिन संसार से मुक्ति तब होगी जब सद् और असद् दोनों कर्मों के बीच में समता भाव होगा, तब मुक्ति होगी और वो पूछना हो तो उस वृक्ष से पूछ लें। पहले दिन जब चोट पहुँचाई थी तब भी वो वैसा ही खड़ा था। दूसरे दिन जब क्षमा माँगी तब भी वो उतना ही अलिप्त खड़ा हुआ है। क्या ऐसा ही हम हमारे जीवन में किसी क्षण कर सकते हैं। तीनों चीजें हमारे सामने हैं। हम कर्म अशुभ करते हैं, अशुभ का दबाव हमारे ऊपर होता है, तब हम उस दबाव को कम करने के लिये शुभ कर्म करें और कुछ क्षण ऐसे भी हों जब हम शुभ और अशुभ दोनों कर्मों से विश्राम लेकर के, राग-द्वेष से विश्राम लेकर के शांत भाव से अपना जीवन व्यतीत करें। उपाय सिर्फ इतना ही है। हमारे सांसारिक कार्यों में बाधा आती है, हमारे आध्यात्मिक कार्यो में बाधा आती है, कौन डालता होगा ये बाधा ? हम चाहते हैं कि जाकर के और आज तो साधुजनों की, मुनिजनों की सेवा करें। लोगों को दान दें। जो दीनहीन हैं. गरीब हैं. उनकी मदद करें. हमारे मन में ऐसा भाव होता है लेकिन ऐसा भाव हो जाने के बाद भी, सारे सरकमस्टेन्सेस फेवरेबुल हो जाने के बाद भी पता नहीं क्या होता है और मैं दान नहीं दे पाता। मैं सोचता हूँ कि फलानी चीज मुझे मिल जावे। मैं उसके लिये सारा प्रयत्न करता हूँ और अंतिम क्षण में जाकर के वो चीज मिलते-मिलते और मेरे हाथ से फिसल जाती है। 

 

मेरे अपने भोग-उपभोग की सामग्री के साथ भी ऐसा ही है। मैं बहुत प्रयत्न करके खाने की थाली सामने सजाकर के रख लेता हूँ और मुँह में जो बहुत दिन से प्रतीक्षित था मेरे लिये प्रिय रसगुल्ला हाथ में, मुँह में आने को था और उतने में ही मोबाइल पर घंटी बज गई और एक ऐसी खबर जिसने कि उस रसगुल्ले को मुझे वहीं का वहीं रख देने को मजबूर कर दिया और उठकर के मुझे जाना पड़ा। ये मेरे भोग की सामग्री में बाधा किसने डाल दी। मेरे उपभोग की सामग्री में बाधा कौन डालता है। मैं बहुत उत्साहित होकर के किसी धर्म के कार्य को करने के लिये निकलता हूँ और बीच रास्ते में मुझे कोई ऐसी चीज घेर लेती है कि मैं उससे विमुख होकर के वापिस फिर लौट जाता हूँ। सारा उत्साह खत्म हो जाता है। मैं निरुत्साहित हो जाता है, ऐसा कौनसा परिणाम या मेरे भीतर ऐसा कौनसा कर्म पड़ा हुआ है जो मेरी इन सब चीजों में बाधा डालता है ? होगा तो कोई ना कोई ऐसा तो हो ही नहीं सकता। “विघ्नकरणमन्तरायस्य' आचार्य भगवन्तों का एक ही सूत्र है, सारे कर्मों में जैसे मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है, ऐसे ही सबसे छिपा हुआ और अचानक हमारे सामने आने वाला कर्म अन्तराय कर्म है। “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन, सो जिनेन्द्र जयवन्त नित अरिरज रहस विहिन।” अरि के मायने शत्रु, सबसे बड़ा शत्रु मोहनीय कर्म और धूल के समान हमारे ज्ञानदर्शन को आवरित करने वाला, रज अर्थात् धूल, ज्ञानावरण और दर्शनावरण और मिस्ट्री (रहस्य) जिसको कहते हैं, कब आयेगा पता नहीं, रहस्य है उसे कहते हैं अन्तराय। अन्तराय अत्यन्त रहस्यमय है। हम सारे इन्तजाम कर लेते हैं और अचानक आल आफ सडन कि 'इनस्पाइट ऑफ मी' (मेरे बावजूद), मेरी सारी तैयारी के बावजूद सब धरा रह गया। वहीं के वहीं करूँ क्या ? अन्तराय के उदय में पता नहीं लगता है कि कब क्या स्थिति बनेगी और वो कर्म भी हमने अपने लिये स्वयं बाँधा है और बाँधते कैसे हैं ये देख लें हम ? तब फिर वो उदय में आकर के अपना फल देता है ये तो दिखाई पड़ता है। लेकिन कब बँध जाता है ये दिखाई नहीं पड़ता और कब फल देगा ये भी दिखाई नहीं पड़ता। जब फल दे चुकता है तब दिखाई पड़ता है। कितनी बार हमारे जीवन में हम ये अनुभव करते हैं, कि कितना मन होता है कि दान दे देवें, चार पैसे हाथ में भी हैं, लेकिन इतनी जल्दी मन बदल जाता है। देने का मन जितनी देर से होता है, नहीं देने का मन उतनी जल्दी हो जाता है। धर्म करने का उत्साह जितनी मुश्किल से होता है, निरुत्साही हम उतनी ही जल्दी हो जाते हैं। जरा सा किसी ने कह दिया। श्रद्धा बड़ी मुश्किल से जमती है और किसी ने जरा सी बात कह दी, श्रद्धा एक मिनिट में टूट जाती है ? ये क्या है ? ये अन्तराय कर्म है। इस पर हमें विचार करना चाहिये। 

 

अगर हमारे जीवन में ये हमें दुःख दे रहा है अन्तराय कर्म तो वो हमारे अपने कौनसे परिणाम होंगे जिससे कि हमारे साथ में बँध गया है ? तब हम आसानी से उन परिणामों से वर्तमान में बचकर के आगे के लिये अपने अन्तराय को टाल सकते हैं। महाराज, कुछ उपाय बताओ, कोई मंत्र दे दो। बड़ी मुश्किल है आर्थिक रूप से बिल्कुल मुश्किल में हैं, दुकान ठीक से नहीं चलती है, जहाँ हाथ लगाओ, तो वहीं पे बिगाड़ होता है। कोशिश तो बहुत कर रहे हैं, पुरुषार्थ तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन दो जून का भोजन बामुश्किल मिल रहा है, आप कुछ बताओ तो। भैया, किसी से पूछने जाने की आवश्यकता नहीं है न कोई उसके लिये कुछ मदद कर सकता है। अगर कोई मदद कर सकता है, अगर कोई उपाय हो सकता है तो अपने परिणामों को ही अपन सँभाल लेवें तो हमारे अन्तराय कर्म आसानी से दूर हो जावें। जब सांसारिक चीजों में बाधा आती है तब भी आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी गई है। अगर आध्यात्मिक कर्मों में बाधा आती है तब और अधिक आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी जाती है। आचार्य महाराज कहते हैं कि देखो तो दुकान पर हर एक मिनिट के अन्दर सामान देने, उठाने, धरने हेतु सैकड़ों बार उठता है, एक व्यक्ति, और अगर उससे कहा जाये कि खड़े होकर पूजा करो तो कहता है पैरों में दर्द होता है। वाह भैया, अच्छे से बैठकर जाप करो तो कहते हैं नहीं ..... दर्द होता है, हम पाँच मिनिट से ज्यादा बैठ नहीं सकते इसके मायने है कि मैंने ऐसा खोटा कर्म बाँध लिया है जो संसार को घटाने वाले कार्यों में बाधा डालता है। वो मुझे सलाह देता है, भीतर बैठा-बैठा। जैसा हमने अपना स्वभाव बना लिया होगा वर्तमान में, जिस चीज में हमें रुचि होगी वो चीज आसानी से हम कर पायेंगे। बाकी चीजों में मुश्किलें खड़ी होंगी। ये भी ध्यान रखना। ये मत समझना कि मुश्किलें हमारे पुराने कर्मों से ही खड़ी होती हैं। अपने वर्तमान के कर्मों से भी हम अपने जीवन में मुश्किलें खड़ी करते हैं। ऐसा मत समझना कि हम लापरवाही करें और कर्म को दोष देवें कि क्या करें। हमें बाधा पड़ रही है। जबकि सारे प्रयत्न करने के बाद, सारी सिचुएशन फेवरेबल होने के बाद फिर काम बिगड़ जाता है तब फिर मानना पड़ेगा कि कोई ऐसा कर्म मेरे साथ जुड़ा हुआ है जो मुझे बाधा डाल रहा है। आज तक मुक्ति दिलाने वाला कोई कर्म नहीं हआ। है कोई कर्म 148 कर्म प्रकतियों में जिसके उदय में मुक्ति हो जाये। किसी ने पढ़ा हो तो बताओ। कर्मकाण्ड पढ़ने वाले तो बहुत होंगे यहाँ पर। नहीं, 148 कर्म प्रकृतियों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जिसके उदय में मुक्ति हो जाये ? तीर्थंकर प्रकृति का उदय भी हो तब भी बैठे रहो सबको उपदेश देवो, मगर मुक्ति नहीं हो सकती जब तक कि तीर्थंकर प्रकृति का उदय हो। हाँ कोई भी कर्म का उदय मुक्ति नहीं दिलाता, मुक्ति में बाधा जरूर डालता है कर्म का उदय। हम ये सोचें कि हमारी मुक्ति में कोई कर्म का उदय आयेगा। मुक्ति हमारे पुरुषार्थ से होगी, पुरुषार्थ में बाधा डाल सकता है कर्म। तब फिर मुझे क्या करना चाहिये ? जब बाधा डाल रहा है कर्म तब फिर मुझे ऐसा कर्म करना चाहिये जिससे कि इस बाधा को मैं दूर कर सकूँ। बस इतना सा ही उपाय है। अगर अन्तराय कर्म मेरे कामों में बाधा डालता है तो मैं फिर, मैं ऐसा काम करूँ जिससे कि मेरी वो बाधा दूर हो जावे। मैं ऐसी कामना करूँ जिससे कि और अधिक मेरे जीवन में बाधा न आ जावे। 

 

आचार्य भगवन्तों ने इस सूत्र के लिये व्यवस्था करते हुए अकलंक स्वामी ने तो बहुत सारी बातें लिखी हैं। पूज्यपाद स्वामी ने “विघ्नकरण अन्तराय" कहकर के, उमा स्वामी महाराज के सूत्र की व्याख्या कर दी कि भाई। दानादि जो कार्य हैं उसमें अगर हम बाधा डालते हैं तो हमारा कर्म बँधेगा अन्तराय कर्म और बाद में अगर हम दान, लाभ, भोग, और उपभोग इन सबके लिये जब प्रयत्न करेंगे तब हमारे लिये भी बाधा पड़ेगी और बात खत्म हो गई। अकलंक स्वामी के चरणों में जाकर के बैठे तो वो विस्तार रुचि शिष्यों के लिये समझाते हैं क्योंकि अलग-अलग आचार्यों का अपना अलग-अलग एप्रोच रहा। जो सूत्रों में सारी बात समझ लेते हैं, उमा स्वामी महाराज ने उन्हें सूत्र में कह दीं। थोड़ी सी व्याख्या में जो समझ लेते हैं पूज्यपाद स्वामी ने उन्हें थोड़ी सी व्याख्या करा दी और जो और डिटेल चाहते हैं तो अकलंक स्वामी का स्मरण करना होगा। आचार्य भगवन्तों का नाम हमें याद रखना चाहिये। इनका उपकार हमारे ऊपर है, बहुत-बहुत उपकार है। बता रहे हैं कि दानादि में विघ्न डालने से स्वयं अन्तराय बँधता है, लेकिन इतना ही नहीं हमारे आगे भी दानादि में हमेशा अन्तराय आता है। दूसरे के दानादि में बाधा डाली है, हम निमित्त बने हैं अन्तराय में, तो आगे के लिये अन्तराय बाँध लेते हैं। उसके तो कर्म के उदय है आपके तो देने पर भी उसके लाभ नहीं हो पा रहा, लेकिन आप उसको नहीं देने का जो विचार कर रहे हैं, उसके दान इत्यादि में बाधक बन रहे हैं, वो आपके भी इसी तरह की सिचुएशन क्रिएट करेगा। ये दोनों चीजें एक साथ चलती हैं। कदम-कदम पर हम लोग दूसरों के दान, लाभ, भोग और उपभोग और वीर्य में बाधक बनते हैं। कदम-कदम पर संसार में, मैं आज विचार कर रहा था कि शायद हम लोग अन्तराय कर्म सबसे ज्यादा बाँधते होंगे। कदम-कदम पर अपने मन की करवाना दूसरे के लिये बाधा ही है। हाँ! अगर विचार करें। ऐसा करो, ऐसा नहीं करो। किसी के भी भले-बुरे के बीच में निमित्त बनना ही मत। चुपचाप रहना जहाँ तक हो सके। नहीं तो संसार ही बढ़ेगा। यहाँ तो सुबह से शाम तक गृहस्थी में इनको सलाह दो, उनको सलाह दो, तुम ये करो, तुम ये ना करो। ये अन्तराय अपने लिये बँधेगा। बहुत सूक्ष्म है मामला। अगर संसार से मुक्त होना है तो जितना कम हो सके संसार के प्रपंच में पड़ना चाहिये। अपने को सुबह-सुबह यही समझ में आया जब मैं विचार कर रहा था इन चीजों पे। लेकिन आपके मन में होगा कि बहुत प्रेक्टिकल नहीं है ये बात। बहुत प्रेक्टिकली पोसिबल नहीं है। बेटा जा रहा है कहीं। कहाँ जा रहे हो ? कोई जरूरत नहीं। हो गया अन्तराय, आपने बाँध लिया। भले ही वो बुरा करने जा रहा हो, आपका उससे कोई मतलब नहीं। बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है, कभी सोचना आप। भोग-उपभोग में भी बाधा नहीं डालना। अब क्या करूँ तो फिर ? तो फिर आप जिम्मेदारी दूसरे की काहे को ले रहे हैं ? आप काहे को मुश्किल में पड़ रहे हैं उसको जैसा करना है करने दो ?
 
एक पण्डित हीरालालजी थे कर्मकाण्ड के बड़े विद्वान। उन्होंने अपने बेटे को जगाना छोड़ दिया था। कहते हैं कि मैं काहे को बेकार में दर्शनावरणी कर्म का बंध करूँ ? तुम्हें सोना हो तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने, जब उदय हो तब उठना। अरे तो वो दूसरे का अहित हो जाएगा, वो 10 बजे तक सोता रहेगा, तो कहते हैं हम अपना अहित क्यों करें उसको जगाकर के, हाँ वो अगर मुझसे कहे कि जगा देना तो जगाऊँगा, अन्यथा नहीं जगाऊँगा। हाँ बहुत, आचार्य महाराज आज्ञा नहीं देते, क्यों, अगर तुम मानो तो देऊँ नहीं मानो तो काहे को बेकार मैं व्यर्थ में इसमें बाधक बनूँ और अन्तराय मैं खुद बाँधू जो आज्ञा माने उसके लिये, जो बात माने उसके लिये सलाह देना, वरना अन्तराय स्वयं बँधेगा। इतना सूक्ष्म मामला है, बहुत विचार करने जैसी चीज है करियेगा विचार आराम से अपन ने तो थोड़ी सी बात कर ली है और फिर 24 घण्टे अपने पास पड़े हैं, जिन्दगी पड़ी हुई है जरूर से विचार करना चाहिये, चुपचाप शांत बैठकर के कि क्या कर रहा हूँ ? क्या कह रहे हैं कि किसी के सत्कार का निषेध करना। बताइये किसी को अगर कोई सत्कार दे रहा है तो उसका निषेध करना मन ही मन, करते हैं, बहुत करते हैं, अपन किसी को वाहवाही मिल रही है, किसी को प्रशंसा मिल रही है, कोई अवार्डेड हो रहा है। अपन बैठे-बैठे कोने में। अरे क्या धरा है इन चीजों में। 

 

एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि महाराज देखो तो कैसा संसार है। बोले हम यहीं खड़े थे और बच्चे लोगों को अवार्ड हो रहा था और एक जनाब बोले, नाम नहीं बताऊँगा। इन सब चीजों में क्या रखा हुआ है ? इन सब चीजों का धर्म से क्या सम्बन्ध है, और दुनिया भर की बातें वो कह रहे हैं कि हमसे तो आपको बताते ही नहीं बन रहा है। वो ऐसा कह रहे थे तो मेरे मन में आया कि देखो, कोई व्यक्ति तो प्रसन्नता पा रहा है और किसी व्यक्ति को ते सम्मान हो रहा है लेकिन हमें ऐसा लग रहा है जैसे हमारा अपमान हो रहा है और उसके सत्कार में बाधा डाल रहे हैं। कल के दिन हम अपने अन्तराय का इन्तजाम कर रहे हैं बैठे-बैठे। ऐसे बढ़ता है संसार और कुछ नहीं, कोई संसार अलग से थोड़े ही बढ़ता होगा, अपने हाथ से हम स्वयं बढ़ा लेते हैं। धर्म के कार्यों में भी बढ़ा लेते हैं, अपना संसार। संसार के कार्यों में तो बढ़ता ही है संसार। ऐसा पढ़ा मैंने सत्कार का निषेध करना। सत्कार किसी का भी हो, एक छोटे से बेटे से भी आप, 'आप' करके बात करेंगे ये उसका सत्कार है और आप डाँट-डपटकर बात करेंगे, ये उसका अनादर है, उसको मिलना चाहिये सम्मान, आपने दिया उसे अपमान। आपने उसके सम्मान में, उसके सत्कार में बाधा डाली। हाँ बहुत कठिन है भैया, मैं आपसे कह रहा हूँ पर प्रेक्टिकली तो बहुत मुश्किल लग रहा है। मैं सबेरे से सोच रहा हूँ कि मैं सब कहूँगा जाकर के तो वो सब कह देंगे कि बिल्कुल पोसिबल नहीं है। मगर यह तो कदम-कदम पर होता है, इसीलिये तो संसार है। इसीलिये तो अपन बैठे हैं संसार में। नहीं तो अभी तक मुक्त नहीं हो जाते। यही होता है, नहीं सँभाल पाते, अपन क्योंकि आदत ऐसी पड़ गई है। कह रहे हैं स्वयं के पास जो वस्तुएँ हैं उनका त्याग करने की भावना नहीं होना। ये अन्तराय का बंध, बताओ किसी के उसमें बाधा नहीं डाली अपन ने सोचो, लेकिन जो चीज अपने पास है वो दूसरे को देने का मन नहीं बन रहा है, इसका मतलब लग रहा है आपके अन्तराय बँधेगा। कोई व्यक्ति अगर त्याग नहीं करे तो अन्तराय कर्म का निरन्तर बंध हो रहा है। ये ध्यान रखना, इसलिये बहुत लोग पूछते हैं कि हम तो रात में खाते ही नहीं हैं तो क्या जरूरी है कि हम त्याग करें, हम तो वैसे ही नहीं खाते। आप भले ही नहीं खाते, अन्तराय का बंध निरन्तर हो रहा है। त्याग कितना कर सकते थे और त्याग नहीं किया, इसलिये निरन्तर अन्तराय का बंध हो रहा है, भले ही आप नहीं करते। बहुत सी चीजों को अपन नहीं करते लेकिन उनका त्याग करा कि नहीं अपन ने तो कह रहे हैं कि त्याग नहीं करा तो निरन्तर अन्तराय कर्म का बंध होता चला जाता है। बहुत सूक्ष्म है। दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत होना। सम्यग्दृष्टि दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत नहीं होगा। वो कहेगा पुण्य का फल है, ठीक है, बढ़िया है, विस्मृत होने की आवश्यकता नहीं है। विस्मृत होने से क्या होता है ? भीतर-भीतर, धीरे-धीरे करके उसके धन पैसे से ईर्ष्या जागृत होती है, फिर बाधा डालने की इच्छा होती है, इसलिये विस्मृत नहीं होना । मुनि महाराज भी जब अपनी तपस्या के फलस्वरूप किसी के वैभव को देखकर, नारायण इत्यादि के वैभव को देखकर विस्मृत होते हैं, मन में विचार आता है कि मुझे भी ऐसा मिले तो सारी तपस्या के फलस्वरूप इतना सा ही फल मिलकर के रह जाता है। जितने नारायण प्रति नारायण के जो पद हैं वे मुनि बन करके अत्यन्त तपस्या करने पर ऐसा निदान कर लेने पर प्राप्त होते हैं ये ध्यान रखना। ये वही है कि दूसरे का वैभव देखकर चकित मत होना, विस्मृत मत होना अन्यथा आप कल के दिन मन में वही चाहेंगे अपनी तपस्या के फलस्वरूप भी और ये अन्तराय के बंध का कारण है। बहुत मिल रही थी, इतनी सी ही मिलकर रह जाएगी। और कह रहे हैं त्याग करने के बाद उस चीज को पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना। भगवान् के सन्मुख जो भी हम भेंट स्वरूप चढ़ा देते हैं, मंत्र बोलकर के, उसको पुनः ग्रहण करने की भावना होना या ग्रहण कर लेना ये अन्तराय के बंध का कारण है। अर्थात् देवधन उस दिन अपन ने पढ़ा था अशुभ नाम कर्म के बंध के कारण में, भगवान् को जो अपन ने धार्मिक कार्य के लिये राशि भेंट की है, उसे रखना। देने में आनाकानी करना। साल भर बाद में दूँगा, ये सब निरन्तर अशुभ नाम कर्म और नीच गोत्र के बंध का कारण बनते हैं और जो सामग्री अपन ने भेंट स्वरूप, उपहारस्वरूप दे दी उसे पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना, काहे को दे दी हमारी है, देने के बाद भी हमारी है, हमने दी थी इनको। देखो तो गिफ्ट दे दी उसको। हमने उनको पेन दिया था, जब-जब उसके हाथ में पेन दिखा ये हमने दिया था इनको। अब बताओ आप अगर दिया था तो दे दिया अभी भी आपको उसके प्रति राग है और वो राग निरन्तर आपके अन्तराय का कारण बन रहा है। बहुत मुश्किल है। चीज़ देख कर अभी तक लगता है ये चीज मैंने दी थी। अभी तक उसके प्रतिराग भाव है वो राग भाव बंध का कारण बन रहा है। दे दी, त्याग कर दी, तो आचार्य भगवन्त वे कह रहे हैं दान की गई चीज के प्रति भी राग भाव ग्रहण करने का भाव बना रहे तो अन्तराय कर्म बँधता है और इतना ही नहीं द्रव्य के उपयोग में समर्थ होने के बाद भी सदुपयोग नहीं करना, भले ही दुरुपयोग नहीं कर रहे किन्तु उन चीजों का जो हमें मिली हैं, पुण्य के उदय से वस्तुएँ उनका अगर सदुपयोग नहीं करेंगे तो आगे मिलेंगी नहीं, अन्तराय पड़ेगा। 

 

फिर कह रहे हैं कि दूसरे की शक्ति का अपहरण कर लेना। कैसे, अब किसी की शक्ति का थोड़े ही अपहरण कर सकते हैं, अपन किसी की सामर्थ्य का। लेकिन सामर्थ्य का अपहरण कैसे करते हैं ? जैसे कर्ण की सामर्थ्य का अपहरण शब्द ने किया था सारथी बन के। डिसकरेज करना, डिसकरेज कर रहे हैं हमेशा उसको, जैसे ही अर्जुन का रथ सामने आता तो कर्ण का रथ सारथी मोड़ देता। कर्ण कहता कि अरे अर्जुन से सामना करवाओ। तू क्या करेगा, सामना, एक ही बार में मर जाएगा, इसलिये बचा रहा हूँ तेरे को। इतना डरा दिया उसको। ये भी स्वय के अन्तराय में कारण है, अपन दूसरे को इस तरह से हतोत्साहित करते हैं। उसकी शक्ति को ऐसे छीन लेते हैं, उसकी सामर्थ्य होने के बावजूद भी हतोत्साहित कर देना। अपने बच्चों को अपने हाथ से हतोत्साहित करते हैं, पढ़ते-लिखते हो नहीं फेल होओगे, हो जाना, हमें क्या करना। ये यही कहते कि मेरा बेटा अभी कम पढ़ता-लिखता है, थोड़ा ज्यादा पढ़ेगा-लिखेगा तो देखना कितना होशियार हो जाएगा। पढ़ता-लिखता है ही नहीं, फेल होएगा और क्या एक बार अस्सी परसेन्ट आये थे, अस्सी में क्या होता, 90 प्रतिशत आयेंगे तब होगा। ये नहीं कहेंगे कि 80 आये, शाबास और मेहनत करेगा तो नब्बे आयेंगे। ये भाव कौनसा है, हतोत्साहित करने का है। दूसरे के सामने आप शिकायत कर रहे हैं ये उसका हतोत्साहित करने का काम है, उसे प्रोत्साहन नहीं मिलने वाला है उससे। छोटी-छोटी सी चीजों में आप दिन भर में देखेंगे अगर जो अपने मन का नहीं होता उसके लिये हम दूसरे को हतोत्साहित करते हैं, अरे क्या रखा है उसमें, छोड़ो, उसे क्या करना। अब उसका करने का मन था और आपने उसको हतोत्साहित कर दिया। हमारे अपने अन्तराय के बंध का कारण होगा और कह रहे हैं जो कुशल चारित्र वाले गुरुजन हैं, देवालय हैं उनकी पूजा का निषेध करना। क्या रखा है पूजा में, ये तो जड़ की क्रिया है, इस थाली से उठाकर उस थाली में रखने में कौनसा धर्म है ? अरे अपने परिणामों को सँभालो, पूजा पाठ में कुछ नहीं धरा। ऐसा प्ररूपण कर देना, ये अन्तराय कर्म का कारण है। रोज तो करते हो पूजा, क्या होता है ? आपने उसके पूजा की क्रिया में अन्तराय डाला। ये नहीं कहेंगे कि एक और कर लो। ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि आप समय का उल्लंघन करो, नहीं तो आप कहो कि धर्म के काम में क्या समय देखना ? अब समय का ध्यान ला गया तो समय तो पूरा हो गया। दो चीजें और बाकी रहीं। दीन-दुखियों को कोई अपर मदद करता है, करुणा दान देता है तो कभी मना नहीं करना। कभी भी दूसरे को दीन- :खी की मदद करने से विचलित नहीं करना, आर्गेमेन्ट नहीं देना कि क्या होता है इन सबसे। 

 

एक उदाहरण है जब सत्याग्र हो रहा था देश में। गाँधीजी के नेतृत्व में तब सत्याग्रहियों के लिये एक वृद्ध बाबा रेल के डिब्बे में चढ़कर के थोड़ा-थोड़ा पैसा माँग रहे थे। तो एक कनस्तर में, खुला हुआ कनस्तर उसके अन्दर जो जितना भी देता था, डाल देता था उसी के अन्दर रसीद रखी थी कि बाब जी को ज्यादा दिखता नहीं था भैया अपने हाथ से लिख दो, कितने रुपये, सत्याग्रहियों को दिये, पाँच रुपये दिये, पाँच की रसीद अपनी ले लो। उसी में रसीद बनती रहती, उसी में सब पैसा रखा रहता। एक चोर ने देख लिया कि ये तो बढ़िया चीज है, इतने सारे कनर तर भर एक मिनिट में मिल जाएँगे। बाबाजी को क्या है ज्यादा दिखता भी नहीं है। एक पक्का देंगे सो काम हो जाएगा। अब उसको ये थोड़ी ही मालूम था कि ये पैसा किसलिये एक तो बाधक नहीं बनना चाहिये और बाधक बन जाये तो तुरन्त सँभाल लेना चाहिये कि भैया हमारा भाव ऐसा नहीं है, आपको जैसा करना है वैसा करो। हम क्यों बेकार में बाकि बनें आपके उसमें। छोटे-छोटे से कामों में। खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने से लेकर के ब जितने काम होते हैं संसार के सब में। अब उसमें तो उसको देर क्या लगनी थी चोर को बाबाजी जरा यहाँ-वहाँ हुये कनस्तर उठा लिया और उतर गया वो तो ट्रेन में से। अब उसने जाकर के जब देखा तो वह पानी, देखी सत्याग्रह की। मन में बड़ी कचोट हुई अरे यह तो मैंने इतने भले काम में बाधा डाल दी इससे तो पूरे का पूरा इतना बड़ा कार्य ही रुट जाएगा। मुझे तो 100-500 रु. मिलेंगे लेकिन इतना बड़ा कार्य रुक जाएगा अब क्र करूँ? भाग-दौड करके जैसे-तैसे उसी ट्रेन को उसने फिर पा लिया। उसी डिब्बे को ढकर के उस बाबाजी के पास जाकर के वो कनस्तर ज्यों का त्यों धरा और इतना ही नहीं देन भर में जो जितनी चोरी करी थी वो सब पैसे भी उसी में डाल दिये। आगे से कान पक: कि अब चोरी नहीं करूँगा। बताइये आप, कभी-कभी ऐसा कोई कार्य हमारे जीवन में जाता है भला कार्य जिससे कि हमारे जीवन के सारे बुरे कर्म भी नष्ट हो सकते हैं। हमें हमेशा इस तरह के कार्यों में, जो कि परोपकार के कार्य हैं उनमें तो बाधा कभी डालनी ही नहीं चाहिये और कभी कदाचित् परोपकार के कार्य में बाधा अपने से पड़ जावे तुरन्त सँभाल लेना चाहिए। 
००० 

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