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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

12. लीलायें : प्रथम-पुरुष की


Vidyasagar.Guru

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सर्वप्रथम उन षट्कुमारी देवियों ने पवित्र पदार्थ से गर्भ का शोधन किया। गर्भस्थ शिशु के होने पर जो लक्षण जननी में प्रकट होते हैं, वे मरुदेवी में उत्पन्न हुए नहीं थे। षदेवियों की सेवा सुश्रुषा से वे मन, वचन, काय से प्रशस्त थी। वन विहार हो या सीढ़ी पर आरोहण देवी मरु को यह पता ही नहीं पड़ता कि वे कब वन में पहुँच गयीं और कैसे बिना कष्ट छत पर। जैसे-जैसे बालक गर्भ में बढ़ रहा था, माँ और अधिक प्रसन्न और कान्ति से दीप्त हो रही थीं, मानो बालक का ही अन्तः तेज उनकी देह में प्रसरित हो रहा है। नाना पहेलियों, काव्यों, कविताओं और वीर पुरुषों की कहानियों तथा महापुरुषों के चरित्रों का नित्य श्रवण-श्रावण सुखद था। उन देवांगनाओं द्वारा माँ की परिचर्या में हर सम्भव क्रिया की जाती थी, जो माँ को सहज स्वीकृत हो । नृत्य गोष्ठियों में सभी हाव-भाव.विलास.वादित्र गोष्ठियों में गीतों और कव्वालियों की लय तालता, कभी जल क्रीड़ा, कभी वन क्रीड़ा, तो कभी जादूखेल, कभी नाभिराजा की कीर्ति का गान, तो कभी माँ की सौभाग्यता का बखान, कभी अपूर्व आश्चर्यों का वर्णन, कभी मिष्ट भोजनपान की रोचकता, कभी माँ के अद्भुत श्रंगार सौन्दर्य की प्रशंसा, कभी उनकी सेवा, ऐसा करने से माँ के नवमास कुछ क्षण के समान बीत गए। तदनन्तर चैत्र कृष्ण नवमी के दिन जब सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र था और ब्रह्म नामक महायोग था तब कलिकाल का अग्रणी प्रणेता, सन्त्रस्त अनन्त प्राणियों को माया मोह के जंजाल से मुक्त कराने का अचूक संकल्प लिए विश्व के द्वारा सदा उपगम्य, सोलह महा भावनाओं की प्रभावना का एक मात्र स्रोत, देवों के वचनों से प्रशंसित, रवि के समान तेजस्वी और प्रभावी रविवार को इस धराखण्ड पर प्रसूत हुआ कि तत्क्षण.........।

 

स्वर्गलोक, भूलोक और अधोलोक में खलबली मच गयी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित हो गया। शची डर गयी। इधर ज्योतिर्लोक में भयंकर सिंहनाद हुआ। व्यन्तर आवासों में और शिविरों में भेरी गरज उठी। भवनवासीदेवों के निलय भी शंखध्वनि से क्षुभित हो गए और कल्पवासी विमानों में झन   झन घण्टियाँ झनझनाने लगीं। विश्व में इस क्षोभ का कारण अवधिज्ञान से जानकर महाइन्द्र सपरिवार चतुर्निकाय के देवों के साथ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नृत्यांगना, पियादे और बैल से सज्जित सात बड़ी-बड़ी सेनाओं को लिए प्रस्थान किया। अपने-अपने विमानों और अपने-अपने वाहनों पर सकल देव, समाज, सेना प्रचुर कोलाहल के साथ सम्पूर्ण आकाश मण्डल में व्याप्त हो गयी। तदनन्तर शीघ्र पवित्र भू पर उतर शोभायमान अयोध्यानगरी को चहुँ ओर से घेर लिया। जम्बूद्वीप के समान विस्तार से युक्त महावैभवशाली ऐरावत हाथी से सौधर्म इन्द्र उतरकर राजा नाभिराज के प्रांगण में पहुँचा। पश्चात् इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव के साथ प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। कुमार जिन के साथ जिनमाता को देख हर्ष और अनुराग से आपूरित हो जिनबालक को प्रणाम किया और माँ श्री की भूरि-भूरि स्तुतियों से स्तुति की। पश्चात् माँ को मायामयी निद्रा में सुलाकर और मायामयी बालक को निकट रखकर शची उस तेजपुञ्ज को अपनी गोद में लिए इतनी विभोर हो गयी मानो आज उसने तीन लोक को अपने आँचल में समेट लिया हो और स्त्रीत्व की उत्कृष्टता को प्राप्त कर लिया हो। यह सुख इन्द्राणी का समस्त ऐन्द्रिक-सुख से विलक्षण था। इन्द्र के कर कमलों में सौंपते हुए बालक ऐसा लगा मानो इन्द्र ने तप्त सूर्य को अपने हाथों में कैद कर लिया हो।तभी ईशानेन्द्र ने ऊपर धवलछत्र तान दिया और सनतकुमार और माहेन्द्रपति दोनों ओर चँवर युगल ढोरने लगे। इन्द्र ने सहस्र नेत्रों से उस यशो पुञ्ज को देखा, अतृप्त मन ने अपनी देह के अंग-अंग का साफल्य घोषित किया और ऐरावत हस्ती पर बैठ आकाश को सुदूर तक लांघता हुआ इस मध्यलोक के चूड़ामणि, विश्वकीर्ति की पताकाओं से कीर्तिमान्, चारणयुगलों से पूजित, स्वर्गलोक की हँसी करने वाले, चतुर्दिग् तीर्थकृतों की कीर्ति फहराने वाले महामेरु सुमेरुपर्वत के सर्वोच्च सिंहासन पर आदर से बैठाया। वह सिंहासन ऐशान दिशा में बड़ी भारी स्फटिक निर्मित पाण्डुकशिला पर प्रतिष्ठित है। सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊँची, अर्धचन्द्रमा के समान आकारवाली उस शिला पे बैठे जिन बालक ऐसे सुशोभित हो रहे थे कि मानो मोक्ष शिला पर विराजमान हों। नवजात शिशु है और सिंहासन पर बैठा है। सब कछ समय से पहले गतिमान हआ-सा लगता है. पर इन्द्र है कि निःशङ्क हो योजनों व्यास वाले हेमकुम्भों से अभिषेक किए जा रहा है और क्षीरसागर का वह जल पवित्र होता हुआ पूरे सुमेरु को पवित्र कर गया।12.png

चन्दन से युक्त वह जल सकल देव-देवाङ्गनाओं के अन्तस् को धोता चला जा रहा है। सभी ने उस पवित्र उदक से अपने को पवित्र किया पश्चात् उस जल प्रवाह ने समस्त लोक नाली को पवित्र किया। ऐसा लगता है कि उस प्रेम गुलाल में रंगे सब देवों को आनन्दित देख मनुष्यों ने होली खेलना सीखा हो। तदनन्तर इन्द्राणी ने हर्ष से जगद् गुरु के निर्विकार शरीर को अलंकृत किया, जो अपनी ही शोभा से परिपूर्ण थे। दिव्य वस्त्रों से उस पीताभ को छिपाने का प्रयास किया पर वह छिपी नहीं। स्नान कराया उसका, जो निर्मल है पहले ही अन्तरङ्ग और बाह्य में। स्वर्ण की चमकीली काया पे चन्दन विलेपन क्यों किया? शायद चन्दन को पूज्य बनाने के लिए। उस वीतराग निरम्बर काया को अम्बर से आवरित क्यों किया? सच है रागी को वीतरागता पसन्द कहाँ? अपने ही रंग में वह दुनिया को रंगना जो चाहता है। पहले से ही जिनके दोनों कर्ण छिद्र युक्त हैं, मानो राग और द्वेष जहाँ रहने का स्थान नहीं पाते हैं, पर उन रिक्त कर्णों में कुण्डल पहनाये गए; क्यों? शायद सूर्य और चन्द्रमा दोनों उनके कपोलों की बलिहारी देने आये हों । गले की तीनों रेखाओं पे चमकीली मणियाँ लगा दी गयीं क्यों? शायद बताना चाह रही थी इन्द्राणी, कि ये रत्नत्रय से पूरित हैं। सम्यग्दर्और सम्यग्ज्ञान तो अवधिज्ञान के साथ जन्म से ही लेकर आये हैं और सम्यक् चारित्र, उसकी कमी कहाँ ?

 

बड़े-बड़े चारित्रवन्तों में जो धीरता, गम्भीरता न हो, वह यहाँ आकर सीखे। उस ललित आस्य पर सुन्दर बिखरा हास यह सब सोचकर ही मानो मन ही मन रागियों के राग की उत्कटता पे हँस रहा था। सब जान रहा था इसीलिए सोचा इनको भी कर लेने दो अपने अनुरूप, अपने मन का। पर यह पृथक् है हमारे सौन्दर्य से; एकदम पृथक् । ये गले में पड़े मोतियों के हार; अहो। जड़ से उत्पन्न हुए हैं, फिर भी इतने प्रसन्न हैं; अपनी ही मस्ती में डोल, हिलोरें ले रहे हैं, मानो यहाँ पर वे भी चैतन्य हो गए हों। कैसा विचित्र है मोह का भाव; अखण्ड मुक्ता को भी छिद्रित कर दिया और गुम्फित करके हार बनाया, खण्डित में आनन्द मनाता है संसार। खण्ड-खण्ड को जोड़कर अखण्ड सुख पाना जो चाहता है। प्रकृति आपो आप अपने सौन्दर्य से सुन्दरित है, पुरुष अपने पुरुषाकर चैतन्य से चमत्कृत है, दोनों के स्वभाव विपरीत हैं, फिर भी कहीं से कुछ लेकर अपने में लगाकर दूसरे से छुड़ाकर, इसी जोड़-तोड़ में हर्षितमुदित होता रहता है।

 

दाहिने पैर के अंगूठे में वृषभ का चिह्न देख इन्द्र ने बालक का नाम वृषभदेव घोषित किया और स्तुति कर, जय-जयकार कर, इन्द्र ने अपनी चेष्टाओं से खूब पुण्य का संचय किया। तदनन्तर अयोध्या नगरी में देव समूह के साथ आकर नाभिराज और मरुदेवी की स्तुति वन्दना की। मरुदेवी की निद्रा दूर की और बालक को उनकी गोद में इन्द्राणी ने सौंप दिया। त्रैलोक्येश्वर की जननी! तुम ही से यह धरा पवित्र हुई, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे महाभाग पुण्य तीर्थ नदी का स्रोत भी शीघ्र शिवपथ गामी होगा। हे माँ! आप धन्य हैं। धन्य हैं। आपका अंग-अंग पवित्र है। आपने बता दिया कि काम पुरुषार्थ कितना बड़ा धर्म है। आपने निंद्य स्त्री पर्याय को अनिंद्य बना नारी का सम्मान बढ़ाया है। आपने जननी की महत्ता का प्रकाश किया है। इस सृष्टि के सृजेता का श्रेय मात्र मातृ शक्ति है। इस विश्व को करुणा का पाठ पढ़ाने वाली आप ही आद्य विदुषी हैं। क्षमा सहिष्णुता का उत्कट पाठ पुरुष माँ की गोद में रहकर ही सीखता है। आपने सारस्वत पुत्र को जन्म दिया इसलिए आप ही सरस्वती हैं। इस भारत भूमि की आप आद्य स्त्री हैं इसलिए हे भारती आप जयवन्त रहें। शंसुख अब्रह्म, कामिनी के रूप आप से ही प्रादुर्भूत होते हैं इसलिए आप ही शारदा देवी हैं। आप सदा कुशल रहें। हे ज्ञानदायिनि, शान्तिकामिनि इस विवेक हंस की जनयित्री आप गुणों की खान हैं। नर से नारी बहुत महान् है यह नारी शब्द की बड़ी-बड़ी मात्राओं से भी ज्ञात है। आपकी वात्सल्य गोद में भरा श्वेतक्षीर इस कलिकाल के कलंक का प्रक्षालक है। निःसन्देह आपकी गरिमा से यह नारी जगत् आलोकित हुआ।

 

तभी इन्द्र ने त्रिवर्गसम्बन्धी नाटकों को अयोध्या के आंगन में खेला। हर्ष से नृत्य क्रीड़ा का ताण्डव रूप दिखा जन-जन को रोमाचिंत कर दिया। अपनी हजारों भुजाओं पर हजारों दिव्यांगनाओं का नृत्य दिखा लोगों को आश्चर्यचकित किया। इन्द्र ने रंगभूमि पे भगवान् के पूर्व के दश जन्म के नाटक खेले। यह नट क्रीड़ा, नाटक, नृत्य, नाट्यशास्त्र तभी सब लोगों ने सीख लिए और स्वयं उत्सव मनाने लगे। अन्त में आनन्द नृत्य को समाप्त कर, प्रभु की सेवा में अनेक धाय देवियों को नियुक्त कर इस समय की सार्थकता को सराहता हुआ इन्द्र, अपने लोक चला गया। पश्चात् पिता नाभिराज ने जन्मोत्सव मनाया। ऐसा कौन-सा व्यक्ति था, जो उस बालक को देखने नहीं आया हो? ऐसा कौन विद्याधर जिसने अपनी आँखों को सफल नहीं बनाया? ऐसा कौन-सा व्यन्तर देव, दानव, गन्धर्व, जिसने अपने अंग-अंग को न थिरकाया हो? ऐसी कौनसी जननी जिसने माँ की कोख को सराहा न हो? ऐसा कौन-सा जीव जो उस परिसर में आकर दुःख न भूल गया हो? ऐसी कौन-सी माता जो अपने पुण्य पाप के फल का विचार न कर रही हो ? ऐसी कौन-सी दिक् कन्या जो बालक को गोद में लेने का भाव न करती हो? ऐसी कौन-सी रूपसी जो जिन सूर्य को लुभा न रही हो? ऐसा कौन-सा बालक जो उन्हें अपना गुरु न मानता हो? हर नगर की हर गली में हर घर में हर व्यक्ति की हर जुवां पर उसी बाल प्रभु के चर्चे, उन्हीं की बाल क्रीड़ा का सुखद अवलोकन, देवताओं का किंकर-सा रूप बनाकर रिझाने का आनन्द, सब कुछ अद्भुत, अलौकिक, अतीव विस्मयकारी और अनुपम।

 

पर शिशु शैशववय में भी इतना अनोखा कि माँ-पिता, देव-दानवों सबकी समझ से परे। देवियाँ भी समझ नहीं पाती कि इनकी वय क्या है ? और इस वय में इनसे क्या बर्ताव करें ? धीरता, गम्भीरता की सीमा नहीं है, तो हास्य क्रीडा के आनन्द का भी पार नहीं। कभी चलता-चलता खडा हो जाता है तो कभी ऐसे लेट जाता है मानो वर्षों से सो रहा हो। कभी रोता नहीं, कभी तड़फता नहीं, कभी कुछ भूख नहीं, कोई इच्छा नहीं मानो पूर्ण तृप्त है। कब धरती पर चला, कब खिसक-खिसक कर चला, कब लेट कर चला, कब बैठा और कब खड़ा हो गया कुछ समझ नहीं आया। अभी पिता की अंगुली को पकड़ झट से खड़ा हुआ, पिता ने गोद में उठाना चाहा पर ऐसा दृढ़ मानो किसी पृथ्वी पर पैर जमा दिए हों, पिता ने थककर छोड़ दिया, तो तुरन्त वह अप्रतिम वीर्य गोद में जा बैठा और नाभिराज की खुशी का पार नहीं। माँ चाहती है अपने वात्सल्य कुम्भों का करुणक्षीर उसे पिलाना, पर उसे कोई इच्छा नहीं, जब कभी आंचल में छिपकर बैठता है तो माँ अपनी गोद में ऐसे समेट लेती मानो अपने दुग्ध को बालक के श्वेत रुधिर से एकमेक ही करने का प्रयास कर रही हो। न कभी स्वेद की बूंद, न मल, न धूलि का जमाव, उत्तम संहनन और समीचीन आकृति, सर्वश्रेष्ठ रूप की सौन्दर्य छटा पे सुरभि से आकृष्ट मधुलेहि पंक्ति, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, मीन आदि सहित आठ मंगल द्रव्य को आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और तिल, लहसुन, मसूरिका आदि 900 व्यञ्जनों से खचित रचित बाल भानु का शरीर ऐसा शोभित होता, मानो विधाता ने बहुत प्रयास से इतना सुन्दर शरीर बना पाया हो और प्रिय, हित वचनों से आकर्षित, मनमुग्ध करना तो पूर्व जन्म से लाये हुए अतिशय गुण थे, जो स्वाभाविक थे। चन्द्रमा की कला से बढ़ते-बढ़ते अंग-अंग के सौन्दर्य की वृद्धि से अन्तस् से त्रि-सम्यग्ज्ञान भी स्फुरायमान होने लगे। बिना किसी की शिक्षा के ही पूर्व और अंगों की सम्यक् स्मृति ताजा होने लगी। अपने दिव्यज्ञान से कार्य अकार्य का विचार कर कर्त्तव्य बोध जागृत होने लगा। नीति, निपुणता, वादित्र कला, नृत्य अभिनय,गोष्ठी का संचालन, आदि पौरुषिक कलायें समयोचित प्रकट हो गयीं, जैसे वर्षा ऋतु में आपो आप वर्षा होने लगती है या शरद् ऋतु में पूर्ण सूर्य प्रकट हो जाता है।

 

यौवन की दहलीज पर खड़ा हुआ कल्पवृक्ष-सा सर्व का भाग्य विधाता, आपो आप ही युवराज था। देवराज, सिंहराज के सिंहासन पर स्वयं वे बैठे। विविध आभूषणों से उनका क्या सौन्दर्य बढ़ेगा, वे वस्त्र और आभूषण ही इस देह से चिपट के सुन्दर हो जाते हैं। कौन इन्द्र, कौन-सा धरणेन्द्र? कौन-सी वह शक्ति? जो इनकी आँखों में आँखें मिलाने का साहस करे। कौन-सा वह गुण जो इस चिति में अनुपलब्ध हो? कौन-सी वह विद्या जो यहाँ अपनी हार नहीं मानती हो? दिग्गजों की पुष्कर से पुष्कल महाभुजाओं पर बाजूबन्द थे, या अपनी मणियों को दिखाते हुए भुजंग थे। हार और तुषार-सी निर्मल देह में क्या प्रतिबिम्ब नहीं हो रहा था? सदा युवा, सदा बलिष्ठ देह यष्टि की क्या बात? पाद कमलों का वह प्रक्रम जब इस मेदिनी पर आता तो वह धरित्री भी प्रसन्न हो उन चरणों को अपनी छाती पर थामना चाहती थी, पर वो रुकते नहीं, तो पीछे उड़ी धूलि से वह रोने लगती। विशाल वक्षः स्थल पर लक्ष्मी क्रीड़ा करतेकरते थक जाती पर तृप्त नहीं हो पाती। प्रत्येक उर्वशी के उरोज उन नयनों को ऊपर उठाना चाहते पर सफलता कहाँ? कामिनी विह्वल है, कामदेव दुःखी है, आज हमारा यहाँ आदर क्यों नहीं? यम की विजय यहाँ असम्भव, क्यों? कुबेर वसुन्धरा पर लोट रहा है पर कुछ स्वीकारते क्यों नहीं?

 

ये सब प्रश्न अनुत्तरित हो माता-पिता क्या पुरवासियों के ओठों पर भी सदा विद्यमान हैं । यौवन और प्रज्ञा का उत्कर्ष देखकर और प्रभु का सरस्वती में अतिशय प्रेम देखते हुए भी एक दिन महाराज नाभिराज ने कहा- पुत्र वृषभ ! मैं जानता हूँ इस सृष्टि के ज्ञान सूर्य में मोह, राग जैसे अन्धकार को कहीं भी स्थान नहीं। मैं जानता हूँ आपका आचरण समुद्र-सा अगाध है गंभीर है और उसमें रत्नत्रय के मोती गहरी पैठ ले अपनी शक्ति बढ़ा रहे हैं, पर हे मोहसूदन! वह समुद्र भी तो बाहर से कितना आनन्दित हो ज्वारभाटों से अपनी बेला तक कल्लोलें फैला कर हिलोरें लेता है, इससे उसकी गंभीरता में कोई अन्तर नहीं आता। इस बात को मैं इसलिए कह रहा हूँ कि, हम प्रकृति के इन उपमानों से ही जीने की कला सीखते हैं। इन महान् उपमानों का अनुसरण कर उपमेय बनते हैं महाधीर मानव और उन महामानवों का ही अनुगामी यह विश्व स्वतः होता  है। इस युग की आदि में आपका प्रत्येक आचरण इस आगामी काल के लिए अदम्य देन होगा। यह विश्व आपसे ही गतिमान होगा। आप जब चलेंगे तो यह विश्व भी चलेगा, आप जब मचलेंगे तो यह विश्व भी अपने में कुछ स्फूर्ति महसूस करेगा। इस जड लोक को आप नयी ऊर्जा से स्फूर्जित करें। विश्व कल्याण का यह सन्तति जनक कर्म भी धर्म है, यह तभी प्रमाणित होगा जब आप इसके आद्य प्रवर्तक बनेंगे। जिस प्रकार सूर्य के उदित होने में पूर्व दिशा का उदयाचल निमित्त मात्र है सूर्य तो स्वयं उदित होता है, उसी प्रकार आपकी गोद में उदित होने को आतुर सूर्य पुत्र भी अपनी ही सत्ता में झूलते हुए आपके नैमित्तकपने को प्राप्तकर गौरव अनुभव करेंगे। इस परम्परा से ही धर्म टिकता है और कर्म भी। धर्म और कर्म की यह समष्टि ही सृष्टि है, इस सृष्टि को आलोक दो। हे आर्यश्रेष्ठ! इस सृष्टि को बाहुबल दो, अन्यथा आपकी स्वाभाविक गंभीरता से यह अकर्मण्यता का पाठ सीखेगी, अन्य कुछ नहीं। हे युग के उन्नायक! अपनी ऊर्जा की संचेतना से इस भारतखण्ड को मथ दो ताकि इस समूचे ब्रह्माण्ड में कल्पकाल तक आपकी ऊर्जा घुमड-घुमड कर तीव्र चक्र सी प्रवर्तक बन इसमें आन्दोलित होती रहे। हे दूरद्रष्टा! यह सब आपको समझाने का उपालम्भ नहीं किन्तु अपने कर्त्तव्य से मुक्ति पाने की यह राह है, ताकि आगामी विश्व नाभिराज को कर्त्तव्य विमुख न कह सके। मुझे विश्वास है कि आप जैसा महामनीषी इस लोक को गुरुजनों के वचन उल्लंघन का अविनीत पाठ नहीं पढ़ा सकता, फिर भी आपकी स्वीकारता की प्रतीक्षा के उपरान्त ही मेरा यह मनः भार हल्का होगा। इसलिए हे प्राज्ञ! कुछ कहो, मध्यस्थता भी मध्य स्थित प्रचण्ड सूर्य की तरह ताप देने वाली होती है, इसलिए मेरे उर के ताप को दूर करो! अस्तु! और तभी एक क्षण पलक बन्द कर अन्तस् का अवलोकन किया कि, भव्य पुण्डरीक आनन पर मुस्कान फैल गयी, जिसे देखते ही पितृदेव का मनः सन्ताप दूर हो गया और स्वीकारता की एक अखण्ड ध्वनि ओम् ओम्......ओम् समूचे लोक में पल भर में फैल गयी। यह एक मुस्कान ही पर्याप्त थी, उस महासमुद्र को तेरह लाख पूर्व तक बाँधे रखने के लिए। लोक व्यवहार की स्वीकारता ही एक आत्मकल्याणी के लिए महाबन्धन है। यह स्वीकृति पिता के वचनों की चतुराई से आयी; प्रजा के उद्धार की इच्छा से आविर्भूत हुई; मैं नहीं मानता। यह मुस्कान से स्वीकृति अपने अवधिज्ञान से चारित्रावरणकर्म की अलंघ्य स्थिति को देखकर हुई; मैं नहीं मानता, यह स्वीकारता के स्वर क्या एक नियति थी; मैं नहीं जानता, पर इतना जानता हूँ कि तात्कालिक भावुकता से दूर आत्मार्णव में से यह लहर ऊपर तक आयी जो उसी समुद्र की थी क्योंकि बाहर की छोटी-छोटी हवाओं से समुद्र नहीं मचला करते। वो तो अपने ही उपादान से उमडते और घुमडते रहते हैं क्योंकि यह उसका स्वभाव है जो दूसरों के द्वारा अनुलंघनीय है।

 

तभी महाराज नाभिराज, इन्द्र की अनुमति से सुशील, सात्त्विक और सुन्दर दो कन्याएँ जो कि कच्छ और महाकच्छ की बहिनें थी, परिणय स्नेह में बाँध कर कर्त्तव्य मुक्त हो निश्चिन्त हो गए। अश्व, गज और पक्षियों की सवारी से युक्त देवता गणों ने आनन्दोत्सव को बढ़ाया। विद्याधरों और गन्धर्वों से राजमहल भर गया। किन्नरियों की नुपुरों से झंकृत ध्वनि से वर्षों का सोया वह कामदेव जाग गया। काहल पटवादकों पे अंगुलि ताड़न की धक् धक् ध्वनि ने कन्याओं की धड़कन को बढ़ाया। उस नारी युगल ने विशाल हस्ती को स्तम्भित कर लिया और प्रचुर काल तक यह मोद निराबाध बढ़ता रहा। यशस्वती और सुनन्दा में रत युवा वृषभ ने मर्यादित आचरण किया और तृतीय पुरुषार्थ की फलश्रुति में यशस्वती से प्रथम चक्री भरत को आदि लेकर सौ पुत्र और ब्राह्मी कन्या को प्रसूता तथा सुनन्दा से उन्होंने प्रथम कामदेव बाहुबली और सुन्दरी पुत्री को पाया। हिमवान् पर्यन्त से समुद्र पर्यन्त फैली वसुन्धरा का स्वामी प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम से ही इस भूमि का नाम 'भारत वर्ष' पड़ा। तब एक दिन भगवान् वृषभदेव जब सिंहासन पर सुख से विराजमान थे, कि सुन्दर आकृति पर सौम्य हाव-भावों वाली दोनों पुत्रियाँ पिता के पास आयीं और उन्हें प्रणाम किया। पिता वृषभ ने दोनों पुत्रियों को उठाया और अपनी गोद में बिठा कुछ देर क्रीड़ा कर कहा हे नम्र बालाओ। आप लोग शील और विनय से शोभित सरस्वती और कीर्ति की लक्ष्मी समान हो।अनेक गुणों से युक्त होने पर भी यदि विद्यागुण नहीं है, तो सब कुछ कागज के पुष्प सम निर्गन्ध होता है। यह विद्या, यशः प्रदाता, परम कल्याणी और मनुष्यों का प्रथम आभूषण है। यह विद्या ही महाबल है, परम मित्र है और विपत्तियों में सहायक सखी है जिस प्रकार रत्न को तराश-तराश कर अनेक पहलुदार बनाया जाता है तो वह अतिशय कान्तिमान् और कीमती हो जाता है, इसी प्रकार अनेक विद्याओं से युक्त शील, विनय, क्षमा आदि गुण और अधिक शोभित होते हैं। उचित समय पर पुत्र और पुत्रियों को समुचित विद्या देना माता-पिता का आद्य कर्तव्य है। अच्छे संस्कारों से युक्त पुत्री ही उभय कुलवर्धिनी होती है। तभी भूरि-भूरि आशीषों से पुत्रियों का चित्त प्रसन्न कर अपने अन्दर बैठे श्रुत देवता को ‘सिद्धं नमः' के मंगलाचरण पूर्वक स्वर्ण पट्ट पर लिखा। प्रभु वृषभ के द्वारा यह सिद्ध मातृका जो स्वर और व्यञ्जनमय है, सिद्ध वर्ण बन गए और यह आम्नाय तभी से पुनः स्थापित हो गयी। प्रभु ने अपने दाहिने हाथ वर्णमाला के अकार आदि हकार पर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्यमानीय इस अयोगवाह सहित शुद्ध अक्षरावली को पुत्री ब्राह्मी को सिखाया तथा बांये हाथ से इकाई, दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को सुन्दरी पुत्री को सिखाया। प्रभु के बांये हाथ से अंकों के लिखने के कारण ही अंकानां वामनो गतिः यह आम्नाय चल पड़ी। व्याकरण, छन्द और अलंकार शास्त्र ही वाङ्गमय कहलाता है। इस वाङ्गमय से अलंकृत दोनों पुत्रियाँ साक्षात् सरस्वती की तरह प्रतिष्ठित हो गयीं। पश्चात् पुत्र भरत को स्वयंभू वृषभ ने कहा- हे प्रथम नरेश्वर! आप व्यवसाय में समुन्नति का मूल यह अर्थशास्त्र सुनो। सुदृढ़ शासन व्यवस्था के लिए राजनीति शास्त्र सुनो। सभी विद्याओं में पारंगत पुरुष ही इस संसार की रंगभूमि पर सफल होता है। विद्यावान् पुरुष अरण्य में असहाय नहीं होता। दुनियाँ में शत्रु और मित्र नहीं होते पुत्र! वे तो बनते हैं हमारे अपने व्यवहार से। इसलिए एक कुशल शासक के लिए दण्डनीति का ज्ञान परमावश्यक है। इसके अतिरिक्त मल्लग्राह, युद्ध, चक्र, धनुषों का प्रारोहण विधान, नृत्यविज्ञान आदि विद्यायें भी सीखो। भरत के अनुज अनन्तविजय पुत्र के लिए वास्तुशास्त्र, चित्रकला आदि विद्याओं का उपदेश मिला। पुत्र बाहुबली ने कामशास्त्र, सामुद्रिक ज्ञान, आयुर्वेद आदि शास्त्र सीखे। इस प्रकार प्रभु ने समस्त वत्सों के लिए बिना भेदभाव के गोदुग्ध की तरह विद्या पान करा सदा के लिए तुष्ट कर दिया। अपने इष्ट पुत्रों और पुत्रियों से घिरे स्वयंभूदेव ज्योतिष्मान् चन्द्र की तरह जो कि अनेक नक्षत्रों और तारों से घिरा हुआ हो, ऐसे लगते थे। अपने पुत्रों के अतुल पराक्रम, वैभव, राजमान्य सुख, सौभाग्य और लावण्य को देखकर किस पिता का चित्त खुश नहीं होता?

 

कल्पवृक्षों के अभाव से दु:खी प्रजा के सामने नित नए संकट उपस्थित होने लगे। स्वभाव से अत्यन्त भोले प्राणी, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के ज्ञान से प्रायः परेशान रहते। तभी एक दिन प्रजाजन नाभिराज के पास आकर अपने दुःखों को कहने लगे। नाभिराज ने समस्त प्रजा को वृषभकुमार के पास भेजा। प्रजा ने वृषभकुमार को अपनी अन्तर्वेदना बतायी। तब भगवान् ने पूर्व और अपर विदेह की स्थिति को अपने ज्ञान में देखा। उसी स्थिति के अनुरूप यहाँ कर्मभूमि का वर्तन कराने के लिए वृषभकुमार के स्मरण मात्र से इन्द्र स्वयं यहाँ उपस्थित हुआ। सर्वप्रथम इन्द्र ने वृषभकुमार की आज्ञा से अयोध्यापुरी के मध्य में जिनमन्दिर बनाया और इस मंगल कार्य के उपरान्त अवन्ती, सुकोशल, अंगवंग आदि देश, नदी, नहर, वन, खेती और ग्राम के सुनियोजित बँटवारे किए और नामकरण किया। पश्चात् वृषभकुमार ने प्रजाजनों के लिए असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म आजीविका के लिए बतलाये। गुणों के अनुरूप कार्य करने से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र तीन वर्ण की स्थापना की। उनमें जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय कहे गए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य घोषित किए गए और जो उनकी सेवा-सुश्रुषा करते थे उनको शूद्र कहा गया। वर्ण व्यवस्था से सब कुछ बिना दोष के प्रवृत्त हुआ। विवाह, जाति सम्बन्ध और व्यवहारिक अन्य कार्य भी भगवान् आदिनाथ की आज्ञा से सुनियोजित तरीके से चले। प्रजा जनों के लिए इस कर्मयुग का प्रारम्भ आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन किया गया, इसलिए भगवान् प्रजापति कहलाने लगे। इस प्रकार षट्कर्मों के कुशलतापूर्वक परिपालन से जब प्रजा सुख से रहने लगी, तब श्री वृषभ का राज्याभिषेक किया गया जिसे धूमधाम से देवों, विद्याधरों और कुलांगनाओं ने मिलकर मनाया। पश्चात् वृषभ राजा ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान कर उन्हें क्रम से हरिवंश, नाथवंश, उग्रवंश और कुरुवंश का राजशिरोमणि बनाया तथा कच्छ, महाकच्छ राजाओं को अधिराज पद दिया। मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह का उपदेश दिया इसलिए वे इक्ष्वाकु कहे गए। कुल-वंशों का विभाजन संचालित किया, इसलिए आप कुलकर कहलाये। युग की आदि में प्रजा को सुखपूर्वक आजीविका बतायी, नगर, ग्राम आदि बनवाये इसलिए आप विधाता, विश्वकर्मा, स्रष्टा कहे गए। ऐसे भगवान् वृषभदेव ने युग की आदि में इस विश्व का संचालन अपनी प्रज्ञा से किया और समुद्रान्त तक फैली सती सी इस महाधरा का शासन किया और सभी को अनुशासित किया।

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