Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

11. अवतरण : काल जेता का


Vidyasagar.Guru

183 views

और इधर अगणित काल से सोये हुए मनुष्य के समान भोगों की निद्रा टूटने लगी। जागृति की अवभासना होने लगी। कल्पवृक्षों से प्राप्त सम्पदा का शनैः, शनैः लुप्त होना यही बता रहा था कि मनुज! अब आँखें खोलो, बहुत सो लिए पुरुषार्थ करने को कटिबद्ध हो जाओ। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक के बाद एक, ऐसे चौदह कुलकर जन्मे । जब इसी भरतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि के समान व्यवस्था चल रही थी और पल्य का आठवाँ भाग मात्र शेष रहा तब प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यन्त चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने समय-समय पर भोगों की व्यवस्था के लुप्त हो जाने से डरे हुए मनुष्यों को प्रतिबोधित किया। अन्तिम कुलकर नाभिराजा की आयु एक करोड़ पूर्व की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष थी। पहले, युगलों का जन्म होते ही माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। धीरे-धीरे लोग अपनी सन्तान का मुख देखने लगे और जब बालक की नाभि में नाल दिखायी देने लगा तो उसे ठीक तरह से काटना आप नाभिराज ने ही सिखाया, इसलिए आपका नाभि यह सार्थक नाम हुआ।

 

भोगभूमि का अवसान हो गया, कल्पवृक्ष समूल नष्ट हो गए। काल की गणना में अभी तृतीय काल चल रहा है पर क्षेत्र विपरीत हो चला है। जो कभी नहीं देखा ऐसा विस्मयकारी वातावरण सामने आ रहा है। मन में इच्छा होते ही सब कुछ सुलभ प्राप्त था, भूख-प्यास की पीड़ा नहीं थी पर अब हे नाभिश्रेष्ठ! यह सब क्या हो रहा है? यहाँ उदर में कुछ जलता-सा लगता है, जब कुछ खाने का समय आता है तो समझ नहीं पड़ता क्या खाऊँ? और प्रभो! ये ऊपर काले-काले क्या घिर आते हैं? जिनके आते ही अंधेरा छा जाता है, फिर थोड़ी देर बाद बहुत तेज आवाज होती है, कुछ चमकता है, फिर कुछ गिरता है और एकाएक हम लोग जलमय हो जाते हैं, थोड़ी ही देर में ठण्डीठण्डी क्या आती है? जो दिखती नहीं पर महसूस होती है, इतना ही नहीं भगवन् ! अब वे विशालकाय वृक्ष दिखते नहीं जो हमारा भरणपोषण करते थे, अब तो जगह-जगह ये ही दिखाई देते हैं और ये देखो यहाँ पर कुछ थोड़ाथोड़ा, छोटा-छोटा कुछ ऊपर को निकलता आ रहा है, धीरे-धीरे यह ही बड़ा हो जाता है। हे कृपालो! हम सबकी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि यह क्या है? हे नाभिराज! आप ही सबके पिता हैं, हम लोगों को बताओ ताकि अनाकुलता से जी सकें।

 

अपने दिव्यज्ञान से इन लोगों का भोलापन देखकर नाभिराज ने सब कुछ यथार्थ समझा और कहा देखो! पहले यहाँ बड़े-बड़े वृक्ष थे, वे वृक्ष अब आप लोगों को नहीं मिलेंगे। अब तो जो यह दिख रहा है, उन्हीं फल को खाकर भूख को दूर करना होगा और ये ऊपर जो काले-काले दिखते हैं, वे बादल कहलाते हैं जब वे बादल आपस में रगड़ते हैं तो उनसे जो चमकती दिखती है, वह बिजली है। ये ठण्डी-ठण्डी जो बहती है, वह हवा है। जो ऊपर से मोती से छोटे-छोटे बिन्दु गिरते हैं, वह जल है और यह वर्षा कहलाती है। ये जो धरती में से हरे-हरे अंकुर निकल रहे हैं, ये ही बड़े होकर पेड़ पौधे बनेंगे फिर इनमें फल लगेंगे उनको खाकर आपको तृप्ति होगी, इसलिए डरो मत । ये चावल हैं, ये गेहूँ हैं, ये सरसों हैं और इधर मूंग, अरहर, चना। ये ईख हैं, इनका रस निकालकर पीना। ये केले हैं, इनको ऐसे छीलना फिर खाना। ये द्राक्ष हैं, ये नारियल हैं, इनके अन्दर पानी है, इसकी ये गरी है .......आदिआदि।

 

सच! प्रजा की सन्तुष्टि ही राजा का सुख है। भयभीत को अभय बनाना ही सबसे बड़ा दान है। समय पर समझ देने वाला ही गुरु है। हे आर्यश्रेष्ठ! आपने प्रजा को जीने के उपाय बताये इसलिए आप मनु हैं। आपने इन आर्य जनों को कुल की तरह एक साथ रहने को कहा इसलिए आप कुलकर हैं । आपने अनेक वंश स्थापित किए इसलिए आप ही कुलधर हैं। इस युग के प्रथम उपदेष्टा आप ही युग ज्येष्ठ हैं। नहीं, मरुदेवी नहीं। यह विश्व स्वयं अपनी शक्तियों से संचालित है। बोध-प्रतिबोध तो हमें इन्हीं से प्राप्त होता है। इन्हीं प्रजाजनों के पुण्य से मुझमें यह ज्ञान उद्भूत हुआ सो इन्हीं को दे दिया?

 

मानो नाभिराज की निश्चिन्तता से ही इन्द्र को चिन्ता हुई, क्योंकि जब पुरुषार्थी निश्चिन्त बैठता है तो देवों के भी आसन कँपने लगते हैं, कि कहीं ये मेरी सम्पदा को न ले जायें। अब इस आर्यक्षेत्र में हे कुबेर! कुछ अघटित घटित होगा, इसलिए मेरी इच्छानुसार एक विस्मयकारी अपनी प्रवीण कला से एक नगरी का निर्माण करो। जहाँ स्वर्ग के विमानों से गृह हों, उन पर विमान के शिखर की चोटी की ध्वजाओं की तरह चंचल साकेतायें लहरायें और उसका शाश्वत नाम साकेत हो । जो किसी भी परचक्र से युद्ध में विजित न हो इसलिए चाहो तो उसका नाम अयोध्या रख दो। रमणीय सुकोशल देश में निर्मापित होने से उसको सुकोशला कहकर घोषित करो। जहाँ सभ्य जनों का, शिक्षित चेष्टितों का ही प्रवास होगा इसलिए नय विनयवन्त जनों से भरी उस नगरी को विनीता भी पुकारो। यह कार्य अविलम्ब हो; क्योंकि महाकर्म जेता विश्वस्रष्टा धर्माधिपति युगप्रमुख, आदितीर्थ प्रवर्तक का जन्म होना है। उस महा-भाग को जन्म लेना है जो समय का विज्ञाता है, जिसकी प्रत्येक क्रिया आने वाले युग की धरोहर होगी। जिसके मन का एक-एक अणु विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत होगा। जो स्वयं चलेगा फिर भी ऐसा लगेगा कि प्रत्येक काल कणिका उन्हीं का अनुसरण कर रही हो। इन्द्र ने कहा और कुबेर ने अपने कला कौशल से कुछ ही क्षण में निर्मित कर दी, वह अयोध्या नगरी।

 

इन्द्र ने जब निर्मित नगरी का सिंहावलोकन किया तो वह आश्चर्य चकित हो उठा। अरे! देव कुबेर! यह आपने क्या बनाया? कहीं स्वर्ग का ही कोई रूप उठाकर तो नहीं ले आये। नहीं-नहीं, स्वर्ग से भी सुन्दर मनोहारी इस नगरी में भवनों, राजप्रासादों, लतावनों, मण्डपों, छज्जों और छतों की बेसुमार कला कौशलता यह आपने कहाँ से सीखी। नहीं प्रभो! यहाँ मेरा कुछ नहीं, सच कहूँ देवेन्द्र ! यहाँ आपका भी कुछ नहीं । यह सब वैभव और चकाचौंध तो उसी अजन्मा की है जिसके निमित्त यह निर्मित हुई। यहाँ कुछ मैंने किया, उसके लिए किया, ऐसा वैसा इन बातों का कोई स्थान नहीं । पुण्य रूपी बालक की ये विचित्र लीलायें हैं, जो अपने पिता की गोद में ही खेलता है और उसी पालक की गोद में स्वतः तिरोहित हो जाता है। पश्चात् सभी देवों ने आकर शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में अतिशय समृद्धवान् अयोध्यानगरी में निवास प्रारम्भ कराया। नाभिराज और मरुदेवी यह सब देख अत्यन्त विस्मित थे। स्वयं इन्द्र अपने सहायक अन्य देवों के साथ पुण्य तीर्थ के उत्स पदों को पूजकर अपने निवास स्थान पर चला गया।

 

प्रभु के जन्म लेने के छह मास पूर्व से इन्द्र की आज्ञानुसार नाभिराज के नवनिर्मित विशालकाय भवन में गणनातीत रत्नवृष्टि होने लगी। महारानी मरुदेवी विस्मय से सोच उठी कि ये महार्घ्य रत्न इस महल में कैसे बिछे पड़े हैं ! मानो आकाश के सभी ग्रह और नक्षत्र ताराओं सहित इस प्रांगण में आ पड़े हों। कहीं यह नील कुलाचल ही चूर्ण-चूर्ण तो नहीं हो गया। परस्पर में घुली मिली इन रंग बिरंगे रत्नों की आभा से सारा महल आपस में किसी से बोलता-सा लगता है। महल की छतें ऐसी पट गयी हैं कि, लगता है मैं किसी नील सरोवर में तैर रही हूँ। इन भित्तियों पे मरकत मणियों की आभा, यहाँ पन्नारत्न, ये मूँगा माणिक्य के ढेर, प्रत्येक गृह में रत्नों के तरह-तरह से उपयोग हो रहे हैं। कोई उन रत्नों से अपनी पगतलियाँ घिसता है, तो कोई गले में संजोकर आभूषण बना लेता है। कोई उनमें अपने चेहरे देखता है, तो कोई उनसे खेलता रहता है। पड़ोसी जन इन दिव्य रत्नों को बटोरते नहीं थकते। सारी अयोध्या का वैभव स्वर्ग की नगरियों से भी अग्रणी है।

 

और एक दिन - हे नाभि श्रेष्ठ! छह महीने होने को हैं अनवरत यह क्या चल रहा है। ये वैभव, विलास, सौन्दर्य की उत्कटता का प्रयोजन क्या? इन झिलमिलाती नीलाभ, रक्ताभ, हरिताभ, पीताभ, श्वेताभ मणियों की राशि में डूब-डूब कर मैं अपनी देह के रंग को भी भूल गयी हूँ। आपके दिव्यज्ञान में सब परिलक्षित हैं, पर आपने मुझे इससे क्यों बेखबर रखा है? मैं अब कुछ रहस्य समझना चाहती हूँ प्राणनाथ! रहस्य! रहस्य तो प्रकृति में हमेशा से रहा है। समय पर उसका उद्घाटन होगा और वह समय आने वाला है, आर्ये! बस उतनी ही दूर है वह, जितनी देर अभी मयंक को ऊपर आने में है। सब कुछ यहाँ व्यवस्थित है। प्रत्येक कण इस ब्रह्माण्ड का अपनी ही गति से गतिमान है। उद्घाटित होने से पहले वह रहस्य लगता है, बाद में तो वह अपना ही परिचित सा लगता है। इस तरल मृदिम शय्या की स्फुटता कुछ कह रही है उसे समझो। तन्वंगि! विशाल खांङ्गण में द्योतित. चन्द्रमणि को निगल जाने को जी कर रहा  है। शशि की इस शीतलता में सुख का झरना झर रहा है और ये छोटे-छोटे चमकीले तारे मानो कुमुदिनी की मुंदी पँखुरियों में छिपे पराग से खेलना चाहते हैं। इस नीलम रज:आर्णव में डूबे और छिपे शुक्तिपुट में मुक्ताधारण की सम्भावनायें किसी तेजो राशि की प्रतीक्षा में हैं। अन्धकार गहराता ही चला जा रहा है। समूचा विश्व निःशब्द हो गया है और तभी ब्रह्मविप्रुष् कर्मभूमि के विश्वभर्ता की शक्तिमान् आत्मा को अवकाश देने के लिए कूर्मोन्नत प्रदेश समूह की पृष्ठ ग्रन्थि को भेदकर एकमेक हो, वहीं ठहर गया।

 

गगनमणि कहीं दूर तक यात्रा कर चुका। विभावरी का पिछला प्रहर उपस्थित होने वाला है। गहरी तन्द्रा में लीन मृदु मरुदेवी को लगा कि, मेघों को चीरता हुआ एक महाकाय गन्धहस्ति जो अपने दोनों कपोलों और सूंड से मद जल की वर्षा करता हुआ दौड़ा-दौड़ा आया और मध्य में ही कहीं विलुप्त हो गया और मानो उसने ही शुभ्र शुक्ल वर्ण के बैल का रूप धारण कर लिया; पर यह क्या? मेरे पास आते-आते वह कहाँ अन्तर्धान हो गया और उसके स्थान पर शशाङ्ग-सा शुक्ल स्वप्निल काया में रक्त दाढ़ी को तीक्ष्णता से घुमाता हुआ, क्रुद्धपीत नयनों से युक्त भीषण रव करता हुआ कोई वन सिंह आया ही था कि वह भी कहीं तिरोहित हो गया। तत्क्षण मैंने अपने ही रूप वाली कोई रूपसी लक्ष्मी को देखा, जो स्वर्ण कमल पर आसीन है और देवनगों ने तभी कनकमय पूर्णकलशों से अभिषेक किया। फिर मधुरों की झंकार युक्त दो पुष्प मालायें दिखीं और लुप्त हो गयीं। अरे! ये धवल चाँदनी और असंख्य तारिकाओं से युक्त पूर्ण मण्डल चन्द्रमा।

 

फिर मानो मैं किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गयी, जो विचित्र सूर्य की प्रभा और प्रकाश से परिपूर्ण है। तत्क्षण ही लगा कि उस सूर्य ने अपनी प्रभा को समेट लिया और दो तपनीय कलशों का रूप ले लिया। फिर स्वच्छ और निर्मल सरस में मछलियों का चंचल युगल । ये मछलियाँ ओझल हो गयीं और सामने है, मात्र वह सरः जो अपने जलज की पराग छटाओं से आच्छादित है। फिर भयंकर गर्जना से नक्रचक्रों को उछालता हुआ सीमाक्रान्त महासमुद्र, लगा कि अचानक यह तालाब इतना शान्त हो क्षुब्ध क्यों हो गया ? और इतना मनोहारी मणिखचित स्वर्णमय सिंह युग्म सहित सिंहासन । तभी झलका एक स्वर्ग का विमान मानो वह मेरे उदर के पार्श्व भाग पे गिरा हो। साथ ही पृथ्वी भेदकर आ गया एक नागेन्द्र भवन, जो स्वर्ग के विमान से ईर्ष्या के कारण सहसा निकल पड़ा, मेरी देह की किरणों से यह आकाश रत्नराशि से आप्लावित हो गया और विलीन हो गया। शेष है मात्र चमकती निधूम अग्नि । वह सब देखने के बाद ऊँचे-ऊँचे कन्धों वाला स्वर्णिम आभा लिए एक सुन्दर बैल मेरे पास आया और इतना निकट कि वह मुझमें समाता ही जा रहा है, मानो मेरे अंग-अंग में व्याप्त हो गया उसका अस्तित्व।

 

यह वह रात थी जब इस जघन्य भोगभूमि नामक तीसरे काल के मात्र चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन अवशिष्ट थे, अर्थात् आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीया का शुभ दिन जब चन्द्रमा उत्तराषाढ़ नक्षत्र से शोभित था।

 

रात्रि का अवसान हुआ और ऊषा की अब शान हुई। कुमुदिनी का निरादर हुआ और कमलिनी का आदर हुआ। शीतांशु अस्तंगत हुआ खरांशु मुदित हुआ। चक्रवाकी का मिलन हुआ और कंचुकी का विरह। भोगी उठ गया कि योगी सो गया। प्रकृति की विचित्रता के ये मूक उपदेश कहीं कोई श्रमण पढ़ रहा था कि कहीं पर मृत्यु का दरवाजा खुला और पक्षी निकलकर बाहर आया ही था कि वह फिर कैद हो गया; शुक्तिपुट में मुक्ता की तरह।

 

भोर हुई, बन्दीजनों के मंगलगीतों की शोर शुरू हुई, तन्द्रा चोर हुई और मरुदेवी विभोर हुई। मंगल स्नान और वस्त्राभूषण धारण कर वह कमलनयनी अपने प्राणेश्वर के निकट पहुँची और रात्रि में देखे सोलह स्वप्नों को निवेदित कर कहा हे महावल्लभ! मैंने आपसे पहले भी रत्नवृष्टि का रहस्य जानना चाहा था और आपने कुछ बताया या मुझे भुला दिया, मैं समझ न पायी, अब मैं इन विचित्र स्वप्नों से भी अज्ञात हूँ। आज मैं यह रहस्य स्पष्टतया जानना चाहती हूँ।

 

हे कल्याणि! आज समय आ गया, उस रहस्योद्घाटन का। सुनो, आपके गर्भ में पिछली निशा में एक महाभाग प्रविष्ट हुआ जो हाथी के समान उत्तम बैल जैसा ज्येष्ठ तथा सिंह सा पराक्रमी होगा। जो मन्दराचल पर लक्ष्मी युत देवों से अभिषिक्त होगा। जो माला गुम्फन की तरह धर्म परम्परा का वाहक होगा। वह चन्द्रमण्डल की तरह जगत् को आनन्दित करने वाला होगा। सूर्य सी जाज्वल्यमान प्रभा का धारक वह दो कलशों सी मंगल निधियों का स्वामी होगा। मत्स्य युगल-सा सुखी, सरोवर की तरह अनेक पुष्पित लक्षणों से भरा हुआ, समुद्र-सा अनोखा केवली होगा। सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने वाला वह विश्व कल्याण की भावनाओं से स्वर्ग विमान से अवतीर्ण होगा। वह अधो गतिमान् अवधिज्ञान से युक्त होगा इसलिए नागेन्द्र भवन दिखा। रत्नराशिवत् गुणों की खानि वह कर्मरूपी ईंधन को जला निर्धूम अग्नि शिखा-सा प्रदीप्त होगा। गर्भ में आने से पूर्व उसके पुण्य प्रताप से यह रत्नवर्षा हो रही थी और चूंकि आज वह गर्भ में आ गया है इसलिए अन्त में सोलह स्वप्न देखने के बाद वह पीताभ, वृषभ आपके कमलमुख से प्रविष्ट करता दिखा। यह रहस्य अपने दिव्यज्ञान अर्थात् अवधिज्ञान से जानकर मैंने कहा।

 

वह मुक्ता कैद तो हो गया पर उसकी कसमसाहट से ब्रह्माण्ड कसमसा गया। स्वर्गालय में प्रकट होने वाले विशेष चिह्नों से इन्द्र ने जान लिया कि सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर वह देव मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। इन्द्र स्वयं अनेक-अनेक देवों-देवियों से सहित वहाँ आये और नगर प्रदक्षिणा कर भगवान् के माता-पिता की वन्दना की। सारा महल देवों से खचाखच भरा है, चारों तरफ संगीत और मंगलवाद्य बज रहे हैं। देवांगनाओं के नृत्य से मरुदेवी को अतिशय रिझाया जा रहा है। तभी इन्द्र ने दिक्कुमारियों को याद किया। बिजली की पंक्ति के समान वे श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी ये षट्कुमारियाँ अवतरित हुईं, जो इन्द्र में पहले से ही अनुराग रखतीं थीं। फिर स्वयं स्वामी ने याद किया, इससे अधिक प्रसन्नता और क्या हो? यह सोच इन्द्र के सम्मुख चन्द्रमुखी-सी खड़ी हो गयीं। इन्द्र की आज्ञानुसार वे, माँ मरुदेवी की सेवा में नियुक्त की गयीं और सब ही देव माता-पिता का अतिशय वचनों से आदर कर अपने-अपने लोक में चले गए।

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Create an account or sign in to comment

You need to be a member in order to leave a comment

Create an account

Sign up for a new account in our community. It's easy!

Register a new account

Sign in

Already have an account? Sign in here.

Sign In Now
  • बने सदस्य वेबसाइट के

    इस वेबसाइट के निशुल्क सदस्य आप गूगल, फेसबुक से लॉग इन कर बन सकते हैं 

    आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प डाउनलोड करें |

    डाउनलोड करने ले लिए यह लिंक खोले https://vidyasagar.guru/app/ 

     

     

×
×
  • Create New...