Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -16


Vidyasagar.Guru

196 views

हमने अपने जीवन में जो भी पाया और जो भी खोया है वो अपने ही कर्मों से खोया है और कर्मों से ही पाया है। हम यहाँ जो जैसे और जितने हैं उस सबकी जिम्मेदारी हमारी अपनी और हमारे अन किये गये कर्मों की है। सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो ऐसा नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि यदि सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो तो ऐसा लगेगा कि दूसरे के कर्मों से भी हमें अपने जीवन में सुख-दुख मिलेगा; दूसरे के किये गये कर्म हमारे जीवन में प्रभाव तो डाल सकते हैं, पर हमारे जीवन के निर्माण में तो हमारे किये कर्म ही कारण बनते हैं। हमें अच्छा शरीर मिला है या कि नहीं मिला है, हमें अच्छी वाणी मिली है या कि नहीं मिली है, हमें अच्छा मन मिला है या कि मन की विकलता है। हमारे शरीर का रूपरंग अच्छा है या बुरा है। हमें जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ सम्मान मिलता है या अपमान मिलता है, हमारा यश फैलता है या कि अपयश फैलता है ? हम इन सब बातों के लिये स्वयं निर्धारित करते हैं। हम जैसे कर्म वर्तमान में करते हैं उससे ये सारी चीजें निर्धारित होती हैं। 


कुछ ऐसे भी कर्म हैं जो कि हमें जिस स्थान पर पहुँचना है और उस स्थान पर जाते समय, ट्रांसमाइग्रेशन करते समय कौन-कौनसी चीजें हमारे साथ अटेच होकर जाने वाली हैं ये भी हम निर्धारित करते हैं ठीक ऐसे ही जैसे कि सर्विस में ट्रांसफर होता है तो ट्रांसफर किसी अच्छी जगह भी हो सकता है और सम्भावना है अच्छा पड़ौस मिले, हो सकता है कि अच्छे संस्कारवान लोग मिलें और ऐसा भी सम्भव है कि स्थान अच्छा ना मिलें, पड़ौसी अच्छे ना मिले और संगति वहाँ पर खोटी मिले, ये सारी सम्भावनाएँ हैं। इनको कौन रेग्युलेट करेगा ? इनको हमारा अपना पूर्व का किया हुआ पुरुषार्थ जिसे हम पुण्य और पाप कहते हैं और वर्तमान के किये गये हमारे कर्म जैसा हमारा परफॉरमेन्स होगा, जैसी हमारी सर्विस का एक्सपीरियंस होगा, जैसा हमारा अपना नेचर हमने बना लिया होगा ठीक वैसा ही हम दूसरी जगह पायेंगे तो हमें वैसी ही सिचुएशन, वैसा ही परिवेश, वैसा ही एनवायरनमेंट सब कुछ वैसा ही मिलेगा। ठीक ऐसा ही जीवन में कर्मों के साथ है, कर्म हम जैसे करेंगे वैसी गति मिलेगी, वैसा स्थान मिलेगा, वैसा शरीर मिलेगा, वैसा शरीर का रूप-रंग होगा और इतना ही नहीं, सौभाग्यशाली शरीर मिलना है। कि दुर्भाग्य से युक्त शरीर मिलना है शरीर के सारे अवयव बहुत सुन्दर व सुडौल होने के बावजूद भी दुर्भाग्य इतना है कि कोई पसन्द ना करे और शरीर के अवयव सुन्दर नहीं हैं। लेकिन सौभाग्य इतना है कि जिसकी दृष्टि पड़ जाये वो अपने को सौभाग्यशाली मानने लगे। जिसके साथ दो बातें करने का मन हो और अपने को सौभाग्यशाली माने, ऐसा भी हम ही कर्म करते हैं, और उसका हम फल चखते हैं। यहाँ अगर किसी को अच्छा शरीर मिला है तो उसने पूर्व जीवन में क्या किया होगा और आज अगर वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तो हमने पहले ऐसा क्या दुष्कर्म किया होगा जिसके परिणामस्वरूप हमें ये स्थिति प्राप्त हुई। अगर हमें वाणी अच्छी मिली है तो हमने ऐसा क्या भला किया होगा जिससे सुस्वर मिला। सुस्वर नाम कर्म कैसे मिला होगा और अगर वाणी कर्कश है और कठोर है तो मानियेगा कि हमने ऐसा कौनसा दुस्वर नाम कर्म अपने साथ बाँध लिया होगा। 


ये सारी चीजें हमारे कर्म निर्धारित करते हैं इसके लिये एक बहुत बड़ी प्रकृतियों वाला कर्म है सारे कर्मों में, जिसकी फैमिली सबसे बड़ी है वो नाम कर्म, 93 इसके भेद प्रभेद हैं जिससे कि पूरी बॉडी कन्सट्रक्ट होती है और वाणी मिलती है, मन की सामर्थ्य मिलती है। द्रव्य, मन, भाव मिलते हैं। मन तो हमारे अपने क्षयोपशम से. ज्ञान के क्षयोपशम से, नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मिलता है लेकिन जिसका आलम्बन लेकर के हम विचार करेंगे, वो मन भी हमारे भीतर इसी तरह कसट्रक्ट होता है। हम स्वयं अपना शरीर निर्मित करते हैं और एक चीज और ध्यान रखना, रॉ-मैटेरियल कैसा भी हो अगर हम बहुत अच्छे आर्टिस्ट हैं, तो हम बहुत अच्छी चीज कन्सट्रक्ट कर लेंगे, उसमें से, हाँ। वो आर्ट कैसे आयेगी, हमारे अपने कर्मों से आयेगी। जैसे कि हम किसी अच्छे कारीगर को बुलाते हैं और सामान बता देते हैं कि इत्ता-इत्ता सामान है और उसमें इस तरह से बिल्डिंग-कन्सट्रक्ट करनी है। बहुत अच्छा अगर कलाकार हो, बहुत अच्छा आर्टिस्ट हो, बिल्डिंग कन्सट्रक्टर हो तो बहुत अच्छी बिल्डिंग बनाकर के रख देगा। उसमें रंग-रोगन भी बहुत अच्छे से कर देगा, भले ही आपने उसको मेटेरिय - अच्छा नहीं दिया हो और जिसको उसका आर्ट नहीं मालूम उसको बहत अच्छा मेटेरियल भी देवें तो वेस्ट कर देगा। वो सब ठीक ऐसे ही हमारे अपने जीवन में भी है, हमारे अपने कर्म जैसे होंगे वैसी सारी सिचुएशन्स हमारे चारों तरफ क्रिएट होगी और फिर इतना ही नहीं जैसी सिचुएशन क्रिएट हुई है उसमें हमारा अपना क्या बिहेवियर है इस पर भी डिपेंड करेगा। हमें जैसा जो कुछ भी मिलता है उसमें हम सुख 
और दुःख अनुभव कैसे करते हैं। ये हमारे अपने एटीट्यूड पर निर्भर करता है, ये हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं। चीजों से हमें सुख नहीं मिलता। ये चीजें और उनसे हमारे क्या सम्बन्ध है उससे हमारा सुख और दुःख रिलेटेड है। हमें अच्छा शरीर मिला है जरूरी नहीं है कि सुख मिले ही। ये हमारे ऊपर निर्भर करता है इसलिये ये चीज भी इसके साथ जोड़कर के हम देखने की कोशिश करेंगे कि हमें सब कुछ अपने पूर्व संचित कर्मों से मिल जाने के बाद भी उसमें हर्ष करना है या विषाद करना है और आगे के लिये क्या तैयारी करना है। ये सब हमारे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं।

 

ये ठीक है कि आज हमें जिस तरह का शरीर मिला है उसकी जिम्मेदारी हमारे पुराने कर्मों की है लेकिन उस शरीर का, उस वाणी का और उस मन का हमें करना क्या है ये आज वर्तमान में हमारे ऊपर निर्भर है। अब जरा विचार करें कि जैसा शरीर मिला है उसके लिये कौनसे कर्म जिम्मेदार होंगे, कौनसे भाव हमारे जिम्मेदार होंगे तभी हम आगे के लिये अपनी जरा जो तैयारी कर रखी है उसमें परिवर्तन कर सकेंगे क्योंकि अगर मालूम पड़ जाये कि इस तरह की तैयारी करने से और हम जो सोच रहे थे वो चीज नहीं मिलेगी, मालूम पड़ जाये कि हमने तो तैयारी दूसरे प्रश्न की कर रखी थी उत्तर की और लगता है कि शायद कोई और चीज सामने आने वाली है तो हम जल्दी से अपनी तैयारी बदल सकते हैं। 


हमारे अपने परिणामों को हम टटोल सकते हैं कि वे किस दिशा में जा रहे हैं और आगे जाकर के हमें कैसी स्थिति और कैसा एनवायरनमेंट मिलेगा; सब चिंतित होते हैं इस चीज के लिये कि कहीं दूसरी जगह जाना पड़ेगा तो कैसी-कैसी स्थिति मिलेगी, कौन-कौन मिलेंगे, कैसा शरीर मिलेगा, शरीर मतलब कैसा मकान मिलेगा रहने का। यही तो ये शरीर भी तो मकान ही है, कैसा वाला मिलेगा और कौनसी जगह मिलेगी। गति क्या है, उस जगह का नाम ही तो है जहाँ हम पहुँच जाते हैं और कौनसी जाति मिलेगी, एक इन्द्रिय होंगे, कि दो इन्द्रिय होंगे कि तीन इन्द्रिय की, वार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय कौनसी तैयारी है जिससे कि हम उस प्रकार के शरीर को पायेंगे। एक इन्द्रिय का शरीर मिलेगा, कि दो इन्द्रिय का मिलेगा, कि पंचेन्द्रिय का और पंचेन्द्रिय में भी नारकी जीव का शरीर मिलने वाला है, कि देवों का शरीर मिलने वाला है, कि किसी मनुष्य का शरीर मिलने वाला है, या कि हाथी-घोड़े का शरीर प्राप्त करेंगे, कौनसा करेंगे साथ कुछ एक ब्लू प्रिंट की तरह हमारे साथ अटेच हो जाता है, एक प्रिंट बन जाता है हमारे अन्दर उन सब चीजों का कैसे ? आश्चर्य होता है जब नाम कर्म की प्रकृत्तियाँ पढ़ते हैं कि अगर इसमें जितने बाल हैं तो उतने ही क्यों हैं और उनकी स्टाइल क्या है ये सब हमने निश्चित किया है। शेप, साइज सारा कुछ, आँख यही लगानी है तो यहीं लगेगी, साइज कितनी है, प्रपोर्शनेट है या अनप्रपोर्शनेट है। बॉडी में जो-जो चीजें फार्म हुई हैं वो प्रपोर्शनेट हैं कि नहीं हैं, शरीर का कैसा संहनन है, कैसे हमारे ज्वाइट्स हैं, उनमें कितनी ताकत है, ये सब भी हम अपने कर्मों से निश्चित करते हैं, इन सबके लिये अलग-अलग कर्म हैं और उन सबके अलग-अलग परिणाम हैं। 


मजा ये है इतना बारीकी हिसाब कोई अगर बता सकता है तो सिर्फ सर्वज्ञ बता सकते हैं ये कर्म प्रकृतियाँ और इनके होने वाले परिणामों को जब हम जानते हैं तो ऐसा लगता है कि ये तो हमारी बुद्धि के बहुत पार है। ये कोई बहुत अत्यन्त ज्ञानवान ही जान सकता है। दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते कभी भी, टिव्न्स भी क्यों ना हों। उनके बॉडी कन्सट्रक्शन में कहीं ना कहीं चेन्ज जरूर से होंगे, क्योंकि दो सेपरेट जीव हैं, अलग अलग जीव हैं तो अलग-अलग ही उनके अपने शरीर की बनावट और बुनावट दोनों चीजें होंगी, हाँ! जैसे कपड़े की बनावट और बुनावट दोनों ताना-बाना किस तरह का है ये बुनावट कहलाती है इसी तरह शरीर में भी किस तरह से हमने ताना-बाना बनाया है और कैसा उसका शेप है और साइज क्या है, ये सब हम निर्धारित अपने भावों से करते हैं। दो सूत्रों में आचार्य भगवन्तों ने शॉर्ट में लिखे में, सारी चीज कह दी अब और शरीर के मामले में, गति के मामले में, जाति के मामले में, सौभाग्य और दुर्भाग्य, यश और अपयश के मामले में, अगर सारी चीजें आपको खोटी मिली हैं तो मानियेगा आपने पहले मिली हुई मन, वाणी और शरीर का दुरुपयोग किया होगा, ये तय है। बस इतने शॉर्ट में कह दिया अपन डिटेल कर लेंगे उसका समझने के लिये और इतनी ही बात है “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।" 


अगर हमारा शरीर अशुभ मिला है और भी सारी चीजें अशुभ मिली हैं तो मानियेगा कि हमने योग यानी मन, वचन, काय इनकी सरलता नहीं रखी होगी। इन मन, वचन काय का सदुपयोग नहीं किया होगा, उनका दुरुपयोग किया होगा, या कि इनके द्वारा कुटिलता की होगी, मन में कुछ, वाणी में कुछ, शरीर से एक्शन कुछ। और कोई भी चीज हमने दूसरे के प्रति शुभ नहीं करी होगी। मन में खोटा सोचा होगा, वाणी खोटी बोली होगी और शरीर से भी हमने दूसरे का उपकार करने की जगह अपकार किया होगा, जिससे कि आज हमें मन, वाणी और शरीर की सामर्थ्य सब अशुभ मिली हुई है। हम किसी का कुछ भला कर ही नहीं पाते। हमसे न वाणी से दूसरे का भला होता है, ना शरीर से ही दूसरे का भला किया; ना हमारे मन में कभी दूसरे का भला करने का विचार आता। सब खोटा ही खोटा आता रहा; इसके मायने है कि पहले हमने इस तरह का कर्म किया होगा और निरन्तर किया होगा और “तद्विपरीतं शुभस्य” उससे विपरीत अगर कोई है तो सारी चीजें शुभ मिली होंगी। आज हम देखें गौर से अगर हमें अच्छा सुन्दर शरीर मिला है, इसका मतलब है कि हमने दूसरे के लिये जरूर अपने शरीर से मदद की होगी, हाथ सुन्दर मिले हैं इसके मायने है कि मैंने दूसरे का उपकार किया होगा, आँखें सुन्दर मिली हैं, मैंने दूसरे की बुराई ना देखकर के भलाई देखी होगी, इन आँखों से इसलिये आज मेरी आँखें सुन्दर हैं। मेरी आँखों में चमक है, और अगर ये सारी चीजें मैंने खोटी की होंगी, आँखों से सिर्फ दूसरे की बुराई देखी होगी और कानों से दूसरे की बुराई सुनी होगी तो मानियेगा कान वैसे ही मिलेंगे-“स्वदोषः ......" बड़े-बड़े कान मिलते हैं हाथी को ऐसे सूपा जैसे, और आँखें इतनी-इतनी सी मिलती हैं क्यों? अपने दोष देखने में तो इतनी सी आँख और दूसरे के दोष सुनने में इतने बड़े-बड़े कान। पहले हम जिस तरह के परिणाम और जिस तरह का उपयोग मन, वाणी और शरीर का करते हैं वैसा ही मन, वाणी और शरीर हम यहाँ पुनः पाने के लिये मजबूर हो जाते हैं। बचपन में जो शरीर मिलता है वह सबको क्यों अच्छा लगता है, कभी सोचा। बड़े होने पर वही शरीर अच्छा नहीं मालूम पड़ने लगता। 


शरीर तो ऐसा है कि जीर्ण-शीर्ण होता है उसका स्वभाव है ही। एक बात तो ये है और दूसरी बात और है बचपन में क्योंकि भोलापन है, क्योंकि सरलता है, मन वाणी और शरीर की तब शरीर कुरूप भी क्यों ना हो, भला मालूम पड़ता है और कई बार शरीर बहुत सुन्दर हो और अगर कुटिलता हो, सरलता ना हो तब भी शरीर सुन्दर नहीं मालूम पड़ता। हालाँकि ये कर्म पुदगल विपाकी है। नाम कर्म की अधिकांश प्रकृतियाँ शुभ और अशुभ दोनों रूप हैं लेकिन इससे जीव का भी सम्बन्ध है इसलिये मैंने दोनों बातें आपसे कह दीं कि शरीर अत्यन्त सुन्दर होने के बावजूद भी यदि दूसरे नाम कर्म का उदय है तो वो शरीर किसी को पसन्द नहीं आयेगा और शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से और कुरूप मिला हुआ है लेकिन सुभग नाम कर्म का उदय है तो सबके लिये भला जान पड़ेगा। इसलिये ये दोनों चीजें ध्यान में रखकर के हमारा अपना वर्तमान का राग-द्वेष भी उसमें है अच्छे और बुरे होने में।


गुलाब का फूल सबको अच्छा मालूम पड़ता है। देखियेगा उसका नामकर्म देखियेगा। ठीक उसके अकेले नामकर्म नहीं है उसके सुभग नामकर्म भी है साथ में। उसके अवयव तो अच्छे हैं ही उसका कलर अच्छा है, उसके साथ-साथ उसकी सुगन्ध अच्छी है, सब कुछ अच्छा है काँटों के बीच खिला होने के बावजूद भी सुभग नाम कर्म है। हर आदमी पाने के लिये उत्सुक हो जाता है। वनस्पतियाँ कितने प्रकार की हैं। उनके भी नाम कर्म हैं कितने-कितने प्रकार के लोग हैं उनके अपने-अपने नाम कर्म हैं, कैसे ये सब बनते होंगे। बचपन में क्यों ये सब अच्छे लगते हैं, छोटे होने पर क्यों अच्छे लगते हैं, और बचपन में रास्ते से चले जाने पर क्यों हमें कोई गाय का बछड़ा मिल जाता है तो उसकी पीठ थपथपाने का मन होता है। कोई अच्छी चीज दिख जाती है तो खड़े होकर देखने का मन होता है। क्यों होता है ये सब ? क्योंकि उस समय चित्त अत्यन्त निर्मल होता है। और ये जो चित्त की निर्मलता है वो इन सब चीजों के प्रति हमारे मन को आकृष्ट करती है और इतना ही नहीं बड़े होने पर भी कुछ लोग जब समय पर भोजन करने आते हैं ये सोच करके कि मेरी वजह से दूसरे को तकलीफ ना पहुँचे तब, तब देखियेगा उनके अपने जीवन की सुन्दरता, उनके व्यक्तित्व की सुन्दरता इससे मालूम पड़ती है। 


हमने मन, वाणी और शरीर से अपना स्वार्थ नहीं साधा होगा, परमार्थ साधा होगा इसलिये ये शुभ मिले हैं। हमारा अपना स्वार्थ साधेगे तो आगे जाकर के ये सब अशुभ ही मिलने वाले हैं और इतना ही नहीं हमने इस सारी सामग्री को इतना महत्व नहीं दिया होगा। शरीर, मन और वाणी मिली है और भी जो सामग्री मिली है उसके संचय का उतना ध्यान नहीं रखा होगा बल्कि अपने सदगणों के संचय का ज्यादा ध्यान रखा होगा इसलिये अच्छा शरीर मिला है और उसके विपरीत अगर होगा तो बुरा शरीर मिला होगा। हमारे किये पहले जो मन, वाणी और शरीर मिला था उसका हमने सदुपयोग किया होगा। सदुपयोग करना मतलब दूसरे के काम आना, दूसरे का ख्याल रखना। समय से भोजन के लिये पहुँच जाता हूँ, मुझे दूसरे का ध्यान है मेरी वजह से उसको प्रोब्लम नहीं होनी चाहिये। ये है मन और वाणी का सदुपयोग। मुझे वाणी मिली है मैं बोलूं ऐसा जिससे मुझे बाद में क्षोभ उत्पन्न ना हो, मैं काम करूँ ऐसा जिससे बाद में मुझे पश्चाताप ना हो और मैं विचार करूँ ऐसा जिससे बाद में मेरे मन में ग्लानि न हो। चलिये हो गया, तीनों का सदुपयोग। हम आसानी से इस तरह से सदुपयोग कर सकते हैं। बस जरा सा विचार करना पड़ेगा कि वाणी मैंने बोली है तो बाद में फिर मुझे अपने ही बोले पर कहीं मन में क्षोभ न हो कि ऐसा क्यों बोला ? सामने वाले को तो क्षोभ हुआ सो हुआ पर मुझे बाद में अपने बोले हुए का क्षोभ ना हो तो समझना कि ठीक सदुपयोग किया है वाणी का शरीर। की क्रियाएँ करने के बाद, पश्ताचाप ना हो तो मानियेगा कि शरीर का सदुपयोग किया है। और मन में किसी के बारे में विचार करने के बाद ग्लानि ना हो मैंने ऐसा क्यों विचार किया? 

हम मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग इन बातों का ध्यान में रखकर के आसानी से करना चाहें तो कर सकते हैं और अगर हम आज वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तब भी आगे के लिये अच्छे शरीर की तैयारी कर सकते हैं। वर्तमान में अच्छी गति नहीं मिली है तब हम आगे की अच्छी गति की तैयारी कर सकते हैं और आज अगर अच्छी मिली है तो आगे के लिये बुरी की तैयारी भी कर सकते हैं। ऐसा नहीं है आज मनुष्य गति मिल गई है, सबसे सौभाग्यशाली है, चार गतियों में हमने कोई पहले ऐसा मन, वाणी और शरीर की वक्रता नहीं की होगी, सरलता ही होगी जिससे कि हमें आज मनुष्य गति मिली है। मनुष्य आयु मिलना अलग बात है देखो और मनुष्य गति मिलना अलग बात है। ये चारों गतियाँ निरन्तर 24 घण्टे बँधती रहती हैं, ध्यान रखना और आयु तो किसी एक निश्चित समय के आने पर बँधती है और गति तो हम हमेशा बाँधते रहते हैं। हमारे अपने मन, वाणी और शरीर का जैसा शुभ और अशुभ परिणमन होगा वैसी गति, वैसी एकन्द्रिय, दो इन्द्रिय इत्यादि जाति और फिर उसके हिसाब से बहुत सारे गति, जाति, शरीर, अंग-उपांग, निर्माण बंधन, संघात, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरूलघु उपघात। बारहसिंहा का अपना शरीर अपने ही घात में कारण बनता है। 


चमरी गाय की अपनी सुन्दर सी पूँछ एक बार झाड़ी में अटक जाये तो कई दिन खड़ी रहेगी जब तक कि सुलझ न जाये, मर जायेगी वहीं पर, प्राण दे देगी क्योंकि अपनी पूँछ से बड़ा प्यार होता है उसको । एक बाल अटक गया है पूँछ का झाड़ी में वहीं खड़ी रहेगी, टूट जायेगा, उसको बहुत दुःख होता है। टूटना नहीं चाहिये। अपने ही घात करने वाला शरीर हमें मिल जाता है कई बार और ऐसा शरीर जैसे कि सिंह का दूसरे के घात करने के जैसे नख, ये सब कैसे होता होगा? हमारे अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से होता है, वे शुभ होती हैं तो सारी चीजें शुभ मिल जाती हैं; वे अशुभ होती हैं तो सारी चीजें हमारे जिम्मे अशुभ आती हैं। ये तो ठीक है लेकिन अशुभ मिल जाने के बाद भी हम उनको कैसे शुभ बनायें। अभी तो वर्तमान में सारी चीजें अच्छी मिल जाने पर हम तैयारी बुरे की कर रहे हैं अगर गौर से देखा जाये तो, अपने मन, वाणी और शरीर को बिगाड़ करके और आगे के लिये इन सबकी जो सामर्थ्य है उसको बुरा बनाने की कोशिश में हैं, अगर इस चीज का हम विचार करें। जो शक्ति मिली हुई है उसका सदुपयोग नहीं करेंगे तो संहनन हीन मिलेगा अभी भी हीन संहनन मिला हुआ है। बज्र वृषभनाराच संहनन यहाँ किसी को नहीं मिला। क्यों नहीं मिला ? हम सबने इस शरीर का सदुपयोग नहीं किया होगा। शरीर का सदुपयोग है कि इस शरीर से तपस्या करना या कि दूसरे की सेवा करना और उसमें विशेष रूप से गुरुजनों की सेवा करना। 

जब भी आचार्य महाराज इस बात को सुनाते हैं कि हनुमान जी को वज्र का शरीर कैसे मिला, भीम को वज्र का शरीर कैसे मिला ? पूर्व जीवन में उन्होंने अपने शरीर के द्वारा मुनिजनों की भारी सेवा करी। आचार्य शांतिसागर महाराज को ऐसा बलिष्ठ शरीर मिला था कि दो-दो मुनि महाराज को दोनों कंधे पर बिठा के वेद-गंगा और दूध-गंगा के संगम को पार करते थे। इस जीवन में भी और पहले जीवन में भी उन्होंने ऐसा ही किया होगा और जब कोई बैल अस्वस्थ हो जाता था तो उससे काम नहीं लेते थे और उसे बाँध देते थे। अब बैल की जगह बैलगाड़ी में स्वयं काम किया करते थे। इस शरीर का हमने अगर सदुपयोग किया है तो आगे फिर ये शरीर मजबूत मिलेगा। इस वाणी का अगर दूसरे के कल्याण की बात कहने में उपयोग किया होगा तो हमें फिर से ये वाणी सुस्वर मिलेगा अन्यथा फिर दुस्वर मिलेगी जैसे कि गधे की वाणी और कौए का स्वर कोई सुनना नहीं चाहता है लेकिन कोयल की वाणी सबको पसंद है। क्या किया होगा कोयल ने, वैसी वाणी पाने के लिये? सबसे मधुर बोला होगा इसलिये वाणी मधुर है। बहुत ज्यादा डिसक्शन करने की चीजें नहीं हैं, बहुत अनुभव करने की चीजें हैं मैं तो सोचता हूँ। 


अपने जीवन में थोड़ा सा गौर से एक दृष्टिपात करें सामने तो सब समझ में आता है कि वाकई में ये सब चीजें ऐसे ही बनी होंगी और आचार्यों ने वही चीज हमें इशारा किया है, लिखा है कि और कई कारण हैं उन पर अपन विचार कर लेते हैं। जब हम अपनी इस वाणी से दूसरे की चुगली करने का काम करते हैं तो पिशुनता जिसको कहते हैं, चुगलखोरी इसकी बात उसको ट्रांसफर करना, वो भी अपनी तरफ से कुछ मिक्सअप करते हैं। वाणी तो मिली है अब उसका उपयोग कैसे करना ये हमारे ऊपर निर्भर करता है।
 

एक घटना है बैल और शेर में बढ़िया दोस्ती थी। ये बच्चों की कहानी है। बच्चों के लिये लिखी है। दोनों में अच्छी दोस्ती थी पर किसी को सुहाती नहीं थी। किसी की भी दोस्ती किसी को सहाती है आज. बताओ इससे मालूम पडता है कि हमारा अपना मन कितना-कितना विकृत है। किसी का अच्छा कुछ हो रहा हो तो हमारे मन में जैसे आग लग गई हो, ऐसा क्यों हो जाता है ? कैसा मन पाया हमने, खोटा मन तो पाया है किसी के बारे में भला कुछ थोड़ी देर सोचेगा, बुरा ही बुरा सोचता है, वाणी थोड़ी देर को किसी से प्यार से बोलेंगे जिनसे हमारा स्वार्थ है ये क्या चीज है ? अब वो नहीं सुहाई लोमड़ी महारानी को तो बिल्कुल नहीं सुहाई। हाँ, उसने कहा कहाँ शेर और कहाँ बैल इन दोनों की क्या दोस्ती, अरे बराबरी वालों से दोस्ती करो तो जाकर के बैल से कहा कि सुनो मालूम है शेर राजा आज आपसे बहुत नाराज हैं। अरे नाराज क्यों होंगे, होंगे भी तो मैं मना लूँगा, हमारी तो दोस्ती है। बोली, नहीं-नहीं आज तो तुम्हारी बहुत बुराई कर रहे थे वो शेर, संभव ही नहीं है, कर ही नहीं सकता। हमारी इतनी अच्छी दोस्ती है। ठीक है मत करो हमारी बात का विश्वास पर आप जाकर के देख लेना सब समझ में आ जायेगा। जैसे ही दूर से देखोगे ना तो गुर्राते दिखाई पड़े शेर, तो समझ लेना कि हमारी बात सच्ची है और तो, नहीं तो झूठ है। लोमड़ी ने इस तरह से बैल को जाकर के सलाह दे दी। ऐसी खोटी सलाह देने में अपन बहत होशियार हैं. दसरे के बीच में बैर पैदा करने की आदत अन्ततः हमें अशुभ नाम कर्म में ले जायेगी और दूसरे का मेल-मिलाप करने की आदत हमारे जीवन को ऊँचा उठायेगी। आज तक हमने दूसरे को एक-दूसरे के प्रति विलग करने और एक-दूसरे से द्वेष उत्पन्न करने का तो काम किया है, लेकिन प्राणी मात्र से प्रीति उत्पन्न हो ये काम नहीं किया। ये परमार्थ का काम है। दूसरा स्वार्थका काम है बहत सावधानी की आवश्यकता है, जीवन में। अब शेर के पास पहुंच गई लोमड़ी महारानी। वो बैल अरे, क्या तो आपने उससे दोस्ती करी है कहीं आपकी बराबरी का है क्या वो। शेर ने कहा कि आज क्या बात है तुम ऐसी कैसी बातें कर रही हो? वो तो मेरा इत्ता अच्छा मित्र है। अरे होगा तुम्हारा मित्र कितनी तो बुराई करता है तुम्हारी, और फिर भी उसको अपना मित्र बनाये रखा है। शेर अपने को क्या जंगल का राजा मानता है, मेरे से जरा दो-दो हाथ तो हो जाये पता लग जाये कि कौन बलशाली है ? अच्छा, ऐसा कह रहा था। हाँ ! और अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आज मिलना जब दूर से ही आप उसको जरा गौर से देखना हाँ, पास से मत देखना जरा वो ऐसे सींग करे दिखे ना तो समझ लेना कि मेरी बात सच्ची है, नहीं तो झूठी मान लेना। बस दोनों जन को बता दिया एक से कह दिया जरा गौर से देखना और दूसरे से कह दिया कि वो घूर के देखेगा तो समझ जाना सो उसमें लिखा हुआ है कि बच्चो इसका मोरल क्या है ? ऐसे दूसरों की बातों में आकर के कभी लड़ना नहीं चाहिये। लड़ने से दोनों की हानि हुई, मित्रता तो खत्म हुई, जीवन भी खत्म हो गया। 


ये तो समझ में आती है बच्चों की कहानी। अपने जीवन में नहीं आ रही समझ में। ऐसे दूसरे से लड़ने से, दूसरों की बुराई करने से अपनी ही हानि होती है, बच्चों को तो समझाते हैं लेकिन ये जो अपन बड़े बच्चे हैं इनके समझ में नहीं आती और अपने जिस दिन समझ में आ जाये कि ये वाणी और मन इसके लिये नहीं मिला है, ये दाँव-पेच करने के लिये,कुटिलता है मन, वाणी और शरीर की। इस कुटिलता से तो मेरे को कल मन, वाणी और शरीर जो भी मिलेंगे सब अशुभ ही मिलने वाले हैं; मैं दूसरे का अशुभ नहीं कर रहा हूँ, मैं तो अपने हाथ से अपना अशुभ कर रहा हूँ। भैया इतनी सी बात क्यों नहीं समझ में आती। कह रहे हैं कि अस्थिर चित्त, हमेशा चित्त बदलता रहता है। कई लोग जिनको अपन कहते हैं बड़े मूडी हैं। भैया ये अस्थिर चित्त है 'क्षणे तुष्टम् क्षणे रूष्टम् क्षण भर में रुष्ट है, क्षण भर में संतुष्ट है, ऐसा मन लेकर के अपन आये हैं। ऐसे अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति अशुभ नाम कर्म का ही बंधन करते हैं और झूठे नाप-तौल ये भी अशुभ नाम-कर्म के बंध में कारण हैं। आचार्य विद्यानन्द जी महाराज की सभा में कोई टेढ़ा-मेढ़ा बैठा हो तो एक ही सूत्र बोलते हैं वो “योगवक्रता विसंवादनं चशुभस्य नाम्नः'। बोलते हैं कि ठीक-ठीक बैठो, टेढ़े-मेढ़े बैठोगे तो योगों की वक्रता, मन, वचन, काय की वक्रता अगर होगी तो आगे जाकर के अशुभ मिलने वाला है सब नाम कर्म। कृत्रिम रत्न इत्यादि का निर्माण करना, मिलावट करना इससे अशुभ नाम कर्म, झूठी गवाही देना इससे अशुभ नाम कर्म, दूसरों के अंग-अपांग का छेदन भेदन कर देना इससे अशुभ नाम-कर्म, असभ्य कठोर वचन बोलना, इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध हो रहा है अपने लिये, अपना घाटा अपने हाथ से, बच्चे को कान पकड़ के डाँट देते हैं। हम तो सुधारने के लिये डाँट रहे थे, ठीक है वो सुधर जायेगा। आपका तो बिगड़ गया काम कठोर वचन बोल कर के और बच्चे को आप प्यार से भी समझा सकते थे, प्यार की भाषा से बड़ी कोई भाषा नहीं होती, लेकिन हमें लगता है कि जब हम अपने-अपने लोगों के साथ कठोरता से पेश आयेंगे. तभी तो हमारा दबदबा होगा, तभी तो वो हमारी बात. हमारा टेरर जब तक नहीं होगा, बच्चे मानते ही नहीं बात। बच्चे मानते ही नहीं प्यार से हम कितना समझाते हैं उनको। लेकिन वो माने या ना माने, वो अपना कल्याण करें या ना करें हम अपना अकल्याण अपने हाथ से कर लेते हैं। 


आचार्य भगवन्त लिख रहे हैं कि असभ्य जो कि सभ्य लोगों के बीच कहे जाने योग्य वचन नहीं हैं, जो कठोर हैं, मर्मभेदी हैं, उन वचनों से अशुभ नाम कर्म का ही बंध होता है और मंदिर के गंध, माल्य. दीप, धूप इत्यादि हडप लेना इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। देव-धन और देव-द्रव्य दो प्रकार की द्रव्य होती है वो जो गुल्लक में डालते हैं, रसीद कटवाते हैं, वो सब देवधन है और वो जो चावल चटक और बादाम चढ़ाते हैं मंदिर में, वो सब देवद्रव्य है। और दोनों का भक्षण करना, ये दोनों ही चीजें अशुभ नाम कर्म के लिये कारण बनेंगी। बहुत लोग करते हैं, बोली बोल देने के बाद अब रखे हैं पैसे अपने पास, सालों नहीं दे रहे। जितने दिन तक रखे हैं उतने दिन तक अशुभ नाम कर्म का बंध ही रहा। ये अपने मन से नहीं कह रहा हूँ बुरा मानने की बात नहीं है, ऐसा है। अब है तो क्या करें? दिया के मैं ऐसा-ऐसा और अब मन कच्चा हे पोछे हट रहा है, कमती में का हो जावे। हाँ, ऐसा हो जाता है भाव। सबसे अच्छा ।लखा है कि अगर पॉकेट में है तो ही बोलो, देओ और निश्चित होकर वापस लौटो। कौन आगे का हिसाब रखे कल के दिन, शाम को मन पता नहीं कैसा हो जाये, दे दो तुरन्त, नहीं तो वह देवधन जब से आपने बोल दिया तब से वह देवधन हो गया। आपने कह दिया कि इतना रुपया मेरा बोली में बोल दिया और अब घर तक चले गये हैं, जितनी देर होती जायेगी उतनी देर आप उस देवधन को जो बोला हुआ है 10,000 बोल दिये तो अब। वो देवधन आपके पास रखा है। अब उसको जितने दिन तक रखे रहोगे, उतने दिन तक परिणाम अगर नहीं देने के बन गये, दे दूंगा क्या फर्क पड़ता है कौन खाये जा रहा हूँ ? दूसरे अपने सुख-सुविधा के साधनों में तो लगाये हैं उस देवधन को और दे नहीं रहे हैं। चार दिन बाद देंगे, ये सारा अशुभ नाम कर्म के बंध, कभी रयणसार पढ़ियेगा, कुन्द-कुन्द स्वामी का उसमें, बहुत डिटेल लिखा हुआ है। एक ही फैमिली हमने अभी तक देखी है अपने जीवन में और भी होंगी लेकिन मेरा ऑब्जरवेशन जितना है उतना बता रहा हूँ। एक फैमिली मिली उनके यहाँ नियम है कि आपने जितने पैसे सभा में बोले हैं या तो वहाँ लेकर के जायें सो वहीं देकर के आयें या कि पहला काम घर लौटकर के जितने बोले हैं उतने रुपये. सोने से पहले निकाल दो घर में से। दूसरे दिन रखा नहीं होना चाहिये। उन्होंने जबलपुर में कलश की बोली ले ली डेढ़ लाख रुपये की और उतने तो लेकर कोई नहीं जाता पॉकेट में। वापिस आकर सबसे पहले गड्डी निकाली, उतने पैसे की एक तरफ रखी फिर उसके बाद दूसरा काम, और जाकर के कहा कि ये ले लो, सम्भालो। 


उसने कहा हम नहीं जानते आपको जो करना हो वो करो, जैसे सम्भालना हो आप सम्भालो, हम नहीं रखेंगे अपने घर में, ये इत्ते रुपये आप रखो। क्या पता कल के दिन मेरा मन बदल जाये इन रुपयों को लेकर, मैं अपने पाँचों इन्द्रिय और मन के भोगों में उपयोग करने लगूंगा और बाद में मेरे पास देने को नहीं बचे और मैं फिर मुश्किल में पड़ जाऊँ इसलिये जो सामग्री हम अपने मन, वचन, काय से सोचकर के एक बार चढ़ा देते हैं, उसके प्रति अपने मन में कलुषता नहीं आनी चाहिये, कुटिलता नहीं आनी चाहिये। नहीं देने का भाव अगर थोड़ा भी मन में आ गया, देरी से देने का भाव आ गया, तो अशुभ नाम कर्म बँधेगा। ईंटों का भट्टा इत्यादि लगवाना और ऐसे कर्म करना जिनसे बहुत हिंसा होती है, अशुभ नाम कर्म का बंध होगा। 


इतना ही नहीं, सबके ठहरने के स्थानों को नष्ट करवा देना, अच्छे लगे हुए उद्यान इत्यादि बाग-बगीचे और उनको नष्ट करवा देना, ये सब जो हैं हमारे अशुभनाम कर्म के बंध के कारण हैं। लेकिन वो तो मास्टर प्लानिंग हो रही है। बुलडोजर आयेगा सबके मकान जो हैं उनको तोड़-ताड़ करके एक तरफ रख देगा। अपन समर्थन करो तो अपना ही अहित। बहुत सम्भलकर जीने का है मामला। संसार कहाँ जा रहा है किस तरफ, जाने दें अपन, अपना लौटा छानें। अरे, ऐसे कैसे काम चलेगा ? तो क्या आप संसार बढ़ाना चाह रहे हैं क्या ? नहीं, हम तो संसार घटाना चाह रहे हैं तो अपना काम जरा होशियारी से, जिम्मेदारी से करना पड़ेगा। जिसके द्वारा सबके कल्याण के लिये शरीर की क्रियाएँ होती हैं, जिसका मन सबके कल्याण के लिये भरा हुआ है, जिसकी वाणी सबके कल्याण के लिये और निरन्तर अच्छे वचन बोलती है वही अपने मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग कर रहे हैं। और आगे भी उन्हें ऐसी ही शुभ मन, वचन और काय की सामर्थ्य मिलेगी। और अगर अपन इससे विपरीत करेंगे तो समझ लो भैया। मेरा शरीर कमजोर क्यों हुआ ? माँ ने मेरा शरीर कमजोर नहीं बनाया ? मैंने अपने कर्मों से शरीर कमजोर बनाया है। मुझे अच्छी बुद्धि क्यों नहीं मिली ? तो मेरी माँ ने मुझे ऐसी छोटी बुद्धि वाला बनाया हो, ऐसा नहीं है। मेरी बुद्धि अगर कम है तो मैंने कभी किसी दूसरे की बुद्धि की प्रशंसा नहीं करी होगी। कभी किसी दूसरे के ज्ञान की प्रशंसा नहीं करी होगी बल्कि उसकी बुद्धि को नष्ट करने का उपाय करा होगा। उसके मन को चोट पहुँचाने का विचार किया होगा जिससे कि मेरे मन को आज क्षुद्रता ही मिली हुई है ऐसा विचार करना चाहिये। 


एक छोटा सा उदाहरण है। कोई एक रामानुजम का बालक था। मन, वाणी और शरीर सबको मिलते हैं, कौन कैसा उपयोग करेगा यह उस पर निर्भर करता है। यह उसकी च्वाइस पर निर्भर करता है। 

 

बचपन में एक यज्ञोपवीत संस्कार होता है। दक्षिण भारत में तो ये बहुत होता है। आचार्य महाराज का भी 11-12 साल में ही हुआ था। जी बन्धन कहते हैं उसको। तो उसमें, उस संस्कार में मंत्र भी दिया जाता है, जीवन भर गुरुमंत्र इसका जाप करना। यदि विपत्ति आये तो उससे बचने के लिये है। चाहे शुभ दिन हो, चाहे अशुभ दिन हो सब में जाप करना तो वो मंत्र दिया उनके गुरुजी ने और समझा दिया कि सुनो इस मंत्र के जपने और सुनने मात्र से कल्याण हो जाता है। बड़ा अलौकिक मंत्र है, पर सुनो इसको सावधानी से पढ़ना और अपने पास ही चुपचाप रखना, किसी को बताना मत, ऐसा बोल दिया। 


अब छोटा सा बालक, उसने रात भर विचार किया कि एक तरफ तो ये कहते हैं कि ये मंत्र अलौकिक है, जो भी सुन ले तो उसका कल्याण हो जाएगा और एक तरफ कह रहे हैं किसी को बताना नहीं, ये दोनों ही बातें समझ में नहीं आयीं। सो सवेरे से जाकर के छत के ऊपर और जोर-जोर से मंत्र का पाठ करने लगा। अब गुरुजी को मालूम पड़ा तो वो बड़े दुःखी हुए, बोले हमने तुमसे कहा था कि ये किसी को मत बताना, ये तो चुपचाप करने का है। पर गुरुजी आपने यह भी तो कहा था कि ये मंत्र बहुत अलौकिक है और जो भी इसे सुनेगा उसका कल्याण हो जाएगा। तो मैंने सोचा कि सभी सुन लें जिससे सबका कल्याण हो जाये। गुरुजी ने पीठ थपथपाई की, अब तो जरूर तुम्हारे पास ये मंत्र तुम्हारा ही नहीं, सबका कल्याण करेगा। जो उसको सुनेगा। भैया मंत्र और कोई बड़ी चीज नहीं है। मंत्र तो सबके पास है। उसमें सामर्थ्य कौन डालता है? 

हमारी अपनी सद्भावनाएँ, उसमें सामर्थ्य डालती हैं। मन, वाणी और शरीर से जो भी करें, वो सद्भावना से करें तो फिर देखियेगा कि हमारे जीवन में जो मिलेगा वो सब शुभ ही मिलेगा और दुर्भावना से अगर मन, वाणी और शरीर का हम उपयोग करेंगे तब फिर मानियेगा कि हमें भी आगे शरीर वैसा ही मिलेगा। इसी भावना के साथ कि हम अपने प्राप्त हुए मन, वाणी और शरीर इनका आगे सदुपयोग कर लें और अगर हमें कमजोर मिले हैं तो हम विचार करें कि हमने कुछ अच्छा नहीं किया होगा। नहीं किया हो कोई बात नहीं, अब तो शुरू कर सकते हैं। ऐसा विचार करके अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये पुरुषार्थ करें। 


इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागरजी मुनि महाराज की जय। 

००० 

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Create an account or sign in to comment

You need to be a member in order to leave a comment

Create an account

Sign up for a new account in our community. It's easy!

Register a new account

Sign in

Already have an account? Sign in here.

Sign In Now
  • बने सदस्य वेबसाइट के

    इस वेबसाइट के निशुल्क सदस्य आप गूगल, फेसबुक से लॉग इन कर बन सकते हैं 

    आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प डाउनलोड करें |

    डाउनलोड करने ले लिए यह लिंक खोले https://vidyasagar.guru/app/ 

     

     

×
×
  • Create New...