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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

7. पहली-पहली बार


Vidyasagar.Guru

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परिवर्तन शील संसार में वह सम्यक् विजेता फिर इस पृथ्वी पर आया। अब तो सीमित श्रृंखलायें ही तोड़ना है। अवतार हुआ है उस आत्म विजेता का इस भूखण्ड पर प्रथम बार। पञ्चमगति को प्राप्त करने के लिए ही मानो यह पाँचवाँ संसार रह गया था। इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का प्रथम तीर्थप्रवर्तक बनना है शायद इसीलिए वह परकल्याण की सीमायें इसी द्वीप से बाँधे हुए हैं। अब अवतरित हुए हैं पूर्व विदेहक्षेत्र के महावत्स देश के सुसीमा नगर में राजा सुदृष्ट की सुन्दर नन्दारानी से, सु अर्थात् अच्छे, विधि अर्थात् भाग्य वाला सुविधि पुत्र हुआ। वह सुविधि बाल्यावस्था से ही गम्भीर प्रकृति का था। अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि वाला होने से वह अपने पिता और गुरुजनों को अत्यन्त प्रिय था। माता की आँखों का एक मात्र तारा, कभी माँ से दूर जाकर खेलने चला जाता तो माँ व्याकुल हो घबड़ाने लगती और खेल से बुलाकर अपनी गोद में खिलाती। वह माँ पर नाराज होता था, कि तुम मुझे मित्रों के साथ खेलने नहीं देती, तो माँ कहती तुझे जितना मित्रों का ख्याल रहता है, उससे थोड़ा कम ही सही मेरा भी तो ख्याल रखाकर; सच बताऊँ सुविधि, यदि तुम मेरे सामने ही खेला करो तो मैं तुम्हें कभी बीच में नहीं बुलाऊँगी। सुविधि अपने गुणों से बच्चे, वृद्ध सभी को प्रिय था। सौभाग्य वही है, जिससे व्यक्ति सबका प्रिय हो। जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा था, वैसे-वैसे उसे महसूस हो रहा था कि मैं अपने निकट आता जा रहा हूँ। बन्धन और बाधायें उसे कभी रुचते नहीं थे। संघर्षों से ही संघर्ष करना उसकी आदत थी। वह कभी घोड़े को लेकर अरण्य की सैर करता तो कभी समुद्र की लहरों को पकड़ने का उपालम्भ। एकाकी रहना उसे बचपन से ही प्रिय था, फिर भी मित्रों की जरुरत समझकर उनकी क्रीड़ा में शामिल होकर सबका चित्तरंजित करता। वीरान वनों में उसे जो सुख प्रतिभासित होता वह महलों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में भी नहीं पाता तभी तो वह जब भी माँ को किसी कार्य में व्यस्त देखता, तो श्वेत अश्व की सवारी ही सूझती और घोड़े को दौड़ा-दौड़ा कर वह गगन में ही उड़ जाना चाहता था या फिर इस दुनिया से दूर-बहुत दूर, जहाँ मैं मात्र अपने को अपना ही पाऊँ। पर, परिवार की मोह श्रृंखलायें उसे मजबूर करती। अब वह बड़ा हो गया, माँ की गोद में से उछल जाता है, अब माँ का प्यार उसे बाँध नहीं पाता। माँ सोच रही हैं, अब इसे बन्धन में रखना इससे दूर जाना है। जितना स्नेह अभी मुझे इससे है, उस स्नेह की यह उम्र ही अन्तिम अवस्था है अब इसे प्रेम चाहिए प्रकृति का, तभी तो यह बार-बार वीरान अटवी की ओर दौड़ता है। भोला है, समझता नहीं उसे क्या जरूरत है, वह जरूरत तो मैं ही समझ सकती हूँ। उन जंगलों में उसे क्या मिलेगा गहरा दर्द ही ना। वह दर्द और बढ़े इससे पहले उसका निदान अतिआवश्यक है। आज यही माँ का समसामयिक कर्त्तव्य है, सही स्नेह है। पर आज यह रवि अपनी रश्मिओं को समेटने लगा, धीरे-धीरे गगन की नीलिमा लालियाँ बनने वाली है और सुविधि आया नहीं. लगता है कहीं दूर चला गया, जिन्दगी से भागना चाहता है, यही तो उसका बालपन है। थोड़ी ही देर में दूर से देखा तो दिख रहा है कि आकाश लगातार एक ही मार्ग में धूल धूसरित हो रहा है, कोई नहीं दिख रहा है। विश्वास है, वह पक्षी वापस नीड़ में आ रहा है, धीरे-धीरे टॉप-टॉप की आवाज भी सुनाई देने लगी। शनैः शनैः श्वेत अश्व भी दिखा और वह स्वर्ण से तप्त दैदीप्यमान देह इस संध्या की लालिमा में अहो अग्निपिण्ड सी दिख रही है। इस अत्यन्त वेग में उसके सिर का बाल मुकुट कहाँ गया? मात्र कुन्तल केशों का उठान ऐसा लगता है मानो समुद्र में मगरमच्छों का समूह ऊपर उठकर फिर उसी में डूब जाता है। निडरता के पथ पर दौड़ता हुआ मानो मृत्यु का भय और आशाओं की धूलि को पीछे छोड़ता हुआ निराबाध बढ़ रहा है। माँ यह सब सोचती रही कि पीछे से आकर माँ-माँ चिल्लाता हुआ वह उस झरोखे पे माँ को खड़ी देख बोला अरे! माँ क्या देख रही हो? देख रही हूँ पुत्र कि तू अब दिख नहीं रहा। क्या? क्या? मैं तेरे सामने तो खड़ा हूँ, वहाँ नहीं, इधर देखो इधर; और मुख को घुमाते हुए ये देख तेरा लाड़ला। अच्छा तो लाड़ले को अभी भी अपनी माँ की याद है। माँ आज तुम्हें क्या हो गया? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? नहीं सुविधि, मैं नहीं, तुम बहके हो। तुम्हारे वक्षःस्थल पर कवच नहीं धूलि की पर्ते बिछ रही  हैं। तुम्हारी कुन्तल अलकायें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं, न राजकुमार के योग्य वेष है, न भूषा तुम जिस पथ पर रोजाना प्रकाश ढूँढ़ने निकलते हो उस पथ पर निरा-अन्धकार छाया है बेटा; बहकी मैं नहीं, तुम हो। बिल्कुल ठीक माँ, मैं हार गया तुम जीत गयी, अब जल्दी कुछ खिलाओ बहुत तेज भूख लगी है और देखो रात्रि होने वाली है माँ । हाँ-हाँ मैं जान रही हूँ कि तुझे जीतना मेरे तो क्या किसी के वश का नहीं। फिर मुझसे हारकर ही तो तुम जीतना चाहते हो क्योंकि माँ हूँ ना। माता, पिता और गुरुजनों से हार जाना ही जीत है; बेटा! मैं तेरी इस नीति को समझती हूँ। प्रसङ्ग को बदलना तो कोई तुझसे सीखे और हँसकर सुविधि के ललाट को अपनी वात्सल्य गोद में छुपा लिया।

 

सुविधि की माँ का भाई है अभयघोष । महाप्रतापी अप्रतिम पुण्यवान् सम्राट। आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। पुरोहितों से इस पुण्यप्रताप को समझ अभयघोष ने चक्ररत्न की पूजा की। कुछ ही दिनों में दिग्विजय के लिए प्रस्थान करना है, इससे पहले परिवार जनों से आशीर्वाद लेना भी सफलता की पहली सीढ़ी है इसलिए अभयघोष अपनी बहिन सुन्दरनन्दा से मिलने आया है। कौन किससे मिलता है यह तो भाग्य ही जाने। पर अभयघोष के आने का समाचार जान नन्दा अत्यन्त हर्षित हुई। माँ ने सुविधि को बताया कि तेरे मामा आ रहे हैं उनसे अच्छी बातें सीखना। सैन्य संचालन और राजा के कर्तव्यों को समझते हुए उनसे स्नेहिल व्यवहार करना है। माँ मैं अभी राजा नहीं युवराज हूँ। भविष्य की गोद में जिस फूल में गन्ध आयेगी, उसे अभी से छेड़छाड़ करना फूल को ही मिटा देना है माँ! निर्बलता का अतिरेक ही भविष्य की चिन्ता को प्रेरित करता है। वर्तमान को वर्तमान ही महसूस करना सफलता का वर्धमान पाथेय है। माँ! मेरे उज्ज्वल वर्तमान से तुम्हें भविष्य की चिन्ता करना मेरे पौरुष पर अविश्वास करना है। इस अपराजित ललाट पे क्या कभी पराजय की, भय की, उन्मनस्कता की लहरें आपने पायी ? यदि नहीं, तो ऐसी शिक्षा क्यों? नहीं माँ आज आपको लग रहा है कि मेरा भाई चक्रवर्ती हो गया इसलिए मैं इन आँखों में छोटा लगने लगा हूँ। पर माँ, चक्रवर्ती होकर भी वह मुझे जीत नहीं सकते। न चक्र से, न शस्त्र से और न अस्त्र से, मामा और भांजे का सम्बन्ध आत्मीय सम्बन्ध होता है। उनका चक्र इन चरणों में सदा स्तम्भित रहेगा। आप हमें यह बतायें कि वह चक्रवर्ती बनकर यहाँ आ रहे हैं या आपका भाई बनकर।

 

उफ! उफ! सुविधि! तुम अपनी मेधा से छोटी से छोटी बात को भी कितना बड़ा बना देते हो, कितनी सम्भावनाओं में तुम चले जाते हो । मैं जानती हूँ कि तुम्हारी रक्तवाहिनियों में संचारित लहू बहुत गर्म है। पर, मेरे कहने का अभिप्राय ऐसा बिल्कुल नहीं था सुविधि! वह अपने भांजे को देखने आ रहे हैं, कि वह कितना बड़ा हो गया और कितना गम्भीर, कितना अपना है और कितना पराया। कितना शान्त है और कितना सुन्दर। कितना विनयान्वित और कितना नयान्वित ? बस करो माँ, बस करो अपने बेटे को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न बताओ कि तुम उसका मस्तक भी न चूम सको और सुविधि मुस्कुराते हुए बाहर चला गया। आज माँ को एहसास हुआ कि सुविधि कितना गम्भीर और पराक्रमी है। माँ ने अपनी कोख को मन ही मन आशीष दिया कि तुम ऐसे ही बढ़ते जाओ, अपने स्वाभिमान को बढ़ाते जाओ और सदा इन अहंकृति के बन्धनों से मुक्त रहो।

 

चक्रवर्ती अभयघोष का आगमन हुआ। अपनी बहिन और भांजे को देख उसका चित्त अति निर्मल और प्रसन्न हुआ। सुविधि की अवस्था और पूर्ण यौवनता सभी के आकर्षण का एक प्रभावी केन्द्र बन गया था। चक्रवर्ती ने कहा बहिन, अब सुविधि को यथावय प्रेम की आवश्यकता है शायद इसीलिए उसका मन घर में नहीं लगता है और सदा एकान्त काननों में भ्रमण करता है। माता-पिता जब पुत्र के लिए उम्रानुसार सुख देने में सक्षम नहीं होते तो वे पुत्र के कोप का भाजन बन जाते हैं। साधु-श्रमणों का एकान्तवास ही लाभप्रद होता है गृहस्थों का नहीं। एक अविवाहित पुरुष का निर्द्वन्द्व विचरण समाज के लिए सोचनीय विषय होता है। जब तक बाल्यावस्था रहती है, माता-पिता, साथी जनों के प्रेम से जीवन बढ़ता है। कौमार्यावस्था में पठन-पाठन आदि विद्याएँ सीखने में काल सहायक हो जाता है, किन्तु इस युवावस्था में एक सहचरी की नितान्त आवश्यकता होती है। एकाकी जीवन उसे युवा बछड़े की तरह उन्मत्त कर देता है इसलिए बहिन समय की आवश्यकता को समझो। यथावसर जो कार्य एक छोटे से तृण से किया जा सकता है समय गुजरने पर फिर वह कार्य बड़े-बड़े शस्त्रों से भी साधित नहीं होता। उसका द्वित्व से अनुभूत होना ही उसके मन के द्वन्द को दूर करने का एक मात्र कारण है। मन का यह विकल्प मिथ्या नहीं है किन्तु सामयिक है। भैया! आपका कहना पूरी तरह उचित है, मैं भी यही सोच रही थी पर उससे कहने में डर लगता था। आप ठीक अवसर पर पधारे और उचित सुझाव दिया पर इसकी वार्ता पहले आप जीजाजी से करो और फिर सुविधि से। चक्रवर्ती ने बहिन को आश्वासन दिया और राजा सुदृष्टि का ध्यान आकर्षित कर उनके मन को जान लिया। तदुपरान्त बहिन को लेकर चक्रवर्ती सुविधि के पास गए। माँ ने सुविधि से कहा बेटे! आज तुम्हारे मामा तुमसे कुछ कहने आये हैं। सुविधि ने प्रसङ्ग को जान लिया पर दूसरों को नाराज करना जब उसकी नियति में नहीं था तब अपनो को वह कैसे कर सकता था ? किन्तु अपनी बुद्धिमत्ता से बड़े-बड़े संघर्षों में खेलने वाला वीर इस छोटी-सी अपने जीवन की समस्या में कैसे उलझ सकता था? तभी सुविधि ने उत्तर दिया माँ, क्यों हमेशा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बाँधने का निर्मम प्रयास सदा से किया जाता रहा है। हम दूसरों के जीवन को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं, जैसे हम स्वयं जीते हैं, चाहे वह उस जीवन की स्वीकृति से खुश रहे या न रहे। अरे पुत्र! मामाजी ने अभी कुछ कहा नहीं और तुम क्या कहने लगे? बेटे पहले मामा की बात तो सुनो। यह सुनना और सुनाना, समझना और समझाना यह हमारे मन के विकल्प हैं, माँ इनसे कुछ भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। इस रहस्य को तुम जानती हो फिर भी कुछ कहना चाहो तो सुनाओ मैं तैयार हूँ। सुविधि! मैं आपका मामा हूँ ना, मैं अपने भांजे को किन्हीं कल्पनाओं में उडता देखू और अशान्त देखू, यह मुझे कैसे सहन हो सकता है? मैं चक्रवर्ती हूँ, दुनिया की कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आपके लिए मैं न ला सकूँ। तुम्हें इस संसार में कोई भी वस्तु अच्छी लगे वह मुझे बताओ मैं हमेशा के लिए उसे आपके साथ बाँध दूंगा। सुविधि ने मुस्कुराते हुए कहा मामा क्यों आप अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं, आपको दिग्विजय पर जाना है ना। अपने आवश्यकों को छोड़कर दूसरे के आवश्यकों को पूरा करना कहाँ तक उचित है ? और फिर आपने उसी बंधन की बात की ना जिस बंधन से मैं सदियों से बंधा आया हूँ। नहीं! सुविधि यह बंधन नहीं, जीने का एक निर्बन्ध रास्ता है, जैसे आगम की मर्यादा में बंधा श्रमण भी अपने को बंधन में नहीं किन्तु निर्बन्ध ही महसूस करता है उसी प्रकार स्त्री के बंधन में पुरुष को मुक्ति की पराकाष्ठा प्राप्त होती है। यह जीने का निराकुल साधन है। नहीं मामा! आपका यह श्रमणों का उदाहरण उदाहरणाभास है। श्रमण के लिए वह बंधन नहीं है, ज्ञान और मर्यादा के दो तट हैं, जिसके बीच में आत्मा का ज्ञानामृत निराबाध बहता है, वह बंधन नहीं है, बंधन तो दो में होता है, किन्तु आत्मा में एकत्व का मिलन एक में ही होता है। जहाँ बंधन होता है वह जीवन परतंत्र हो जाता है। स्त्री बंधन में स्वतंत्रता की नहीं परतंत्रता की श्वास होती है। सुविधि! जहाँ जीवन का आनन्द मिले वहाँ परतंत्रता की बात कहाँ? यह तो कहने को है। उस इन्द्रिय और मानसिक सुख में डूबकर ही तृप्ति का अनुभवन होता है, बंधन उन्मुक्त हो जाते हैं। जीवन में इस सुख से वंचित रहना आत्मवंचना होगी। मामाजी! यह अपनी-अपनी समझ है, जिसे आप सुख कहते हैं, उसे मैं सुख की अतृप्त वासना समझता हूँ, जिसे आप इन्द्रिय और मानसिक सुख मानते हैं, उसे मैं एक विपरीत अध्यवसाय मानता हूँ और जिसे आपने आत्मवंचना कहा वह एक महती प्रपञ्चना है। सृष्टि के विशालकाय भण्डार में द्रव्य अपनी सत्ता में ही हिलोरें ले रहा है, बन्धन बद्ध होते हुए भी आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर प्रत्येक द्रव्य की सत्ता होते हुए भी कोई किसी से बाधित नहीं और न दूसरों को बाध्य कर रहा है। लगता है सुविधि! अभी तुम्हें समझाने का समय नहीं है क्योंकि तुम समय की उछलती कणिकाओं को पकड़ने का एक विफल प्रयास कर रहे हो। नहीं मामा जी! समय कहीं नहीं गया वह यहीं है, सदा-सदा से अपने पास। उसका विनाश त्रिकाल में कहीं भी सम्भव नहीं। पाँच द्रव्यों का वह अस्तिकाय ही समय है। आत्मा का प्रतिक्षण वर्तन ही समय है। पर से अस्पृष्ट और असंबद्ध अनुभूति ही समय है, उसको पकड़ना नहीं। पकड़ा तो उसे जाता है जो कहीं दूर जाने को हो । जिससे पुनर्मिलन की कोई गुंजाइश न हो, जिसकी पुनः प्राप्ति में भय हो या निराशा । मैं समय की उछलन में उछलना नहीं चाहता शायद इसीलिए उछलते हुए कण को पकड़ने का यह प्रयास आपको बेईमानी सा लगता है और मामाजी मैं सदा यह भावना रखता हूँ कि वह समय आये जब आपकी अतृप्त इच्छाएँ पूर्ण हों, बिना समझाये हुए मुझे सब स्वयं ही समझ में  आ जाये, आपको पुनः इसके लिए कोई प्रयास न करना पड़े। पर तब तक के लिए हमें धैर्य रखना होगा, उस स्वतंत्र परिणमन को अस्खलित दृष्टि से लखना होगा और तब मैं और आप दोनों ही निराकुल होंगे दोनों ही निष्काम होंगे और दोनों को प्राप्त होगी चरमभोग की असीम सीमा, जिससे परे न कोई सुख और सुख की सामग्री। कोई बात नहीं सुविधि! यदि आप अपने विचारों और कार्यों से सन्तुष्ट हैं तो मैं आपको जबरदस्ती मजबूर नहीं करूँगा।आपकी खुशी में ही मेरी खुशी है और आपकी तुष्टि में मेरी तुष्टता। बहिन को धैर्य बँधाते हुए और आश्वासन की किरणों को देकर वह चक्रवर्ती दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर गए। पर इधर माता-पिता को गहरी बैचेनी और पीड़ा की कठिन आँधियां अन्दर ही अन्दर घुमड़-घुमड़ कर आहत करने लगी। दुःख की अप्रकट कुंठाएँ मन ही मन चिल्लाने लगीं। इस कुल का एक नक्षत्र आज उदय होने से पहले ही अस्त होने लगा। जिस पुष्प को मैंने अपने ही वीर्य और रक्त से सींचा आज वह महकना नहीं चाहता, खिलने और खुलने से इंकार करता है। जीवन की सारी शक्ति सारी आशाएँ निष्प्राण और निराशा में बदलने लगी। ऐसा लगता है, मानो जागृति की अजस्रधारा को किसी ने बाँध दिया और जीवन को जड़ और मूर्च्छित-सा बना दिया है। आज इस संचेतना को क्या हो गया? जिसकी प्रत्येक इच्छा को माँगने और कहने से पहले ही मैंने पूर्ण किया। निराशा की, भय की चिंगारी भी जिसके जीवन में नहीं आयी। सदा उसको उसी के निर्णय के लिए स्वतंत्र रखा, पर आज उसका निर्णय क्या हो गया है? अपने सुख में उसे माता-पिता के सुखों की कोई चिन्ता नहीं है। इसे स्वार्थ कहूँ या सम्यक् पुरुषार्थ मैं सोच नहीं पा रहा हूँ। द्वन्द्वों के इस विचरण में मन कब तक एकाकी विचरेगा। इस परिस्थिति की अन्तिम परिणति क्या होगी? इत्यादि मानसिक दुःखों से माता-पिता परेशान रहने लगे।

 

तभी समय ने करवट ली। चक्रवर्ती षटखण्डों को जीतकर आ गए हैं। जीत की कार्यप्रणाली निर्बाध चल रही है और अभयघोष के आने के कुछ दिन बाद ही सुविधि के पिता सुदृष्टि का काल ने वरण किया। यह आकस्मिक घटना पूरे राज्य में खलबली मचा गयी। रोने चिल्लाने की आवाज से सारा राजमहल आपूरित है सबके ओठों पे एक ही बात, एक ही चर्चा, यह क्या हो गया? कुछ भी कहो प्रभु ने यह अच्छा नहीं किया। अब इस कुल का दीप कैसे प्रकाशित होगा। बेटा विवाह नहीं करना चाहता, ना ही राज्यभार चाहता है, राजा की इकलौती संतान, किसी की भी समझ से परे है। माँ तो पहले ही परेशान थी, उस पर यह और बिजली आ गिरी। हे प्रभो! इन सबको तू ही आकर सान्त्वना दे। पुरवासियों की अनेक-अनेक धारणायें अलग-अलग ओठों से सामने आने लगी। कुछ दिनों बाद अभयघोष पुनः बहिन को देखने आये। बहिन का हाल देखकर वह बहुत दुःखी हुए, उन्होंने सुविधि के बारे में फिर वही चर्चा की तो बहिन ने कहा, वह किसी की नहीं सुनता। उसने पहले जो बातें की थी वही अब करेगा, उसे किसी की कोई चिन्ता नहीं, उसका निर्णय अटल होता है। फिर भी बहिन! अब इन हालातों में पुनः बात कर लें भगवान् की दया; शायद वह मान जाये आखिर वह भी एक इंसान है, उसे इतना कठोर मत समझो। मैं जानता हूँ कि वह बहुत स्वाभिमानी है शायद इसीलिए अब तक उसने अपनी तरफ से कुछ कहने में हिचकिचाहट की हो। भ्रात! आप यदि ऐसा समझते हो तो ठीक हैं। माँ रोती हुई भाई के साथ सुविधि के पास पहुँची, सुविधि ने देखते ही माँ की चरण वन्दना की और पूछा माँ आज आप यहाँ, मेरे पास, रोती हुई! माँ! मैं आपका दर्द समझता हूँ, पर माँ! कर्म के आगे हम सब विकलाङ्ग से रह जाते हैं। भाग्य की रेखा कब जीवन के कंचन गिलास को तोड़ दे, कहा नहीं जा सकता माँ।

 

बेटा! आज पहली बार तेरे मुँह से इतने लचीले वचन सुन रहीं हूँ। आज पहली बार तुझसे कर्म और भाग्य की बात सुन रही हूँ, तेरा भाग्य तो तेरे हाथों में था; आज यह कर्म की बात मुख पे कैसे आ गई? नहीं माँ नहीं! अपने बेटे को इतना कठोर मत समझो। तेरा पुत्र अनेकान्त को पहचानता है। भाग्य और पुरुषार्थ का विभाजन उसकी बुद्धि में समयोचित विभाजित है। अनेकान्त के अमृत प्याले में सबको जीवन-दान मिलता है। वहाँ भय, तृष्णा, अनहोनी, निराशा जैसी कोई चीज नहीं है, माँ । यदि यह बात है बेटा! तो फिर मैं दुःखी क्यों, मैं निराश क्यों? दुनिया में दीपावली है और राजमहल में अँधेरा। अब यह घर श्मसान-सा लगता है। यदि आज मैं फिर निराश लौटी तो बेटा! तुझे सदा के लिए अपराधी होना होगा। मेरी नजरों में ना सही तो अपने मामा की नजरों  में और इन पुरवासियों की नजरों में। तभी मामा ने सुविधि से कहा, आज समय आ गया है कि आप अपनी जिम्मेदारियों को समझें और माँ को दुःख से उबारें। सुविधि ने स्मित मुख से कहा मामाजी! मैंने आपसे कहा था ना जब समय आयेगा तब बिना प्रयास सब कुछ होगा। हम मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहें। आपका धैर्य अब फलीभूत होगा। मैं कभी भी निष्फल और निष्प्रयोजनीय पुरुषार्थ नहीं करना चाहता, आज मेरे पुरुषार्थ में प्रयोजनता है, लक्ष्य है और समय की आवश्यकता है इसलिए आप विश्वस्त रहें कि मैं मोक्ष पुरुषार्थ करने से पहले अब पूर्व के तीन पुरुषार्थ भी करूँगा और जीवन में समग्रता लाकर ही शिवाङ्गना को वरण करूँगा। माँ के चेहरे पर अद्भुत प्रसन्नता की लहरें उठी और तभी अभयघोष ने कहा सुविधि का प्रथम अधिकार मेरी बेटी मनोरमा पर है। मंगल परिणय सम्पन्न हुआ। चिरकाल तक मनोरम क्रीड़ा में आप्लावित होकर भी वह नित नवनूतन अनुभूति को ही पाता। काम पुरुषार्थ तभी पुरुषार्थ कहलाता है जब उसका प्रयोजन हो । प्रयोजन बिना किया गया पुरुषार्थ, पुरुषार्थ नहीं नपुंसकता है, वासना मात्र है। एक कुलदीपक की प्राप्ति हो जो स्वयं धर्मपथ पर अग्रसर हो और दूसरों को भी करे। इस भावना से किया गया पुरुषार्थ पाप नहीं धर्म है और इसी प्रयोजन से अर्जित किया अर्थ भी धर्मार्थ है, पापार्थ या कामार्थ नहीं । इसलिए गृहस्थों को ये तीन पुरुषार्थ धर्ममय बना देते हैं। गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म इन दोनों धर्मों का उपदेश सदा से चला आ रहा है। कुछ ही दिनों बाद सुविधि को सम्यक् पुरुषार्थ की फलश्रुति हुई और वह श्रीमती का जीव सम्यग्दृष्टि होकर जो स्वयंप्रभ देव बना था, आज वह स्वर्ग से च्युत होकर मनोरमा के गर्भ में आ गया। यह है संसृति का खेल । पूर्वभव में जो पत्नि थी आज वह पुत्र बन गयी। पर्याय का परिणमन बदल गया और अन्तस् का मोह भी स्नेह में बदल गया। पुत्र प्राप्ति होने के बाद उसका नाम रखा गया केशव। सुविधि को इस बहिर्जगत् में यदि अत्यधिक स्नेह किसी से था तो वह था केशव। पूर्व जन्मों के संस्कारों का ही यह फल था, पर कम हो गया था तभी तो वह मोह न रहकर स्नेह में बदल गया। एक दिन राजा सुविधि, अभयघोष चक्रवर्ती के साथ विमलवाहन जिनेन्द्र की वन्दना करने गए। भक्ति वन्दना कर सभी ने धर्मोपदेश सुना और विरक्त होकर चक्रवर्ती अठारह हजार राजा और पाँच हजार पुत्रों के साथ दीक्षित हुए। वे सब मुनि एक साथ बैठे हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो एकत्रित हुए मुनि, गुणगण मुकुट ही हो। राजा सुविधि ने सभी मुनिगण के चरण कमलों की वन्दना की, भक्ति की और तभी अपने मनोभावों को पढ़ा। राजा सुविधि आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञान का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि आत्मा के गुणों का ज्ञान हो या आत्मा के अस्तित्व का। प्रत्युत आत्मज्ञान का अर्थ है आत्मभावों का सम्यक् निरीक्षण । वह आत्म भाव मोह की परिणतियों को भी ठीक-ठीक जानता है। शरीर बल का सम्यक् परिज्ञान भी आत्मज्ञान है। किसी भी परिस्थितियों में उतावली नहीं करना आत्मज्ञान है। अपनी शक्ति और वीर्य का सही प्रयोग सही दिशा में करना आत्मज्ञान है। अनेक-अनेक लोगों के मुनिपदस्थ होने पर भी आज वह सम्यग्ज्ञानी सोच रहा है कि इनका वर्तमान मेरा भी वर्तमान होगा। अनन्त भ्रमणों के परिचक्र में यह परिदृश्य कई बार देखा और दिखाया पर, अन्तरङ्ग के उस मोह शत्रु को शोषित नहीं किन्तु पोषित ही किया। अनेक बार इस पवित्र भेष को धारण करके भी पूर्णतः सफल नहीं हुआ। आज भी केशव के प्रति स्नेह का किंचित् विकल्प बाकी है। तोदूँगा इस बन्धन को भी, मूल से उखादूँगा। अब इस जीवन का प्रतिक्षण किया गया पुरुषार्थ समीचीन होगा। दूसरों को लुभावने और लोभित होने से यह आत्मा अब अभिभूत नहीं होगा। सम्यग्ज्ञान के साथ बीतने वाला प्रतिक्षण मुक्ति की अवभासना है बन्धन की नहीं। आज मैं आत्मा में भरे हुए विनिगूहित वीर्य को प्रकट करूँगा। गृह सम्बन्धी किंचित् विकल्प भी मुनिपद में मुनित्व की अवमानना है। यह मुनित्व मात्र की अवमानना नहीं प्रत्युत पूर्व में हुए अनन्तानन्त जीवन्त आत्माओं की अवमानना है और पूज्य पुरुषों की अवमानना सबसे बड़ा पाप है, दुष्कृत्य है। ऐसी परिस्थिति में आज यह आत्म ज्ञाता मुनि नहीं बन सकता तो कोई बात नहीं पर इतना असमर्थ भी नहीं कि, कुछ भी नहीं कर सकता। यूँ तो सदाचार से जीवन अब तक बिताते आये हैं। पर आज मैं संकल्पित होता हूँ अपनी शक्ति को उद्घाटित करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होता हूँ और उत्कृष्ट मुनिधर्म नहीं किन्तु उत्कृष्ट गृहस्थधर्म को उतने ही आदर, विनय और भक्ति से ग्रहण करता हूँ जितने आदर से इन आत्माओं ने मुनि पद स्वीकारा है। इन अणुव्रतों का परिपालन यम रूप में होगा,  नियम रूप में नहीं।

 

हे विमलवाहन जिनेन्द्र! आज मैं आपकी साक्षी में संकल्प लेते हुए सभी मिथ्या वासनाओं को छोड़कर पञ्चमहागुरु की अनन्य शरण को प्राप्त होता हूँ।

 

संसार, शरीर और भोगों की निर्विण्णता पूर्वक दूसरी व्रत प्रतिमा को निरतिचार धारण करता हूँ और तीनों सन्ध्याओं में तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक वन्दना करता हुआ, स्वरूप में सम अर्थात् सम्यक् रूप से एकमेक होकर अय अर्थात् गमन होगा। पर्व के चार दिनों में प्रत्येक मास में आरम्भ रहित हो चार भुक्ति के त्यागपूर्वक प्रोषधोपवास गुण का आजीवन यम लेता हूँ। अब कभी भी जिह्वा, रस लोलुपता में सचित्त फल शाक का सेवन नहीं करेगी। अब स्त्री को देखकर नवकोटि से दिवा में मैथुन का भाव उत्पन्न नहीं होगा। ज्ञाता-द्रष्टा आत्मस्वरूप में लीन रहता हुआ ब्रह्मचर्य की दुर्धर प्रतिमा धारण करता हूँ और रात्रि को इस मन में दुःस्वप्न की दुख-धारा भी दूर रहेगी। मैथुन निजचेतना में होगा परद्रव्य में नहीं। खेती, व्यापार आदि आरम्भ का कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग करता हूँ। बाह्य दश परिग्रहों को त्यागकर अब अन्तरङ्ग परिग्रह को मिटाने को संकल्पित होता हूँ। गृह सम्बन्धी कार्यों में अनुमति का मोचन और मुनिजनों के निकट रहकर उत्कृष्ट तपश्चरण करता हुआ सदा उद्दिष्ट भोजन से विरत होता हूँ। इस प्रकार अनुक्रम से ग्यारह प्रतिमा का संकल्प ले, अभ्यन्तर प्रयोजन को साधते हुए सुविधि महाराज अलौकिक आनन्द में रमण करने लगे। जैसे-जैसे साधना में रुचि बढ़ती गयी बाहरी सब रागद्वेष-जन्य संकल्पविकल्प दूर होते गए और आत्मर्द्धि स्फुरायमान होने लगी। प्रत्याख्यान कषाय के अत्यन्त दुर्बल हो जाने से संयमासंयम गुणस्थान की उत्कृष्ट लब्धि स्थानों को प्राप्त किया और विशुद्ध-विशुद्धतर भावों से पुत्र के किंचित् स्नेह को छोड़कर अन्त समय में राजर्षि सुविधि ने सर्वपरिग्रह रहित हो दिगम्बर दीक्षा को धारण किया। चार प्रकार की आराधनाओं में लीन रहते हुए नश्वर देह का परित्याग कर समाधिमरण सम्पन्न किया और प्राप्त की वह अन्तिम सीमा, जिससे आगे संयमासंयमी का गमन नहीं होता अर्थात् शुक्ललेश्या के भावों को धारण करने वाला अच्युत स्वर्ग का देव हुआ किन्तु साधारण देव नहीं; प्रमुख 

इन्द्र, अच्युतेन्द्र। निर्ग्रन्थपद जो धारण किया था। समता का भाव ही सहिष्णु बनाता हुआ मित्र-शत्रु, कंचन-काँच, सुख-दुःख में हर्ष-विषाद की रेखा से बचाता है। यह मनोबल का ही प्रभावी फल है। निरतिचार व्रतों का सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से पालन करने वाला ही इन्द्र पदवी पर प्रतिष्ठित होता है। कामना नहीं की ऐन्द्रत्व की, किन्तु साधना का पुरस्कार है यह मान-सम्मान। आज आत्मजेता को इस पुरस्कार से सन्तोष नहीं है, क्योंकि यह उसका लक्ष्य नहीं है। पर उत्कृष्ट कर्मफल का उपभोग भी अनासक्त भाव से सम्यग्द्रष्टा के मार्ग में बाधा नहीं किन्तु सम्यक् गति प्रदान कर रहा है। आज उसे प्रसन्नता है कि संयम गुणस्थान की परीक्षा में वह सर्वश्रेष्ठता से उत्तीर्ण हुआ है।

 

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