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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

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Blog Entries posted by Vidyasagar.Guru

  1. Vidyasagar.Guru
    *इंदौर वालो के लिए खुशखबरी*  
        *🗓१४,जनवरी,२०२० मंगलवार🗓* 
    *देवी अहिल्याबाई की नगरी इंदौर*
    ( तिलक नगर इंदौर )
    *✨आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज✨*  
              ने संकेत दिए
      *इंदौर को मिला पंचकल्याणक का सौभाग्य*
    आचार्य श्री विधासागर जी महाराज एवं ससंघ के सानिध्य मे
    *26 जनवरी से 1 फरवरी* 2020 तक चमेली देवी पार्क पर आयोजित होने के लिए गुरु जी ने  आशीर्वाद प्रदान किया🙏🏻

     
  2. Vidyasagar.Guru
    *भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह*
                   *● विजयनगर, इन्दौर ●*
           *15 नवम्बर, दोपहर 1:30 बजे*
    ➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆➖◆
                        परम सानिध्य 
    *पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज*
                    ससंघ (13 मुनिराज )
     
    *विशेष 😘
    1. इन्दौर के अन्य जिनालयों में विराजमान, मुनिउपसंघ भी गुरुचरणों में विजयनगर पधार चुके हैं।
    2. इसी समारोह में चातुर्मास निष्ठापन, कलश वितरण का भव्य कार्यक्रम भी आयोजित होगा।
  3. Vidyasagar.Guru
    संत शिरोमणी आचार्य  गुरुदेव ससंघ का आज अंतरिक्ष वाले बाबा श्री १००८  अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान के दरबार में पिच्छिका परिवर्तन समारोह संपन्न हुआ।

     
     
     
     
     
     

     

     
     आज पूज्य आचार्य गुरुदेव को एवं ससंघ को पिच्छिका देने वाले एवं प्राप्त करने वाले सौभाग्य शाली पात्र ⚡⚡⚡⚡
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
    आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज जी को 
    🦚नई पिच्छिका देने वाले एवं पुरानी पिच्छिका प्राप्त करने वाले  सौभाग्य शाली पात्र :- 
    श्री. हितेश जी रुईवाले जैन परिवार कारंजा लाड(महाराष्ट्र)
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
    निर्यापक श्रमण मुनिश्री १०८ प्रसाद सागर जी महाराज जी को 
    🦚नई पिच्छिका देने वाले :- आकाश महाराज एवं परिवार, धीरज जी कान्हेड 
    🦚पुरानी पिच्छिका प्राप्त करने वाले : श्री अमोल रत्नाकर रोकडे परिवार मालेगाव (महाराष्ट्र)
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
     
    परम तपस्वी मुनिश्री १०८ चंद्रप्रभसागर जी महाराज जी को 
    🦚नई पिच्छिका देने वाले :-
     एलोरा हाथकरघा केंद्र के ब्र भैय्याजी जी बा. ब्र. तात्या भैय्याजी, बा. ब्र. अशोक भैय्याजी, बा. ब्र. पंकज भैय्याजी, बा. ब्र. मधुर भैय्याजी, बा. ब्र. सचिन भैय्याजी, बा. ब्र. विपुल भैय्याजी, बा. ब्र. जयवर्म भैय्याजी 
     🦚पुरानी पिच्छिका प्राप्त करने वाले :
    श्री सुहास कोठारी सौ. अर्चना कोठारी बारामती (महाराष्ट्र)
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
    मुनिश्री १०८ निरामय सागर जी महाराज जी को 
    🦚नई पिच्छिका देने वाले :- 
    पंकज महाजन एवं परिवार, भूषण महाजन एवं परिवार शिरपूर जैन
    🦚पुरानी पिच्छिका प्राप्त करने वाले :
    श्री. विजय कुमार जैन एवं परिवार सराफा बाजार जबलपुर
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
    ऐलक श्री १०५ सिद्धांत सागर जी महाराज जी को 
    🦚नई पिच्छिका देने वाले :- 
    डॉ अभयकुमार माधवराव गूंगे रिसोड, आकाश आहाळे, प्रमोद मानेकर, रविन्द्र (पंडित ) जैन अकोला 
    🦚पुरानी पिच्छिका प्राप्त करने वाले :
    श्री. जितेंद्र जी छाबड़ा एवं परिवार वाशीम(महाराष्ट्र)
       ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●

     पावन वर्षायोग समिती शिरपूर जैन 
    ━─────⊱❉✺✺❉⊰──────━
    सूचना साभार:- बा.ब्र. तात्या भैय्याजी
    ----------------------------
     
    -----------------------------
    संकलन:-✒️ 
    संतोष पांगळ जैन, मुरुड
    श्रीकांत संघई जैन, पुसद 
    मयूर पांगळ जैन, सेनगाव
    ━─────⊱❉✺✺❉⊰──────━
     
  4. Vidyasagar.Guru
    सम्बन्ध 
     नदी बहती है सदा 
     किनारे बन जाते हैं!
     नदी बदलती है रास्ता
     किनारे मुड़ जाते हैं!
     नदी उफनती है कभी
     किनारे डूब जाते हैं!
     नदी समा जाती है सागर में
     किनारे छूट जाते हैं!
     संबंधों की सार्थकता 
     मानो जीवन के प्रवाह की 
     पूर्णता में है!
     
    Relationship
     The river banks are forged
     When a river flows.
     When river changes its course,
     The river banks too are changed.
     When the river overflows,
     The banks drown in the flow.
     When the river reaches the sea,
     The banks are left behind.
     I suppose, relationship are fulfilling
     Only when they help
     Our life to flow.
  5. Vidyasagar.Guru
    ‘फास्ट फूड’ के चलन ने संसार को जकड़ लिया है जबकि इसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती : आचार्यश्री
     
    वर्तमान समय में ‘फास्ट फूड’ के चलन ने संपूर्ण संसार को जकड़ लिया है। फास्ट फूड वह जहर है जिसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती एवं साथ ही वह शाकाहारी है कि नहीं इसकी भी कोई प्रमाणिकता नहीं रहती।‘फास्ट फूड’ का असर सबसे ज्यादा बच्चों में देखा जाता है। उसकी मुख्य वजह हम बच्चों को समय से घर में ही बनी शुद्ध वस्तुओं को समय के अभाव में उपलब्ध नहीं करा पाते या आलस्य के कारण बच्चों को बिना देखे समझे कुछ भी खिलाते रहते हैं। 

    इससे बच्चों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उसकी मानसिक स्थिति एवं याददाश्त पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। यह बात नवीन जैन मंदिर में अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने प्रवचन देते हुए कही। उन्हाेंने कहा कि ‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन’ इसको हम सभी ने चरितार्थ होते देखा है। राष्ट्र में व्याप्त जितने भी जघन्य कृत्य हिंसा, उपद्रव आदि होते हैं उनमें से अधिकांश मामलों में व्यक्ति की तामसिक प्रवृत्ति ही काम करती है। उन्हाेंने कहा कि स्वर्ण को शुद्धता के लिए एक बार नहीं अनेक बार तपाना पड़ता है। फिर उसे आप कहीं भी कैसे भी रखो या उपयोग करो उसकी शुद्धता में वर्षों बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके विपरीत लोहा में अवधि पर्यंत जंग भी लग सकती है और वह खराब भी हो सकता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वर्ण की तरह ही खोट रहित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बुरी आदतों को त्याग करने के लिए हमें संकल्पित होने की महती आवश्यकता है। संकल्प शक्ति से ही इस जीव का कल्याण हो सकता है। व्यक्ति किसी भी नशे को त्याग करने के लिए एवं छोटे से नियम लेने के लिए भी समय सीमा में बांधना चाहता है। एेसा प्रतीत होता है, जैसे किसी वस्तु की नीलामी चल रही है। भैया! ऐसा नहीं होता, नियम तो पूर्ण संकल्प, भक्ति, समर्पित भावना के साथ ही लिया जाता है। यदि जबरदस्ती नियम दे भी दिया जाए तो वह अधिक समय तक कारगार सिद्ध नहीं हो सकता। आचार्यश्री ने कहा कि व्यक्ति को घर की बनी शुद्ध एवं पौष्टिक वस्तुएं या व्यंजन अच्छे नहीं लगते उसे तो होटल का खाना ही अच्छा लगता है यह धारणा ठीक नहीं है। शरीर के प्रति मोह का त्याग एवं जिव्हा इंद्रिय को वश में करने की कला से हमें पारंगत होना जरूरी है। बाहर के वस्तुओं के प्रति आकर्षण का भाव हमारे चारित्र पर भी दुष्प्रभाव डाल सकता है। हम जब फास्ट फूड के त्याग की बात करते हैं, तब तुम्हारी इसके प्रति अशक्ति के भाव दृष्टिगोचर होने लगते हैं। तरह-तरह के बहानेबाजी एवं तुम्हारे कंठ अवरूद्ध हो जाते हैं। कोई भी प्रिय वस्तु का त्याग करना या कोई छोटा सा नियम लेने में भी इस शीतकाल में भी व्यक्ति को पसीना आने लगता है। कर्मों की मुक्ति की बात करो तो कंपकपी छूटने लगती है, फिर हम कैसे कर्मों की निर्जरा कर पाएंगे। सच्चे देव, शास्त्र, गुरू के प्रति श्रद्धान जरूरी है। हमें यदि अपने शरीर को निरोग रखना है तो सात्विक भोजन ग्रहण करना होगा। गरिष्ट भोजन एवं प्रचुर मात्रा में तेल, घी की वस्तुओं के सेवन से बचना होगा, तब ही आत्म कल्याण कर पाओगे। 
  6. Vidyasagar.Guru
    "प्रिय सदस्यों,
    आपसे अनुरोध है कि 'वतन की कमान' प्रतियोगिता के पोस्टर को मंदिरों में लगाकर इस महत्वपूर्ण अभियान में अपना सहयोग दें। आपका यह कदम इस प्रतियोगिता के प्रचार में बहुत मदद करेगा और और अधिक लोगों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित करेगा। आइए, मिलकर हम भारतीय शिक्षा की दिशा में एक सार्थक योगदान दें और अपने देश को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करें।
     
    आपके प्रयास से यह  प्रतियोगिता और भी व्यापक हो सकेगी, और हम सभी मिलकर गुरुजी की इस भावना को साकार कर पाएंगे।"
     याद रखें, जितना बड़ा पोस्टर, उतनी अधिक दृश्यता।
     
    इस कार्य को करने वाले दस भाग्यशाली लोगों को एक विशेष उपहार दिया जाएगा। हम एक लकी ड्रॉ के माध्यम से इन दस विजेताओं का चयन करेंगे। पोस्टर लगाने के बाद, उसके साथ अपनी फोटो खींचें और इस पोस्ट के जवाब में अपलोड करें। फोटोग्राफ साझा करने की अंतिम तिथि 18 जनवरी 2024 है। विजेताओं के नाम 20 जनवरी 2024 को घोषित  किए जाएंगे।
    आचार्य श्री जी का कहना  है कि हर भारतीय इस अमूल्य पुस्तक का अध्ययन करे। आपकी सहायता से यह ज्ञान अनेकों तक पहुंचेगा, और आपका प्रयास ही हमें सबसे बड़ा उपहार है। साथ ही, हम आपके उत्साहवर्धन के लिए विशेष उपहार भी प्रदान कर रहे हैं।"
    "जो पहले पांच लोग इस अभियान में सक्रिय रूप से कदम बढ़ाएंगे, उन्हें निश्चित रूप से विशेष उपहार प्रदान किया जाएगा। आपकी प्रेरणा और सहयोग से प्रत्येक मंदिर में 'वतन की कमान' प्रतियोगिता की जानकारी पहुंचाई जा सकेगी।"
     
    सभी 15 लोगों को  हतकरघा / हस्तशिल्प  के उत्पाद प्रदान किए जाएंगे 
     
    पोस्टर के साथ फोटो निम्न लिंक पर अपलोड करें 
    https://vidyasagar.guru/gallery/category/89-1
     
    पोस्टर डाउनलोड करें 
     
     
     
     

     
    CDR File
    Watan ki kaman cdr @ sourabh bhiya.cdr
     
  7. Vidyasagar.Guru
    "मूकमाटी" महाकाव्य निजी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल
     
    दिगम्बर जैनाचार्यप्रवर सन्तशिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपनी सुदीर्घ साधना से अर्जित दिव्यज्ञान को गागर में सागर के समान भरकर सन् १९८७ में हिन्दी साहित्य जगत् को अप्रतिम योगदान के रूप में ‘मूकमाटी' महाकाव्य प्रदान किया था। यह कालजयी महाकाव्य अपनी साहित्यिक आभा से जनमानस की चेतना को प्रकाशित कर रहा है व आत्मोत्थान एवं सामाजिक समरसता के दिव्य सन्देश के माध्यम से सुषुप्त चेतना को जाग्रत कर रहा है। ‘मूकमाटी' महाकाव्य की विषयवस्तु पर केन्द्रित होकर मध्यप्रदेश, नई दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों के अनेक विश्वविद्यालयों में अद्यतन ४डी. लिट्., २४ पी-एच. डी. के शोध प्रबन्ध एवं ६ एम. फिल., २ एम. एड. तथा ५ एम. ए. के लघुशोध प्रबन्ध रूप में ४१ शोधकार्य हो चुके/रहे हैं।
     
    आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागर जी महाराज के साथ मुनि श्री प्रशस्तसागर जी, मुनि श्री मल्लिसागर जी तथा मुनि श्री आनन्दसागर जी महाराज का वर्षायोग-२०१८ विन्ध्य क्षेत्र की सुप्रसिद्ध धर्मनगरी सतना में हो रहा है। संघस्थ मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज की सत्प्रेरणा से श्री रुचिर जैन, ( साईं कृपा, जे. आर. बिरला मार्ग, सन्तोषी माता के पास ) सतना, म. प्र. ने अथक एवं सार्थक प्रयास किया। इसी के परिणामस्वरूप निजी विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध 'श्री कृष्णा विश्वविद्यालय' ने अपने पाठ्यक्रम में अब'मूकमाटी'महाकाव्य को भी शामिल कर लिया है।
     
    श्री कृष्णा विश्वविद्यालय, छतरपुर, म. प्र. के कुलसचिव के पत्र क्रमांक १९/एसकेयू/२०१८, दिनांक ०७-०९-२०१८ के अनुसार “सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा लिखित पुस्तक ‘मूकमाटी' को स्नातकोत्तर उपाधि हिन्दी विषय के पाठ्यक्रम चतुर्थ सेमेस्टर के तृतीय प्रश्नपत्र में वैकल्पिक प्रश्नपत्र 'कोई एक साहित्यकार-आचार्य विद्यासागर' के रूप में पढ़ाये जाने हेतु पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया है।''
     
    "मूकमाटी" महाकाव्य अब तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उत्तरप्रदेश), पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़ ), राष्ट्रसन्त तुकड़ोजी महाराज नागपुर विद्यापीठ, नागपुर ( महाराष्ट्र), सौराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजकोट (गुजरात), अटलबिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल (म. प्र.), बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल (म. प्र.), विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म. प्र. ) आदि के एम. ए./एम. फिल.-हिन्दी तथा अंग्रेजी आदि के विविध पाठ्यक्रमों में भी ‘मूकमाटी' महाकाव्य सम्मिलित किया जा चुका है।
     
    मध्यप्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम के लिए मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र, भोपाल' द्वारा निर्मित 'कक्षा नवमी' विषयक 'नवनीत- हिन्दी विशिष्ट' नामक पाठ्यपुस्तक २०१८ के संस्करण में 'कविता का स्वरूप एवं विकास' के अन्तर्गत 'पद्य साहित्य का इतिहास' शीर्षक के दसवें पाठ 'विविधा' में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जीवन परिचय सहित' मूकमाटी'महाकाव्य के पृष्ठ १६९-१७० पृष्ठों पर मुद्रित कविता का चयनित अंश तीसरे पाठ के रूप में स्वाभिमान' नाम से संकलित व प्रकाशित होकर अब मध्यप्रदेश के विद्यार्थियों के ज्ञानार्जन में सहयोगी बनेगा।
     
    इसके अतिरिक्त रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर, मध्यप्रदेश भोज ( मुक्त) विश्वविद्यालय, भोपाल, सेज यूनिवर्सिटी, इन्दौर (म.प्र.), बस्तर विश्वविद्यालय, जगदलपुर ( छत्तीसगढ़ ) इत्यादि के पाठ्यक्रमों में भी ‘मूकमाटी' महाकाव्य को शामिल किये जाने सम्बन्धी प्रक्रिया गतिमान है।
     

  8. Vidyasagar.Guru
    "मूकमाटी" भोज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में जुड़ी
     
    दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी के द्वारा आधुनिक हिन्दी महाकाव्य में अप्रतिम योगदान स्वरूप धर्म, दर्शन और आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न लोकविश्रुत कालजयी ‘मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन किया गया है। मानव जीवन मूल्यों एवं साहित्य के भूलते जा रहे आस्था भाव को युवा पीढ़ी एवं छात्रों को प्रदान करने वाली इस अभिनव कृति को म. प्र. भोज( मुक्त विश्वविद्यालय, भोपाल के एम. ए. हिन्दी पूर्वार्ध-स्नातकोत्तर उपाधि पाठ्यक्रम में अब शामिल किया गया है।
     
    हिन्दी सन्त काव्य परम्परा तथा आचार्य विद्यासागर के काव्य में लोक मंगल भावना, आचार्य विद्यासागर-जीवन और व्यक्तित्व परिचय, आचार्य विद्यासागर का जीवन दर्शन एवं रचना संसार (संक्षिप्त परिचय), ‘मूकमाटी' का महाकाव्यत्व- उद्देश्य, कथानक, पात्र योजना एवं चरित्र चित्रण, संवाद योजना, परिस्थिति चित्रण, अभिव्यंजना सौंदर्य का विश्लेषण व 'मूकमाटी' के प्रमुख पद्यों की व्याख्या रूप इस प्रश्न पत्र में पाँच इकाइयाँ समायोजित की गई हैं। चार प्रश्नपत्रों वाले इस पाठ्यक्रम की पुस्तकें विश्वविद्यालय से प्राप्त की जा सकती हैं।
     
    इस पाठ्यक्रम में शामिल होने हेतु ऑन् लाइन फार्म भरे जा रहे हैं। लगभग पचपन सौ रुपये शुल्क वाले इस चतुर्थ प्रश्नपत्र में विशेष कवि - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कृत 'मूकमाटी' को पढ़ाए जाने वाले इस पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के इच्छुक विद्यार्थियों को आगामी ३० सितम्बर तक ऑन लाइन ही फार्म भरना होगा। परीक्षा में तैयारी कराने हेत डॉ. शीलचन्द पालीवाल, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष - एस. एस. एल. जैन पी. जी. कॉलेज, स्वर्णकार कॉलोनी एवं शिक्षक निर्मलकुमार जैन, गाड़ी अड्डा रोड, गल्ला मण्डी के पास, | विदिशा से सम्पर्क करके निःशुल्क मार्गदर्शन लिया जा सकता है।
  9. Vidyasagar.Guru
    "व्यक्ति चाहे तो मुहूर्त, ग्रहण व नक्षत्र को देख अपनी सुरक्षा खुद कर सकता है'


    जब कहीं भी, किसी भी राष्ट्र में भूकम्प या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा आती है तो उसका पूर्वानुमान खगोलशास्त्री लगाने से चूक भी सकते हैं, परन्तु पशु-पक्षियों के क्रियाकलापों, उनमें हो रही हलचल से जान कर समझ लेते हैं कि कोई प्राकृतिक आपदा आने वाली है। नन्हीं सी चिड़िया जब धूल में स्नान करने या जल में स्नान करने लगती है तब उसके हाव-भाव को देखकर भी अनुभवी कृषक सूखा एवं वर्षा का अनुमान लगा लेते हैं। 

    यह बात नवीन जैन मंदिर में बुधवार काे प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। उन्हाेंने कहा कि सुनामी ने हजारों व्यक्तियों को प्रभावित किया, परन्तु उसका सटीक विश्लेषण करने से भी हमारे भूगर्भशास्त्री मौसम विशेषज्ञ, शोधकर्ता चूक गए। धरती हमेशा अकंप रहती है। वह घूमती भी नहीं है। यदि उसमें लेशमात्र भी कंपन आ जाए तो अनर्थ हो सकता है। कभी कभी हम किसी शांत एवं ज्ञानी व्यक्ति को देख कह देते हैं कि यह तो बिल्कुल बोलता ही नहीं। परन्तु हमको इसका आभास रहता है कि यदि वह बोलेगा तो भूकम्प आ जाएगा। व्यक्ति यदि चाहे तो मुहुर्त , ग्रहण एवं नक्षत्र को देख अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का प्रभाव जरूर पड़ता है। कर्म अपनी सत्ता में स्थिर रहते हैं। 

    उन्हाेंने कहा कि यह तो अटल सिद्धांत है कि कोई किसी प्रकार की किसी भी व्यक्ति की होनी या अनहोनी को टाल नहीं सकता, जो आया है वह जाएगा ही। आप अपने हृदय को पाषाण का बना लें। संपूर्ण मुनि संघ से जिसने जितना पाया उसका आनंद लें, जो नहीं मिला उसका क्षोभ दुःख कतई न करें, आना-जाना तो लगा ही रहता है। हमेशा वर्तमान में जियें। आने वाले सुप्रभात को अंगीकार करें। आपस में मैत्री भाव से रहें, प्राणी मात्र के प्रति करूणा भाव रखें, गरीब दीन दुखियाें की सेवा करते रहें। बड़ों का सम्मान छोटों से वात्सल्य भाव रखें। हमारा आशीर्वाद सदैव जन जन के साथ है। 

    उन्हाेंने कहा कि निश्चिंतता में भोगी सो जाता है वहीं योगी खो जाता है। अज्ञान दशा में जब जब भी तुम्हें लगा मेरा घर सुरक्षित है, मैं सुरक्षित हूँ, मेरा परिवार सुरक्षित है इस पर कोई वार करने वाला नहीं है तब तुम निश्चिंत होकर सो गए अर्थात् बाहर में पुण्य का घेरा जो सुविधा रूप में था उसमें तुम निश्चिंत हो गए वहीं तृप्त हो गए, चिंतन की बात तो बहुत दूर चिंता भी नहीं रही, क्योंकि मन को लगा कि बाहर में सब संभालने वाले हैं यही मिथ्याभ्रम तो तुझे तेरे स्वभाव को संभालने में असमर्थ रहा। तन भले ही निश्चिंत रहा किंतु चेतन इस मिथ्या सोच से निरंतर कर्म बांधता रहा। 
     
    आचार्यश्री ने कहा कि इस प्रसंग पर कबीरदास जी कहते हैं- ‘‘सुखिया सब संसार है खावे अरू सोवे, दुखिया दास कबीर है रोवे अरू जागे’’ प्रभु भक्त कभी भी निश्चिंत नहीं रह सकता उसे मालूम है कर्म कभी भी वार कर सकते हैं तभी तो साधक आत्मविशुद्धि के मार्ग में सदा जागृत रहता है वह जानता है कि सोना अर्थात् खोना है। अतः प्रथम भूमिका में वह चिंता तो नहीं करता किंतु आत्मचिंतन अवश्य करता है। खो जाता है अपने में, विलीन कर देता है स्वयं को स्वयं में। रहता संसार में है पर रमता स्वयं में है और उस खोने के काल में आनंद से तरबतर हो जाता है वह; क्योंकि उन क्षणों में कोई बाहरी विकल्प नहीं रहता, निस्तरंग शांत सरोवर की भांति प्रतीत होता है। कोई उसे देखता भी है तो वह भी आनंद से भर जाता है। पूछता है तुम कहां हो? तो वह स्वयं उत्तर नहीं दे पाता है; क्योंकि उत्तर देता है तो वह स्वभाव से हट जाता है। एकाकी होकर योगी अंदर के ज्ञानसरोवर में डूबता जाता है और असली स्वानुभूति के मोती बटोरता जाता है वहीं मोती आत्मा को श्रृंगारित करते हैं वह योगी किसी से कुछ कहते तक नहीं; क्योंकि कहने से संवेदन का आनंद खो जाता है इसीलिए वह तो स्वयं को स्वयं में डुबाए रखते हैं। 

    धन्य हैं वह आत्मचेता जो प्रतिकूलताओं में भी निश्चिंत होकर स्वयं में खो जाते हैं। धिक्कार का पात्र है वह भोगी, जो सुख सुविधाओं को पाकर भी सो जाता है। देह के लिए देह में सो जाना नहीं, आत्मा के लिए आत्मा में खो जाना है। जागृत रहना है अब सोना नहीं, समय अनमोल है उसे खोना नहीं। प्रवचन के पूर्व आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की चरण वंदना कर गंधोदक लेने का परम सौभाग्य पीयूष जैन एवं स्वर्गीय सुभाषचंद जैन के परिवारजन विकास चौधरी को प्राप्त हुआ। आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की आहारचर्या प्रतिभास्थली की बहिन रोहिता दीदी पुत्री अरूण बड्डे के यहां संपन्न हुई।
  10. Vidyasagar.Guru
    *जरा याद करो बलिदान* 
    21 अक्टूबर 2018 दिन रविवार को खजुराहो में राष्ट्र संत परम पूज्य आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद और सानिध्य में होगा - “जरा याद करो बलिदान” कार्यक्रम जिसके तहत आजादी के लिए मर मिटने वाले शहीद परिवारों के वर्तमान वंशजों को दिया जाएगा "*स्वराज सम्मान*" कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं |
     
    स्थान - खजुराहो जैन मंदिर
    समय - 2:00 बजे से 4:00 बजे तक
    दिनांक - 21 अक्टूबर 2018 दिन रविवार
    आयोजक - चातुर्मास समिति व सकल दिगंबर जैन समाज
     
     
  11. Vidyasagar.Guru
    *योग के बारे मे जानने का सुनहरा अवसर* 
    विशेष अनुरोध एवं मांग पर *अंतर्जगत् योग प्रतियोगिता* को दिया गया विस्तार 
    अब आप प्रतियोगिता मे 27 जून 2019 रात्रि १० बजे तक भाग ले सकते हें 
    अब तक जिन्होने भाग नही लिया वो भाग ले सकते हें | और जो भाग ले चुके हें उनको भी सांत्वना पुरस्कार मे शामिल किया जाएगा | दुबारा भाग न ले |
    उपहार मे सांत्वना पुरस्कार के रूप मे  योगा टी शर्ट ( 5 से अधिक) प्रदान की जाएगी 
    जो लोग भाग ले चुके हें - वो सभी को भाग लेने की प्रेरणा दे |
    (जितने ज्यादा प्रतियोगी - उतने ज्यादा उपहार)
    स्वाध्याय करने के लिये लिंक 
    ध्यान एवं योग - आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल ऐप्प 
    प्रतियोगिता मे भाग लेने के लिये - आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल ऐप्प > प्रतियोगिता 
    https://play.google.com/store/apps/details?id=com.app.vidyasagar
  12. Vidyasagar.Guru
    *आचार्य श्री विद्यासागर जी ससंघ सानिध्य में मनाया गया गणतंत्र दिवस समारोह* 
    हुए विभिन्न कार्यक्रम, प्रतिभास्थली की छात्राओं ने दी भी प्रस्तुति |
     
     
    *कार्यक्रम पूजन एवं सभी प्रस्तुतियाँ* 
     
     
    *ध्वजारोहण* 
     
     
     
     
    आज के प्रवचन 
     
     
     
    सुभास चंद बोस जन्म जयंती के उपलक्ष में हुई *प्रतियोगिता परिणाम भी घोषित हुआ* 
     

  13. Vidyasagar.Guru
    *कुंडलपुर में उमड़ने लगा भक्तों का सैलाब* - रविवार को सात मूनिसंघ पहुंचे - केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल ने भी लिया आचार्यश्री का आशीर्वाद   कुंडलपुर (दमोह)। जैन तीर्थ कुंडलपुर में आयोजित एतिहासिक महोत्सव में शामिल होने देश भर से भक्तों का सैलाब उमड़ने लगा है। रविवार को लगभग 15 से 20 हजार भक्तों ने कुंडलपुर पहुंचकर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज सहित सभी संतों के दर्शन कर आशीर्वाद लिया। सात मुनि संघ भी आज कुंडलपुर पहुंचे। केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल ने दमोह जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ कुंडलपुर पहुंच कर आचार्यश्री का आशीर्वाद लिया एवं 16 फरवरी से शुरू होने वाले भव्य आयोजन की तैयारियों की समीक्षा की। जैन भक्तों का चारों से कुंडलपुर पहुंचना जारी है। रविवार को सुबह से भक्तों के रेलें कुंडलपुर पहुंचने लगे थे। सुबह आचार्यश्री की पूजन के बाद उनके संक्षिप्त प्रवचन सुनने हजारों लोग अनुशासित होकर बैठे थे। दोपहर में मुनिश्री पदमसागर जी महाराज, मुनिश्री कुंथसागर जी महाराज, मुनिश्री श्रेयांस सागर जी महाराज, मुनिश्री सुब्रतसागर जी महाराज, मुनिश्री दुर्लभ सागर जी महाराज, मुनिश्री संधान सागर जी महाराज, मुनिश्री निरंजन सागर जी महाराज ने कुंडलपुर पहुंचकर आचार्यश्री की वंदना की। कुंडलपुर कमेटी ने मुनि संघों की भक्ति और श्रद्धा के साथ आगवानी की। *केन्द्रीय मंत्री पहुंचे* दमोह के सांसद व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल रविवार शाम को कुंडलपुर पहुंचे। उन्होंने आचार्यश्री के दर्शन कर भरोसा दिलाया कि कुंडलपुर महोत्सव में राज्य सरकार और जिला प्रशासन की ओर से हरसंभव सहयोग किया जा रहा है। पटेल ने महोत्सव समिति के कार्यालय में बैठकर महोत्सव समिति के पदाधिकारियों एवं जिला प्रशासन के अधिकारियों की संयुक्त बैठक ली। पटेल ने निर्देश दिये कि देश विदेश से आने वाले यात्रियों को कोई परेशानी नहीं होना चाहिए। बाहर से आने वाले यात्री बड़े बाबा के दरबार से बड़ा और सकारात्मक संदेश लेकर जाएं। उन्होंने कहा कि इस महोत्सव में आने वाले वाहनों की पार्किग पर खास ध्यान दिया जाए। इसके अलावा पानी, बिजली, सफाई व सुरक्षा को लेकर चौबीस घंटे सजग रहने की जरूरत है। महोत्सव में आने सभी यात्री हमारे मेहमान हैं, यह समझकर ही प्रशासन जिम्मेदारियों का निर्वहन करे।पटेल के साथ हटा विधायक पीएल तथतुवाय दमोह कलेक्टर एस कृष्ण चैतन्य, एसपी डीएस तेनीवार सहित जिला प्रशासन के सभी अधिकारी मौजूद थे। ----------- *यह सब जो दृश्य दिख रहा है स्वप्न समान लगता है-आचार्यश्री* आज संक्षिप्त प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा कि - यह सब जो दृश्य दिख रहा है लगता नहीं हैं ये दृश्य है स्वप्न समान लग रहा है। कहां कहां से भव्य जीव आये हैं और अपने कल्याण में लगे हैं। उन्होंने अपने गुरू आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज का स्मरण करते हुए कहा कि - आज गुरु जी उपस्थित नहीं है कई लोग कहते हैं शरीर की अपेक्षा से नहीं है। जिनका जीवन अध्ययन और अध्यापन में ही बीत गया है अंत अंत में जब बाजार उजड़ रहा हो तो दुकानदार भी अपने माल को आने वाले ग्राहक को दे देता है उसमें हम जैसे ग्राहक आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास दुकान बंद होने के समय पहुँच जाते हैं। गुरुदेव ने सब कुछ दिया।   *11 आर्यिकाओं का दीक्षा दिवस मना* कुंडलपुर में आज आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के करकमलो से प्रथम दीक्षित आर्यिका रत्न श्री गुरुमति माताजी, आर्यिकाश्री दृढ़मति माताजी, आर्यिका श्री मृदुमति माताजी सहित 11 आर्यिकाओं माताओं का पैंतीसवां दीक्षा दिवस श्रद्धा व भक्ति पूर्वक मनाया गया। इस अवसर पर आचार्यश्री को आर्यिका संघ ने नवीन पिच्छिका भेंट की। इस अवसर पर मनीष जैन डायमंड परिवार व राकेश लालाजी अशोकनगर को पाद प्रक्षालन का सौभाग्य मिला। आर्यिका संघ ने भक्ति पूर्वक आचार्यश्री की पूजा की।      




  14. Vidyasagar.Guru
    आज प्रतिभास्थाली / दयोदय जबलपुर में मआचार्य भगवन विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने पहुँचे..भारत के गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह एंव मध्य प्रदेश के भाजपा  अध्यक्ष राकेश सिंह..!!
    ● श्री राजनाथ सिंह ने गुरु पादप्रक्षालन को किया..!!
    ● दोनों नेताओं ने गुरु पूजन के साथ श्रीफल अर्पित किया..!!
    ● जैन समाज की ऒर से मध्य-प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री श्री जयंत मलैया जी मौजूद रहें..!!
    ● करीब आधे घँटे तक चला गुरु जी से वार्तालाप..!!
    ● देश -प्रदेश के बड़े बड़े नेता समय समय पर गुरु चरणों में देते रहते हैं हाज़िरी..!!
     
     
    समाचार संकलन
    अक्षय रसिया,मड़ावरा

      
  15. Vidyasagar.Guru
    *एक प्रयोग - एक प्रयास* 
    1. एक अवसर दादा गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी के बारे मे जानने का 
    2. @vidyasagar.guru Instagram एकाउंट के माध्यम से मिलकर गुरु प्रभावना करने का |
     
    *महाकवि आचार्य ज्ञानसागर प्रतियोगिता* 

    प्रश्न 1. *आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की मुनि दीक्षा किस अतिशय क्षेत्र पर हुई थी* ?
     
    3. अपने *उत्तर आप नीचे दिये गये लिंक के कमेंट मे लिखें* और साथ मे अपने तीन जैन मित्रों को उत्तर के साथ टैग करें ! 
    https://www.instagram.com/p/ByFEznWlzLL/?igshid=1pzwao50ynlj1
    (*टैग करना अनिवार्य*)
     
    4. आपके उत्तर 31 मई रात्रि 9 बजे तक स्वीकृत होंगे !
    5. उपहार स्वरूप किसी एक विजेता को लक्की ड्रा द्वारा चुनेंगे, जिसे मिलेगा हथकरघा निर्मित श्रमदान ब्रांड का आकर्षक उपहार ! 
    6.आचार्य ज्ञानसागर जी के बारे मे सम्पूर्ण जानकारी आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल ऐप (आचार्य परम्परा) मे उपलब्ध !
     
    *अगले प्रश्न को सबसे पहले प्राप्त करने के लिये Follow करना न भूलें*!
    https://www.instagram.com/vidyasagar.guru/
     
    आप कर  सकते हें प्रतियोगिता उपहार में सहयोग 
    https://vidyasagar.guru/donate/
  16. Vidyasagar.Guru
    ##भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह##
    आचार्य भगवान श्री विद्यासागर जी महाराज ससंग का भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह आज दोपहर ३:००बजे से
  17. Vidyasagar.Guru
    जानकारी देते हुए ब्र.  सुनील भैया और मीडिया प्रभारी राहुल सेठी ने बताया की आचार्यश्री विद्यासागरजी महामुनिराज सहित पूरे संघ का चातुर्मास साँवेर रोड स्थित तीर्थोदय धाम प्रतिभास्थली, इंदौर में होगा।
    ५ जुलाई २०२०,  गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर सभी मुनियों द्वारा चातुर्मास का संकल्प लिया जाएगा। प्रातः 7 बजे से यह क्रिया आरंभ होगी। इसके साथ ही चार्तुमास स्थापना के पहले दिन आचार्य श्री सहित सभी मुनिराजों का उपवास रहेगा। पूरे दिन चातुर्मास की विधि संपन्न होगी।
     
    आगामी रविवार, 12 जुलाई 2020 को दोपहर 1ः30 बजे से चातुर्मास कलश स्थापना की क्रिया संपन्न होगी। इसी दिन कलश स्थापना करने का सौभाग्य प्राप्त करने वाले पात्रों का चयन भी किया जाएगा। आचार्यश्री के सान्निध्य में जो भी आयोजन होंगे, वे सभी कोरोना संबंधी सरकारी दिशा-निर्देशों के अनुसार होंगे। आचार्यश्री सहित सभी मुनिराजों का मंगल प्रवेश 5 जनवरी 2020 को इंदौर में हुआ था। अब 14 नवम्बर दीपावली तक चातुर्मास का लाभ भी श्रावक-श्राविकाओं व श्रद्धालुओं को मिलेगा। इस बार चातुर्मास का लगभग 5 महीने का होगा अर्थात् 4 जुलाई 2020 से 14 नवंबर 2020 तक।
     
    ● चातुर्मास के मुख्य कार्यक्रम की पूरी जानकारी
    मीडिया प्रभारी राहुल सेठी ने बताया कि इस बार चातुर्मास में अनेक पर्व मनाए तो जाएँगे, लेकिन सभी आयोजनों में कोरोना संबंधी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा ।
     
    चातुर्मास के प्रमुख पर्व – चातुर्मास प्रारंभ 4 जुलाई, गुरू पूर्णिमा पर्व 5 जुलाई, भगवान पार्श्वनाथजी का मोक्ष कल्याणक मोक्ष सप्तमी 26 जुलाई, सौभाग्य दशमी 29 जुलाई, रक्षाबंधन 3 अगस्त, रोट तीज 21 अगस्त, दशलक्षण महापर्व (पर्यूषण पर्व) 23 अगस्त से आरंभ, सुगंध दशमी (धूपदशमी) 28 अगस्त, दशलक्षण महापर्व का समापन 01 सितम्बर, क्षमावणी पर्व 03 अगस्त, शरद पूर्णिमा 31 अक्टूबर, भगवान महावीर स्वामी निर्वाण कल्याणक महोत्सव-दीपावली 14 नवम्बर।
     
    ● आचार्यश्री के साथ ये मुनिगण कर रहे हैं वर्षायोग
    इस वर्ष आचार्यश्री के संघ में 12 मुनि सम्मिलित हैं- मुनि  श्री १०८ सौम्य सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ दुर्लभ सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निर्दोष सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निर्लोभ सागर महाराज, मुनि श्री १०८ नीरोग सागर महाराज,  मुनि  श्री १०८ निरामय सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निराकुल सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निरुपम सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निरापद सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ शीतल सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ श्रमण सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ संधान सागर महाराज शामिल है।
  18. Vidyasagar.Guru
    ■ हिंदी विषय पर आचार्य श्री के सानिध्य में हुई अहम बैठक, देश भर के विद्वान शामिल हुए, आचार्य भग्वन के हुए विशेष प्रवचन
    ■ हिंदी विषय पर आज विशेष बैठक आचार्य श्री के सानिध्य में हुई।
     
     आचार्य श्री का हिंदी अभियान बीते अनेक साल से चल रहा है। अब इस अभियान को धरातल पर लाने के लिए जैन कालोनी में अहम बैठक हुई। 
    यह जानकारी देते हुए बाल ब्रह्मचारी सुनिल भैया और मिडिया प्रभारी राहुल सेठी ने बताया की हिंदी को प्रचारित करने के लिए देश भर से आए जैन समाजजन की बैठक आज जैन कालोनी में आचार्य श्री १०८ विद्या सागर जी महाराज के सानिध्य में हुई। इस बैठक को ब्रह्मचारी सुनिल भैया जी द्वारा संजोया गया था। 
    प्रफुल्ल भाई पारिख पूना, अशोक पाटनी, राजेंद्र गोधा जयपुर, एस के जैन दिल्ली, निर्मल कासलीवाल, कैलाश वेद उपस्थित थे। संचालन निर्मल कासलीवाल ने किया और आभार कैलाश वेद ने माना।
     
     
     

     

     



    ● आचार्य श्री ने बैठक में कहा की रामटेक में हमारा चातुर्मास चल रहा था, या गर्मी का काल चल रहा था, इंदौर से एक समूह आया था, उस समूह में इंजीनियर के सिवा कोई नहीं था, उनकी बड़ी भावना था, हम तो सामाजिक कार्य में तो भाग लेते ही है, हमारे पास जो समूह बना है उसको धार्मिक क्षेत्र में भी उपयोग किया जाए और जैन धर्म के पास इतनी क्षमता विद्यमान है, हम आशा नहीं विश्वास के साथ हम आए है आप इसके लिए अवश्य ही प्रेरणा एवं उत्साह प्रदान करे। विज्ञान की बात कर रहे है एक साधू से और ठीक विपरीत जैसा लगता है लेकिन सोचने की बात ये है इन दोनों का एक ही आत्मा है, स्पष्ट है किन्तु हम इसको जन जन तक क्यों नहीं ले जा पा रहे, इस कमियों को भी अपनी और देखना चाहिए। वो कमी हमने महसूस किया है, वो आपके सामने रखता हूं कि हमे बता दो विज्ञानं के द्वारा आखिर क्या होता है, विज्ञान कुछ उत्पन्न करता है या जो उत्पादित है उसको वितरित करता है या कुछ है उसको अभ्यक्त करता है।_ उनमें हमे सोचना है कि हमारे पास क्या क्षमता है और किस प्रकार की क्षमता है, इस और देखना चाहिए।
    जैसे समझने के लिए फूल की एक कली है , इस कली को मैं अपने विज्ञानं के माध्यम से खोल दू, खिला दू महक को चारों और बिखरा दू , क्या यह संभव है? समय से पूर्व ये काम करना असंभव है। विज्ञान इस क्षेत्र के लिए काम कर रहा है तो वो गलत माना जाएगा, हां उसका एक कार्य क्षेत्र अवश्य  हो सकता है कि वो क्या है, उसके बारे में अपने को सोचना है कि हर एक व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण रहता है और उसको फैलाने का वह अवश्य ही पुरुषार्थ भी करता है और एक समूह भी एकत्रित कर लेता है। तो हमे आज उपयोगी क्या है, आवश्यक क्या है ये सोचना है। दर्शन विचारों में बहुत जल्दी प्रमोद वगैरह  को खो देता है, खोना भी चाहिए लेकिन हम  युग की बात करते है , युग तक आपके पास जो धरोहर के रूप में आपके पास विद्यमान है, उसको आप कहाँ तक पहुँचा सकते है, इसकी उपयोगिता, उसके लिए कितनी है और उस उपयोग के माध्यम से कितने व्यक्ति उसकी गहराइयों तक पहुच सकते है, ये हम अपने दर्शन के माध्यम से ले जाना चाहे तो बहुत जल्दी ले जा सकते है। विज्ञान कहते है अतीत हमारा सब बंद हो जाता है केवल वर्त्तमान और भविष्य उसके साथ जुड़ जाता है। ये हमारा एक भ्रम है, किन्तु अतीत के साथ जुड़ कर के ये विज्ञान काम क्यों नहीं कर रहा, लगभग कर रहा है, फिर बीबी उसको यथावत रखने का साहस वो क्यू नहीं कर रहा है। आज इतिहास को छपाने से क्या हानि होती है आपके सामन है, देश को सुरक्षा प्रदान करने के लिए चुनाव होते है, आपका ही देश है ये।। एक देश चीन है, और उसने वास्तु चीज़े छुपाने का प्रयास कर दिया और उसको वह जो नियंत्रण में रखने का प्रयास कर रहा था, ताकि लोगो को दहशत न हो। आवश्यक था कि शासन का क्या कर्त्तव्य है, बड़ा पेचीदा है ये, इस शासन, प्रसाशन आदि आदि हमेशा हमेशा जागरूक रहना चाहिए, उनको अनुमति लेनी पड़ी, कोर्ट से अनुमति लेनी पढ़ी, क्या अनुमति ली आप सोचेंगे तो दंग रह जाएंगे, लेकिन स्थिति ऐसी गंभीर हो गई, यदि इसके बारे में हम कदम नहीं उठाते है  तो ये लाख की संख्या करोड़ के ओर जाने में देर नहीं लगेगी, ऐसी स्थिति में हम केवल हाथ में माला ले करके बैठ जाए तो कुछ नहीं हो सकता है। इसीलिए उनको चाहिए की युग को संचालित करने के लिए आपको इतिहास का आधार लेना चाहिए। जहा भारत के पास विज्ञान था, ऐसा मैं पूछुंगा तो असंभव है, लेकिन इतिहास को तो देखना संभव नहीं कर सकेंगे, इतिहास हमारे सामने है, प्रशासकीय परीक्षाओं के कुछ इतिहास निर्धारित किया है उसी को इतिहास में करके हम चल रहे, इतिहास सबका होता रहता है, विश्व में बहुत सारे देश है , भारत को आखिर अपना इतिहास कुछ खोजना तो पढ़ेगा।
     

     

    क्या भारत के पास कोई इतिहास ही नहीं था, केवल 18 वीं शताब्दी को अपने हाथ में लेते है, आप दंग रह जाएंगे, इसीलिए मैं कहता हूं ,विज्ञानं को चाहिए भारतीय इतिहास क्या था, काम से कम भारत वाले तो इसको जानने का प्रयास करे, जिसने इस तथ्य को अपना लिया, पकड़ लिया, ऐसे iit के छात्रों के 15-16 साल अथक परिश्रम करके टेक्सटाइल विश्वविद्यालय में उन्होंने अपने अनुभव लिए दिए है। उन्होंने कुछ ऐसे वैज्ञानिक तथ्य भी सामने ला करके रखे है, इनको अमेरिका स्वीकार करता है। ऐसी दिशा में उन्होंने अपने इस अनुभव को विश्व के सामने लाने का प्रयास किया, वह भारतीय है। अब आपको सोचना चाहिए की iit कहते ही, आप ये नहीं कह सकते की ये कोण धर्मोनिष्ठ व्यक्ति आ गया, आपको तो मानना ही पढ़ेगा की iit का विद्यार्थी तो ज़माने में माना जाता है, वह कह रहा है, अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल। इतना ही मैंने 2-3 महीने के पीछे इसको पहुचाने का मात्र कार्य किया है।
     
    🔅 चीन देश ने अंग्रेज़ी को क्यू नहीं स्वीकारा- आचार्य श्री जी
    आचार्य श्री ने आगे कहा की अब ये बता दो चीन ने अंग्रेजी को क्यों नहीं स्वीकारा उन्नति के लिए? आर्थिक, ज्ञान, अनेक प्रकार की उन्नतियां है जो अपने राष्ट्र के लिए अपेक्षित है, चीन ने क्यों नहीं अपनाया, चीन की कोनसी भाषा है। उन्होंने चीन की भाषा में ही सब प्रबंध किया है। रूस के पास क्या कमी है ये बताओ, अमेरिका के साथ वो हिम्मत रखता था, आज वो कमजोर हो गया है। इसके उपरांत जर्मन और जापान कई बार मिट जाते है ये देश, और कई बार खड़े हो जाते है ये देश उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं है, उनकी भाषा कोनसी है आप पूछो तो। आप पूछते भी नहीं और चिंता करते भी नहीं
     
     
     

  19. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    आदिम युग के प्रजापति, आदि मानव, आदि तीर्थाधिपति, आदि स्रष्टा वृषभदेव राजा के राज्यमण्डप में प्रतिदिन की भाँति इन्द्र उपस्थित हुआ और प्रभु को भक्ति भाव से प्रणत हो, उनके चित्त को प्रसन्न करने की आज्ञा चाहता है। समुद्र से महा गम्भीर, तीर्थङ्कर की वाणी का मुखरित होना जब युवराज पद में भी दुर्लभ है, अरिहन्त पद हो तो बात ही क्या? पर इन्द्र आया है अपने अनन्य अन्य देवों के साथ, अनेक अप्सराओं को लिए, उसको नाराज करना प्रभु को मुमकिन न था। अरे! जब महापुरुष निर्बल, असहाय, साधारण प्रजा जन के मन को भी प्रसन्न रखते हैं तो फिर यह तो देवलोक का प्रधान इन्द्र है और हमारी प्रसन्नता में ही अपने को भाग्यवान समझता है, शायद यही सोचकर वृषभ राजा मुस्कुराए और इन्द्र ने इस इशारे को स्वीकृति समझा। पर लोग सोचते हैं कि ये उसी भव से मोक्ष जाने वाले हैं और किसी की बात को इतनी जल्दी मंजूरी नहीं देते जितनी कि इन्द्र की। इन्द्र का ही दिया भोजन, आभूषण, वस्त्र आदि स्वीकार करते हैं, इस विशाल भूमण्डल पर भी अनेक सुन्दर ललनाएँ हैं, उनके नृत्य को देखना पसन्द नहीं करते हैं, मात्र इन्द्र की लायी अप्सराओं का ही। अरे! नाभिराज तो कहने के लिए पिता हैं और मरुदेवी जननी मात्र होने से माता। पर इनका सारा ख्याल तो यह इन्द्र और इन्द्राणी रखते हैं, खैर; हमारे लिए तो सौभाग्य की बात है कि हमारे पालन करने वाले वो महामानव हैं कि जिनके जन्म के पहले से रत्न की बरसात होती थी, इन्द्र जन्माभिषेक के लिए मेरुपर्वत पर प्रभु को लेकर गया और प्रतिदिन यह आकाश इन्द्रों की बारात से ऐसा सुशोभित होता है कि लगता ही नहीं कि धरती यहाँ है और आकाश ऊपर है।
     
    इधर यह विचारों का द्वन्द और उधर इन्द्र का आदेश, एक साथ वातावरण बदल गया, लोगों को और कुछ सोचने के लिए अवकाश नहीं, सबका चित्त उस लय में लवलीन । अहो यह अलौकिक संगीत है एक साथ करोड़ों वाद्यों का एक लय में बजना प्रत्येक वाद्य की आवाज अलग अलग सुनना चाहें तो वो भी सुन सकते हैं। बस! हमें मन लगाने की जरूरत है, इन ध्वनियों का आरोहण-अवरोहण ऐसा कि मर्त्यलोक के मानवों द्वारा असम्भव है, यह राग का आलाप, पदों की थिरकन, कब, कौन-सा हाथ किस अंग पर पहुँच जाता है पता नहीं, कभी वह पैर कान के पास, तो कभी-कभी पैर आकाश में ऐसे फैलते मानो कि आकाश में बिजली चमकती, लहराती चली गयी हो, समझ से परे यह नृत्य जादूगर की तरह कला बाज है, ललाट का ऊपर उठना, भ्रू का कटाक्ष, नयनों की चंचलता, हेमकलशों का उघड़ना, कटि का घुमाव, नाभिस्थल का हिलोरें लेना, भुजाओं और पदों का अन्तर ही नहीं समझ पाना, ग्रीवा का घूमना, संगीत के अनुरूप भाव, रस और लय की एकाग्रता, यह सब कुछ अलौकिक है, जो लौकिक पुरुष के लिए सम्भव नहीं क्योंकि विक्रिया का यही तो वैभव है। जनमानस की नीली आँखों में वह नीलाञ्जना नर्तकी तो अञ्जन की तरह लगी रही, मानो उस सुरी को देखने के लिए अनिमेष पलक लगाये, ये मनुष्य नहीं सुर ही हैं। उस नृत्य ने भगवान् के मन को अनुरञ्जित कर दिया, भगवान् का मन तो बहुत विशुद्ध है पर राग की लालिमा में भी अवगाहित है। स्फटिक मणि के नीचे जपापुष्प रखा हो और मणि लाल न हो यह तो असम्भव है, उन सरागी प्रभु का यह राग ही तो जनमानस को उनसे अनुराग करने को मजबूर कर देता है और अचानक नर्तकी बदल गयी, सब लोग देख रहे थे, कोई भी न सोच पाया कि नर्तकी विलीन हो गयी इस देवलोक से, धन्य है यह सम्यग्दृष्टि, जो राग के प्रसंग में भी इतना सावधान और सूक्ष्मदृष्टि रखता है, लोगों का आनन्द अजस्र चल रहा है पर वह हल्की-सी रेखा की तरह भंग हुआ असुख भी सहन नहीं हुआ, क्या बदला है, कुछ भी तो नहीं, वही पृथ्वी, वही इन्द्र, वही अप्सरा का विलास, वही दरबार, वही नृत्य का क्रम, संगीत की वही लय, वही रस है, पर उस ज्ञानी के अन्तस् में वह छोटी लकीर, भेदविज्ञान की एक विराट लकीर खींच गयी।

    इन्द्र उस नृत्य को नहीं देख रहा है। वह प्रभु के मनोभाव उनके मुख कमल से जान रहा है, आज पहली बार जन्म के बाद उस मुख कमल को ऐसा देखा जो और लोगों के लिए देख पाना असम्भव। प्रभु का अन्तस् तो सदा एक-सा, पर आज प्रभु ने कुछ अलग ढंग से इन्द्र को देखा और प्रभु इन्द्र के भाव को समझ गए, अरे! इतना प्रयास हमारे लिए करना पड़ा, मैंने आज फिर गलती की, चर्मनेत्र तो खुले के खुले ही रहे पर अन्तस् में अवधिज्ञान का नेत्र स्फुरित हो गया, मैं इन विषय भोगों में ही खो गया, मैं कौन हूँ ? मेरा क्या कार्य है? और मैं क्या कर रहा हूँ ? मुझ जैसे को भी समझाने के लिए यह प्रसंग रचा गया ठीक ही तो है यह इन्द्र का विवेक है, कभी भी महापुरुष को आमने-सामने, तानन-फानन वचनों से नहीं समझाया जाता। महान् आत्मा भी कभी-कभी गलती करते हैं पर उनको समझाने वाले भी महान् होते हैं। असंयम मार्गणा में भी संयमी-सा जीवन जीने वाले उन प्रभु को असंयम के साथ समझाना अविवेक होगा इसीलिए धैर्य धारण कर इन्द्र ने अपने विवेक का परिचय दिया, आज मैं दुनिया की नजरों में भले ही तीन ज्ञान का धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दूरद्रष्टा, आदि नायक हूँ पर मैंने वह गलती अभी भी नहीं सुधारी जो मैंने दश भव पूर्व की थी।
     
    हाँ! हाँ! दशभव पूर्व में! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम दिशा की ओर विदेहक्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है, उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा था उसकी स्त्री सुन्दरी थी, उसके दो पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा था और छोटा भाई श्रीवर्मा । यह बड़ापन और छोटापन तो जन्म की अपेक्षा से है वस्तुतः गुणों से व्यक्ति बड़ा और छोटा होता है। छोटा पुत्र सुभग था, जो स्वभाव से ही सबको प्यारा लगता था। उसकी क्रीड़ा भी मन को प्रसन्न करती थी, उसका उत्साह, प्रज्ञा, कमनीयता आदि गुण ऐसे थे जो बड़े भाई में भी न थे। जयवर्मा को लगता था कि माता-पिता श्रीवर्मा का ही ज्यादा ख्याल रखते हैं, उसे ही ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं। परस्पर में कुछ अलग व्यवहार देखकर किसी को ठेस पहुँचती है, तो कोई खुश होता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति अपने आप को निर्गुण नहीं समझता है प्रत्युत दूसरे के गुण भी उसे दोष दिखते हैं और ऐसी स्थिति में मात्सर्य भाव अवश्य पैदा होता है। छोटे भाई के प्रति अनुराग तो था ही ऊपर से पिता ने राज्यपाट भी श्रीवर्मा को दे दिया। जयवर्मा से रहा न गया, वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ घर से निकल गया। संयोग से उसे स्वयंप्रभ नाम के एक निर्ग्रन्थ गुरु मिले। गुरु को देखकर उसे कुछ सम्बल मिला। व्यक्ति को दुःख के समय जिस किसी की सहानुभूति मिले वही उसका परम मित्र होता है। संसार की स्थिति से उसे कुछ वैराग्य तो हुआ पर वह वैराग्य नहीं वस्तुतः जीवन के प्रति निराशा थी। निराशा और वैराग्य में बहुत अन्तर होता है। दोनों में भेद कर पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। मन दोनों में उदास हो जाता है, मुख भी कुछ फीका पड़ जाता है पर बाद में दोनों में क्या अन्तर है यह रहस्य खुलता है। निराशा जब बढ़ती जाती है तो व्यक्ति बेचैन हो जाता है, आलसी हो जाता है और परेशानसा रहता है जब तक कि कोई आशा की किरण न फूटे पर वैराग्य ठीक इससे विपरीत है। वैराग्य जैसे-जैसे बढ़ता है व्यक्ति की सांसारिक कामनाएँ छूटती जाती हैं और नित प्रतिदिन आनन्दित होता हुआ अनाकुल चित्त हो जाता है। वैराग्य के साथ यदि ज्ञान का पुट भी हो तो मुक्ति उसके हाथ में है। उसने गुरु महाराज से दीक्षा ले ली और निर्ग्रन्थ श्रमण बन गया। सच कहता हूँ-गुरुकुल में रहे बिना ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़ नहीं हो सकता और शास्त्रज्ञान बिना भोगों की रुचि नहीं छूट सकती। अभी जयवर्मा नव दीक्षित था; कि एक दिन आकाश में उसने एक विद्याधर को बड़े ठाट-बाट के साथ गमन करते देखा और उसका सोया हुआ भोग रूपी सर्प जाग गया, फल यह हुआ कि उस सर्प ने तात्कालिक वैराग्य को डस लिया, नशा चढ़ गया और भोगों की चित्त में तीव्राकांक्षा हुई, मुझे भी भगवन् ऐसा ही वैभव मिले, विलासता मिले। मन मूर्च्छित हो गया था, निदान बंध हो चुका था। काल की बलिहारी कि, बाहर से भी एक भयंकर सर्प बिल से बाहर निकला और उसके तन को डस लिया। प्राण पखेरू उड गए पर भोग का वह भाव साथ गया और फलित हुआ। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जिस निर्ग्रन्थता को पाकर व्यक्ति तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, इन्द्र जैसे पदों के लिए पुण्य उपार्जन करके मोक्ष को प्राप्त होता है, उससे उसने विद्याधर का पद पाया। अरे! मणि को बेचकर धूल खरीदना कौन आश्चर्य की बात है, प्रत्युत मूढ़ता की बात है। कोई बात नहीं थोड़ी देर के लिए ही सही, कोई भी अच्छा संस्कार, अच्छा भाव ही देता है बशर्ते कि भवितव्यता अच्छी हो। गलती तो हर कोई करता है पर गलती करके सुधर जाने वाला महान् होता है। भगवान् बनने वाली आत्मा भी धीरे-धीरे विकास पथ पर आरूढ़ है।
  20. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    और अब उपलब्ध हुआ इन्द्रिय सुख का उत्कृष्ट संसार । जहाँ से मात्र बारह योजन दूरी पर है सिद्धशिला, जिसके ऊपर वातवलयों से मस्तक को स्पर्श करते हुए विराजते हैं, सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाले मुक्त-चेतन तन। ऐसा वह सर्वार्थसिद्धि विमान, जो कि वैमानिक देवों में सर्वोत्कृष्ट कल्पातीत देवों का सुख दिलाता है। उसमें उपपाद शय्या पर परम पुरुषार्थ के फलस्वरूप जन्म हुआ। एक नई देह, एक बार फिर स्वर्ग की अन्तिम शलाका जो मुक्त होने से पूर्व की है, पर अद्वितीय है। जहाँ पर पहुँचा आत्मा तदनन्तर भव में निश्चयतः मोक्ष को उपलब्ध करता है। जैसे पूर्व में श्रावकधर्म के फल की अन्तिम सीमा को अर्थात् अच्युत स्वर्ग को प्राप्त किया था, उसी प्रकार इस बार मुनि धर्म का उत्कृष्टतः आचरण कर, मुनिधर्म से मिलने वाले इस फल को पारितोषिक समझ सर्वोत्कृष्ट सीमा को प्राप्त किया। जिससे ऊपर सुख का सांसारिक साधन नहीं, जहाँ आपस में वैमनस्कता नहीं, जहाँ किसी की ऋद्धि, वैभव को देखकर भी जुगुप्सा की लहर नहीं । जहाँ पर पञ्चकल्याणक महोत्सव, नन्दीश्वर आदि महामहोत्सवों में जाकर सुख या पुण्य को प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं। वे अपने ही परिकर में, अपने विमान में भ्रमण से संतुष्ट, अपने आप में परम शुक्ल भावों से प्राप्त उत्तम सुख का उपभोग करते । जहाँ पर वेद के, प्रतिकार की आवश्यकता नहीं क्योंकि वेद का उदय भी इतना मन्द है कि वे सदा निर्विकार मुनि के समान स्वतन्त्र निराबाध रहते। जहाँ पर दूसरे इन्द्र की भी कोई आज्ञा नहीं,शासन नहीं, किसी भी प्रकार का पारतन्त्र्य भाव नहीं । सब अपने में आत्मज्ञ हैं, आत्मा का नाम ही इन्द्र है, जहाँ प्रतिक्षण यह प्रतिभासित होता है कि, मैं वह सिद्धस्वरूप, ज्ञाता-द्रष्टा, मात्र चिविलास वाला हूँ, मैं पूर्ण इन्द्र हूँ, मैं अहमिन्द्र हूँ। द्वादशाङ्ग का ज्ञान रखने वाले वे देव कभी भी कलुषित नहीं होते, यह पूर्ण विज्ञता का ही सुफल है जो परस्पर में कषाय उद्घाटित नहीं होती है, फिर भी कषाय समुद्धात का सद्भाव मात्र सिद्धान्त में   कषायों के सद्भाव की विवक्षा में कहा जाता है। समचतुरस्र उत्तम संस्थान से अत्यन्त सुन्दर रूप वाले वे अहमिन्द्र वज्रनाभि, एक हाथ मात्र शरीर के उत्सेध वाले थे। हंस के समान शुक्ल शरीर की आभा से चन्द्रमा को जीतते हुए, अत्यन्त प्रशान्त चेष्टायें धारण करते थे। अपनी गम्भीरता से अपने अन्दर के उत्कृष्ट सुख को बताने वाले वे अहमिन्द्र दैदीप्यमान आभूषणों से अमृतकुण्ड में ही डूबे हों, ऐसे प्रतीत होते थे। अवधिज्ञान में ऊपर से ही लोक नाली में प्रवाहमान अनन्त दुःखित जीवों को देखते हुए मानो यही बता रहे थे कि इस संसार में कहीं भी सुख नहीं इसलिए ऊपर उठो। अपनी निराकुलता से वे मानो इन्द्र को भी सच्चे सुख का पाठ पढ़ा रहे हों। तैंतीस सागर की दीर्घ आयु को भी एकाकी रहकर पूर्ण करते हुए मानो यही बता रहे हों कि, परस्पर का सम्बन्ध, यह परिवार, आलाप, लौकिक व्यवहार, यह तालमेल आदि सुख के नहीं, दुःख के कारण हैं इसलिए उपशान्त भावों की वृद्धि करो। परम शुक्ल-लेश्या में ही आत्मिक सुख है। सुखाभास है वहाँ, जहाँ सुख की अवभासना पर सापेक्ष हो। जिस उपपाद शय्या को पाकर बिना किसी देव के प्रबोध के उन्होंने अपनी सफलता और किंचित् विफलता का रहस्य जान लिया। बिना किसी की प्रेरणा के जिनबिम्बों के दर्शन-पूजन को स्वयं प्रेरित हुए। तदुपरान्त यह अकाट्य नियोग है, यह जान वहाँ के सुख में लिप्त हुए। अवधिज्ञान को क्षेत्र के समान ही विक्रिया करने की शक्ति का क्षेत्र होते हुए भी, वे विक्रिया से रहित थे। तैंतीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर वे मानसिक दिव्य आहार को करते थे। एक महायोगी के समान जिनके श्वास का आरोहण-अवरोहण अव्यक्त रहता था। ऐसे परमशान्त मुनि स्वरूप सोलह मास पन्द्रह दिवस बीत जाने पर एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे। वह धनदेव तेजस्वी रत्न भी, स्वामी की तपस्या के समान तप्त होते हुए उसी सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्रत्व को प्राप्त हुए। स्पर्धा का यह अलौकिक प्रतिमान अपने आप में अनूठा है। वही मित्रता, वही पुत्रत्व, वही स्त्रीत्व, वही मातृत्व सत्य है जो व्यक्ति को अलौकिक पुरुषार्थ के लिए बाधित नहीं करता। अन्तरङ्ग में धर्म ही मित्र है अपना शुभभाव ही अपना वत्स है, अपनी आत्मा की शान्ति ही स्त्री है और अपना चित्तत्त्व ही अपनी माता है, यह जानकर जो व्यवहार के सम्बन्धों को अपनाता है, वह धनदेव की तरह निर्मुक्त रहता है और वज्रनाभि की तरह अलौकिक हित के प्रणेता का उपमान पाता है। दोनों अहमिन्द्रों के बीच धर्मचर्चा के ही सदा अवसर रहते। अपने पूज्य के प्रति विनयवान वह धनदेव का जीव अहमिन्द्र होकर भी वज्रनाभि के प्रति अपनी चेष्टायें संकुचित रखता, अपनी आत्म-प्रशंसा से दूर वज्रनाभि अहमिन्द्र के वचनों के धर्ममय वातावरण में सदा स्नान करता। अद्भुत है यह कृतज्ञता जो समान पद पर प्रतिष्ठित होने पर भी गर्व और कृतघ्नता से रहित है।
     
    अपने दिव्यज्ञान चक्षु से सम्पूर्ण लोक के क्रियाकलापों में कई बार वह अहमिन्द्र एकाकार हो अपने में ही लौट आता । ब्रह्माण्ड के उदर में यत्र-तत्र- सर्वत्र ठसाठस भरा जीवत्व उसके संवेग की वृद्धि में हिस्सेदार हो जाता। आज फिर एकान्त में बैठे उस दिव्यज्ञान दर्पण में चित् उपयोग डूब गया। अहो! कोटि-कोटि योजनों को लांघने पर भी अन्तहीन रज्जू की मापकता तक विस्तृत यह ज्योतिर्लोक आकाश रूपी स्त्री की भुजाओं का श्रृंगार कर रहा है। उसके उपरितल में दूर-दूर तक प्रकीर्णित दिव्यविमान मानो उसकी केशों के गूंथने के गजरे हैं। यह वलयाकार मनुष्य और पशु सम्पदा से व्याप्त तिर्यक् लोक उस करधनी की तरह बीच में लटके हैं, जो पुरुषार्थ से ऊपर या नीचे कहीं भी खिसक सकती है। पाताल लोक की महातमः प्रभा तक की अन्ध यात्रा की अन्तहीन वेदनायें। इस झल्लरी समान लोक में स्वसंवेदन से शून्य मात्र कर्मफल का भोजन करती हुई पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय की संत्रस्तता का वेदन, मैं कैसे समझ सकता हूँ। सकल इन्द्रियों को पाकर भी यह पशु योनि में ताड़न-मारन की असह्य वेदना को लख हृदय स्वयमेव करुणद्रव को बहाने लगता है। मनुष्य योनि पाकर भी जड़ देह से ज्ञान चेतना का संवेदन करने वाला विरला पुरुष ही दीख पड़ता है। इन असंख्य देहों के भीतर से कैसे व्यक्त हो आत्मीय अनुभवन के स्वर। तृष्णा की वह्नि से जाज्वल्यमान हुए देह का एक-एक अणु समुद्र-सा अतृप्त है। एक-एक अणु में अनन्त-अनन्त अधूरी इच्छायें हैं जो प्रतिपल, प्रतिभव नव अभिनव होकर चली आती हैं। विगत का सारा भोग उसी देह के साथ विलग हो जाता है और फिर समाविष्ट हो जाता है दैहिक या ऐहिक जगत् में । कोई विधाता भी अगर इन प्राणियों की अदम्य वासना की पूर्ति करना चाहे तो वह भी विफल हो जाय । गणित यहाँ अपनी सत्ता से दूर है। एक मात्र छोटा-सा लोक है और अतृप्त चेतना का एक-एक प्रदेश उसे अपने में समाहित करना चाहता है। इन अतृप्त चेतनाओं की संख्या भी गणनातीत है। दुःख के अनुषङ्ग से प्राण छटपटाते हैं और सुख के अनुषंग से तृप्ति की तरंग नहीं, फिर सच्चा सुख कहाँ है? किसमें है? किससे मिले? ये प्रश्न भी अनवतरित हैं। क्या कभी भू-खनन के बिना जलस्रोत मिला? क्या अविकल गगन में हाथ मारते हुए कोई उड़ा? क्या कभी श्वान को अस्थि चर्बन से तृप्ति हुई? क्या कभी समुद्र को नदियों के पूर से शान्ति मिली? क्या मोह धनुष पर कामबाणों को चढ़ाते-चढ़ाते कामदेव को कभी तृप्ति मिली? क्या षटखण्ड पर एकदत्त राज्य करने वाले चक्री को विषयों में रस तुष्टि मिली? एक नहीं, दो नहीं, सहस्र विक्रिया करने पर भी क्या एक भोक्ता अपने तन की किसी भी नस से सुख की कोई झंकार पाया? विपरीत पुरुषार्थ में दिग्व्यापी मोह की माया में इसने अपने को ही छला है, अपने को ही ठगा है। इन्द्रियों के विषयों की ज्वाला में यह उसके ऊपर, पहले पतंगे की तरह भ्रमण करता है, तत्पश्चात् उसी में आहूत कर देता है अपना सर्वस्व । नव-नव संकल्प विकल्पों की पूर्ति का अरुक अथक प्रयास यह आत्मा देह की खुजली रोग की तरह जितना मिटाने और दूर करने को करता है, उससे कहीं अधिक पीड़ा के साथ वह फिर अपने को दु:खी ही पाता है। मिथ्याज्ञान, विपरीत तत्त्व का भान, सदा पराश्रित जीवन, चार संज्ञाओं से आच्छादित रहना आदि-आदि ही जीवनचक्र और मरणचक्र का प्रारूप बनाए रखता है। कैसे मिले समीचीन अलख अमूर्त आत्मा का ज्ञान और उसका विश्वास? कैसे जड़ देह की संयुति से सुखाभास का आभास हो? और सोचते-सोचते, देखते-देखते उपयोग की धारा टूट गई। मति और श्रुति के आलम्बन से ज्ञान को आत्मकेन्द्रित कर क्षण भर बैठे रहे, तभी अन्य अहमिन्द्र भी निकट आकर बैठ गए। अपने विशिष्ट शान्त स्वभाव और असाधारण तेज से अन्य सभी देव अहमिन्द्र होकर भी उनकी संगति के क्षण को सराहते। कई सागरों का काल इसी तरह सुखपूर्वक बीत गया। कभी जिनबिम्ब के दर्शन, कभी उन्हीं की स्तुति, स्तवन, कभी सिद्धों के गुणों का चिन्तन, तो कभी संसार के स्वरूप का दिग्दर्शन, कभी देवगोष्ठी में धर्म का बखान और श्रवण।
     
    आयु की कलायें अब अत्यन्त क्षीण हो गयी। स्वर्ग से च्युत होने का पूर्वाभास हुआ। न कण्ठ की माला में म्लानता आयी और न परिमल में कुछ कमी। चारों ओर वैभव का विशाल साम्राज्य पर, शान्तमन किसे भोगे? अहमिन्द्र को न भय है न विषाद की लहर । बस, तटस्थ हैं, प्रवाहमान नदी की तरह, काल के अलंघ्य परिणमन की सीमा में। यह सुख शाश्वत नहीं, जो शाश्वत नहीं उसका विरह निश्चित है। जो शाश्वत है वही सुख है और उसी को प्राप्त करने का भाव प्रवर है। इस पर्याय में अधिक पुरुषार्थ सम्भव नहीं, ये बंधन विगलित हों और निर्बन्ध विचरण हो। मैं देख रहा हूँ कितना काल बीत गया इस भरतक्षेत्र में जहाँ अभी भोगों का प्रचुर विलास चला आ रहा है, करोड़ोंकरोड़ों सागर बीत गए, इन संतप्त जीवों को सम्यक् मार्ग नहीं मिला। उत्सर्पिणीकाल के नव कोटि-कोटि सागर बीत गए और इस अवसर्पिणी के भी नव कोटि-कोटि सागर काल बीतने को हैं। इस प्रभूत काल के बीच मोक्ष पुरुषार्थ से वंचित अगण्य प्राणी मानो मुझे बुला रहे हैं। इस कलिकाल के लाखों करोड़ों मानवों, दानवों, पशु पक्षियों का उद्धार का करुणभाव मुझे बुला रहा है। आओ-आओ इस धरा को अब उसका पति चाहिए, आओ-आओ मुझे अब मुक्ति सूत्र चाहिए, अवतरित होओ, होओ, कलि के आद्य कर्णधार, ..............।
  21. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    और इधर अगणित काल से सोये हुए मनुष्य के समान भोगों की निद्रा टूटने लगी। जागृति की अवभासना होने लगी। कल्पवृक्षों से प्राप्त सम्पदा का शनैः, शनैः लुप्त होना यही बता रहा था कि मनुज! अब आँखें खोलो, बहुत सो लिए पुरुषार्थ करने को कटिबद्ध हो जाओ। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक के बाद एक, ऐसे चौदह कुलकर जन्मे । जब इसी भरतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि के समान व्यवस्था चल रही थी और पल्य का आठवाँ भाग मात्र शेष रहा तब प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यन्त चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने समय-समय पर भोगों की व्यवस्था के लुप्त हो जाने से डरे हुए मनुष्यों को प्रतिबोधित किया। अन्तिम कुलकर नाभिराजा की आयु एक करोड़ पूर्व की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष थी। पहले, युगलों का जन्म होते ही माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। धीरे-धीरे लोग अपनी सन्तान का मुख देखने लगे और जब बालक की नाभि में नाल दिखायी देने लगा तो उसे ठीक तरह से काटना आप नाभिराज ने ही सिखाया, इसलिए आपका नाभि यह सार्थक नाम हुआ।
     
    भोगभूमि का अवसान हो गया, कल्पवृक्ष समूल नष्ट हो गए। काल की गणना में अभी तृतीय काल चल रहा है पर क्षेत्र विपरीत हो चला है। जो कभी नहीं देखा ऐसा विस्मयकारी वातावरण सामने आ रहा है। मन में इच्छा होते ही सब कुछ सुलभ प्राप्त था, भूख-प्यास की पीड़ा नहीं थी पर अब हे नाभिश्रेष्ठ! यह सब क्या हो रहा है? यहाँ उदर में कुछ जलता-सा लगता है, जब कुछ खाने का समय आता है तो समझ नहीं पड़ता क्या खाऊँ? और प्रभो! ये ऊपर काले-काले क्या घिर आते हैं? जिनके आते ही अंधेरा छा जाता है, फिर थोड़ी देर बाद बहुत तेज आवाज होती है, कुछ चमकता है, फिर कुछ गिरता है और एकाएक हम लोग जलमय हो जाते हैं, थोड़ी ही देर में ठण्डीठण्डी क्या आती है? जो दिखती नहीं पर महसूस होती है, इतना ही नहीं भगवन् ! अब वे विशालकाय वृक्ष दिखते नहीं जो हमारा भरणपोषण करते थे, अब तो जगह-जगह ये ही दिखाई देते हैं और ये देखो यहाँ पर कुछ थोड़ाथोड़ा, छोटा-छोटा कुछ ऊपर को निकलता आ रहा है, धीरे-धीरे यह ही बड़ा हो जाता है। हे कृपालो! हम सबकी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि यह क्या है? हे नाभिराज! आप ही सबके पिता हैं, हम लोगों को बताओ ताकि अनाकुलता से जी सकें।
     
    अपने दिव्यज्ञान से इन लोगों का भोलापन देखकर नाभिराज ने सब कुछ यथार्थ समझा और कहा देखो! पहले यहाँ बड़े-बड़े वृक्ष थे, वे वृक्ष अब आप लोगों को नहीं मिलेंगे। अब तो जो यह दिख रहा है, उन्हीं फल को खाकर भूख को दूर करना होगा और ये ऊपर जो काले-काले दिखते हैं, वे बादल कहलाते हैं जब वे बादल आपस में रगड़ते हैं तो उनसे जो चमकती दिखती है, वह बिजली है। ये ठण्डी-ठण्डी जो बहती है, वह हवा है। जो ऊपर से मोती से छोटे-छोटे बिन्दु गिरते हैं, वह जल है और यह वर्षा कहलाती है। ये जो धरती में से हरे-हरे अंकुर निकल रहे हैं, ये ही बड़े होकर पेड़ पौधे बनेंगे फिर इनमें फल लगेंगे उनको खाकर आपको तृप्ति होगी, इसलिए डरो मत । ये चावल हैं, ये गेहूँ हैं, ये सरसों हैं और इधर मूंग, अरहर, चना। ये ईख हैं, इनका रस निकालकर पीना। ये केले हैं, इनको ऐसे छीलना फिर खाना। ये द्राक्ष हैं, ये नारियल हैं, इनके अन्दर पानी है, इसकी ये गरी है .......आदिआदि।
     
    सच! प्रजा की सन्तुष्टि ही राजा का सुख है। भयभीत को अभय बनाना ही सबसे बड़ा दान है। समय पर समझ देने वाला ही गुरु है। हे आर्यश्रेष्ठ! आपने प्रजा को जीने के उपाय बताये इसलिए आप मनु हैं। आपने इन आर्य जनों को कुल की तरह एक साथ रहने को कहा इसलिए आप कुलकर हैं । आपने अनेक वंश स्थापित किए इसलिए आप ही कुलधर हैं। इस युग के प्रथम उपदेष्टा आप ही युग ज्येष्ठ हैं। नहीं, मरुदेवी नहीं। यह विश्व स्वयं अपनी शक्तियों से संचालित है। बोध-प्रतिबोध तो हमें इन्हीं से प्राप्त होता है। इन्हीं प्रजाजनों के पुण्य से मुझमें यह ज्ञान उद्भूत हुआ सो इन्हीं को दे दिया?
     
    मानो नाभिराज की निश्चिन्तता से ही इन्द्र को चिन्ता हुई, क्योंकि जब पुरुषार्थी निश्चिन्त बैठता है तो देवों के भी आसन कँपने लगते हैं, कि कहीं ये मेरी सम्पदा को न ले जायें। अब इस आर्यक्षेत्र में हे कुबेर! कुछ अघटित घटित होगा, इसलिए मेरी इच्छानुसार एक विस्मयकारी अपनी प्रवीण कला से एक नगरी का निर्माण करो। जहाँ स्वर्ग के विमानों से गृह हों, उन पर विमान के शिखर की चोटी की ध्वजाओं की तरह चंचल साकेतायें लहरायें और उसका शाश्वत नाम साकेत हो । जो किसी भी परचक्र से युद्ध में विजित न हो इसलिए चाहो तो उसका नाम अयोध्या रख दो। रमणीय सुकोशल देश में निर्मापित होने से उसको सुकोशला कहकर घोषित करो। जहाँ सभ्य जनों का, शिक्षित चेष्टितों का ही प्रवास होगा इसलिए नय विनयवन्त जनों से भरी उस नगरी को विनीता भी पुकारो। यह कार्य अविलम्ब हो; क्योंकि महाकर्म जेता विश्वस्रष्टा धर्माधिपति युगप्रमुख, आदितीर्थ प्रवर्तक का जन्म होना है। उस महा-भाग को जन्म लेना है जो समय का विज्ञाता है, जिसकी प्रत्येक क्रिया आने वाले युग की धरोहर होगी। जिसके मन का एक-एक अणु विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत होगा। जो स्वयं चलेगा फिर भी ऐसा लगेगा कि प्रत्येक काल कणिका उन्हीं का अनुसरण कर रही हो। इन्द्र ने कहा और कुबेर ने अपने कला कौशल से कुछ ही क्षण में निर्मित कर दी, वह अयोध्या नगरी।
     
    इन्द्र ने जब निर्मित नगरी का सिंहावलोकन किया तो वह आश्चर्य चकित हो उठा। अरे! देव कुबेर! यह आपने क्या बनाया? कहीं स्वर्ग का ही कोई रूप उठाकर तो नहीं ले आये। नहीं-नहीं, स्वर्ग से भी सुन्दर मनोहारी इस नगरी में भवनों, राजप्रासादों, लतावनों, मण्डपों, छज्जों और छतों की बेसुमार कला कौशलता यह आपने कहाँ से सीखी। नहीं प्रभो! यहाँ मेरा कुछ नहीं, सच कहूँ देवेन्द्र ! यहाँ आपका भी कुछ नहीं । यह सब वैभव और चकाचौंध तो उसी अजन्मा की है जिसके निमित्त यह निर्मित हुई। यहाँ कुछ मैंने किया, उसके लिए किया, ऐसा वैसा इन बातों का कोई स्थान नहीं । पुण्य रूपी बालक की ये विचित्र लीलायें हैं, जो अपने पिता की गोद में ही खेलता है और उसी पालक की गोद में स्वतः तिरोहित हो जाता है। पश्चात् सभी देवों ने आकर शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में अतिशय समृद्धवान् अयोध्यानगरी में निवास प्रारम्भ कराया। नाभिराज और मरुदेवी यह सब देख अत्यन्त विस्मित थे। स्वयं इन्द्र अपने सहायक अन्य देवों के साथ पुण्य तीर्थ के उत्स पदों को पूजकर अपने निवास स्थान पर चला गया।
     
    प्रभु के जन्म लेने के छह मास पूर्व से इन्द्र की आज्ञानुसार नाभिराज के नवनिर्मित विशालकाय भवन में गणनातीत रत्नवृष्टि होने लगी। महारानी मरुदेवी विस्मय से सोच उठी कि ये महार्घ्य रत्न इस महल में कैसे बिछे पड़े हैं ! मानो आकाश के सभी ग्रह और नक्षत्र ताराओं सहित इस प्रांगण में आ पड़े हों। कहीं यह नील कुलाचल ही चूर्ण-चूर्ण तो नहीं हो गया। परस्पर में घुली मिली इन रंग बिरंगे रत्नों की आभा से सारा महल आपस में किसी से बोलता-सा लगता है। महल की छतें ऐसी पट गयी हैं कि, लगता है मैं किसी नील सरोवर में तैर रही हूँ। इन भित्तियों पे मरकत मणियों की आभा, यहाँ पन्नारत्न, ये मूँगा माणिक्य के ढेर, प्रत्येक गृह में रत्नों के तरह-तरह से उपयोग हो रहे हैं। कोई उन रत्नों से अपनी पगतलियाँ घिसता है, तो कोई गले में संजोकर आभूषण बना लेता है। कोई उनमें अपने चेहरे देखता है, तो कोई उनसे खेलता रहता है। पड़ोसी जन इन दिव्य रत्नों को बटोरते नहीं थकते। सारी अयोध्या का वैभव स्वर्ग की नगरियों से भी अग्रणी है।
     
    और एक दिन - हे नाभि श्रेष्ठ! छह महीने होने को हैं अनवरत यह क्या चल रहा है। ये वैभव, विलास, सौन्दर्य की उत्कटता का प्रयोजन क्या? इन झिलमिलाती नीलाभ, रक्ताभ, हरिताभ, पीताभ, श्वेताभ मणियों की राशि में डूब-डूब कर मैं अपनी देह के रंग को भी भूल गयी हूँ। आपके दिव्यज्ञान में सब परिलक्षित हैं, पर आपने मुझे इससे क्यों बेखबर रखा है? मैं अब कुछ रहस्य समझना चाहती हूँ प्राणनाथ! रहस्य! रहस्य तो प्रकृति में हमेशा से रहा है। समय पर उसका उद्घाटन होगा और वह समय आने वाला है, आर्ये! बस उतनी ही दूर है वह, जितनी देर अभी मयंक को ऊपर आने में है। सब कुछ यहाँ व्यवस्थित है। प्रत्येक कण इस ब्रह्माण्ड का अपनी ही गति से गतिमान है। उद्घाटित होने से पहले वह रहस्य लगता है, बाद में तो वह अपना ही परिचित सा लगता है। इस तरल मृदिम शय्या की स्फुटता कुछ कह रही है उसे समझो। तन्वंगि! विशाल खांङ्गण में द्योतित. चन्द्रमणि को निगल जाने को जी कर रहा  है। शशि की इस शीतलता में सुख का झरना झर रहा है और ये छोटे-छोटे चमकीले तारे मानो कुमुदिनी की मुंदी पँखुरियों में छिपे पराग से खेलना चाहते हैं। इस नीलम रज:आर्णव में डूबे और छिपे शुक्तिपुट में मुक्ताधारण की सम्भावनायें किसी तेजो राशि की प्रतीक्षा में हैं। अन्धकार गहराता ही चला जा रहा है। समूचा विश्व निःशब्द हो गया है और तभी ब्रह्मविप्रुष् कर्मभूमि के विश्वभर्ता की शक्तिमान् आत्मा को अवकाश देने के लिए कूर्मोन्नत प्रदेश समूह की पृष्ठ ग्रन्थि को भेदकर एकमेक हो, वहीं ठहर गया।
     
    गगनमणि कहीं दूर तक यात्रा कर चुका। विभावरी का पिछला प्रहर उपस्थित होने वाला है। गहरी तन्द्रा में लीन मृदु मरुदेवी को लगा कि, मेघों को चीरता हुआ एक महाकाय गन्धहस्ति जो अपने दोनों कपोलों और सूंड से मद जल की वर्षा करता हुआ दौड़ा-दौड़ा आया और मध्य में ही कहीं विलुप्त हो गया और मानो उसने ही शुभ्र शुक्ल वर्ण के बैल का रूप धारण कर लिया; पर यह क्या? मेरे पास आते-आते वह कहाँ अन्तर्धान हो गया और उसके स्थान पर शशाङ्ग-सा शुक्ल स्वप्निल काया में रक्त दाढ़ी को तीक्ष्णता से घुमाता हुआ, क्रुद्धपीत नयनों से युक्त भीषण रव करता हुआ कोई वन सिंह आया ही था कि वह भी कहीं तिरोहित हो गया। तत्क्षण मैंने अपने ही रूप वाली कोई रूपसी लक्ष्मी को देखा, जो स्वर्ण कमल पर आसीन है और देवनगों ने तभी कनकमय पूर्णकलशों से अभिषेक किया। फिर मधुरों की झंकार युक्त दो पुष्प मालायें दिखीं और लुप्त हो गयीं। अरे! ये धवल चाँदनी और असंख्य तारिकाओं से युक्त पूर्ण मण्डल चन्द्रमा।
     
    फिर मानो मैं किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गयी, जो विचित्र सूर्य की प्रभा और प्रकाश से परिपूर्ण है। तत्क्षण ही लगा कि उस सूर्य ने अपनी प्रभा को समेट लिया और दो तपनीय कलशों का रूप ले लिया। फिर स्वच्छ और निर्मल सरस में मछलियों का चंचल युगल । ये मछलियाँ ओझल हो गयीं और सामने है, मात्र वह सरः जो अपने जलज की पराग छटाओं से आच्छादित है। फिर भयंकर गर्जना से नक्रचक्रों को उछालता हुआ सीमाक्रान्त महासमुद्र, लगा कि अचानक यह तालाब इतना शान्त हो क्षुब्ध क्यों हो गया ? और इतना मनोहारी मणिखचित स्वर्णमय सिंह युग्म सहित सिंहासन । तभी झलका एक स्वर्ग का विमान मानो वह मेरे उदर के पार्श्व भाग पे गिरा हो। साथ ही पृथ्वी भेदकर आ गया एक नागेन्द्र भवन, जो स्वर्ग के विमान से ईर्ष्या के कारण सहसा निकल पड़ा, मेरी देह की किरणों से यह आकाश रत्नराशि से आप्लावित हो गया और विलीन हो गया। शेष है मात्र चमकती निधूम अग्नि । वह सब देखने के बाद ऊँचे-ऊँचे कन्धों वाला स्वर्णिम आभा लिए एक सुन्दर बैल मेरे पास आया और इतना निकट कि वह मुझमें समाता ही जा रहा है, मानो मेरे अंग-अंग में व्याप्त हो गया उसका अस्तित्व।
     
    यह वह रात थी जब इस जघन्य भोगभूमि नामक तीसरे काल के मात्र चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन अवशिष्ट थे, अर्थात् आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीया का शुभ दिन जब चन्द्रमा उत्तराषाढ़ नक्षत्र से शोभित था।
     
    रात्रि का अवसान हुआ और ऊषा की अब शान हुई। कुमुदिनी का निरादर हुआ और कमलिनी का आदर हुआ। शीतांशु अस्तंगत हुआ खरांशु मुदित हुआ। चक्रवाकी का मिलन हुआ और कंचुकी का विरह। भोगी उठ गया कि योगी सो गया। प्रकृति की विचित्रता के ये मूक उपदेश कहीं कोई श्रमण पढ़ रहा था कि कहीं पर मृत्यु का दरवाजा खुला और पक्षी निकलकर बाहर आया ही था कि वह फिर कैद हो गया; शुक्तिपुट में मुक्ता की तरह।
     
    भोर हुई, बन्दीजनों के मंगलगीतों की शोर शुरू हुई, तन्द्रा चोर हुई और मरुदेवी विभोर हुई। मंगल स्नान और वस्त्राभूषण धारण कर वह कमलनयनी अपने प्राणेश्वर के निकट पहुँची और रात्रि में देखे सोलह स्वप्नों को निवेदित कर कहा हे महावल्लभ! मैंने आपसे पहले भी रत्नवृष्टि का रहस्य जानना चाहा था और आपने कुछ बताया या मुझे भुला दिया, मैं समझ न पायी, अब मैं इन विचित्र स्वप्नों से भी अज्ञात हूँ। आज मैं यह रहस्य स्पष्टतया जानना चाहती हूँ।
     
    हे कल्याणि! आज समय आ गया, उस रहस्योद्घाटन का। सुनो, आपके गर्भ में पिछली निशा में एक महाभाग प्रविष्ट हुआ जो हाथी के समान उत्तम बैल जैसा ज्येष्ठ तथा सिंह सा पराक्रमी होगा। जो मन्दराचल पर लक्ष्मी युत देवों से अभिषिक्त होगा। जो माला गुम्फन की तरह धर्म परम्परा का वाहक होगा। वह चन्द्रमण्डल की तरह जगत् को आनन्दित करने वाला होगा। सूर्य सी जाज्वल्यमान प्रभा का धारक वह दो कलशों सी मंगल निधियों का स्वामी होगा। मत्स्य युगल-सा सुखी, सरोवर की तरह अनेक पुष्पित लक्षणों से भरा हुआ, समुद्र-सा अनोखा केवली होगा। सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने वाला वह विश्व कल्याण की भावनाओं से स्वर्ग विमान से अवतीर्ण होगा। वह अधो गतिमान् अवधिज्ञान से युक्त होगा इसलिए नागेन्द्र भवन दिखा। रत्नराशिवत् गुणों की खानि वह कर्मरूपी ईंधन को जला निर्धूम अग्नि शिखा-सा प्रदीप्त होगा। गर्भ में आने से पूर्व उसके पुण्य प्रताप से यह रत्नवर्षा हो रही थी और चूंकि आज वह गर्भ में आ गया है इसलिए अन्त में सोलह स्वप्न देखने के बाद वह पीताभ, वृषभ आपके कमलमुख से प्रविष्ट करता दिखा। यह रहस्य अपने दिव्यज्ञान अर्थात् अवधिज्ञान से जानकर मैंने कहा।
     
    वह मुक्ता कैद तो हो गया पर उसकी कसमसाहट से ब्रह्माण्ड कसमसा गया। स्वर्गालय में प्रकट होने वाले विशेष चिह्नों से इन्द्र ने जान लिया कि सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर वह देव मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। इन्द्र स्वयं अनेक-अनेक देवों-देवियों से सहित वहाँ आये और नगर प्रदक्षिणा कर भगवान् के माता-पिता की वन्दना की। सारा महल देवों से खचाखच भरा है, चारों तरफ संगीत और मंगलवाद्य बज रहे हैं। देवांगनाओं के नृत्य से मरुदेवी को अतिशय रिझाया जा रहा है। तभी इन्द्र ने दिक्कुमारियों को याद किया। बिजली की पंक्ति के समान वे श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी ये षट्कुमारियाँ अवतरित हुईं, जो इन्द्र में पहले से ही अनुराग रखतीं थीं। फिर स्वयं स्वामी ने याद किया, इससे अधिक प्रसन्नता और क्या हो? यह सोच इन्द्र के सम्मुख चन्द्रमुखी-सी खड़ी हो गयीं। इन्द्र की आज्ञानुसार वे, माँ मरुदेवी की सेवा में नियुक्त की गयीं और सब ही देव माता-पिता का अतिशय वचनों से आदर कर अपने-अपने लोक में चले गए।
  22. Vidyasagar.Guru
    सर्वप्रथम उन षट्कुमारी देवियों ने पवित्र पदार्थ से गर्भ का शोधन किया। गर्भस्थ शिशु के होने पर जो लक्षण जननी में प्रकट होते हैं, वे मरुदेवी में उत्पन्न हुए नहीं थे। षदेवियों की सेवा सुश्रुषा से वे मन, वचन, काय से प्रशस्त थी। वन विहार हो या सीढ़ी पर आरोहण देवी मरु को यह पता ही नहीं पड़ता कि वे कब वन में पहुँच गयीं और कैसे बिना कष्ट छत पर। जैसे-जैसे बालक गर्भ में बढ़ रहा था, माँ और अधिक प्रसन्न और कान्ति से दीप्त हो रही थीं, मानो बालक का ही अन्तः तेज उनकी देह में प्रसरित हो रहा है। नाना पहेलियों, काव्यों, कविताओं और वीर पुरुषों की कहानियों तथा महापुरुषों के चरित्रों का नित्य श्रवण-श्रावण सुखद था। उन देवांगनाओं द्वारा माँ की परिचर्या में हर सम्भव क्रिया की जाती थी, जो माँ को सहज स्वीकृत हो । नृत्य गोष्ठियों में सभी हाव-भाव.विलास.वादित्र गोष्ठियों में गीतों और कव्वालियों की लय तालता, कभी जल क्रीड़ा, कभी वन क्रीड़ा, तो कभी जादूखेल, कभी नाभिराजा की कीर्ति का गान, तो कभी माँ की सौभाग्यता का बखान, कभी अपूर्व आश्चर्यों का वर्णन, कभी मिष्ट भोजनपान की रोचकता, कभी माँ के अद्भुत श्रंगार सौन्दर्य की प्रशंसा, कभी उनकी सेवा, ऐसा करने से माँ के नवमास कुछ क्षण के समान बीत गए। तदनन्तर चैत्र कृष्ण नवमी के दिन जब सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र था और ब्रह्म नामक महायोग था तब कलिकाल का अग्रणी प्रणेता, सन्त्रस्त अनन्त प्राणियों को माया मोह के जंजाल से मुक्त कराने का अचूक संकल्प लिए विश्व के द्वारा सदा उपगम्य, सोलह महा भावनाओं की प्रभावना का एक मात्र स्रोत, देवों के वचनों से प्रशंसित, रवि के समान तेजस्वी और प्रभावी रविवार को इस धराखण्ड पर प्रसूत हुआ कि तत्क्षण.........।
     
    स्वर्गलोक, भूलोक और अधोलोक में खलबली मच गयी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित हो गया। शची डर गयी। इधर ज्योतिर्लोक में भयंकर सिंहनाद हुआ। व्यन्तर आवासों में और शिविरों में भेरी गरज उठी। भवनवासीदेवों के निलय भी शंखध्वनि से क्षुभित हो गए और कल्पवासी विमानों में झन   झन घण्टियाँ झनझनाने लगीं। विश्व में इस क्षोभ का कारण अवधिज्ञान से जानकर महाइन्द्र सपरिवार चतुर्निकाय के देवों के साथ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नृत्यांगना, पियादे और बैल से सज्जित सात बड़ी-बड़ी सेनाओं को लिए प्रस्थान किया। अपने-अपने विमानों और अपने-अपने वाहनों पर सकल देव, समाज, सेना प्रचुर कोलाहल के साथ सम्पूर्ण आकाश मण्डल में व्याप्त हो गयी। तदनन्तर शीघ्र पवित्र भू पर उतर शोभायमान अयोध्यानगरी को चहुँ ओर से घेर लिया। जम्बूद्वीप के समान विस्तार से युक्त महावैभवशाली ऐरावत हाथी से सौधर्म इन्द्र उतरकर राजा नाभिराज के प्रांगण में पहुँचा। पश्चात् इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव के साथ प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। कुमार जिन के साथ जिनमाता को देख हर्ष और अनुराग से आपूरित हो जिनबालक को प्रणाम किया और माँ श्री की भूरि-भूरि स्तुतियों से स्तुति की। पश्चात् माँ को मायामयी निद्रा में सुलाकर और मायामयी बालक को निकट रखकर शची उस तेजपुञ्ज को अपनी गोद में लिए इतनी विभोर हो गयी मानो आज उसने तीन लोक को अपने आँचल में समेट लिया हो और स्त्रीत्व की उत्कृष्टता को प्राप्त कर लिया हो। यह सुख इन्द्राणी का समस्त ऐन्द्रिक-सुख से विलक्षण था। इन्द्र के कर कमलों में सौंपते हुए बालक ऐसा लगा मानो इन्द्र ने तप्त सूर्य को अपने हाथों में कैद कर लिया हो।तभी ईशानेन्द्र ने ऊपर धवलछत्र तान दिया और सनतकुमार और माहेन्द्रपति दोनों ओर चँवर युगल ढोरने लगे। इन्द्र ने सहस्र नेत्रों से उस यशो पुञ्ज को देखा, अतृप्त मन ने अपनी देह के अंग-अंग का साफल्य घोषित किया और ऐरावत हस्ती पर बैठ आकाश को सुदूर तक लांघता हुआ इस मध्यलोक के चूड़ामणि, विश्वकीर्ति की पताकाओं से कीर्तिमान्, चारणयुगलों से पूजित, स्वर्गलोक की हँसी करने वाले, चतुर्दिग् तीर्थकृतों की कीर्ति फहराने वाले महामेरु सुमेरुपर्वत के सर्वोच्च सिंहासन पर आदर से बैठाया। वह सिंहासन ऐशान दिशा में बड़ी भारी स्फटिक निर्मित पाण्डुकशिला पर प्रतिष्ठित है। सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊँची, अर्धचन्द्रमा के समान आकारवाली उस शिला पे बैठे जिन बालक ऐसे सुशोभित हो रहे थे कि मानो मोक्ष शिला पर विराजमान हों। नवजात शिशु है और सिंहासन पर बैठा है। सब कछ समय से पहले गतिमान हआ-सा लगता है. पर इन्द्र है कि निःशङ्क हो योजनों व्यास वाले हेमकुम्भों से अभिषेक किए जा रहा है और क्षीरसागर का वह जल पवित्र होता हुआ पूरे सुमेरु को पवित्र कर गया।
    चन्दन से युक्त वह जल सकल देव-देवाङ्गनाओं के अन्तस् को धोता चला जा रहा है। सभी ने उस पवित्र उदक से अपने को पवित्र किया पश्चात् उस जल प्रवाह ने समस्त लोक नाली को पवित्र किया। ऐसा लगता है कि उस प्रेम गुलाल में रंगे सब देवों को आनन्दित देख मनुष्यों ने होली खेलना सीखा हो। तदनन्तर इन्द्राणी ने हर्ष से जगद् गुरु के निर्विकार शरीर को अलंकृत किया, जो अपनी ही शोभा से परिपूर्ण थे। दिव्य वस्त्रों से उस पीताभ को छिपाने का प्रयास किया पर वह छिपी नहीं। स्नान कराया उसका, जो निर्मल है पहले ही अन्तरङ्ग और बाह्य में। स्वर्ण की चमकीली काया पे चन्दन विलेपन क्यों किया? शायद चन्दन को पूज्य बनाने के लिए। उस वीतराग निरम्बर काया को अम्बर से आवरित क्यों किया? सच है रागी को वीतरागता पसन्द कहाँ? अपने ही रंग में वह दुनिया को रंगना जो चाहता है। पहले से ही जिनके दोनों कर्ण छिद्र युक्त हैं, मानो राग और द्वेष जहाँ रहने का स्थान नहीं पाते हैं, पर उन रिक्त कर्णों में कुण्डल पहनाये गए; क्यों? शायद सूर्य और चन्द्रमा दोनों उनके कपोलों की बलिहारी देने आये हों । गले की तीनों रेखाओं पे चमकीली मणियाँ लगा दी गयीं क्यों? शायद बताना चाह रही थी इन्द्राणी, कि ये रत्नत्रय से पूरित हैं। सम्यग्दर्और सम्यग्ज्ञान तो अवधिज्ञान के साथ जन्म से ही लेकर आये हैं और सम्यक् चारित्र, उसकी कमी कहाँ ?
     
    बड़े-बड़े चारित्रवन्तों में जो धीरता, गम्भीरता न हो, वह यहाँ आकर सीखे। उस ललित आस्य पर सुन्दर बिखरा हास यह सब सोचकर ही मानो मन ही मन रागियों के राग की उत्कटता पे हँस रहा था। सब जान रहा था इसीलिए सोचा इनको भी कर लेने दो अपने अनुरूप, अपने मन का। पर यह पृथक् है हमारे सौन्दर्य से; एकदम पृथक् । ये गले में पड़े मोतियों के हार; अहो। जड़ से उत्पन्न हुए हैं, फिर भी इतने प्रसन्न हैं; अपनी ही मस्ती में डोल, हिलोरें ले रहे हैं, मानो यहाँ पर वे भी चैतन्य हो गए हों। कैसा विचित्र है मोह का भाव; अखण्ड मुक्ता को भी छिद्रित कर दिया और गुम्फित करके हार बनाया, खण्डित में आनन्द मनाता है संसार। खण्ड-खण्ड को जोड़कर अखण्ड सुख पाना जो चाहता है। प्रकृति आपो आप अपने सौन्दर्य से सुन्दरित है, पुरुष अपने पुरुषाकर चैतन्य से चमत्कृत है, दोनों के स्वभाव विपरीत हैं, फिर भी कहीं से कुछ लेकर अपने में लगाकर दूसरे से छुड़ाकर, इसी जोड़-तोड़ में हर्षितमुदित होता रहता है।
     
    दाहिने पैर के अंगूठे में वृषभ का चिह्न देख इन्द्र ने बालक का नाम वृषभदेव घोषित किया और स्तुति कर, जय-जयकार कर, इन्द्र ने अपनी चेष्टाओं से खूब पुण्य का संचय किया। तदनन्तर अयोध्या नगरी में देव समूह के साथ आकर नाभिराज और मरुदेवी की स्तुति वन्दना की। मरुदेवी की निद्रा दूर की और बालक को उनकी गोद में इन्द्राणी ने सौंप दिया। त्रैलोक्येश्वर की जननी! तुम ही से यह धरा पवित्र हुई, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे महाभाग पुण्य तीर्थ नदी का स्रोत भी शीघ्र शिवपथ गामी होगा। हे माँ! आप धन्य हैं। धन्य हैं। आपका अंग-अंग पवित्र है। आपने बता दिया कि काम पुरुषार्थ कितना बड़ा धर्म है। आपने निंद्य स्त्री पर्याय को अनिंद्य बना नारी का सम्मान बढ़ाया है। आपने जननी की महत्ता का प्रकाश किया है। इस सृष्टि के सृजेता का श्रेय मात्र मातृ शक्ति है। इस विश्व को करुणा का पाठ पढ़ाने वाली आप ही आद्य विदुषी हैं। क्षमा सहिष्णुता का उत्कट पाठ पुरुष माँ की गोद में रहकर ही सीखता है। आपने सारस्वत पुत्र को जन्म दिया इसलिए आप ही सरस्वती हैं। इस भारत भूमि की आप आद्य स्त्री हैं इसलिए हे भारती आप जयवन्त रहें। शंसुख अब्रह्म, कामिनी के रूप आप से ही प्रादुर्भूत होते हैं इसलिए आप ही शारदा देवी हैं। आप सदा कुशल रहें। हे ज्ञानदायिनि, शान्तिकामिनि इस विवेक हंस की जनयित्री आप गुणों की खान हैं। नर से नारी बहुत महान् है यह नारी शब्द की बड़ी-बड़ी मात्राओं से भी ज्ञात है। आपकी वात्सल्य गोद में भरा श्वेतक्षीर इस कलिकाल के कलंक का प्रक्षालक है। निःसन्देह आपकी गरिमा से यह नारी जगत् आलोकित हुआ।
     
    तभी इन्द्र ने त्रिवर्गसम्बन्धी नाटकों को अयोध्या के आंगन में खेला। हर्ष से नृत्य क्रीड़ा का ताण्डव रूप दिखा जन-जन को रोमाचिंत कर दिया। अपनी हजारों भुजाओं पर हजारों दिव्यांगनाओं का नृत्य दिखा लोगों को आश्चर्यचकित किया। इन्द्र ने रंगभूमि पे भगवान् के पूर्व के दश जन्म के नाटक खेले। यह नट क्रीड़ा, नाटक, नृत्य, नाट्यशास्त्र तभी सब लोगों ने सीख लिए और स्वयं उत्सव मनाने लगे। अन्त में आनन्द नृत्य को समाप्त कर, प्रभु की सेवा में अनेक धाय देवियों को नियुक्त कर इस समय की सार्थकता को सराहता हुआ इन्द्र, अपने लोक चला गया। पश्चात् पिता नाभिराज ने जन्मोत्सव मनाया। ऐसा कौन-सा व्यक्ति था, जो उस बालक को देखने नहीं आया हो? ऐसा कौन विद्याधर जिसने अपनी आँखों को सफल नहीं बनाया? ऐसा कौन-सा व्यन्तर देव, दानव, गन्धर्व, जिसने अपने अंग-अंग को न थिरकाया हो? ऐसी कौनसी जननी जिसने माँ की कोख को सराहा न हो? ऐसा कौन-सा जीव जो उस परिसर में आकर दुःख न भूल गया हो? ऐसी कौन-सी माता जो अपने पुण्य पाप के फल का विचार न कर रही हो ? ऐसी कौन-सी दिक् कन्या जो बालक को गोद में लेने का भाव न करती हो? ऐसी कौन-सी रूपसी जो जिन सूर्य को लुभा न रही हो? ऐसा कौन-सा बालक जो उन्हें अपना गुरु न मानता हो? हर नगर की हर गली में हर घर में हर व्यक्ति की हर जुवां पर उसी बाल प्रभु के चर्चे, उन्हीं की बाल क्रीड़ा का सुखद अवलोकन, देवताओं का किंकर-सा रूप बनाकर रिझाने का आनन्द, सब कुछ अद्भुत, अलौकिक, अतीव विस्मयकारी और अनुपम।
     
    पर शिशु शैशववय में भी इतना अनोखा कि माँ-पिता, देव-दानवों सबकी समझ से परे। देवियाँ भी समझ नहीं पाती कि इनकी वय क्या है ? और इस वय में इनसे क्या बर्ताव करें ? धीरता, गम्भीरता की सीमा नहीं है, तो हास्य क्रीडा के आनन्द का भी पार नहीं। कभी चलता-चलता खडा हो जाता है तो कभी ऐसे लेट जाता है मानो वर्षों से सो रहा हो। कभी रोता नहीं, कभी तड़फता नहीं, कभी कुछ भूख नहीं, कोई इच्छा नहीं मानो पूर्ण तृप्त है। कब धरती पर चला, कब खिसक-खिसक कर चला, कब लेट कर चला, कब बैठा और कब खड़ा हो गया कुछ समझ नहीं आया। अभी पिता की अंगुली को पकड़ झट से खड़ा हुआ, पिता ने गोद में उठाना चाहा पर ऐसा दृढ़ मानो किसी पृथ्वी पर पैर जमा दिए हों, पिता ने थककर छोड़ दिया, तो तुरन्त वह अप्रतिम वीर्य गोद में जा बैठा और नाभिराज की खुशी का पार नहीं। माँ चाहती है अपने वात्सल्य कुम्भों का करुणक्षीर उसे पिलाना, पर उसे कोई इच्छा नहीं, जब कभी आंचल में छिपकर बैठता है तो माँ अपनी गोद में ऐसे समेट लेती मानो अपने दुग्ध को बालक के श्वेत रुधिर से एकमेक ही करने का प्रयास कर रही हो। न कभी स्वेद की बूंद, न मल, न धूलि का जमाव, उत्तम संहनन और समीचीन आकृति, सर्वश्रेष्ठ रूप की सौन्दर्य छटा पे सुरभि से आकृष्ट मधुलेहि पंक्ति, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, मीन आदि सहित आठ मंगल द्रव्य को आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और तिल, लहसुन, मसूरिका आदि 900 व्यञ्जनों से खचित रचित बाल भानु का शरीर ऐसा शोभित होता, मानो विधाता ने बहुत प्रयास से इतना सुन्दर शरीर बना पाया हो और प्रिय, हित वचनों से आकर्षित, मनमुग्ध करना तो पूर्व जन्म से लाये हुए अतिशय गुण थे, जो स्वाभाविक थे। चन्द्रमा की कला से बढ़ते-बढ़ते अंग-अंग के सौन्दर्य की वृद्धि से अन्तस् से त्रि-सम्यग्ज्ञान भी स्फुरायमान होने लगे। बिना किसी की शिक्षा के ही पूर्व और अंगों की सम्यक् स्मृति ताजा होने लगी। अपने दिव्यज्ञान से कार्य अकार्य का विचार कर कर्त्तव्य बोध जागृत होने लगा। नीति, निपुणता, वादित्र कला, नृत्य अभिनय,गोष्ठी का संचालन, आदि पौरुषिक कलायें समयोचित प्रकट हो गयीं, जैसे वर्षा ऋतु में आपो आप वर्षा होने लगती है या शरद् ऋतु में पूर्ण सूर्य प्रकट हो जाता है।
     
    यौवन की दहलीज पर खड़ा हुआ कल्पवृक्ष-सा सर्व का भाग्य विधाता, आपो आप ही युवराज था। देवराज, सिंहराज के सिंहासन पर स्वयं वे बैठे। विविध आभूषणों से उनका क्या सौन्दर्य बढ़ेगा, वे वस्त्र और आभूषण ही इस देह से चिपट के सुन्दर हो जाते हैं। कौन इन्द्र, कौन-सा धरणेन्द्र? कौन-सी वह शक्ति? जो इनकी आँखों में आँखें मिलाने का साहस करे। कौन-सा वह गुण जो इस चिति में अनुपलब्ध हो? कौन-सी वह विद्या जो यहाँ अपनी हार नहीं मानती हो? दिग्गजों की पुष्कर से पुष्कल महाभुजाओं पर बाजूबन्द थे, या अपनी मणियों को दिखाते हुए भुजंग थे। हार और तुषार-सी निर्मल देह में क्या प्रतिबिम्ब नहीं हो रहा था? सदा युवा, सदा बलिष्ठ देह यष्टि की क्या बात? पाद कमलों का वह प्रक्रम जब इस मेदिनी पर आता तो वह धरित्री भी प्रसन्न हो उन चरणों को अपनी छाती पर थामना चाहती थी, पर वो रुकते नहीं, तो पीछे उड़ी धूलि से वह रोने लगती। विशाल वक्षः स्थल पर लक्ष्मी क्रीड़ा करतेकरते थक जाती पर तृप्त नहीं हो पाती। प्रत्येक उर्वशी के उरोज उन नयनों को ऊपर उठाना चाहते पर सफलता कहाँ? कामिनी विह्वल है, कामदेव दुःखी है, आज हमारा यहाँ आदर क्यों नहीं? यम की विजय यहाँ असम्भव, क्यों? कुबेर वसुन्धरा पर लोट रहा है पर कुछ स्वीकारते क्यों नहीं?
     
    ये सब प्रश्न अनुत्तरित हो माता-पिता क्या पुरवासियों के ओठों पर भी सदा विद्यमान हैं । यौवन और प्रज्ञा का उत्कर्ष देखकर और प्रभु का सरस्वती में अतिशय प्रेम देखते हुए भी एक दिन महाराज नाभिराज ने कहा- पुत्र वृषभ ! मैं जानता हूँ इस सृष्टि के ज्ञान सूर्य में मोह, राग जैसे अन्धकार को कहीं भी स्थान नहीं। मैं जानता हूँ आपका आचरण समुद्र-सा अगाध है गंभीर है और उसमें रत्नत्रय के मोती गहरी पैठ ले अपनी शक्ति बढ़ा रहे हैं, पर हे मोहसूदन! वह समुद्र भी तो बाहर से कितना आनन्दित हो ज्वारभाटों से अपनी बेला तक कल्लोलें फैला कर हिलोरें लेता है, इससे उसकी गंभीरता में कोई अन्तर नहीं आता। इस बात को मैं इसलिए कह रहा हूँ कि, हम प्रकृति के इन उपमानों से ही जीने की कला सीखते हैं। इन महान् उपमानों का अनुसरण कर उपमेय बनते हैं महाधीर मानव और उन महामानवों का ही अनुगामी यह विश्व स्वतः होता  है। इस युग की आदि में आपका प्रत्येक आचरण इस आगामी काल के लिए अदम्य देन होगा। यह विश्व आपसे ही गतिमान होगा। आप जब चलेंगे तो यह विश्व भी चलेगा, आप जब मचलेंगे तो यह विश्व भी अपने में कुछ स्फूर्ति महसूस करेगा। इस जड लोक को आप नयी ऊर्जा से स्फूर्जित करें। विश्व कल्याण का यह सन्तति जनक कर्म भी धर्म है, यह तभी प्रमाणित होगा जब आप इसके आद्य प्रवर्तक बनेंगे। जिस प्रकार सूर्य के उदित होने में पूर्व दिशा का उदयाचल निमित्त मात्र है सूर्य तो स्वयं उदित होता है, उसी प्रकार आपकी गोद में उदित होने को आतुर सूर्य पुत्र भी अपनी ही सत्ता में झूलते हुए आपके नैमित्तकपने को प्राप्तकर गौरव अनुभव करेंगे। इस परम्परा से ही धर्म टिकता है और कर्म भी। धर्म और कर्म की यह समष्टि ही सृष्टि है, इस सृष्टि को आलोक दो। हे आर्यश्रेष्ठ! इस सृष्टि को बाहुबल दो, अन्यथा आपकी स्वाभाविक गंभीरता से यह अकर्मण्यता का पाठ सीखेगी, अन्य कुछ नहीं। हे युग के उन्नायक! अपनी ऊर्जा की संचेतना से इस भारतखण्ड को मथ दो ताकि इस समूचे ब्रह्माण्ड में कल्पकाल तक आपकी ऊर्जा घुमड-घुमड कर तीव्र चक्र सी प्रवर्तक बन इसमें आन्दोलित होती रहे। हे दूरद्रष्टा! यह सब आपको समझाने का उपालम्भ नहीं किन्तु अपने कर्त्तव्य से मुक्ति पाने की यह राह है, ताकि आगामी विश्व नाभिराज को कर्त्तव्य विमुख न कह सके। मुझे विश्वास है कि आप जैसा महामनीषी इस लोक को गुरुजनों के वचन उल्लंघन का अविनीत पाठ नहीं पढ़ा सकता, फिर भी आपकी स्वीकारता की प्रतीक्षा के उपरान्त ही मेरा यह मनः भार हल्का होगा। इसलिए हे प्राज्ञ! कुछ कहो, मध्यस्थता भी मध्य स्थित प्रचण्ड सूर्य की तरह ताप देने वाली होती है, इसलिए मेरे उर के ताप को दूर करो! अस्तु! और तभी एक क्षण पलक बन्द कर अन्तस् का अवलोकन किया कि, भव्य पुण्डरीक आनन पर मुस्कान फैल गयी, जिसे देखते ही पितृदेव का मनः सन्ताप दूर हो गया और स्वीकारता की एक अखण्ड ध्वनि ओम् ओम्......ओम् समूचे लोक में पल भर में फैल गयी। यह एक मुस्कान ही पर्याप्त थी, उस महासमुद्र को तेरह लाख पूर्व तक बाँधे रखने के लिए। लोक व्यवहार की स्वीकारता ही एक आत्मकल्याणी के लिए महाबन्धन है। यह स्वीकृति पिता के वचनों की चतुराई से आयी; प्रजा के उद्धार की इच्छा से आविर्भूत हुई; मैं नहीं मानता। यह मुस्कान से स्वीकृति अपने अवधिज्ञान से चारित्रावरणकर्म की अलंघ्य स्थिति को देखकर हुई; मैं नहीं मानता, यह स्वीकारता के स्वर क्या एक नियति थी; मैं नहीं जानता, पर इतना जानता हूँ कि तात्कालिक भावुकता से दूर आत्मार्णव में से यह लहर ऊपर तक आयी जो उसी समुद्र की थी क्योंकि बाहर की छोटी-छोटी हवाओं से समुद्र नहीं मचला करते। वो तो अपने ही उपादान से उमडते और घुमडते रहते हैं क्योंकि यह उसका स्वभाव है जो दूसरों के द्वारा अनुलंघनीय है।
     
    तभी महाराज नाभिराज, इन्द्र की अनुमति से सुशील, सात्त्विक और सुन्दर दो कन्याएँ जो कि कच्छ और महाकच्छ की बहिनें थी, परिणय स्नेह में बाँध कर कर्त्तव्य मुक्त हो निश्चिन्त हो गए। अश्व, गज और पक्षियों की सवारी से युक्त देवता गणों ने आनन्दोत्सव को बढ़ाया। विद्याधरों और गन्धर्वों से राजमहल भर गया। किन्नरियों की नुपुरों से झंकृत ध्वनि से वर्षों का सोया वह कामदेव जाग गया। काहल पटवादकों पे अंगुलि ताड़न की धक् धक् ध्वनि ने कन्याओं की धड़कन को बढ़ाया। उस नारी युगल ने विशाल हस्ती को स्तम्भित कर लिया और प्रचुर काल तक यह मोद निराबाध बढ़ता रहा। यशस्वती और सुनन्दा में रत युवा वृषभ ने मर्यादित आचरण किया और तृतीय पुरुषार्थ की फलश्रुति में यशस्वती से प्रथम चक्री भरत को आदि लेकर सौ पुत्र और ब्राह्मी कन्या को प्रसूता तथा सुनन्दा से उन्होंने प्रथम कामदेव बाहुबली और सुन्दरी पुत्री को पाया। हिमवान् पर्यन्त से समुद्र पर्यन्त फैली वसुन्धरा का स्वामी प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम से ही इस भूमि का नाम 'भारत वर्ष' पड़ा। तब एक दिन भगवान् वृषभदेव जब सिंहासन पर सुख से विराजमान थे, कि सुन्दर आकृति पर सौम्य हाव-भावों वाली दोनों पुत्रियाँ पिता के पास आयीं और उन्हें प्रणाम किया। पिता वृषभ ने दोनों पुत्रियों को उठाया और अपनी गोद में बिठा कुछ देर क्रीड़ा कर कहा हे नम्र बालाओ। आप लोग शील और विनय से शोभित सरस्वती और कीर्ति की लक्ष्मी समान हो।अनेक गुणों से युक्त होने पर भी यदि विद्यागुण नहीं है, तो सब कुछ कागज के पुष्प सम निर्गन्ध होता है। यह विद्या, यशः प्रदाता, परम कल्याणी और मनुष्यों का प्रथम आभूषण है। यह विद्या ही महाबल है, परम मित्र है और विपत्तियों में सहायक सखी है जिस प्रकार रत्न को तराश-तराश कर अनेक पहलुदार बनाया जाता है तो वह अतिशय कान्तिमान् और कीमती हो जाता है, इसी प्रकार अनेक विद्याओं से युक्त शील, विनय, क्षमा आदि गुण और अधिक शोभित होते हैं। उचित समय पर पुत्र और पुत्रियों को समुचित विद्या देना माता-पिता का आद्य कर्तव्य है। अच्छे संस्कारों से युक्त पुत्री ही उभय कुलवर्धिनी होती है। तभी भूरि-भूरि आशीषों से पुत्रियों का चित्त प्रसन्न कर अपने अन्दर बैठे श्रुत देवता को ‘सिद्धं नमः' के मंगलाचरण पूर्वक स्वर्ण पट्ट पर लिखा। प्रभु वृषभ के द्वारा यह सिद्ध मातृका जो स्वर और व्यञ्जनमय है, सिद्ध वर्ण बन गए और यह आम्नाय तभी से पुनः स्थापित हो गयी। प्रभु ने अपने दाहिने हाथ वर्णमाला के अकार आदि हकार पर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्यमानीय इस अयोगवाह सहित शुद्ध अक्षरावली को पुत्री ब्राह्मी को सिखाया तथा बांये हाथ से इकाई, दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को सुन्दरी पुत्री को सिखाया। प्रभु के बांये हाथ से अंकों के लिखने के कारण ही अंकानां वामनो गतिः यह आम्नाय चल पड़ी। व्याकरण, छन्द और अलंकार शास्त्र ही वाङ्गमय कहलाता है। इस वाङ्गमय से अलंकृत दोनों पुत्रियाँ साक्षात् सरस्वती की तरह प्रतिष्ठित हो गयीं। पश्चात् पुत्र भरत को स्वयंभू वृषभ ने कहा- हे प्रथम नरेश्वर! आप व्यवसाय में समुन्नति का मूल यह अर्थशास्त्र सुनो। सुदृढ़ शासन व्यवस्था के लिए राजनीति शास्त्र सुनो। सभी विद्याओं में पारंगत पुरुष ही इस संसार की रंगभूमि पर सफल होता है। विद्यावान् पुरुष अरण्य में असहाय नहीं होता। दुनियाँ में शत्रु और मित्र नहीं होते पुत्र! वे तो बनते हैं हमारे अपने व्यवहार से। इसलिए एक कुशल शासक के लिए दण्डनीति का ज्ञान परमावश्यक है। इसके अतिरिक्त मल्लग्राह, युद्ध, चक्र, धनुषों का प्रारोहण विधान, नृत्यविज्ञान आदि विद्यायें भी सीखो। भरत के अनुज अनन्तविजय पुत्र के लिए वास्तुशास्त्र, चित्रकला आदि विद्याओं का उपदेश मिला। पुत्र बाहुबली ने कामशास्त्र, सामुद्रिक ज्ञान, आयुर्वेद आदि शास्त्र सीखे। इस प्रकार प्रभु ने समस्त वत्सों के लिए बिना भेदभाव के गोदुग्ध की तरह विद्या पान करा सदा के लिए तुष्ट कर दिया। अपने इष्ट पुत्रों और पुत्रियों से घिरे स्वयंभूदेव ज्योतिष्मान् चन्द्र की तरह जो कि अनेक नक्षत्रों और तारों से घिरा हुआ हो, ऐसे लगते थे। अपने पुत्रों के अतुल पराक्रम, वैभव, राजमान्य सुख, सौभाग्य और लावण्य को देखकर किस पिता का चित्त खुश नहीं होता?
     
    कल्पवृक्षों के अभाव से दु:खी प्रजा के सामने नित नए संकट उपस्थित होने लगे। स्वभाव से अत्यन्त भोले प्राणी, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के ज्ञान से प्रायः परेशान रहते। तभी एक दिन प्रजाजन नाभिराज के पास आकर अपने दुःखों को कहने लगे। नाभिराज ने समस्त प्रजा को वृषभकुमार के पास भेजा। प्रजा ने वृषभकुमार को अपनी अन्तर्वेदना बतायी। तब भगवान् ने पूर्व और अपर विदेह की स्थिति को अपने ज्ञान में देखा। उसी स्थिति के अनुरूप यहाँ कर्मभूमि का वर्तन कराने के लिए वृषभकुमार के स्मरण मात्र से इन्द्र स्वयं यहाँ उपस्थित हुआ। सर्वप्रथम इन्द्र ने वृषभकुमार की आज्ञा से अयोध्यापुरी के मध्य में जिनमन्दिर बनाया और इस मंगल कार्य के उपरान्त अवन्ती, सुकोशल, अंगवंग आदि देश, नदी, नहर, वन, खेती और ग्राम के सुनियोजित बँटवारे किए और नामकरण किया। पश्चात् वृषभकुमार ने प्रजाजनों के लिए असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म आजीविका के लिए बतलाये। गुणों के अनुरूप कार्य करने से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र तीन वर्ण की स्थापना की। उनमें जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय कहे गए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य घोषित किए गए और जो उनकी सेवा-सुश्रुषा करते थे उनको शूद्र कहा गया। वर्ण व्यवस्था से सब कुछ बिना दोष के प्रवृत्त हुआ। विवाह, जाति सम्बन्ध और व्यवहारिक अन्य कार्य भी भगवान् आदिनाथ की आज्ञा से सुनियोजित तरीके से चले। प्रजा जनों के लिए इस कर्मयुग का प्रारम्भ आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन किया गया, इसलिए भगवान् प्रजापति कहलाने लगे। इस प्रकार षट्कर्मों के कुशलतापूर्वक परिपालन से जब प्रजा सुख से रहने लगी, तब श्री वृषभ का राज्याभिषेक किया गया जिसे धूमधाम से देवों, विद्याधरों और कुलांगनाओं ने मिलकर मनाया। पश्चात् वृषभ राजा ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान कर उन्हें क्रम से हरिवंश, नाथवंश, उग्रवंश और कुरुवंश का राजशिरोमणि बनाया तथा कच्छ, महाकच्छ राजाओं को अधिराज पद दिया। मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह का उपदेश दिया इसलिए वे इक्ष्वाकु कहे गए। कुल-वंशों का विभाजन संचालित किया, इसलिए आप कुलकर कहलाये। युग की आदि में प्रजा को सुखपूर्वक आजीविका बतायी, नगर, ग्राम आदि बनवाये इसलिए आप विधाता, विश्वकर्मा, स्रष्टा कहे गए। ऐसे भगवान् वृषभदेव ने युग की आदि में इस विश्व का संचालन अपनी प्रज्ञा से किया और समुद्रान्त तक फैली सती सी इस महाधरा का शासन किया और सभी को अनुशासित किया।
  23. Vidyasagar.Guru
    तभी वहाँ ऊर्ध्वलोक की उच्चतम शाखा पर बैठा एक सम्यक् द्रष्टा स्वयं भोगों में लिप्त होने पर भी एक दृष्टि में ही विश्व की व्यवस्था को भी देख रहा है। कहाँ पर कौन-सा युग चल रहा है और कहाँ अब क्या आयेगा? यह विभाजन भी उसकी प्रज्ञा में है। उसे ज्ञात है कि इस भरतक्षेत्र में अब कर्मभूमि का आरब्ध हुआ है और एक ब्रह्मांश इस भूवलय पर अवतरित हो चुका है। जन्म और जन्म से पहले और जन्म के बाद के सारे कर्त्तव्य मैंने किए। आज वह लक्ष-लक्ष जीवों का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध है। राज्याभिषेक हुआ है और राजा के योग्य सभी कर्त्तव्यों का निर्वाह भी। प्रजा को, पुत्रों को, पुत्रियों को उन्होंने पढ़ाया, ज्ञान, विज्ञान, कला कौशल में निपुणता भी दी। सराग अवस्था के योग्य कार्य को कृषि आदि कर्म को सिखाकर अपनी विराट-प्रज्ञा का परिचय दिया। कल्याण के भावों से ओतप्रोत प्रजाजनों के दुःख का निवारण उनकी आजीविका से होता है, इसी विचार से उन्होंने जीवों को दुःख से उबारा, पर इस कायिक दुःख से मुक्त होना कोई सच्चा सुख नहीं। सुख तो समीचीन पथ के ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण से प्राप्त होगा। आज यह मुग्ध जनता इस आर्यावर्त में धर्म क्या है? सम्यक् सुख कहाँ है? इन विचारों से भी उन्मुक्त है। जब तक कोई चेता स्वयं प्रबुद्ध हो आचरण नहीं करेगा तब तक इन स्वाभाविक भोले प्राणियों की बुद्धि स्वतः सोचने से दूर रहेगी। कर्मभूमि का आचरण करना तो ये सीख गए पर धर्म का आचरण कब उद्भूत होगा? इन नाभेय महाराज को क्या यही अपना पूर्ण कर्त्तव्य लग रहा है? क्या महाराज ऋषभ यह सोचते हैं कि मैं इस तरह प्रजा का पालनकर उन्हें दुःख मुक्ति का पाठ पढ़ा रहा हूँ। नहीं, यह तो औपचारिक प्रबोधन है। धर्म का सही बोध तो उन्हें स्वयं चरितार्थ करके सिखाना होगा। बीस लाख पूर्व का कुमार काल बीत गया है और त्रेसठ लाख पूर्व का दीर्घकाल इस पृथ्वी का उपभोग करते बीत चला, पर ये प्रभु स्वयं निश्चिन्त हैं।
     
    देख रहा हूँ कि अभी भी ये आनन्दित हैं मदमस्त हाथियों को दुलारने में, चंचल घोड़ों की तीव्रगति में, अपने पार्श्व में बैठी वनिता विलासनाओं में, माण्डलीक राजाओं से अर्चित पद कमलों की पराग में, सम्बोधन की सहज धारा में, स्वराजत्व की एक अपूर्व अस्मिता उनके चेहरे पर खिल रही है। अनवरत सुखों की ऐन्द्रिय लिप्सा में आमूलचूल अवगाहित। अहो! लख रहा हूँ भोगों का सुख कितना उत्कट और कितना अभीप्सित होता है। विषयों के तदाकार परिणमन में विषयी सुधबुध भूल जाता है। अत्यधिक मनोवांछित सुख की सहज प्राप्ति भी सम्यक्-सुख की अवभासना नहीं होने देती। उस अपूर्व सुख की विचार परिणति की लहर भी आज निस्तब्ध है, त्रिज्ञान के चिदार्णव में। प्राक्तन संस्कार की अनिल यहाँ तक पहुँचने से बाधित है। मोह की यह प्रबलता अवर्णनीय है।
     
    हाँ, यह ठीक होगा, विश्व की इन सत्ताओं में क्षणभंगुरता का ज्ञान कराने का यह अच्छा उपाय है। नीलाञ्जना की आयु कुछ ही क्षण शेष है। स्मरण मात्र से प्रभु के चरणों में आगत उस अंगना को राजमहल ले जाया गया। राज दरबार में प्रभु उपस्थित हैं और नृत्य प्रक्रम का प्रारम्भ हुआ। नर्तकी विलीन हो गयी और नव नर्तकी तत्क्षण उसी कला में लीन हो गयी। प्रभु ऋषभ नृत्य देख रहे हैं। पर आज नृत्य को रोकने का कोई इशारा नहीं, बहुत देर हो गयी। नृत्य के अनुभावों के अनुरूप मानसिक-कायिक-वाचनिक व्यापार भी नहीं। कुछ ही देर बाद नर्तन रुक गया, पर प्रभु उसी मुद्रा में मानो कहीं दूर चले गए और पार्थिव व्यामोह से पार वो देख रहे हैं, इस आत्मा के इस संसृति में कर्मकृत अपूर्व नृत्य । बहुत देर हो गयी स्वामिन् ! आपकी निश्चिन्तता निश्चेत सी लगने लगी है और सहसा नयन बन्द हो गए। इन्द्र की तरफ देख प्रभो मुस्कुराये और मन ही मन कहा हे वज्रपाणि! मैं अब पात्रपाणि बनूँगा। नीलाञ्जना के नव रसों के विलोकन से विलक्षण अब नवचेतन रस का पान होगा। आज मेरी निद्रा भंग हुई। विगत की सभी क्रीड़ा देख चुका हूँ।
    ये माता-पिता-भाई-बन्धु-पुत्र-पुत्रियाँ सब अपने-अपने परिणमन में परिणत हैं । यह मेरा व्यामोह जो मैं इन्हें अपना मान आनन्दित होता रहा। हमारे भोग्य, उपभोग्य की सामग्री हो अथवा सागर तक फैली वसुन्धरा हो, मैंने ही तो  इसे अपना मान रखा है। क्या यह चपला लक्ष्मी किसी की इस संसृति में सदा सखी रही है? भोगभूमियों के वे सुख भोगने वाले भोक्ता सब चले गए, यह भोग्य पदार्थ किसके हुए ? अशाश्वत और अविश्वसनीय इस जगत् को मैंने क्या भोगा? कौन-सा आनन्द है जो चिरकाल तक स्थायी रहा। ये महल, उद्यान, वस्त्र, दिव्यभोज, अलंकार सामग्री से कब मुझे संतुष्टि हुई? प्रत्युत प्रतिपल और-और चाह बढ़ती गयी। इन्द्र की सब सम्पदा है तो परायत्त हुई इसलिए यह सुख का कारण नहीं और यदि मेरे सुकृत के विपाक का यह परिणाम है तो भी वह सदा रहने वाली नहीं। पुष्प की गन्ध उड़ रही है यह मोही को नहीं दिखता किन्तु वह पुष्प ही दिखता है और जब निर्गन्ध हो जाता है तो वही उसको दुःख पहुँचाता है, दु:ख की प्रचुरता में मैं डूबा और इतना दीर्घकाल सुखाभास का आभास नहीं। संस्कार या मोहिनी का इस मेदिनी पर अचूक प्रभाव है।
     
    जब ये मात-पितु मृत्यु को प्राप्त होंगे तो मुझे दुःख अवश्य होगा और ये मृत्यु को प्राप्त न हों, यह तो असम्भव है। फिर यह संयोग जो कि वियोग की योनि है, सुख की योनि कैसे हो सकती है? स्वतत्त्व की शरण छोड़कर पर भ्रमणा में शरण की अनुभूति मिथ्या है। वह नीलाञ्जना मेरे सामने-सामने चली गयी। कितना सुन्दर रूप था, कितनी रम्य मुस्कान थी उसकी, सब कुछ विलीन हो गया एक क्षण में । मैं यहाँ उसको एक क्षण भी पकड़ न सका। ऐसी कितनी और-और ललनाओं ने मेरा चित्त अनुरंजित किया पर मैं अपने में देखता हूँ तो कहीं कुछ रखा हुआ नहीं दिखता, जिसे देख मैं स्वयं को सुखी महसूस करूँ सिवाय उन विलासों की स्मृति के और यह स्मृति भी चिरस्थायी नहीं । यदि यह स्मृति भी सुख को देती तो भी उचित था किन्तु इस स्मृति से एक अलग मूर्छा उत्पन्न होती है, एक अलक्ष्य नीरसता मानो कि मैं सब कुछ हार गया और निराश हो स्मृति मात्र के स्वप्नों में जी रहा हूँ। आयु कर्म के इस सत्य खेल से बेखबर प्राणी शरण्य के विवेक से दूर रह बहुमूल्य मनुष्यता का आकलन नहीं कर पाता।
     
    देख चुका हूँ अपने दिव्यज्ञान से कि, यह जीव ही कभी पुत्र होता है तो कभी पत्नी, कभी मित्र तो कभी पिता। मोह की यह लीला अनवरत इस चतुर्गति के मंच पे जीव खेल रहा है, दूसरों को लुभाता है, दूसरे से लोभित होता है। एक-दूसरे के संयोग की अनुकूलता में हर्षित; तो उसी संयोग की प्रतिकूलता में खेद खिन्न हो बैर धारण कर लेता है और भव-भव उसी अग्नि को बुझाने में चले जाते हैं। चारों गति में यह भ्रमणा और भ्रान्ति जारी है।
     
    जीव जैसे कर्म करता है वैसा ही फल स्वयं अकेला भोगता है। अकेला ही पाप करता है, तो अकेला ही नरक में जाता है, तिर्यंच बनता है। अकेला ही पुण्य करता है, तो अकेला ही भोगता है। अकेला ही चक्री बनता है, अकेला ही कामदेव, अकेला ही नारायण और अकेला ही तीर्थङ्कर । अकेला ही स्वर्गीय सुख भोगता है तो स्वयं ही मोक्ष सुख भी वरता है। जमाने को अपनाना चाहता है, साथ-साथ मरने की कसमें खाता है, पर कौन किसका साथ देता है? अपने-अपने परिणामों से सब पृथक्-पृथक् आयु बाँधते हैं और उसका उपभोग करते हैं।
     
    साक्षात् पृथक्-पृथक् दिखने वाले इस परिवार में, साक्षात् विपरीत स्वभाव वाली इस देह में एकत्व का भान और तदनुरूप परिणमन में हर्षविषाद करता यह जीव जागता हुआ भी सोता रहता है। सम्यग्ज्ञानी भी इस जागृति से इतनी दूर जा सकता है तो मोह के निबिड़ अन्धकार में डूबे इन प्राणियों को कुछ नहीं दिख रहा हो, इसमें उन बेचारों का क्या अपराध? और कच्चे दुर्गन्धित गीले घड़े में बैठा यह आत्मा भी क्षण-क्षण बाहर निकल रहा है, पर उसका अवभासन नहीं, प्रत्युत काया को अपनी मान सुखदुःख को महसूस करता है। क्षण-क्षण क्षरित इस काया में अक्षय सुख की अवमानना, पुष्ट और बलिष्ठ बनाकर सुखी बनने की धारणा निश्चित ही अज्ञान की बलिहारी है। अपनी देह में अनुराग छोड़ परकीय देह को भी अपनी अतृप्त क्षुधा के आहरण में लगा लेता है। चर्म मात्र मक्खी के पंख की पतली सी परत से ढकी अत्यन्त बीभत्सता और अपवित्र सामग्री की एकत्रता को अपनी मान मदमस्त हस्ती-सा अविवेक कृत्य करता है और हर्षित होता है। कभी भी मन-वचन-काय के स्पंदन कहूँ या फंदन कहूँ जिनमें बंधा जीव का एक-एक प्रदेश इस उलझन से उबर नहीं पाया और मोह कषाय तथा क्रियाओं की विभिन्नता से पुण्य-पाप के चक्र में झूलता रहता है। इन कर्मास्रव  को जानकर, मैं शीघ्र इनसे बचने का प्रयास करूँ तभी यह मनोभावन कार्यकारी है अन्यथा चिंतन मनन मात्र से क्या? जब तक समीचीन ज्ञान नहीं, जब तक अणुव्रत और महाव्रतों का पालन नहीं तब तक संवर कहाँ? इस संसार के कारणों से मुक्ति कहाँ ? गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय जिसमें हों, ऐसे चारित्र को धारण किए बिना इस संसृति में दुःखों का अभाव नहीं और यह तब तक सम्भव नहीं जब तक विषयों से विरक्ति न हो। जब तक इस परिकर के बन्धन से ही मुक्त नहीं तो अन्तस् के सुदृढ़ बन्धन से मुक्ति का भाव क्या करेगा?
     
    इस दुर्धर चारित्र के अनुष्ठान बिना कर्ममल्ल हार नहीं सकता। अनन्तकाल से इस जीव पर विजेता बना, यह कर्म-शत्रु मन और इन्द्रियजय के बिना जर्जरित हो धूलिमात्र कैसे बनेगा? समय पाकर तो अपना बल दिखा यह चला जाता है, पर अपनी सेना को छोड़ जाता है और उसी से जूझता यह जीव सर्वहारा-सा खड़ा रहता है। अब मन की हर बात मानने से दूर रहकर इस शरीर को भी निस्पन्द बना स्वरूप में लीन होकर इस कर्म को जीतूंगा।
    इधर यह रज्जू पर्यन्त अपनी कटि को फैलाये और उस पर दोनों हाथ रखकर जिसने ब्रह्मलोक को छू लिया। चौदह राजू की दीर्घता को लिए यह लोक राक्षस सा अपने में अनन्तानन्त जीव जन्तुओं को डुबोये सदा से अपनी विजय पर हँस रहा है। उस विजय की अट्टहास से इतना झाग, इतनी वायु और इतना जल उसके मुँह से गिरा कि वह योजनों मोटे वातवलयों का रूप धारण कर गया।
     
    जिसने अपने दोनों पैरों को फैलाकर स्वयंभूरमण समुद्र को छू लिया। जिसके दोनों पैरों के बीच जीव इतने संतप्त हैं और दुःखी है कि उसका कोई उपमान नहीं। एक पैर से दूसरे पैर तक फैले जाल सप्त पृथ्वियों का रूप ले चुके हैं। जिसके चारों ओर कज्जल लेप की निगोद आत्मायें उसकी गोद में से परित्राण चाहती हैं, पर विफल हैं। ऐसे इस राक्षस से अनिर्लिप्त और उसके मस्तक पर विराजमान वे आत्मायें धन्य हैं, जहाँ इस राक्षस की दुर्गन्ध का ग्रहण नहीं।
     
    उस भीमकाय राक्षस की पदचाप में दबा कदाचित् कोई आत्मा बाहर निकलता है तो कुछ श्वास बढ़ा पाता है। उसके पदों के दबाव में इतनी घुटन कि वहाँ वह एक श्वास में अठारह बार मर जाता और अठारह बार जीवन पाता था। अनन्त जीवों का पिण्ड रूप आहार और क्रिया से छुटकारा मिलता है, तो पृथ्वी आदि काया को अपनाता है। फिर वनस्पति में कुछ जीवन जीकर, त्रसत्व को पाता है। यहाँ कुछ हलन-चलन आती है, पहले स्पर्श मात्र से जीवत्व का भान हो कर्मफल भोगता रहता है। शनैः शनैः यह जीव रसत्व की अनुभूति, सूंघने की शक्ति और इस जगत् को देखने की योग्यता भी पाता है और शब्द या ध्वनि की झंकार सुनकर चौंक उठता है, पर मन बिना हिताहित विवेक से विकल ही रहता है । कदाचित् मन मिला तो अत्यन्त रुद्र कार्य करने वाला तिर्यंच हुआ और तीव्र अशुभ लेश्याओं से नरकवास को आवास बनाता है। तीव्र दुःखों से पीड़ित एक-एक अणु जीव का जैसे तैसे आयु पूर्ण कर छुटकारा पाता है तो कभी दुर्लभता से मनुष्य जन्म पाता है। पर मिथ्यात्व और तीव्र कषाय से मुक्ति कहाँ? कदाचित् उत्तम गोत्र पाता है, कुल पाता है पर धन-वैभव से हीन रहता है। कदाचित् वो भी मिल जाये तो पूर्ण बलिष्ठ इन्द्रियाँ नहीं पाता। कभी इन्द्रिय पूर्ण भी हों तो अनेक रोगों से युक्त शरीर मिलता है। कदाचित् थोड़ा जीवन निरोग रहकर हर्ष से बिताता है तो अचानक रोगों की आक्रामकता से अत्यन्त दु:खी होता है। दाद-खाज, रोग रहित शरीर है पर आयु की अल्पता का दुःख, आयु पूर्ण मिले तो सदाचार के साथ जीवन बिताना अतीव दुष्कर है। कदाचित् व्यसन से रहित भी हो जाय पर परम गुरु का योग नहीं । दैवयोग से वह भी प्राप्त हो तो उनकी संगति का क्षण कहाँ? उनकी वाणी सुनने का लाभ महाभागी को ही है। उससे भी कठिन है उनकी प्रसन्न दृष्टि, कर कमलों की करुण छाया, उससे भी दुर्लभतर है, उनका आज्ञा देना, बहुत कठिन है, फिर उस आज्ञा का प्रसन्नता से पालन होना। समझो जगत् में सबसे बड़ा खजाना मिल गया, यदि सद्गुरु की देशना में डूबकर साम्य ग्रहण हो। सम्यग्बोधि का लाभ हो। उनके इशारे से चारित्र का ग्रहण हो संसार की विपरीत परिस्थितियों में भी उस चारित्र का आजन्म उत्साह से अनुपालन अति दुर्लभ है। कषायों से रहित सदा शुक्ललेश्या से समत्व की आराधना नितान्त कठिन है और निकट भवितव्यता हो, तब यह सब अनाकांक्ष वृत्ति से हो। 
    इसीलिए यह मनुज जन्म देवों महेन्द्रों के लिए भी आकांक्ष्य है। फिर भी दुर्लभतम इन अनेक संयोगों को पाकर इन विषयभोगों की लिप्सा में जीवन बिता देना मानो राख के लिए रत्नों की भस्म बनाना है या धागे के लिए हार को तोड़ना है। इस मनुजत्व की अन्तिम दुरन्त अलब्धता है महानिर्वाण।।
    __ वह निर्वाण कुछ और नहीं स्वकीय धर्म है, जो वस्तु का निरापेक्ष स्वभाव है। आत्मा की स्वतन्त्र उपलब्धि है। पर वह धर्म बहुत बाद में प्राप्त होता है। पहले क्षमा आदि दशधर्म को आत्मसात् करना होता है और वह तभी सम्भव है, जब समीचीन दृष्टि, ज्ञान और चारित्र की लीनता हो, पर यह तभी सुलभ है, जब दयायुत अहिंसा का भाव स्व-पर दोनों के लिए हो। इन अनेक परम्पराओं से गुजरना होगा, सभी से अपने आत्मा को श्रृंगारित करना होगा। सभी धर्म हैं, एक में विलीन होकर ही दूसरे की उपलब्धि होती है। अब यह अनुचिन्तन मेरा अनुवर्तन करे।
     
    इसलिए मैं...................और इधर सुदूर तक यह मनोभाव व्याप्त होता हुआ लोकान्त तक पहुँच गया। उन अंधियारी गलियों में भी जहाँ अन्य जीव तो क्या देव भी उसे पार करने में असमर्थ होते हैं।
     
    अरुणवरद्वीप के चारों ओर योजनों तक प्रसरित उन तमस्काय मार्गों से इस आर्यद्वीप में हंसों की धवलता से रंगित वे अनेक देवगण आ गए, जिन्हें देवों में पूजनीयता प्राप्त है, जो इस भव के बाद मुक्ति वरण करेंगे। जो देवर्षि कहे जाते हैं। निरन्तर बारह भावनाओं में रत रहते हैं और जो उन भावनाओं को भाकर वन गमन को तैयार होते हैं, ऐसे महानिष्क्रमणशीलों की प्रशंसा कर गद्गद होते हैं। श्रुत पारगामी हैं, विषयों से विरक्त हैं। ललनाओं के ललित अवलोकन भी जिनके दृष्टि पथ में क्या अन्तर्मन में भी नहीं आते। लौकान्तिक देवों की यह विश्रुति सभी देवगण जानते हैं। वैराग्य की इस अनुशंसा में किसी ने कहा भगवन्! आप इस वसुधा को अब धर्मामृत से सिंचित करें। कर्म करने का उपदेश तो आप दे चुके हैं तो किसी ने कहा-आदिम पुरुष! आपका यह विचार अनन्त जीवों के उद्धार का प्रबल सेतु बनेगा, जिस पर आरूढ़ हो भव्य जीव सम्यक् सुख प्राप्त कर सकेंगे। हे प्रजापति! इन दुरन्त दारुण भोगों से निस्तरण पाना बहुत कष्टप्रद है। मोह और काम की महावासनाओं से यह जगत् जल रहा है, इसे आत्मिक बोध से शीतल करो। आप सम्यक् ज्ञाता हैं, आपका बल अजेय है। हे महाबल! आप मनोहर अंग के धारी हैं। ओ! ललिताङ्ग! वज्रसम दुर्जेयजंघा वाले आप वज्रजंघ हैं। आप मही पर महापूज्य हैं। हे आर्य! आप दिव्य श्री को धारण करने वाले हैं। हे श्रीधर! आपकी विधि ही उत्तम है। हे सुविधि! आप अब अच्युत इन्द्र अर्थात् अविनाशी नाथ हैं । हे अच्युतेन्द्र! आप वज्रसम अभेद नाभि युत हैं । हे वज्रनाभि! आपसे ही इस विश्व को सर्व प्रयोजन की सिद्धि होगी। हे सर्वार्थसिद्ध! आपकी यह पार्थिव देह चरम है, अब तक आपने इस धरा पर अवतरित हो इस वसुधा को पूत बना दिया। हे दशावतार चरम तीर्थ! आपकी यह दशा इस सृष्टि के निर्माण के लिए अलौकिक अवतरण हैं। आपके रूप अनेक हैं, आप संसार खार अपार-पार-तार-अवतार-द शा व ता र ............हैं।
     
    इन्द्र ने कम्पित आसन की सम्भावना से महानिष्क्रमण की अतुलबेला को जाना। सर्व देव चले स्वकीय विमान यानों पे अविलम्ब आरूढ़ हो। सारा नगर आकीर्ण हो गया देव संकुलता से। तभी महाराज ऋषभ ने राजभार को पुत्र भरत को सौंपा और बाहुबली को युवराज और विभक्त महीखण्ड पोदनपुर का अधिपति । कच्छ, महाकच्छ राजाओं को भी राज्य विभक्त कर दिया और अन्य, प्रधान मांडलिकों को भी। इधर देव-समाज तप कल्याणक मनाने आया तो इधर महामहिम राजगण भरत का राज्यपट्ट देखने आये। पिता ने विभूति का सर्वदत्ति से त्याग किया और पुत्र ने उसे स्वीकारा । लक्ष्मी ने देखा कि अब तप लक्ष्मी महाराज ऋषभ को प्रिय हो गयी इसलिए यहाँ अब अपना कोई कार्य नहीं इसलिए सौत से ईर्ष्या कर स्वाभाविक स्त्री स्वभाव का परिचय दे, भरतराज की चेरी बन गयी। प्रजागण परेशान हैं, सोच-सोच कर कि यह हो क्या रहा है? लगता है अपने स्वामी कोई नया कार्य करने जा रहे हैं, इसीलिए ये देवता गण फिर से अयोध्या नगरी में आये हैं । पर सुन रहा हूँ अब ये राजभवन में नहीं रहेंगे वन में जायेंगे। पता नहीं कुछ दिन वहाँ पर रहकर फिर आयेंगे या नहीं। अपने पुत्र को इस भरतखण्ड का राजा बनाकर भरत को भरत का भारत बना दिया यह जनश्रुति दिग्दिगन्त तक फैल गयी है। महाराज ऋषभ के सभी कार्य अचिन्त्य होते हैं । शक्र भी इनके विचारों को जानने में अक्षम हैं। हम लोग तो अपने स्वामी को छोड़ेंगे नहीं, उन्हीं का अनुसरण करेंगे, वो वन में जायेंगे तो हम भी चलेंगे। नहीं, नहीं वो गए तो फिर लौटकर नहीं आयेंगे और इस राज परिवार के कार्य भी नहीं मिलेंगे, इसीलिए पुत्र को राज्य देकर जा रहे हैं। इधर भरत स्वर्ण, गो, गज आदि प्रजाओं को बाँट रहे हैं, तो उधर ऋषभदेव सभी कुछ छोड़ चलने वाले हैं। भरत राजा के लिए सिंहासन तैयार किया गया है तो इधर ऋषभ राजा के लिए यह पालकी बनी है, देव शिल्पियों के द्वारा, क्या अनोखा वातावरण है, कहीं घूम-घूम कर कोई खुशी का इजहार कर रहा है तो कहीं कोई दुःखी भी है कि अब महाराज नाभेय हमें छोड़ कर जा रहे हैं।
     
     अरे! देखो-देखो महाराज गृह से बाहर आये हैं । सभी को सम्बोधित कर रहे हैं, माता मरुदेवी का करुण रुदन देखो। इधर यह सौभाग्यवती मन ही मन रो-रो कर दु:ख के घूंट पी रही है साथ ही सुनन्दा भी ऐसे कँप रही है, मानो कोई वज्रपात की आशंका है। माँ पूछ रहीं है ऋषभ! मेरे लाल! क्या हुआ तुझे अचानक नृत्य देखने के बाद तुझे क्या हो गया? पुत्र! तुम मेरी कोख के एकमात्र पूत थे, तुम्हीं से यह जीवन सारभूत लगता था। तुम्हें देखकर ये सारी वनितायें मुझे ऐश्वर्यवान् कहती थीं। हे वत्स! मत जाओ रुक जाओ, बताओ कहाँ जा रहे हो? कब आओगे। इन बंधुओं को कौन संबल देगा? क्या माँ की तरफ देखोगे भी नहीं एक बार पीछे मुड़ के तो देखो मेरी छाती फटी जा रही है। ऋषभ! तुम इतने कठोर कैसे हो गए? इस तमाम भीड़ को चीरते हुए प्रांगण से बाहर निकल गए कि इन्द्र ने स्वामी को हाथ का इशारा दिया और वे पालकी पे सवार हो गए। सुदर्शन पालकी की दर्शनीयता सन्तोष नहीं देती, देखतेदेखते जी नहीं भरा कि प्रभु के बैठते ही ये राजा लोग सात पैंड तक ले गए, फिर विद्याधर लोग सात पैंड तक ले गए। पश्चात् वैमानिक और भवनत्रिक देव अपने कन्धों पर उस पालकी को आकाश में ले चले। इन्द्र ने भी स्वयं पालकी को ढो कर अपना देवत्व सफल किया। हजारों राजागण, क्षत्रियजन, प्रजाजन, विद्याधर साथ चल रहे हैं। देवांगनाओं के विलसित नृत्य, तपकल्याणक के मंगल पाठ, बन्दीजनों के द्वारा उच्चस्वर में जय-जयकार, नगाड़ों, कलहों, पाटलों के कर्ण भेदी निनादों से सारी दिशायें बहरी हो चली। ऐसा लग रहा है मानो आज सारा भूमण्डल एक दिशा में गतिमान है और दिशा प्रदाता का अनुगमन कर रहा है। महारानियों ने अपनी पीड़ा को अमंगल के भय से पी लिया। भरत आदि सौ भ्रातगण बाहुबली के साथ मौन हो चल रहे हैं मानो उनको सब कुछ मालूम हो कि यह क्या हो रहा है ? पुत्रियाँ माँ को समझा रही हैं। रास्ता नहीं दिखता पर स्वतः रास्ता बन जाता है। महाराज नाभिराज स्वयं रानी मरु के साथ पीछे-पीछे चले जा रहे हैं, यशस्वती और सुनन्दा को छोड़ सभी अन्तःपुर की रानियाँ आगे जाने से रोकी गयीं और इसी कोलाहल को सहज देखते हुए वे शीघ्र ही वन में पहुँच गए।
     
    सिद्धार्थक वन में बासन्ती छायी है। वन की मधुर-मृदु-तरल वायु ने प्रभु का स्वागत किया। पहले से ही रखी एक शिला पर देव ऋषभ आसीन हुए। चन्द्रमणि से निर्मित उस शिला के उद्योत में विशुद्धि का ब्रह्मा आकर स्वमेव हर्षित हो गया। जय-जय की आवाज और पुष्पों की अनवरत वृष्टि मंगलगानों का अपूर्व सुखद वातावरण धीरे-धीरे शान्त हुआ। स्नेह बन्धन तो टूट चुके थे, फिर भी उस शिला पर बैठकर प्रभु ने सबको एक-पलक से निहारा और मौन प्रीति को चहुँ ओर बिखेर दिया। सन्तुष्ट पर, असहमत यह लोक निस्तब्ध था, देखने को इस अवतार की प्रतिक्रिया कि-तड़-तड़ टूट गया बाजूबन्द, विशाल किरीट पद रज में गिरा, वक्षःस्थल का हार गिरते-गिरते सारे उद्यान में मोतियों और मणियों से लिप गया। नीलाभ श्वेत वस्त्र अन्दर की विरक्तता से डरकर उड़ने लगा। जन-जन-परिजन और शक्रराज ने उन स्मृतियों को अपने करण्डक में संभाला।
     
    सिद्धों की साक्षी में अपने आत्मा को साक्षी बना देवों की समक्षता में विश्व के प्रति पदार्थ को अभोग्य समझ छोड़ दिया। आज से मेरा आत्मा ही मेरा भोग है, मैं मात्र इसका भोक्ता और यह ही अवशेष है उपभोग्य के योग्य। आज से किसी भी चेतन-अचेतन तत्त्व का बन्धक नहीं, मैं निर्बन्ध हुआ और पर से मैं अबाधित। सर्व चराचर जगत् के प्रति मनसा वाचा कर्मणा मैं किंचित् भी बाधा का कारण न बनूँगा। सामायिक ही परम आचरण है, तब तक जब तक कि शिवांगना से लिप्त न हो जाऊँ।
     
    चैत्रमास की नवमी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र के शुभ योग में यह विचारते हुए वह जातरूप इस कर्मयुग के आदि में प्रथम प्रकट होकर, बासन्ती के रोमरोम में एकाकार होने को उद्यत हुआ। अरुणाचल की उदित दिशा में मुख करके विराजित हैं और दोनों करों से ललाट तक लहराते कुन्तल केशों को एक साथ पञ्चमुष्टि से उखाड़ दिया मानों संसृति की वल्लरियाँ अब कभी अंकुरित नहीं होगी। ब्रह्मरन्ध्र के तेज से स्फुरित हो, आविर्भूत हुआ अपर मार्तण्ड। वे केश समेट लिए माँ ने अपने आंचल में । इन्द्र ने अपने पिटारे में और क्षीरसमुद्र में अवगाहित कर पवित्र कर दिया उनके अस्तित्व को। महाश्रमण, महाचेता, प्रथम तीर्थकर्ता आदिम जात-रूप, नैर्ग्रन्थ्य की पराकाष्ठा, निरहंकारता की असीम सीमा बन व्याप्त हो गयी। वह महाकाय पूर्ण रूप से काय के उत्सर्ग से स्व में विलीन हो गया। आज मैं पृथ्वी पर हूँ या नहीं, मैंने भूमि का ऋण मुक्त किया और अणु-अणु की सत्ता का आदर किया ऐसा पहली बार अबोझ महसूस हुआ। आज मार्दव धर्म पूर्ण प्रकट हुआ इससे पहले यह आत्मिक काषायिक भार रहितपना अनुभूत नहीं हुआ और कायोत्सर्ग में अवगाहित होता हुआ मात्र स्वानुभूति और स्वप्रकाश परिलक्षित हो रहा है। सूर्य भी अन्तिम रश्मि को ललाट पर न्यौछावर कर अस्तंगत हुआ और समस्त परिकर स्वकीय धाम को प्रस्थान किया।
     
    पर यहाँ पट प्रति पट आत्म अन्धकार के टूटते जा रहे हैं। न जाने कहाँ से इस देह बल को उत्सर्जित करने पर अद्भुत आत्मबल प्रकट होने लगा। जैसे रात्रि में औषधियाँ वन में स्वयं प्रदीप्त होने लगती हैं, वैसे ही अवधिज्ञान की सर्वोत्कृष्ट और मनःपर्ययज्ञान की विपुलमतिता सहज प्रकट हो गयी। वह शक्ति रश्मियाँ चहुँ ओर बिखर गयी कि किसी को शिरः, नासिका, अक्षि, कर्ण रोग हों और वह उस काया के इर्द गिर्द भी योजन दूर हो तो उसे सर्व शान्ति की प्राप्ति हो जाये। जिन्होंने परकीय मनःप्रणाली को जानने की किंचित् चेष्टा नहीं की इसलिए मनःपर्ययज्ञान की उत्कृष्ट लब्धि को पाया। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्बन्धी सकल शक्तियाँ परिस्फुटित हुईं।

     
    फलस्वरूप कोई भी इस आभा से अपने हृदय, श्वासादि रोग को विनष्ट कर विवेक, पाण्डित्व, प्रतिवादित्व आदि उपलब्ध कर सकता है। अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता आप आपो-आप हुए। विक्रियाद्धिर् , चारणद्धिर् प्रज्ञाश्रमणत्व, आकाशगामित्व ऋद्धियाँ बलवती हुई। पर इन सबका कोई प्रयोग नहीं, यही तो रहस्य है कि जब मन, वचन, काय से कुछ नहीं ग्रहण करने का संकल्प लिया है तो सब कुछ स्वतः चरणों में आ गिरता है। सारी रात देवताओं ने उत्सव मनाए और शक्तियों ने प्रभु को अपना निलय। आशीविर्ष, दृष्टिविष ऋद्धि उपलब्ध हुई पर रोष-तोष से मुक्त जिनेश को उनसे क्या प्रयोजन? फलतः उन चरणों में द्वेषी-विद्वेष मुक्त होगा और कोई भी स्थावरजंगमकृत विष प्रयोग अमृत बन संतृप्त होगा। अत्युग्र तप करने पर भी संक्लेश का अभाव, सदा भासुर दीप्त देह की दीप्तऋद्धि परकीय वचनों को और चक्रवर्ती के कटक को भी स्तंभित करने की शक्ति सहज प्राप्य है । रस, रुधिर आदि धातुएँ तप्त हो शक्ति बन गयीं। तप्ततप, महातप की शक्तियों से अग्नि और जल का स्तंभन फलित है। घोर तप, घोर गुण, घोर पराक्रम, घोर-ब्रह्मचर्य की शक्तियाँ विषरोग, भय, बलिनाश, भूतप्रेत भय विनाश करने में समर्थ हुईं। सच ही तो है जो धर्म का पालन करता है, धर्म उसका पालन-रक्षण करता है। यद्यपि प्रभु की देह में रोग, भय आदि विकृतियाँ सम्भव नहीं, पर विश्व कल्याण की भावनाओं का फल कुछ विचित्र ही है। सर्वौषधि, श्वेलौषधि, जल्लौषधि, आमौषधि, विष्टौषधि, ऋद्धियाँ ऐसी सुशोभित हुई मानों देह कोई औषधि का कल्पवृक्ष ही हो, जिनके स्मरण से मनुष्य, देवकृत उपसर्गों का, अकाल मृत्यु का, जन्मान्तरों के विद्वेष का, अपस्मार प्रलापन का और गजमारि रोगों और बाधाओं का विनाश क्रमशः होता है। स्वकल्याण से ही पर कल्याण संभव है, यह आप मौन रहकर कह रहे थे। मनोबल, वचनबल, कायबल ऋद्धियाँ, गोमारी, अजमारी, महिषमारी दूर करने को समर्थ हुईं। पूर्व भव में किए गए रस परित्याग तप की अनाकांक्षा के फलस्वरूप, क्षीरस्रावी, सर्पिषस्रावी, मधुरस्रावी, अमृतस्रावी ऋद्धियाँ प्रकट हो, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग, सभी प्रकार के ज्वर, सकल उपसर्ग और सर्वव्याधियों के विनाशन से परोपकार की उत्कृष्टता से द्रवित हो गयीं। क्षेत्रज अक्षीणऋद्धि महानस और आलय के भेद से सदाकाल जीवों को अभय देने में तत्पर हुई। नितप्रतिपल वर्द्धमान चारित्र, भय को चीरता हुआ आपकी निषद्या को सिद्धायतन बनाकर आगामी जीवों को धन-धान्य समृद्धि से परिपूर्ण करेगा तभी तो आगत नमि, विनमि ने प्रभु के चरणों में मनोवांछित फल प्राप्त कर लिया और भगवति महति महावीरत्व की जय-जय निनादों से इन्द्र स्तुति कर प्रणिपात हो गया। महाश्रमण समाधि सुख में लीन....लीन विलीन हो गया।
     
    एक मात्र केवलज्ञान को छोड़कर सब कुछ लोट-पोट हो रहा है, स्वयं में स्वयमेव ही। यह विश्व आज क्यों इस ज्ञान में लुढ़क गया? मैं तो अनाकांक्षी हूँ इन सबका। भेद भी नहीं किया मैंने कि क्या हेय है? क्या उपादेय है? मात्र जो है सो है। अस्ति को अस्ति रूप में, नास्ति को नास्ति रूप में देख रहा हूँ। अस्ति कभी नास्ति नहीं हो सकता, नास्ति कभी अस्ति नहीं। घृणा और राग से परे प्रत्येक को लखना ही वीतरागता है, सो किसी द्रव्य को ज्ञेय बनाना भी रुचता नहीं, मात्र आत्मा ही ज्ञाता है, वही ज्ञायक है, वही ज्ञेय है, वही ध्येय उसी की परिणतियाँ ध्यान है, वही ध्याता है, सब कुछ स्व में स्व के लिए, फिर भी प्रतिबिम्बत हो रहे हैं। मुकुरन्दवत् निर्मलचिति में सकल चराचर। स्वभाव में रहना ही समभाव है।
     
    पर इधर ये कोई चार हजार संख्यक पुरुष भी रूपायित हो गए मेरे बाह्य रूप में। भक्ति से आपूरित हैं, पर मुक्ति से अनजाने । स्वयं नाथ हैं, स्वयं अपने स्वामी हैं पर, मुझे स्वामी मान अज्ञान से खड़े हैं और व्याकुलित हैं। उच्च वंशोत्पन्न कुलीन राजाओं को भी अन्तर्जगत् की विराटता का भान नहीं। ये कच्छ-महाकच्छ भी दीक्षित हुए हैं। दीक्षित होकर फिर किसके लिए प्रतीक्षित हैं ये ? जो इच्छाओं को तिलाञ्जलि दे निष्काम हुआ वह प्रकाम पूर्ण हुआ। मेरे साथ ये भी क्षुत् तृषित हैं, पर अधीर होते जा रहे हैं। मैं तो संकल्पित हूँ वर्षार्ध से पूर्व न हिलने को। मन इनको प्रबोधन देने के लिए करुण रस में आप्लावित हो रहा है, पर यह करुणा अभी असामयिक है। अब सम्बोधन के स्वर मुखरित नहीं होंगे। स्वयं पूर्ण हुए बिना किसको ज्ञान और क्यों ? पर कल्याण स्वयं पूर्ण होने से सहज है। करुणा का अर्थ स्वयं दुःखी होना नहीं, न ही दूसरे के दुःखों को संभालना। करुणा तो आत्म स्वभाव है। निष्काम स्वभाव में लीन होना यथार्थ कारुण्य है, अन्य सब तो महामोह की भ्रान्ति है। करुणा, दया, अनुकम्पा जैसे गंभीर शब्दों के बहाने अपने राग का पोषण मिथ्या है।
     
    देख रहा हूँ दिन-महीने ऋतु पर ऋतु गुजर गयीं और ये उन्मग्न होकर मुझे तरह-तरह की उलाहना दे रहे हैं । स्वभाव से अतिमृदु, ऋजु हैं, असहिष्णु हैं। स्नेह, भय और मोह से दीक्षित हुए हैं, इसीलिए भाव शून्य हैं।
     
    किंचित् विकल्प के साथ देव पुनः अन्तश्चेतना में गहरे उतरते चले गए और सह दीक्षितों में से कितने ही धैर्य छोड़कर प्रभु की धीरता, निसंगता की चर्चा करने लगे। कितने ही स्थान छोड़ पुनः गृह जाने लगे, कितने ही स्वामी भक्ति से उनके निकट आ रहने लगे, कितने ही राजा भरत के डर से नहीं गए तो कितने ही राजर्षि ऋषभ के भय से नहीं गए। प्रार्थना और स्तुति करते-करते जब वे थक गए और प्रभु योग से चलायमान नहीं हुए तो वे लोग हाथों से फल और तालाब पर पानी पीने लगे। उन्हें पता नहीं कि यह निर्ग्रन्थ रूप कितना  अनमोल और पवित्र है। देव भी जिसकी रक्षा करते हैं, ऐसे इस रूप की रक्षा करना ही आत्मधर्म है। अनाचरण की वृत्ति देख उस उद्यान में निवासित वन देवताओं ने ध्वनित किया-अरे अनार्यो! यह दिगम्बर रूप जब तीर्थङ्करों, चक्रवर्ती, बलदेवों जैसी पुण्य आत्माओं द्वारा भी धारण करने योग्य है, तो तुम लोग इस भेष में कातर कार्य मत करो। इस रूप में अनादत्त मृत्तिका व जल का ग्रहण भी महापाप है। यदि शूरता नहीं तो पुरातन भेष को अपनाओ पर, इस असि मार्ग पर कष्ट से भय नहीं करो। तभी कितने ही लोग वल्कल की लंगोट पहन लिए, कितने ही भस्म लपेट जटाधारी हो गए, कितने ही एकदण्डी और त्रिदण्डी नाम से विख्यात हो गए। पाषण्डों में प्रमुख परिव्राजक भगवान् का नाती मरीच कुमार बना । योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र की व्याख्या से भोले जनों को मोहित कर उनका गुरु बन गया। अनेक-अनेक मनचाहे भ्रामक उपदेशों से सबने अपना-अपना सम्प्रदाय बनाया और उदर पोषण में संलग्न हुए।
     
    भगवान् ऋषभदेव इस अलौकिक मार्ग के वेत्ता थे। पूर्व संस्कारों से और सम्यग्ज्ञान से पुनीत आत्मा को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाते हुए लगभग छह मास होने को हैं। विशुद्ध शिला पर कायोत्सर्ग से खड़े वह स्वर्ग और अपवर्ग की सीढ़ी से आभासित हो रहे हैं। न खेद, न चिन्ता, न आर्त, न वीर्य की पिघलन। पर शरीर अपने धर्म को दिखा रहा है। जठराग्नि प्रज्वलित है और स्वानुभूति के पीयूष से शमित भी। इस युग के आदि में भोजन-विधि को बताना मुख्य औचित्य-पूर्ण कार्य है। महाक्षुधा के शमन के लिए ही यह लोक चिन्तित रहता है और इसकी पूर्ति न होने पर महापाप में प्रवृत्त भी हो जाता है। यदि मैं इसी तरह कायोत्सर्ग में लीन रहा तो यह मार्ग एकान्त उत्सर्ग का रूप धारण कर लेगा और अपवाद के छल से अन्यथा प्रवर्तन होगा। अनेकान्त की समीचीन चर्या में तीर्थ प्रणेता का अटल और अवश्यंभावी नियम है कि तीर्थ गंगोत्री को वह अपने आचरण से चलाये। अनेक प्रकार के असंयम और उपकरणों का आश्रय लेकर स्वार्थसिद्धि करना अनुचित है। सभी तीर्थ प्रणेताओं के द्वारा विहित एषणा की समीचीन विधि जो कि विदेहक्षेत्र में भी एक समान है, कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रारम्भ करना अत्यावश्यक है। भोजन यदि विहित विधि से सम्यक् चारित्र के अनुष्ठान के लिए ग्रहण किया जाता है तो वह
    परिग्रह नहीं। संयम की सिद्धि के लिए निर्दोष आहार ग्रहण करना साध्य के लिए साधन है। कायक्लेश उतना ही हो जिससे मनःक्लेश न होने पाये क्योंकि मनः संक्लेश पापानुबन्ध का हेतु है।
     
    अतः निर्दोष आहार लेकर मन को विशुद्ध बनाना और तत्त्वचिन्तन कर इन्द्रिय को जीतना धर्म है। इन्द्रियजय से ही शम भाव है और शम भाव से मोक्ष। यही सोचकर उस सिद्धार्थ उद्यान में खड़े प्रभु ने आँखें खोली और अपनी प्रज्ञा आलोक को साथ लिए रवि के आलोक में गमन किया। प्रभु का गमन अयोध्या की ओर हुआ। पुरजन चिन्तित होने लगे, सभी लोग देखने आने लगे। यह क्यों वापस अयोध्या में आ रहे हैं? इनको क्या चाहिए। अरे! आओआओ देखो अपने स्वामी जिन्होंने अपने को धन दिया था। अरे! देखो वे ही महाराज ऋषभ अब नग्न हो कितने सौम्य लग रहे हैं, इनका तन तो देखो कनक-सा दैदीप्यमान है। अरे! पूछो ना इनको क्या चाहिए? महाराज कुछ ग्रहण करो। स्वामिन् रुको! रुको! हे देव! इस आलय में आओ, हे श्रमण! कुछ तो बोलो। हे पूज्य! यह सब कुछ आपका ही है, आपको क्या चाहिए, हे महापुरुष! न हास्य है न विलास, मुख हर्षविषाद से रहित, जीवरक्षा से कदमों का परिवर्तन, मौन की गंभीरता, किंचित् इशारे के अभिप्राय से शून्य वह महाश्रमण घूमकर पुनः उद्यान में आ गए और पुनः देह से पार, अपरिचित को देखने जानने में लीन हो गए।
     
    नवप्रभात हुआ, नहीं मालूम ये पग कहाँ रुकेंगे, ज्ञान है भविष्य को जानने का, शक्ति है भूमि के अधिकार की, पर अब अकिंचन को किसी भी ऋद्धि का प्रयोग नहीं करना है। थोड़ी दूर जाने पर लगा कि यह रामपुर है। चारों ओर कोलाहल मच गया। महाराज ऋषभ अपने नगर में आ रहे हैं। उनका अभिप्राय किसी को ज्ञात नहीं, छह महीने से उन्होंने न कुछ खाया न कुछ पिया। रोको-इनको-रोको! लाओ मिष्ठान्न लाओ, खीर दिखाओ, लाडू दिखाओ, दूध दिखाओ, पर ये चरण चलाचल हैं, क्या चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता। कल अयोध्या में भ्रमण कर वापस आ गए थे। महाराज भरत ने भी रोका पर रुके नहीं, माँ की ममता अश्रुओं में बह रही थी पर इन चरणों को बाँध न सकी। अब ये पुनः लौटते हुए दिखते हैं उद्यान की ओर..........।
     
    नहीं मालूम यह कब तक चलेगा, कब मिलेगा विधिवत् आहार, तात्कालिक विकल्प से भी सामायिक निराबाध चल रही है। अनियत कालीन सामायिक की पूर्णता तो आत्मा के यथार्थ दर्शन से होगी। देह का यह संयोग ही अशेष संयोग का मूल है। इसी से दुःख की परम्परा अनाहत चलती है। विदेही का स्पर्शन कितना सुखद है और कितना स्वतन्त्र । स्वतन्त्र, स्व ही मुख्य है, स्व ही आनन्द है, स्व ही चित् है, स्व ही वह है, वह सो मैं हूँ, मैं ही, मैं ............चहुँ ओर मेरे ही रूप, मेरे ही खेल, सबमें मैं, स्व में मैं, पर में भी मैं.............सत्ता का विस्तार .........महासत्ता का निर्विकार दर्शन........अनुभूति फैली है देह की पृथक् भावना में और मात्र जाननहारा-देखनहारा-लखनहारानिराकारा-चिद्-आकारा-सारा।
     
    बीत गए कितने ही दिन, जा चुका हूँ कहाँ-कहाँ? स्मृति की आवश्यकता नहीं, प्रतिपल जो निराकुल बन गया है। पर कल्याण का भाव आया किन्तु विधि का बन्धन कितना दृढ़तर है। छह महीने के अनवरत कायोत्सर्ग से भी उसका फन्दन नहीं टूटा। कितना दुर्लभ है सम्यक् विधि से विश्व का कल्याण। पर होगा ऐसे ही। यह मार्ग अवरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि सुख की अभिलाषा में मात्र मैं ही नहीं यह लोक भी अभिलाषी है।
     
    कितने ही महीने बीत गए, ये देव प्रतिदिन उद्यान से आते हैं, सर्व प्रयास करके हम लोग थक गए, स्वयं भरत और बाहुबली भी चिन्तित हैं। परमपिता के गूढ अभिप्राय को जब ये समर्थ राजपुत्र नहीं समझ सकते तो हम और आप क्या करें? धन, पैसा, धान्य, स्त्री, पुत्र, सुन्दर कुलीन कन्याएँ, सारा राज्य सब कुछ तो भेंट करना चाहा पर कुछ भी स्वीकृत की आहट नहीं, लगभग छह महीने होने को हैं..... । इन्द्र भी कहाँ सोया? देव समूह कहाँ गया? कोई बताने वाला नहीं, सब लोग भ्रमित से हैं मानो किसी कुदेव की छाया में सबका ज्ञान आच्छादित हो गया हो।
     
    तभी कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगरी के राजा, कुरुवंश के शिरोमणि सोमप्रभ के छोटे भ्राता श्रेयांसकुमार को रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न दर्शन हुआ। स्वप्न फल जानकर सोचा कि ऐसा अतिथि आयेगा जो मेरु-सा उन्नत हो और समुद्र-सा गंभीर। कुछ देर बाद खबर आयी कि अति उन्नत, महावीर, धर्म के प्रवर्तक महा दिगम्बर महाराज ऋषभ के कदम आज हस्तिनागपुर की ओर पड़ रहे हैं। अनेक देश, नगर, ग्रामों में भ्रमण करते हुए आज स्वामी अपने नगर पधार रहे हैं। कुतूहल की दौड़ में सारा नगर आनन्दित हो गया। राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस, दोनों ही अन्तःपुर, सेनापति और मंत्रियों के साथ उठकर राजगृह से बाहर आये और प्रभु को प्रांगण में देख हर्षातिरेक से प्रभु के चरण कमलों को प्रणाम किया तदनन्तर प्रदक्षिणा दी। साक्षात् भगवान् की इस भक्ति में दोनों भ्राता रोमाञ्चित हो गए। सौधर्म और ऐशान इन्द्र की तरह दोनों ने प्रभु को गृह प्रवेश के लिए कहा। उच्चासन पर भक्ति पूर्वक बैठाया और जलादि समर्पित कर पाद-प्रक्षालन कर अपने पापों को प्रक्षालित किया। अतीव पूजा और भक्ति से सारा महल गुञ्जायमान हो गया। भगवान् की तपोपूत आभा में प्रवेश करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो आया और आठ भव पूर्व वज्रजंघ के साथ जो श्रीमती ने चारण युगल को आहारदान दिया था, वह पुण्य संस्कार आज फलीभूत हुआ। आहार की यथावत् विधि का स्मरणकर राजा श्रेयांस आहार देने को उद्यत हुए। एक तरफ स्वामी खड़े हैं और सामने हैं राजा श्रेयांस। राजा ने प्रभु के पाणिपात्र में शुद्धिपूर्वक इक्षु रस की अक्षयधारा को छोड़ दिया। तत्काल ही गगन से रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि होने लगी, नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि बजने लगी, मन्दमन्द शीतल सुगन्धित समीर बहने लगा और जय-जय......धन्य धन्य.......धन्य यह पात्र, धन्य यह दान-धन्य है, यह दाता-जयवन्त हो, यह धर्म जो श्रावक और श्रमण के दो कूलों के बीच निर्बाध प्रवाहित हो रहा है। धन्य है यह धर्मरथ, जो आमने-सामने खड़े राजा और महाराजा मानो धर्म के दो पहिये ही हों और इक्षु की धार इस धर्म की अखण्ड धुरा हो। धन्य यह दान, जो अनुमोदना करने वालों को भी पुण्य देता है। आहार पश्चात् दोनों भ्राता प्रभु के पीछे-पीछे जाते हुए अपने को कृतकृत्य समझते हुए, गद्गद हो रहे, कभी चरणों को देखते तो कभी देह यष्टि को, मानो आज उन्हें सब कुछ मिल गया। चक्रवर्ती, इन्द्र को भी जिन्होंने लज्जित कर दिया ऐसे दोनों भ्राता बहुत दूर तक प्रभु को भेजकर रुक-रुककर-पुनः-पुनः प्रणाम कर वापस लौटे। लौटते हुए दोनों भाइयों को सम्पूर्ण नगरी बधाई दे रही है कह रही है कि आज धर्मरथ का प्रवर्तन हुआ। आज यह मुक्तिमार्ग गतिमान हुआ। खड़े हुए पात्र और दाता ने आज बता दिया है कि धर्म दो प्रकार का है। धर्म के दोनों पहियों का यथास्थान महत्त्व है। इनके बीच की इक्षुधारा श्रावक और श्रमण के मध्य यथोचित दूरी बनाये हुए हैं। इस दानधारा के प्रवाह से ही विशुद्धि के स्रोत श्रावक में फूट पड़ते हैं । यह इक्षुधारा दोनों चक्रों को कसे हुए हैं। दोनों धर्म के बीच की दूरी यदि बाधित हुई तो धर्मरथ अग्रसर नहीं होगा। अकिंचन की मनः तुष्टि श्रावक को भूरि-भूरि आशीष देती जा रही है। न दाता को अभिमान है, न पात्र को दीनता, मौनपूर्वक सब कुछ चल रहा है और भावों की प्रसन्नता प्रकट हो गयी पञ्च आश्चर्य के रूप में। आज इस प्रक्रम को देखने वाले धन्य हो गए। समस्त आर्यावर्त में हवा की तरह राजा श्रेयांस के घर महाराज ऋषभ की आहारचर्या चर्चित हो गयी। भरत, शीघ्रातिशीघ्र हाथ जोड़े राजा श्रेयांस के घर आये और राजा श्रेयांस को बहुत-बहुत मांगलिक वन्दनीय वचनों से अलंकृत किया। महाराज ऋषभ यदि प्रथम तीर्थ-प्रणेता' हैं, तो आप भी प्रथम ‘दान-तीर्थ' प्रणेता हैं।
     
    आपका यह कुरुवंश धन्य है। आश्चर्य से राजा भरत ने अगम्य को जानने का समाचार पूछा, श्रेयांस ने सब कुछ यथावत् कहा। देवों ने राजा श्रेयांस की पूजा की और तब से वह तृतीया तिथि ज्येष्ठ मास की 'अक्षय तृतीया पर्व' के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी, जो आज भी प्रचलित है। स्वयं भरत ने प्रथम ‘दान तीर्थ' की वन्दना की। एक साल का उपवास पूर्ण करने वाले परमेश्वर को दान देने वाले हे कुरुराज! आज आपका यश दिग्-दिगन्त तक सदा के लिए अमिट हो गया। आपको छोड़कर इस सम्मान का भागीदार कोई नहीं बन सका। परमात्मा को अपने गृह में ठहराने वाले हे पुण्यतीर्थ! आप ही कुरु कुल के सूर्य हैं।
     
    व्रत और दान से चलने वाला यह दया धर्म आपने गतिशील कर दिया। सकल जन, इन्द्र, खेचरों और देवेन्द्रों को भी संतोष देने वाले इस कृत्य का बखान असंभव है। यह कह चक्रेश्वर अयोध्या की ओर हर्षाश्रु से दिशा बनाते चल पड़े।
  24. Vidyasagar.Guru
    संत शिरोमणी परम् पूज्य आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ की चातुर्मास मंगल कलश स्थापना

    पावन वर्षायोग कलश स्थापना सूचना
    परम् पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के 52 वें दीक्षा दिवस के अवसर पर पावन वर्षायोग 2019 सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जिला देवास म प्र कलश स्थापित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 
     
    कलश स्थापना करने वाले महानुभाव 
    21 कलश की राशि के 52 कलश एवं 11 कलश की राशि के 52 कलश की स्थापना होगी।  21 कलशों की राशि एवं 11 कलशों की राशि में तीन-तीन कलश के लकी ड्रा निकाले जायेंगे जिसका भी नाम लकी ड्रा में आएगा उन तीन तीन महानुभाव को मुख्य कलश की राशि के समकक्ष वाले कलश दिए जाएंगे मुख्य कलश बोली के माध्यम से चयन किये जायेंगे   
    कलश का सौभाग्य प्राप्त करने हेतु आप शीघ्र नीचे दिए गये नम्बर पर सम्पर्क कर सकते है-
     
    संपर्क - 
    ब्र श्री सुनील भैया - 7999493692
     
    कार्य अध्यक्ष (सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर)
    श्री संजय जैन मैक्स - 9425053521
     
    दिनाँक:- 14-7-2019 रविवार
    स्थान:- श्री सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी
    समय:- दोपहर 1:00 बजे 
    नजदीकी रेल्वे स्टेशन:- हरदा 25 किमी● की दुरी पर स्थित है |
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