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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

13. महा निष्क्रमण : एकाकी यात्रा


Vidyasagar.Guru

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तभी वहाँ ऊर्ध्वलोक की उच्चतम शाखा पर बैठा एक सम्यक् द्रष्टा स्वयं भोगों में लिप्त होने पर भी एक दृष्टि में ही विश्व की व्यवस्था को भी देख रहा है। कहाँ पर कौन-सा युग चल रहा है और कहाँ अब क्या आयेगा? यह विभाजन भी उसकी प्रज्ञा में है। उसे ज्ञात है कि इस भरतक्षेत्र में अब कर्मभूमि का आरब्ध हुआ है और एक ब्रह्मांश इस भूवलय पर अवतरित हो चुका है। जन्म और जन्म से पहले और जन्म के बाद के सारे कर्त्तव्य मैंने किए। आज वह लक्ष-लक्ष जीवों का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध है। राज्याभिषेक हुआ है और राजा के योग्य सभी कर्त्तव्यों का निर्वाह भी। प्रजा को, पुत्रों को, पुत्रियों को उन्होंने पढ़ाया, ज्ञान, विज्ञान, कला कौशल में निपुणता भी दी। सराग अवस्था के योग्य कार्य को कृषि आदि कर्म को सिखाकर अपनी विराट-प्रज्ञा का परिचय दिया। कल्याण के भावों से ओतप्रोत प्रजाजनों के दुःख का निवारण उनकी आजीविका से होता है, इसी विचार से उन्होंने जीवों को दुःख से उबारा, पर इस कायिक दुःख से मुक्त होना कोई सच्चा सुख नहीं। सुख तो समीचीन पथ के ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण से प्राप्त होगा। आज यह मुग्ध जनता इस आर्यावर्त में धर्म क्या है? सम्यक् सुख कहाँ है? इन विचारों से भी उन्मुक्त है। जब तक कोई चेता स्वयं प्रबुद्ध हो आचरण नहीं करेगा तब तक इन स्वाभाविक भोले प्राणियों की बुद्धि स्वतः सोचने से दूर रहेगी। कर्मभूमि का आचरण करना तो ये सीख गए पर धर्म का आचरण कब उद्भूत होगा? इन नाभेय महाराज को क्या यही अपना पूर्ण कर्त्तव्य लग रहा है? क्या महाराज ऋषभ यह सोचते हैं कि मैं इस तरह प्रजा का पालनकर उन्हें दुःख मुक्ति का पाठ पढ़ा रहा हूँ। नहीं, यह तो औपचारिक प्रबोधन है। धर्म का सही बोध तो उन्हें स्वयं चरितार्थ करके सिखाना होगा। बीस लाख पूर्व का कुमार काल बीत गया है और त्रेसठ लाख पूर्व का दीर्घकाल इस पृथ्वी का उपभोग करते बीत चला, पर ये प्रभु स्वयं निश्चिन्त हैं।

 

देख रहा हूँ कि अभी भी ये आनन्दित हैं मदमस्त हाथियों को दुलारने में, चंचल घोड़ों की तीव्रगति में, अपने पार्श्व में बैठी वनिता विलासनाओं में, माण्डलीक राजाओं से अर्चित पद कमलों की पराग में, सम्बोधन की सहज धारा में, स्वराजत्व की एक अपूर्व अस्मिता उनके चेहरे पर खिल रही है। अनवरत सुखों की ऐन्द्रिय लिप्सा में आमूलचूल अवगाहित। अहो! लख रहा हूँ भोगों का सुख कितना उत्कट और कितना अभीप्सित होता है। विषयों के तदाकार परिणमन में विषयी सुधबुध भूल जाता है। अत्यधिक मनोवांछित सुख की सहज प्राप्ति भी सम्यक्-सुख की अवभासना नहीं होने देती। उस अपूर्व सुख की विचार परिणति की लहर भी आज निस्तब्ध है, त्रिज्ञान के चिदार्णव में। प्राक्तन संस्कार की अनिल यहाँ तक पहुँचने से बाधित है। मोह की यह प्रबलता अवर्णनीय है।

 

हाँ, यह ठीक होगा, विश्व की इन सत्ताओं में क्षणभंगुरता का ज्ञान कराने का यह अच्छा उपाय है। नीलाञ्जना की आयु कुछ ही क्षण शेष है। स्मरण मात्र से प्रभु के चरणों में आगत उस अंगना को राजमहल ले जाया गया। राज दरबार में प्रभु उपस्थित हैं और नृत्य प्रक्रम का प्रारम्भ हुआ। नर्तकी विलीन हो गयी और नव नर्तकी तत्क्षण उसी कला में लीन हो गयी। प्रभु ऋषभ नृत्य देख रहे हैं। पर आज नृत्य को रोकने का कोई इशारा नहीं, बहुत देर हो गयी। नृत्य के अनुभावों के अनुरूप मानसिक-कायिक-वाचनिक व्यापार भी नहीं। कुछ ही देर बाद नर्तन रुक गया, पर प्रभु उसी मुद्रा में मानो कहीं दूर चले गए और पार्थिव व्यामोह से पार वो देख रहे हैं, इस आत्मा के इस संसृति में कर्मकृत अपूर्व नृत्य । बहुत देर हो गयी स्वामिन् ! आपकी निश्चिन्तता निश्चेत सी लगने लगी है और सहसा नयन बन्द हो गए। इन्द्र की तरफ देख प्रभो मुस्कुराये और मन ही मन कहा हे वज्रपाणि! मैं अब पात्रपाणि बनूँगा। नीलाञ्जना के नव रसों के विलोकन से विलक्षण अब नवचेतन रस का पान होगा। आज मेरी निद्रा भंग हुई। विगत की सभी क्रीड़ा देख चुका हूँ।

ये माता-पिता-भाई-बन्धु-पुत्र-पुत्रियाँ सब अपने-अपने परिणमन में परिणत हैं । यह मेरा व्यामोह जो मैं इन्हें अपना मान आनन्दित होता रहा। हमारे भोग्य, उपभोग्य की सामग्री हो अथवा सागर तक फैली वसुन्धरा हो, मैंने ही तो  इसे अपना मान रखा है। क्या यह चपला लक्ष्मी किसी की इस संसृति में सदा सखी रही है? भोगभूमियों के वे सुख भोगने वाले भोक्ता सब चले गए, यह भोग्य पदार्थ किसके हुए ? अशाश्वत और अविश्वसनीय इस जगत् को मैंने क्या भोगा? कौन-सा आनन्द है जो चिरकाल तक स्थायी रहा। ये महल, उद्यान, वस्त्र, दिव्यभोज, अलंकार सामग्री से कब मुझे संतुष्टि हुई? प्रत्युत प्रतिपल और-और चाह बढ़ती गयी। इन्द्र की सब सम्पदा है तो परायत्त हुई इसलिए यह सुख का कारण नहीं और यदि मेरे सुकृत के विपाक का यह परिणाम है तो भी वह सदा रहने वाली नहीं। पुष्प की गन्ध उड़ रही है यह मोही को नहीं दिखता किन्तु वह पुष्प ही दिखता है और जब निर्गन्ध हो जाता है तो वही उसको दुःख पहुँचाता है, दु:ख की प्रचुरता में मैं डूबा और इतना दीर्घकाल सुखाभास का आभास नहीं। संस्कार या मोहिनी का इस मेदिनी पर अचूक प्रभाव है।

 

जब ये मात-पितु मृत्यु को प्राप्त होंगे तो मुझे दुःख अवश्य होगा और ये मृत्यु को प्राप्त न हों, यह तो असम्भव है। फिर यह संयोग जो कि वियोग की योनि है, सुख की योनि कैसे हो सकती है? स्वतत्त्व की शरण छोड़कर पर भ्रमणा में शरण की अनुभूति मिथ्या है। वह नीलाञ्जना मेरे सामने-सामने चली गयी। कितना सुन्दर रूप था, कितनी रम्य मुस्कान थी उसकी, सब कुछ विलीन हो गया एक क्षण में । मैं यहाँ उसको एक क्षण भी पकड़ न सका। ऐसी कितनी और-और ललनाओं ने मेरा चित्त अनुरंजित किया पर मैं अपने में देखता हूँ तो कहीं कुछ रखा हुआ नहीं दिखता, जिसे देख मैं स्वयं को सुखी महसूस करूँ सिवाय उन विलासों की स्मृति के और यह स्मृति भी चिरस्थायी नहीं । यदि यह स्मृति भी सुख को देती तो भी उचित था किन्तु इस स्मृति से एक अलग मूर्छा उत्पन्न होती है, एक अलक्ष्य नीरसता मानो कि मैं सब कुछ हार गया और निराश हो स्मृति मात्र के स्वप्नों में जी रहा हूँ। आयु कर्म के इस सत्य खेल से बेखबर प्राणी शरण्य के विवेक से दूर रह बहुमूल्य मनुष्यता का आकलन नहीं कर पाता।

 

देख चुका हूँ अपने दिव्यज्ञान से कि, यह जीव ही कभी पुत्र होता है तो कभी पत्नी, कभी मित्र तो कभी पिता। मोह की यह लीला अनवरत इस चतुर्गति के मंच पे जीव खेल रहा है, दूसरों को लुभाता है, दूसरे से लोभित होता है। एक-दूसरे के संयोग की अनुकूलता में हर्षित; तो उसी संयोग की प्रतिकूलता में खेद खिन्न हो बैर धारण कर लेता है और भव-भव उसी अग्नि को बुझाने में चले जाते हैं। चारों गति में यह भ्रमणा और भ्रान्ति जारी है।

 

15.pngजीव जैसे कर्म करता है वैसा ही फल स्वयं अकेला भोगता है। अकेला ही पाप करता है, तो अकेला ही नरक में जाता है, तिर्यंच बनता है। अकेला ही पुण्य करता है, तो अकेला ही भोगता है। अकेला ही चक्री बनता है, अकेला ही कामदेव, अकेला ही नारायण और अकेला ही तीर्थङ्कर । अकेला ही स्वर्गीय सुख भोगता है तो स्वयं ही मोक्ष सुख भी वरता है। जमाने को अपनाना चाहता है, साथ-साथ मरने की कसमें खाता है, पर कौन किसका साथ देता है? अपने-अपने परिणामों से सब पृथक्-पृथक् आयु बाँधते हैं और उसका उपभोग करते हैं।

 

साक्षात् पृथक्-पृथक् दिखने वाले इस परिवार में, साक्षात् विपरीत स्वभाव वाली इस देह में एकत्व का भान और तदनुरूप परिणमन में हर्षविषाद करता यह जीव जागता हुआ भी सोता रहता है। सम्यग्ज्ञानी भी इस जागृति से इतनी दूर जा सकता है तो मोह के निबिड़ अन्धकार में डूबे इन प्राणियों को कुछ नहीं दिख रहा हो, इसमें उन बेचारों का क्या अपराध? और कच्चे दुर्गन्धित गीले घड़े में बैठा यह आत्मा भी क्षण-क्षण बाहर निकल रहा है, पर उसका अवभासन नहीं, प्रत्युत काया को अपनी मान सुखदुःख को महसूस करता है। क्षण-क्षण क्षरित इस काया में अक्षय सुख की अवमानना, पुष्ट और बलिष्ठ बनाकर सुखी बनने की धारणा निश्चित ही अज्ञान की बलिहारी है। अपनी देह में अनुराग छोड़ परकीय देह को भी अपनी अतृप्त क्षुधा के आहरण में लगा लेता है। चर्म मात्र मक्खी के पंख की पतली सी परत से ढकी अत्यन्त बीभत्सता और अपवित्र सामग्री की एकत्रता को अपनी मान मदमस्त हस्ती-सा अविवेक कृत्य करता है और हर्षित होता है। कभी भी मन-वचन-काय के स्पंदन कहूँ या फंदन कहूँ जिनमें बंधा जीव का एक-एक प्रदेश इस उलझन से उबर नहीं पाया और मोह कषाय तथा क्रियाओं की विभिन्नता से पुण्य-पाप के चक्र में झूलता रहता है। इन कर्मास्रव  को जानकर, मैं शीघ्र इनसे बचने का प्रयास करूँ तभी यह मनोभावन कार्यकारी है अन्यथा चिंतन मनन मात्र से क्या? जब तक समीचीन ज्ञान नहीं, जब तक अणुव्रत और महाव्रतों का पालन नहीं तब तक संवर कहाँ? इस संसार के कारणों से मुक्ति कहाँ ? गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय जिसमें हों, ऐसे चारित्र को धारण किए बिना इस संसृति में दुःखों का अभाव नहीं और यह तब तक सम्भव नहीं जब तक विषयों से विरक्ति न हो। जब तक इस परिकर के बन्धन से ही मुक्त नहीं तो अन्तस् के सुदृढ़ बन्धन से मुक्ति का भाव क्या करेगा?

 

इस दुर्धर चारित्र के अनुष्ठान बिना कर्ममल्ल हार नहीं सकता। अनन्तकाल से इस जीव पर विजेता बना, यह कर्म-शत्रु मन और इन्द्रियजय के बिना जर्जरित हो धूलिमात्र कैसे बनेगा? समय पाकर तो अपना बल दिखा यह चला जाता है, पर अपनी सेना को छोड़ जाता है और उसी से जूझता यह जीव सर्वहारा-सा खड़ा रहता है। अब मन की हर बात मानने से दूर रहकर इस शरीर को भी निस्पन्द बना स्वरूप में लीन होकर इस कर्म को जीतूंगा।

इधर यह रज्जू पर्यन्त अपनी कटि को फैलाये और उस पर दोनों हाथ रखकर जिसने ब्रह्मलोक को छू लिया। चौदह राजू की दीर्घता को लिए यह लोक राक्षस सा अपने में अनन्तानन्त जीव जन्तुओं को डुबोये सदा से अपनी विजय पर हँस रहा है। उस विजय की अट्टहास से इतना झाग, इतनी वायु और इतना जल उसके मुँह से गिरा कि वह योजनों मोटे वातवलयों का रूप धारण कर गया।

 

जिसने अपने दोनों पैरों को फैलाकर स्वयंभूरमण समुद्र को छू लिया। जिसके दोनों पैरों के बीच जीव इतने संतप्त हैं और दुःखी है कि उसका कोई उपमान नहीं। एक पैर से दूसरे पैर तक फैले जाल सप्त पृथ्वियों का रूप ले चुके हैं। जिसके चारों ओर कज्जल लेप की निगोद आत्मायें उसकी गोद में से परित्राण चाहती हैं, पर विफल हैं। ऐसे इस राक्षस से अनिर्लिप्त और उसके मस्तक पर विराजमान वे आत्मायें धन्य हैं, जहाँ इस राक्षस की दुर्गन्ध का ग्रहण नहीं।

 

उस भीमकाय राक्षस की पदचाप में दबा कदाचित् कोई आत्मा बाहर निकलता है तो कुछ श्वास बढ़ा पाता है। उसके पदों के दबाव में इतनी घुटन कि वहाँ वह एक श्वास में अठारह बार मर जाता और अठारह बार जीवन पाता था। अनन्त जीवों का पिण्ड रूप आहार और क्रिया से छुटकारा मिलता है, तो पृथ्वी आदि काया को अपनाता है। फिर वनस्पति में कुछ जीवन जीकर, त्रसत्व को पाता है। यहाँ कुछ हलन-चलन आती है, पहले स्पर्श मात्र से जीवत्व का भान हो कर्मफल भोगता रहता है। शनैः शनैः यह जीव रसत्व की अनुभूति, सूंघने की शक्ति और इस जगत् को देखने की योग्यता भी पाता है और शब्द या ध्वनि की झंकार सुनकर चौंक उठता है, पर मन बिना हिताहित विवेक से विकल ही रहता है । कदाचित् मन मिला तो अत्यन्त रुद्र कार्य करने वाला तिर्यंच हुआ और तीव्र अशुभ लेश्याओं से नरकवास को आवास बनाता है। तीव्र दुःखों से पीड़ित एक-एक अणु जीव का जैसे तैसे आयु पूर्ण कर छुटकारा पाता है तो कभी दुर्लभता से मनुष्य जन्म पाता है। पर मिथ्यात्व और तीव्र कषाय से मुक्ति कहाँ? कदाचित् उत्तम गोत्र पाता है, कुल पाता है पर धन-वैभव से हीन रहता है। कदाचित् वो भी मिल जाये तो पूर्ण बलिष्ठ इन्द्रियाँ नहीं पाता। कभी इन्द्रिय पूर्ण भी हों तो अनेक रोगों से युक्त शरीर मिलता है। कदाचित् थोड़ा जीवन निरोग रहकर हर्ष से बिताता है तो अचानक रोगों की आक्रामकता से अत्यन्त दु:खी होता है। दाद-खाज, रोग रहित शरीर है पर आयु की अल्पता का दुःख, आयु पूर्ण मिले तो सदाचार के साथ जीवन बिताना अतीव दुष्कर है। कदाचित् व्यसन से रहित भी हो जाय पर परम गुरु का योग नहीं । दैवयोग से वह भी प्राप्त हो तो उनकी संगति का क्षण कहाँ? उनकी वाणी सुनने का लाभ महाभागी को ही है। उससे भी कठिन है उनकी प्रसन्न दृष्टि, कर कमलों की करुण छाया, उससे भी दुर्लभतर है, उनका आज्ञा देना, बहुत कठिन है, फिर उस आज्ञा का प्रसन्नता से पालन होना। समझो जगत् में सबसे बड़ा खजाना मिल गया, यदि सद्गुरु की देशना में डूबकर साम्य ग्रहण हो। सम्यग्बोधि का लाभ हो। उनके इशारे से चारित्र का ग्रहण हो संसार की विपरीत परिस्थितियों में भी उस चारित्र का आजन्म उत्साह से अनुपालन अति दुर्लभ है। कषायों से रहित सदा शुक्ललेश्या से समत्व की आराधना नितान्त कठिन है और निकट भवितव्यता हो, तब यह सब अनाकांक्ष वृत्ति से हो। 

इसीलिए यह मनुज जन्म देवों महेन्द्रों के लिए भी आकांक्ष्य है। फिर भी दुर्लभतम इन अनेक संयोगों को पाकर इन विषयभोगों की लिप्सा में जीवन बिता देना मानो राख के लिए रत्नों की भस्म बनाना है या धागे के लिए हार को तोड़ना है। इस मनुजत्व की अन्तिम दुरन्त अलब्धता है महानिर्वाण।।

__ वह निर्वाण कुछ और नहीं स्वकीय धर्म है, जो वस्तु का निरापेक्ष स्वभाव है। आत्मा की स्वतन्त्र उपलब्धि है। पर वह धर्म बहुत बाद में प्राप्त होता है। पहले क्षमा आदि दशधर्म को आत्मसात् करना होता है और वह तभी सम्भव है, जब समीचीन दृष्टि, ज्ञान और चारित्र की लीनता हो, पर यह तभी सुलभ है, जब दयायुत अहिंसा का भाव स्व-पर दोनों के लिए हो। इन अनेक परम्पराओं से गुजरना होगा, सभी से अपने आत्मा को श्रृंगारित करना होगा। सभी धर्म हैं, एक में विलीन होकर ही दूसरे की उपलब्धि होती है। अब यह अनुचिन्तन मेरा अनुवर्तन करे।

 

इसलिए मैं...................और इधर सुदूर तक यह मनोभाव व्याप्त होता हुआ लोकान्त तक पहुँच गया। उन अंधियारी गलियों में भी जहाँ अन्य जीव तो क्या देव भी उसे पार करने में असमर्थ होते हैं।

 

अरुणवरद्वीप के चारों ओर योजनों तक प्रसरित उन तमस्काय मार्गों से इस आर्यद्वीप में हंसों की धवलता से रंगित वे अनेक देवगण आ गए, जिन्हें देवों में पूजनीयता प्राप्त है, जो इस भव के बाद मुक्ति वरण करेंगे। जो देवर्षि कहे जाते हैं। निरन्तर बारह भावनाओं में रत रहते हैं और जो उन भावनाओं को भाकर वन गमन को तैयार होते हैं, ऐसे महानिष्क्रमणशीलों की प्रशंसा कर गद्गद होते हैं। श्रुत पारगामी हैं, विषयों से विरक्त हैं। ललनाओं के ललित अवलोकन भी जिनके दृष्टि पथ में क्या अन्तर्मन में भी नहीं आते। लौकान्तिक देवों की यह विश्रुति सभी देवगण जानते हैं। वैराग्य की इस अनुशंसा में किसी ने कहा भगवन्! आप इस वसुधा को अब धर्मामृत से सिंचित करें। कर्म करने का उपदेश तो आप दे चुके हैं तो किसी ने कहा-आदिम पुरुष! आपका यह विचार अनन्त जीवों के उद्धार का प्रबल सेतु बनेगा, जिस पर आरूढ़ हो भव्य जीव सम्यक् सुख प्राप्त कर सकेंगे। हे प्रजापति! इन दुरन्त दारुण भोगों से निस्तरण पाना बहुत कष्टप्रद है। मोह और काम की महावासनाओं से यह जगत् जल रहा है, इसे आत्मिक बोध से शीतल करो। आप सम्यक् ज्ञाता हैं, आपका बल अजेय है। हे महाबल! आप मनोहर अंग के धारी हैं। ओ! ललिताङ्ग! वज्रसम दुर्जेयजंघा वाले आप वज्रजंघ हैं। आप मही पर महापूज्य हैं। हे आर्य! आप दिव्य श्री को धारण करने वाले हैं। हे श्रीधर! आपकी विधि ही उत्तम है। हे सुविधि! आप अब अच्युत इन्द्र अर्थात् अविनाशी नाथ हैं । हे अच्युतेन्द्र! आप वज्रसम अभेद नाभि युत हैं । हे वज्रनाभि! आपसे ही इस विश्व को सर्व प्रयोजन की सिद्धि होगी। हे सर्वार्थसिद्ध! आपकी यह पार्थिव देह चरम है, अब तक आपने इस धरा पर अवतरित हो इस वसुधा को पूत बना दिया। हे दशावतार चरम तीर्थ! आपकी यह दशा इस सृष्टि के निर्माण के लिए अलौकिक अवतरण हैं। आपके रूप अनेक हैं, आप संसार खार अपार-पार-तार-अवतार-द शा व ता र ............हैं।

 

इन्द्र ने कम्पित आसन की सम्भावना से महानिष्क्रमण की अतुलबेला को जाना। सर्व देव चले स्वकीय विमान यानों पे अविलम्ब आरूढ़ हो। सारा नगर आकीर्ण हो गया देव संकुलता से। तभी महाराज ऋषभ ने राजभार को पुत्र भरत को सौंपा और बाहुबली को युवराज और विभक्त महीखण्ड पोदनपुर का अधिपति । कच्छ, महाकच्छ राजाओं को भी राज्य विभक्त कर दिया और अन्य, प्रधान मांडलिकों को भी। इधर देव-समाज तप कल्याणक मनाने आया तो इधर महामहिम राजगण भरत का राज्यपट्ट देखने आये। पिता ने विभूति का सर्वदत्ति से त्याग किया और पुत्र ने उसे स्वीकारा । लक्ष्मी ने देखा कि अब तप लक्ष्मी महाराज ऋषभ को प्रिय हो गयी इसलिए यहाँ अब अपना कोई कार्य नहीं इसलिए सौत से ईर्ष्या कर स्वाभाविक स्त्री स्वभाव का परिचय दे, भरतराज की चेरी बन गयी। प्रजागण परेशान हैं, सोच-सोच कर कि यह हो क्या रहा है? लगता है अपने स्वामी कोई नया कार्य करने जा रहे हैं, इसीलिए ये देवता गण फिर से अयोध्या नगरी में आये हैं । पर सुन रहा हूँ अब ये राजभवन में नहीं रहेंगे वन में जायेंगे। पता नहीं कुछ दिन वहाँ पर रहकर फिर आयेंगे या नहीं। अपने पुत्र को इस भरतखण्ड का राजा बनाकर भरत को भरत का भारत बना दिया यह जनश्रुति दिग्दिगन्त तक फैल गयी है। महाराज ऋषभ के सभी कार्य अचिन्त्य होते हैं । शक्र भी इनके विचारों को जानने में अक्षम हैं। हम लोग तो अपने स्वामी को छोड़ेंगे नहीं, उन्हीं का अनुसरण करेंगे, वो वन में जायेंगे तो हम भी चलेंगे। नहीं, नहीं वो गए तो फिर लौटकर नहीं आयेंगे और इस राज परिवार के कार्य भी नहीं मिलेंगे, इसीलिए पुत्र को राज्य देकर जा रहे हैं। इधर भरत स्वर्ण, गो, गज आदि प्रजाओं को बाँट रहे हैं, तो उधर ऋषभदेव सभी कुछ छोड़ चलने वाले हैं। भरत राजा के लिए सिंहासन तैयार किया गया है तो इधर ऋषभ राजा के लिए यह पालकी बनी है, देव शिल्पियों के द्वारा, क्या अनोखा वातावरण है, कहीं घूम-घूम कर कोई खुशी का इजहार कर रहा है तो कहीं कोई दुःखी भी है कि अब महाराज नाभेय हमें छोड़ कर जा रहे हैं।

 

13.png अरे! देखो-देखो महाराज गृह से बाहर आये हैं । सभी को सम्बोधित कर रहे हैं, माता मरुदेवी का करुण रुदन देखो। इधर यह सौभाग्यवती मन ही मन रो-रो कर दु:ख के घूंट पी रही है साथ ही सुनन्दा भी ऐसे कँप रही है, मानो कोई वज्रपात की आशंका है। माँ पूछ रहीं है ऋषभ! मेरे लाल! क्या हुआ तुझे अचानक नृत्य देखने के बाद तुझे क्या हो गया? पुत्र! तुम मेरी कोख के एकमात्र पूत थे, तुम्हीं से यह जीवन सारभूत लगता था। तुम्हें देखकर ये सारी वनितायें मुझे ऐश्वर्यवान् कहती थीं। हे वत्स! मत जाओ रुक जाओ, बताओ कहाँ जा रहे हो? कब आओगे। इन बंधुओं को कौन संबल देगा? क्या माँ की तरफ देखोगे भी नहीं एक बार पीछे मुड़ के तो देखो मेरी छाती फटी जा रही है। ऋषभ! तुम इतने कठोर कैसे हो गए? इस तमाम भीड़ को चीरते हुए प्रांगण से बाहर निकल गए कि इन्द्र ने स्वामी को हाथ का इशारा दिया और वे पालकी पे सवार हो गए। सुदर्शन पालकी की दर्शनीयता सन्तोष नहीं देती, देखतेदेखते जी नहीं भरा कि प्रभु के बैठते ही ये राजा लोग सात पैंड तक ले गए, फिर विद्याधर लोग सात पैंड तक ले गए। पश्चात् वैमानिक और भवनत्रिक देव अपने कन्धों पर उस पालकी को आकाश में ले चले। इन्द्र ने भी स्वयं पालकी को ढो कर अपना देवत्व सफल किया। हजारों राजागण, क्षत्रियजन, प्रजाजन, विद्याधर साथ चल रहे हैं। देवांगनाओं के विलसित नृत्य, तपकल्याणक के मंगल पाठ, बन्दीजनों के द्वारा उच्चस्वर में जय-जयकार, नगाड़ों, कलहों, पाटलों के कर्ण भेदी निनादों से सारी दिशायें बहरी हो चली। ऐसा लग रहा है मानो आज सारा भूमण्डल एक दिशा में गतिमान है और दिशा प्रदाता का अनुगमन कर रहा है। महारानियों ने अपनी पीड़ा को अमंगल के भय से पी लिया। भरत आदि सौ भ्रातगण बाहुबली के साथ मौन हो चल रहे हैं मानो उनको सब कुछ मालूम हो कि यह क्या हो रहा है ? पुत्रियाँ माँ को समझा रही हैं। रास्ता नहीं दिखता पर स्वतः रास्ता बन जाता है। महाराज नाभिराज स्वयं रानी मरु के साथ पीछे-पीछे चले जा रहे हैं, यशस्वती और सुनन्दा को छोड़ सभी अन्तःपुर की रानियाँ आगे जाने से रोकी गयीं और इसी कोलाहल को सहज देखते हुए वे शीघ्र ही वन में पहुँच गए।14.png

 

सिद्धार्थक वन में बासन्ती छायी है। वन की मधुर-मृदु-तरल वायु ने प्रभु का स्वागत किया। पहले से ही रखी एक शिला पर देव ऋषभ आसीन हुए। चन्द्रमणि से निर्मित उस शिला के उद्योत में विशुद्धि का ब्रह्मा आकर स्वमेव हर्षित हो गया। जय-जय की आवाज और पुष्पों की अनवरत वृष्टि मंगलगानों का अपूर्व सुखद वातावरण धीरे-धीरे शान्त हुआ। स्नेह बन्धन तो टूट चुके थे, फिर भी उस शिला पर बैठकर प्रभु ने सबको एक-पलक से निहारा और मौन प्रीति को चहुँ ओर बिखेर दिया। सन्तुष्ट पर, असहमत यह लोक निस्तब्ध था, देखने को इस अवतार की प्रतिक्रिया कि-तड़-तड़ टूट गया बाजूबन्द, विशाल किरीट पद रज में गिरा, वक्षःस्थल का हार गिरते-गिरते सारे उद्यान में मोतियों और मणियों से लिप गया। नीलाभ श्वेत वस्त्र अन्दर की विरक्तता से डरकर उड़ने लगा। जन-जन-परिजन और शक्रराज ने उन स्मृतियों को अपने करण्डक में संभाला।

 

सिद्धों की साक्षी में अपने आत्मा को साक्षी बना देवों की समक्षता में विश्व के प्रति पदार्थ को अभोग्य समझ छोड़ दिया। आज से मेरा आत्मा ही मेरा भोग है, मैं मात्र इसका भोक्ता और यह ही अवशेष है उपभोग्य के योग्य। आज से किसी भी चेतन-अचेतन तत्त्व का बन्धक नहीं, मैं निर्बन्ध हुआ और पर से मैं अबाधित। सर्व चराचर जगत् के प्रति मनसा वाचा कर्मणा मैं किंचित् भी बाधा का कारण न बनूँगा। सामायिक ही परम आचरण है, तब तक जब तक कि शिवांगना से लिप्त न हो जाऊँ।

 

चैत्रमास की नवमी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र के शुभ योग में यह विचारते हुए वह जातरूप इस कर्मयुग के आदि में प्रथम प्रकट होकर, बासन्ती के रोमरोम में एकाकार होने को उद्यत हुआ। अरुणाचल की उदित दिशा में मुख करके विराजित हैं और दोनों करों से ललाट तक लहराते कुन्तल केशों को एक साथ पञ्चमुष्टि से उखाड़ दिया मानों संसृति की वल्लरियाँ अब कभी अंकुरित नहीं होगी। ब्रह्मरन्ध्र के तेज से स्फुरित हो, आविर्भूत हुआ अपर मार्तण्ड। वे केश समेट लिए माँ ने अपने आंचल में । इन्द्र ने अपने पिटारे में और क्षीरसमुद्र में अवगाहित कर पवित्र कर दिया उनके अस्तित्व को। महाश्रमण, महाचेता, प्रथम तीर्थकर्ता आदिम जात-रूप, नैर्ग्रन्थ्य की पराकाष्ठा, निरहंकारता की असीम सीमा बन व्याप्त हो गयी। वह महाकाय पूर्ण रूप से काय के उत्सर्ग से स्व में विलीन हो गया। आज मैं पृथ्वी पर हूँ या नहीं, मैंने भूमि का ऋण मुक्त किया और अणु-अणु की सत्ता का आदर किया ऐसा पहली बार अबोझ महसूस हुआ। आज मार्दव धर्म पूर्ण प्रकट हुआ इससे पहले यह आत्मिक काषायिक भार रहितपना अनुभूत नहीं हुआ और कायोत्सर्ग में अवगाहित होता हुआ मात्र स्वानुभूति और स्वप्रकाश परिलक्षित हो रहा है। सूर्य भी अन्तिम रश्मि को ललाट पर न्यौछावर कर अस्तंगत हुआ और समस्त परिकर स्वकीय धाम को प्रस्थान किया।

 

पर यहाँ पट प्रति पट आत्म अन्धकार के टूटते जा रहे हैं। न जाने कहाँ से इस देह बल को उत्सर्जित करने पर अद्भुत आत्मबल प्रकट होने लगा। जैसे रात्रि में औषधियाँ वन में स्वयं प्रदीप्त होने लगती हैं, वैसे ही अवधिज्ञान की सर्वोत्कृष्ट और मनःपर्ययज्ञान की विपुलमतिता सहज प्रकट हो गयी। वह शक्ति रश्मियाँ चहुँ ओर बिखर गयी कि किसी को शिरः, नासिका, अक्षि, कर्ण रोग हों और वह उस काया के इर्द गिर्द भी योजन दूर हो तो उसे सर्व शान्ति की प्राप्ति हो जाये। जिन्होंने परकीय मनःप्रणाली को जानने की किंचित् चेष्टा नहीं की इसलिए मनःपर्ययज्ञान की उत्कृष्ट लब्धि को पाया। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्बन्धी सकल शक्तियाँ परिस्फुटित हुईं।

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फलस्वरूप कोई भी इस आभा से अपने हृदय, श्वासादि रोग को विनष्ट कर विवेक, पाण्डित्व, प्रतिवादित्व आदि उपलब्ध कर सकता है। अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता आप आपो-आप हुए। विक्रियाद्धिर् , चारणद्धिर् प्रज्ञाश्रमणत्व, आकाशगामित्व ऋद्धियाँ बलवती हुई। पर इन सबका कोई प्रयोग नहीं, यही तो रहस्य है कि जब मन, वचन, काय से कुछ नहीं ग्रहण करने का संकल्प लिया है तो सब कुछ स्वतः चरणों में आ गिरता है। सारी रात देवताओं ने उत्सव मनाए और शक्तियों ने प्रभु को अपना निलय। आशीविर्ष, दृष्टिविष ऋद्धि उपलब्ध हुई पर रोष-तोष से मुक्त जिनेश को उनसे क्या प्रयोजन? फलतः उन चरणों में द्वेषी-विद्वेष मुक्त होगा और कोई भी स्थावरजंगमकृत विष प्रयोग अमृत बन संतृप्त होगा। अत्युग्र तप करने पर भी संक्लेश का अभाव, सदा भासुर दीप्त देह की दीप्तऋद्धि परकीय वचनों को और चक्रवर्ती के कटक को भी स्तंभित करने की शक्ति सहज प्राप्य है । रस, रुधिर आदि धातुएँ तप्त हो शक्ति बन गयीं। तप्ततप, महातप की शक्तियों से अग्नि और जल का स्तंभन फलित है। घोर तप, घोर गुण, घोर पराक्रम, घोर-ब्रह्मचर्य की शक्तियाँ विषरोग, भय, बलिनाश, भूतप्रेत भय विनाश करने में समर्थ हुईं। सच ही तो है जो धर्म का पालन करता है, धर्म उसका पालन-रक्षण करता है। यद्यपि प्रभु की देह में रोग, भय आदि विकृतियाँ सम्भव नहीं, पर विश्व कल्याण की भावनाओं का फल कुछ विचित्र ही है। सर्वौषधि, श्वेलौषधि, जल्लौषधि, आमौषधि, विष्टौषधि, ऋद्धियाँ ऐसी सुशोभित हुई मानों देह कोई औषधि का कल्पवृक्ष ही हो, जिनके स्मरण से मनुष्य, देवकृत उपसर्गों का, अकाल मृत्यु का, जन्मान्तरों के विद्वेष का, अपस्मार प्रलापन का और गजमारि रोगों और बाधाओं का विनाश क्रमशः होता है। स्वकल्याण से ही पर कल्याण संभव है, यह आप मौन रहकर कह रहे थे। मनोबल, वचनबल, कायबल ऋद्धियाँ, गोमारी, अजमारी, महिषमारी दूर करने को समर्थ हुईं। पूर्व भव में किए गए रस परित्याग तप की अनाकांक्षा के फलस्वरूप, क्षीरस्रावी, सर्पिषस्रावी, मधुरस्रावी, अमृतस्रावी ऋद्धियाँ प्रकट हो, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग, सभी प्रकार के ज्वर, सकल उपसर्ग और सर्वव्याधियों के विनाशन से परोपकार की उत्कृष्टता से द्रवित हो गयीं। क्षेत्रज अक्षीणऋद्धि महानस और आलय के भेद से सदाकाल जीवों को अभय देने में तत्पर हुई। नितप्रतिपल वर्द्धमान चारित्र, भय को चीरता हुआ आपकी निषद्या को सिद्धायतन बनाकर आगामी जीवों को धन-धान्य समृद्धि से परिपूर्ण करेगा तभी तो आगत नमि, विनमि ने प्रभु के चरणों में मनोवांछित फल प्राप्त कर लिया और भगवति महति महावीरत्व की जय-जय निनादों से इन्द्र स्तुति कर प्रणिपात हो गया। महाश्रमण समाधि सुख में लीन....लीन विलीन हो गया।

 

एक मात्र केवलज्ञान को छोड़कर सब कुछ लोट-पोट हो रहा है, स्वयं में स्वयमेव ही। यह विश्व आज क्यों इस ज्ञान में लुढ़क गया? मैं तो अनाकांक्षी हूँ इन सबका। भेद भी नहीं किया मैंने कि क्या हेय है? क्या उपादेय है? मात्र जो है सो है। अस्ति को अस्ति रूप में, नास्ति को नास्ति रूप में देख रहा हूँ। अस्ति कभी नास्ति नहीं हो सकता, नास्ति कभी अस्ति नहीं। घृणा और राग से परे प्रत्येक को लखना ही वीतरागता है, सो किसी द्रव्य को ज्ञेय बनाना भी रुचता नहीं, मात्र आत्मा ही ज्ञाता है, वही ज्ञायक है, वही ज्ञेय है, वही ध्येय उसी की परिणतियाँ ध्यान है, वही ध्याता है, सब कुछ स्व में स्व के लिए, फिर भी प्रतिबिम्बत हो रहे हैं। मुकुरन्दवत् निर्मलचिति में सकल चराचर। स्वभाव में रहना ही समभाव है।

 

पर इधर ये कोई चार हजार संख्यक पुरुष भी रूपायित हो गए मेरे बाह्य रूप में। भक्ति से आपूरित हैं, पर मुक्ति से अनजाने । स्वयं नाथ हैं, स्वयं अपने स्वामी हैं पर, मुझे स्वामी मान अज्ञान से खड़े हैं और व्याकुलित हैं। उच्च वंशोत्पन्न कुलीन राजाओं को भी अन्तर्जगत् की विराटता का भान नहीं। ये कच्छ-महाकच्छ भी दीक्षित हुए हैं। दीक्षित होकर फिर किसके लिए प्रतीक्षित हैं ये ? जो इच्छाओं को तिलाञ्जलि दे निष्काम हुआ वह प्रकाम पूर्ण हुआ। मेरे साथ ये भी क्षुत् तृषित हैं, पर अधीर होते जा रहे हैं। मैं तो संकल्पित हूँ वर्षार्ध से पूर्व न हिलने को। मन इनको प्रबोधन देने के लिए करुण रस में आप्लावित हो रहा है, पर यह करुणा अभी असामयिक है। अब सम्बोधन के स्वर मुखरित नहीं होंगे। स्वयं पूर्ण हुए बिना किसको ज्ञान और क्यों ? पर कल्याण स्वयं पूर्ण होने से सहज है। करुणा का अर्थ स्वयं दुःखी होना नहीं, न ही दूसरे के दुःखों को संभालना। करुणा तो आत्म स्वभाव है। निष्काम स्वभाव में लीन होना यथार्थ कारुण्य है, अन्य सब तो महामोह की भ्रान्ति है। करुणा, दया, अनुकम्पा जैसे गंभीर शब्दों के बहाने अपने राग का पोषण मिथ्या है।

 

देख रहा हूँ दिन-महीने ऋतु पर ऋतु गुजर गयीं और ये उन्मग्न होकर मुझे तरह-तरह की उलाहना दे रहे हैं । स्वभाव से अतिमृदु, ऋजु हैं, असहिष्णु हैं। स्नेह, भय और मोह से दीक्षित हुए हैं, इसीलिए भाव शून्य हैं।

 

किंचित् विकल्प के साथ देव पुनः अन्तश्चेतना में गहरे उतरते चले गए और सह दीक्षितों में से कितने ही धैर्य छोड़कर प्रभु की धीरता, निसंगता की चर्चा करने लगे। कितने ही स्थान छोड़ पुनः गृह जाने लगे, कितने ही स्वामी भक्ति से उनके निकट आ रहने लगे, कितने ही राजा भरत के डर से नहीं गए तो कितने ही राजर्षि ऋषभ के भय से नहीं गए। प्रार्थना और स्तुति करते-करते जब वे थक गए और प्रभु योग से चलायमान नहीं हुए तो वे लोग हाथों से फल और तालाब पर पानी पीने लगे। उन्हें पता नहीं कि यह निर्ग्रन्थ रूप कितना  अनमोल और पवित्र है। देव भी जिसकी रक्षा करते हैं, ऐसे इस रूप की रक्षा करना ही आत्मधर्म है। अनाचरण की वृत्ति देख उस उद्यान में निवासित वन देवताओं ने ध्वनित किया-अरे अनार्यो! यह दिगम्बर रूप जब तीर्थङ्करों, चक्रवर्ती, बलदेवों जैसी पुण्य आत्माओं द्वारा भी धारण करने योग्य है, तो तुम लोग इस भेष में कातर कार्य मत करो। इस रूप में अनादत्त मृत्तिका व जल का ग्रहण भी महापाप है। यदि शूरता नहीं तो पुरातन भेष को अपनाओ पर, इस असि मार्ग पर कष्ट से भय नहीं करो। तभी कितने ही लोग वल्कल की लंगोट पहन लिए, कितने ही भस्म लपेट जटाधारी हो गए, कितने ही एकदण्डी और त्रिदण्डी नाम से विख्यात हो गए। पाषण्डों में प्रमुख परिव्राजक भगवान् का नाती मरीच कुमार बना । योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र की व्याख्या से भोले जनों को मोहित कर उनका गुरु बन गया। अनेक-अनेक मनचाहे भ्रामक उपदेशों से सबने अपना-अपना सम्प्रदाय बनाया और उदर पोषण में संलग्न हुए।

 

भगवान् ऋषभदेव इस अलौकिक मार्ग के वेत्ता थे। पूर्व संस्कारों से और सम्यग्ज्ञान से पुनीत आत्मा को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाते हुए लगभग छह मास होने को हैं। विशुद्ध शिला पर कायोत्सर्ग से खड़े वह स्वर्ग और अपवर्ग की सीढ़ी से आभासित हो रहे हैं। न खेद, न चिन्ता, न आर्त, न वीर्य की पिघलन। पर शरीर अपने धर्म को दिखा रहा है। जठराग्नि प्रज्वलित है और स्वानुभूति के पीयूष से शमित भी। इस युग के आदि में भोजन-विधि को बताना मुख्य औचित्य-पूर्ण कार्य है। महाक्षुधा के शमन के लिए ही यह लोक चिन्तित रहता है और इसकी पूर्ति न होने पर महापाप में प्रवृत्त भी हो जाता है। यदि मैं इसी तरह कायोत्सर्ग में लीन रहा तो यह मार्ग एकान्त उत्सर्ग का रूप धारण कर लेगा और अपवाद के छल से अन्यथा प्रवर्तन होगा। अनेकान्त की समीचीन चर्या में तीर्थ प्रणेता का अटल और अवश्यंभावी नियम है कि तीर्थ गंगोत्री को वह अपने आचरण से चलाये। अनेक प्रकार के असंयम और उपकरणों का आश्रय लेकर स्वार्थसिद्धि करना अनुचित है। सभी तीर्थ प्रणेताओं के द्वारा विहित एषणा की समीचीन विधि जो कि विदेहक्षेत्र में भी एक समान है, कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रारम्भ करना अत्यावश्यक है। भोजन यदि विहित विधि से सम्यक् चारित्र के अनुष्ठान के लिए ग्रहण किया जाता है तो वह

परिग्रह नहीं। संयम की सिद्धि के लिए निर्दोष आहार ग्रहण करना साध्य के लिए साधन है। कायक्लेश उतना ही हो जिससे मनःक्लेश न होने पाये क्योंकि मनः संक्लेश पापानुबन्ध का हेतु है।

 

अतः निर्दोष आहार लेकर मन को विशुद्ध बनाना और तत्त्वचिन्तन कर इन्द्रिय को जीतना धर्म है। इन्द्रियजय से ही शम भाव है और शम भाव से मोक्ष। यही सोचकर उस सिद्धार्थ उद्यान में खड़े प्रभु ने आँखें खोली और अपनी प्रज्ञा आलोक को साथ लिए रवि के आलोक में गमन किया। प्रभु का गमन अयोध्या की ओर हुआ। पुरजन चिन्तित होने लगे, सभी लोग देखने आने लगे। यह क्यों वापस अयोध्या में आ रहे हैं? इनको क्या चाहिए। अरे! आओआओ देखो अपने स्वामी जिन्होंने अपने को धन दिया था। अरे! देखो वे ही महाराज ऋषभ अब नग्न हो कितने सौम्य लग रहे हैं, इनका तन तो देखो कनक-सा दैदीप्यमान है। अरे! पूछो ना इनको क्या चाहिए? महाराज कुछ ग्रहण करो। स्वामिन् रुको! रुको! हे देव! इस आलय में आओ, हे श्रमण! कुछ तो बोलो। हे पूज्य! यह सब कुछ आपका ही है, आपको क्या चाहिए, हे महापुरुष! न हास्य है न विलास, मुख हर्षविषाद से रहित, जीवरक्षा से कदमों का परिवर्तन, मौन की गंभीरता, किंचित् इशारे के अभिप्राय से शून्य वह महाश्रमण घूमकर पुनः उद्यान में आ गए और पुनः देह से पार, अपरिचित को देखने जानने में लीन हो गए।

 

नवप्रभात हुआ, नहीं मालूम ये पग कहाँ रुकेंगे, ज्ञान है भविष्य को जानने का, शक्ति है भूमि के अधिकार की, पर अब अकिंचन को किसी भी ऋद्धि का प्रयोग नहीं करना है। थोड़ी दूर जाने पर लगा कि यह रामपुर है। चारों ओर कोलाहल मच गया। महाराज ऋषभ अपने नगर में आ रहे हैं। उनका अभिप्राय किसी को ज्ञात नहीं, छह महीने से उन्होंने न कुछ खाया न कुछ पिया। रोको-इनको-रोको! लाओ मिष्ठान्न लाओ, खीर दिखाओ, लाडू दिखाओ, दूध दिखाओ, पर ये चरण चलाचल हैं, क्या चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता। कल अयोध्या में भ्रमण कर वापस आ गए थे। महाराज भरत ने भी रोका पर रुके नहीं, माँ की ममता अश्रुओं में बह रही थी पर इन चरणों को बाँध न सकी। अब ये पुनः लौटते हुए दिखते हैं उद्यान की ओर..........।

 

नहीं मालूम यह कब तक चलेगा, कब मिलेगा विधिवत् आहार, तात्कालिक विकल्प से भी सामायिक निराबाध चल रही है। अनियत कालीन सामायिक की पूर्णता तो आत्मा के यथार्थ दर्शन से होगी। देह का यह संयोग ही अशेष संयोग का मूल है। इसी से दुःख की परम्परा अनाहत चलती है। विदेही का स्पर्शन कितना सुखद है और कितना स्वतन्त्र । स्वतन्त्र, स्व ही मुख्य है, स्व ही आनन्द है, स्व ही चित् है, स्व ही वह है, वह सो मैं हूँ, मैं ही, मैं ............चहुँ ओर मेरे ही रूप, मेरे ही खेल, सबमें मैं, स्व में मैं, पर में भी मैं.............सत्ता का विस्तार .........महासत्ता का निर्विकार दर्शन........अनुभूति फैली है देह की पृथक् भावना में और मात्र जाननहारा-देखनहारा-लखनहारानिराकारा-चिद्-आकारा-सारा।

 

बीत गए कितने ही दिन, जा चुका हूँ कहाँ-कहाँ? स्मृति की आवश्यकता नहीं, प्रतिपल जो निराकुल बन गया है। पर कल्याण का भाव आया किन्तु विधि का बन्धन कितना दृढ़तर है। छह महीने के अनवरत कायोत्सर्ग से भी उसका फन्दन नहीं टूटा। कितना दुर्लभ है सम्यक् विधि से विश्व का कल्याण। पर होगा ऐसे ही। यह मार्ग अवरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि सुख की अभिलाषा में मात्र मैं ही नहीं यह लोक भी अभिलाषी है।

 

कितने ही महीने बीत गए, ये देव प्रतिदिन उद्यान से आते हैं, सर्व प्रयास करके हम लोग थक गए, स्वयं भरत और बाहुबली भी चिन्तित हैं। परमपिता के गूढ अभिप्राय को जब ये समर्थ राजपुत्र नहीं समझ सकते तो हम और आप क्या करें? धन, पैसा, धान्य, स्त्री, पुत्र, सुन्दर कुलीन कन्याएँ, सारा राज्य सब कुछ तो भेंट करना चाहा पर कुछ भी स्वीकृत की आहट नहीं, लगभग छह महीने होने को हैं..... । इन्द्र भी कहाँ सोया? देव समूह कहाँ गया? कोई बताने वाला नहीं, सब लोग भ्रमित से हैं मानो किसी कुदेव की छाया में सबका ज्ञान आच्छादित हो गया हो।

 

तभी कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगरी के राजा, कुरुवंश के शिरोमणि सोमप्रभ के छोटे भ्राता श्रेयांसकुमार को रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न दर्शन हुआ। स्वप्न फल जानकर सोचा कि ऐसा अतिथि आयेगा जो मेरु-सा उन्नत हो और समुद्र-सा गंभीर। कुछ देर बाद खबर आयी कि अति उन्नत, महावीर, धर्म के प्रवर्तक महा दिगम्बर महाराज ऋषभ के कदम आज हस्तिनागपुर की ओर पड़ रहे हैं। अनेक देश, नगर, ग्रामों में भ्रमण करते हुए आज स्वामी अपने नगर पधार रहे हैं। कुतूहल की दौड़ में सारा नगर आनन्दित हो गया। राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस, दोनों ही अन्तःपुर, सेनापति और मंत्रियों के साथ उठकर राजगृह से बाहर आये और प्रभु को प्रांगण में देख हर्षातिरेक से प्रभु के चरण कमलों को प्रणाम किया तदनन्तर प्रदक्षिणा दी। साक्षात् भगवान् की इस भक्ति में दोनों भ्राता रोमाञ्चित हो गए। सौधर्म और ऐशान इन्द्र की तरह दोनों ने प्रभु को गृह प्रवेश के लिए कहा। उच्चासन पर भक्ति पूर्वक बैठाया और जलादि समर्पित कर पाद-प्रक्षालन कर अपने पापों को प्रक्षालित किया। अतीव पूजा और भक्ति से सारा महल गुञ्जायमान हो गया। भगवान् की तपोपूत आभा में प्रवेश करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो आया और आठ भव पूर्व वज्रजंघ के साथ जो श्रीमती ने चारण युगल को आहारदान दिया था, वह पुण्य संस्कार आज फलीभूत हुआ। आहार की यथावत् विधि का स्मरणकर राजा श्रेयांस आहार देने को उद्यत हुए। एक तरफ स्वामी खड़े हैं और सामने हैं राजा श्रेयांस। राजा ने प्रभु के पाणिपात्र में शुद्धिपूर्वक इक्षु रस की अक्षयधारा को छोड़ दिया। तत्काल ही गगन से रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि होने लगी, नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि बजने लगी, मन्दमन्द शीतल सुगन्धित समीर बहने लगा और जय-जय......धन्य धन्य.......धन्य यह पात्र, धन्य यह दान-धन्य है, यह दाता-जयवन्त हो, यह धर्म जो श्रावक और श्रमण के दो कूलों के बीच निर्बाध प्रवाहित हो रहा है। धन्य है यह धर्मरथ, जो आमने-सामने खड़े राजा और महाराजा मानो धर्म के दो पहिये ही हों और इक्षु की धार इस धर्म की अखण्ड धुरा हो। धन्य यह दान, जो अनुमोदना करने वालों को भी पुण्य देता है। आहार पश्चात् दोनों भ्राता प्रभु के पीछे-पीछे जाते हुए अपने को कृतकृत्य समझते हुए, गद्गद हो रहे, कभी चरणों को देखते तो कभी देह यष्टि को, मानो आज उन्हें सब कुछ मिल गया। चक्रवर्ती, इन्द्र को भी जिन्होंने लज्जित कर दिया ऐसे दोनों भ्राता बहुत दूर तक प्रभु को भेजकर रुक-रुककर-पुनः-पुनः प्रणाम कर वापस लौटे। लौटते हुए दोनों भाइयों को सम्पूर्ण नगरी बधाई दे रही है कह रही है कि आज धर्मरथ का प्रवर्तन हुआ। आज यह मुक्तिमार्ग गतिमान हुआ। खड़े हुए पात्र और दाता ने आज बता दिया है कि धर्म दो प्रकार का है। धर्म के दोनों पहियों का यथास्थान महत्त्व है। इनके बीच की इक्षुधारा श्रावक और श्रमण के मध्य यथोचित दूरी बनाये हुए हैं। इस दानधारा के प्रवाह से ही विशुद्धि के स्रोत श्रावक में फूट पड़ते हैं । यह इक्षुधारा दोनों चक्रों को कसे हुए हैं। दोनों धर्म के बीच की दूरी यदि बाधित हुई तो धर्मरथ अग्रसर नहीं होगा। अकिंचन की मनः तुष्टि श्रावक को भूरि-भूरि आशीष देती जा रही है। न दाता को अभिमान है, न पात्र को दीनता, मौनपूर्वक सब कुछ चल रहा है और भावों की प्रसन्नता प्रकट हो गयी पञ्च आश्चर्य के रूप में। आज इस प्रक्रम को देखने वाले धन्य हो गए। समस्त आर्यावर्त में हवा की तरह राजा श्रेयांस के घर महाराज ऋषभ की आहारचर्या चर्चित हो गयी। भरत, शीघ्रातिशीघ्र हाथ जोड़े राजा श्रेयांस के घर आये और राजा श्रेयांस को बहुत-बहुत मांगलिक वन्दनीय वचनों से अलंकृत किया। महाराज ऋषभ यदि प्रथम तीर्थ-प्रणेता' हैं, तो आप भी प्रथम ‘दान-तीर्थ' प्रणेता हैं।

 

आपका यह कुरुवंश धन्य है। आश्चर्य से राजा भरत ने अगम्य को जानने का समाचार पूछा, श्रेयांस ने सब कुछ यथावत् कहा। देवों ने राजा श्रेयांस की पूजा की और तब से वह तृतीया तिथि ज्येष्ठ मास की 'अक्षय तृतीया पर्व' के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी, जो आज भी प्रचलित है। स्वयं भरत ने प्रथम ‘दान तीर्थ' की वन्दना की। एक साल का उपवास पूर्ण करने वाले परमेश्वर को दान देने वाले हे कुरुराज! आज आपका यश दिग्-दिगन्त तक सदा के लिए अमिट हो गया। आपको छोड़कर इस सम्मान का भागीदार कोई नहीं बन सका। परमात्मा को अपने गृह में ठहराने वाले हे पुण्यतीर्थ! आप ही कुरु कुल के सूर्य हैं।

 

व्रत और दान से चलने वाला यह दया धर्म आपने गतिशील कर दिया। सकल जन, इन्द्र, खेचरों और देवेन्द्रों को भी संतोष देने वाले इस कृत्य का बखान असंभव है। यह कह चक्रेश्वर अयोध्या की ओर हर्षाश्रु से दिशा बनाते चल पड़े।16.png

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