'फ़ास्ट फ़ूड' के चलन नें संसार को जकड लिया है जबकि इसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती - आचार्य श्री
‘फास्ट फूड’ के चलन ने संसार को जकड़ लिया है जबकि इसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती : आचार्यश्री
वर्तमान समय में ‘फास्ट फूड’ के चलन ने संपूर्ण संसार को जकड़ लिया है। फास्ट फूड वह जहर है जिसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती एवं साथ ही वह शाकाहारी है कि नहीं इसकी भी कोई प्रमाणिकता नहीं रहती।‘फास्ट फूड’ का असर सबसे ज्यादा बच्चों में देखा जाता है। उसकी मुख्य वजह हम बच्चों को समय से घर में ही बनी शुद्ध वस्तुओं को समय के अभाव में उपलब्ध नहीं करा पाते या आलस्य के कारण बच्चों को बिना देखे समझे कुछ भी खिलाते रहते हैं।
इससे बच्चों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उसकी मानसिक स्थिति एवं याददाश्त पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। यह बात नवीन जैन मंदिर में अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने प्रवचन देते हुए कही। उन्हाेंने कहा कि ‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन’ इसको हम सभी ने चरितार्थ होते देखा है। राष्ट्र में व्याप्त जितने भी जघन्य कृत्य हिंसा, उपद्रव आदि होते हैं उनमें से अधिकांश मामलों में व्यक्ति की तामसिक प्रवृत्ति ही काम करती है। उन्हाेंने कहा कि स्वर्ण को शुद्धता के लिए एक बार नहीं अनेक बार तपाना पड़ता है। फिर उसे आप कहीं भी कैसे भी रखो या उपयोग करो उसकी शुद्धता में वर्षों बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके विपरीत लोहा में अवधि पर्यंत जंग भी लग सकती है और वह खराब भी हो सकता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वर्ण की तरह ही खोट रहित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बुरी आदतों को त्याग करने के लिए हमें संकल्पित होने की महती आवश्यकता है। संकल्प शक्ति से ही इस जीव का कल्याण हो सकता है। व्यक्ति किसी भी नशे को त्याग करने के लिए एवं छोटे से नियम लेने के लिए भी समय सीमा में बांधना चाहता है। एेसा प्रतीत होता है, जैसे किसी वस्तु की नीलामी चल रही है। भैया! ऐसा नहीं होता, नियम तो पूर्ण संकल्प, भक्ति, समर्पित भावना के साथ ही लिया जाता है। यदि जबरदस्ती नियम दे भी दिया जाए तो वह अधिक समय तक कारगार सिद्ध नहीं हो सकता। आचार्यश्री ने कहा कि व्यक्ति को घर की बनी शुद्ध एवं पौष्टिक वस्तुएं या व्यंजन अच्छे नहीं लगते उसे तो होटल का खाना ही अच्छा लगता है यह धारणा ठीक नहीं है। शरीर के प्रति मोह का त्याग एवं जिव्हा इंद्रिय को वश में करने की कला से हमें पारंगत होना जरूरी है। बाहर के वस्तुओं के प्रति आकर्षण का भाव हमारे चारित्र पर भी दुष्प्रभाव डाल सकता है। हम जब फास्ट फूड के त्याग की बात करते हैं, तब तुम्हारी इसके प्रति अशक्ति के भाव दृष्टिगोचर होने लगते हैं। तरह-तरह के बहानेबाजी एवं तुम्हारे कंठ अवरूद्ध हो जाते हैं। कोई भी प्रिय वस्तु का त्याग करना या कोई छोटा सा नियम लेने में भी इस शीतकाल में भी व्यक्ति को पसीना आने लगता है। कर्मों की मुक्ति की बात करो तो कंपकपी छूटने लगती है, फिर हम कैसे कर्मों की निर्जरा कर पाएंगे। सच्चे देव, शास्त्र, गुरू के प्रति श्रद्धान जरूरी है। हमें यदि अपने शरीर को निरोग रखना है तो सात्विक भोजन ग्रहण करना होगा। गरिष्ट भोजन एवं प्रचुर मात्रा में तेल, घी की वस्तुओं के सेवन से बचना होगा, तब ही आत्म कल्याण कर पाओगे।
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