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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

10. युगद्रष्टा


Vidyasagar.Guru

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और अब उपलब्ध हुआ इन्द्रिय सुख का उत्कृष्ट संसार । जहाँ से मात्र बारह योजन दूरी पर है सिद्धशिला, जिसके ऊपर वातवलयों से मस्तक को स्पर्श करते हुए विराजते हैं, सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाले मुक्त-चेतन तन। ऐसा वह सर्वार्थसिद्धि विमान, जो कि वैमानिक देवों में सर्वोत्कृष्ट कल्पातीत देवों का सुख दिलाता है। उसमें उपपाद शय्या पर परम पुरुषार्थ के फलस्वरूप जन्म हुआ। एक नई देह, एक बार फिर स्वर्ग की अन्तिम शलाका जो मुक्त होने से पूर्व की है, पर अद्वितीय है। जहाँ पर पहुँचा आत्मा तदनन्तर भव में निश्चयतः मोक्ष को उपलब्ध करता है। जैसे पूर्व में श्रावकधर्म के फल की अन्तिम सीमा को अर्थात् अच्युत स्वर्ग को प्राप्त किया था, उसी प्रकार इस बार मुनि धर्म का उत्कृष्टतः आचरण कर, मुनिधर्म से मिलने वाले इस फल को पारितोषिक समझ सर्वोत्कृष्ट सीमा को प्राप्त किया। जिससे ऊपर सुख का सांसारिक साधन नहीं, जहाँ आपस में वैमनस्कता नहीं, जहाँ किसी की ऋद्धि, वैभव को देखकर भी जुगुप्सा की लहर नहीं । जहाँ पर पञ्चकल्याणक महोत्सव, नन्दीश्वर आदि महामहोत्सवों में जाकर सुख या पुण्य को प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं। वे अपने ही परिकर में, अपने विमान में भ्रमण से संतुष्ट, अपने आप में परम शुक्ल भावों से प्राप्त उत्तम सुख का उपभोग करते । जहाँ पर वेद के, प्रतिकार की आवश्यकता नहीं क्योंकि वेद का उदय भी इतना मन्द है कि वे सदा निर्विकार मुनि के समान स्वतन्त्र निराबाध रहते। जहाँ पर दूसरे इन्द्र की भी कोई आज्ञा नहीं,शासन नहीं, किसी भी प्रकार का पारतन्त्र्य भाव नहीं । सब अपने में आत्मज्ञ हैं, आत्मा का नाम ही इन्द्र है, जहाँ प्रतिक्षण यह प्रतिभासित होता है कि, मैं वह सिद्धस्वरूप, ज्ञाता-द्रष्टा, मात्र चिविलास वाला हूँ, मैं पूर्ण इन्द्र हूँ, मैं अहमिन्द्र हूँ। द्वादशाङ्ग का ज्ञान रखने वाले वे देव कभी भी कलुषित नहीं होते, यह पूर्ण विज्ञता का ही सुफल है जो परस्पर में कषाय उद्घाटित नहीं होती है, फिर भी कषाय समुद्धात का सद्भाव मात्र सिद्धान्त में   कषायों के सद्भाव की विवक्षा में कहा जाता है। समचतुरस्र उत्तम संस्थान से अत्यन्त सुन्दर रूप वाले वे अहमिन्द्र वज्रनाभि, एक हाथ मात्र शरीर के उत्सेध वाले थे। हंस के समान शुक्ल शरीर की आभा से चन्द्रमा को जीतते हुए, अत्यन्त प्रशान्त चेष्टायें धारण करते थे। अपनी गम्भीरता से अपने अन्दर के उत्कृष्ट सुख को बताने वाले वे अहमिन्द्र दैदीप्यमान आभूषणों से अमृतकुण्ड में ही डूबे हों, ऐसे प्रतीत होते थे। अवधिज्ञान में ऊपर से ही लोक नाली में प्रवाहमान अनन्त दुःखित जीवों को देखते हुए मानो यही बता रहे थे कि इस संसार में कहीं भी सुख नहीं इसलिए ऊपर उठो। अपनी निराकुलता से वे मानो इन्द्र को भी सच्चे सुख का पाठ पढ़ा रहे हों। तैंतीस सागर की दीर्घ आयु को भी एकाकी रहकर पूर्ण करते हुए मानो यही बता रहे हों कि, परस्पर का सम्बन्ध, यह परिवार, आलाप, लौकिक व्यवहार, यह तालमेल आदि सुख के नहीं, दुःख के कारण हैं इसलिए उपशान्त भावों की वृद्धि करो। परम शुक्ल-लेश्या में ही आत्मिक सुख है। सुखाभास है वहाँ, जहाँ सुख की अवभासना पर सापेक्ष हो। जिस उपपाद शय्या को पाकर बिना किसी देव के प्रबोध के उन्होंने अपनी सफलता और किंचित् विफलता का रहस्य जान लिया। बिना किसी की प्रेरणा के जिनबिम्बों के दर्शन-पूजन को स्वयं प्रेरित हुए। तदुपरान्त यह अकाट्य नियोग है, यह जान वहाँ के सुख में लिप्त हुए। अवधिज्ञान को क्षेत्र के समान ही विक्रिया करने की शक्ति का क्षेत्र होते हुए भी, वे विक्रिया से रहित थे। तैंतीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर वे मानसिक दिव्य आहार को करते थे। एक महायोगी के समान जिनके श्वास का आरोहण-अवरोहण अव्यक्त रहता था। ऐसे परमशान्त मुनि स्वरूप सोलह मास पन्द्रह दिवस बीत जाने पर एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे। वह धनदेव तेजस्वी रत्न भी, स्वामी की तपस्या के समान तप्त होते हुए उसी सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्रत्व को प्राप्त हुए। स्पर्धा का यह अलौकिक प्रतिमान अपने आप में अनूठा है। वही मित्रता, वही पुत्रत्व, वही स्त्रीत्व, वही मातृत्व सत्य है जो व्यक्ति को अलौकिक पुरुषार्थ के लिए बाधित नहीं करता। अन्तरङ्ग में धर्म ही मित्र है अपना शुभभाव ही अपना वत्स है, अपनी आत्मा की शान्ति ही स्त्री है और अपना चित्तत्त्व ही अपनी माता है, यह जानकर जो व्यवहार के सम्बन्धों को अपनाता है, वह धनदेव की तरह निर्मुक्त रहता है और वज्रनाभि की तरह अलौकिक हित के प्रणेता का उपमान पाता है। दोनों अहमिन्द्रों के बीच धर्मचर्चा के ही सदा अवसर रहते। अपने पूज्य के प्रति विनयवान वह धनदेव का जीव अहमिन्द्र होकर भी वज्रनाभि के प्रति अपनी चेष्टायें संकुचित रखता, अपनी आत्म-प्रशंसा से दूर वज्रनाभि अहमिन्द्र के वचनों के धर्ममय वातावरण में सदा स्नान करता। अद्भुत है यह कृतज्ञता जो समान पद पर प्रतिष्ठित होने पर भी गर्व और कृतघ्नता से रहित है।

 

अपने दिव्यज्ञान चक्षु से सम्पूर्ण लोक के क्रियाकलापों में कई बार वह अहमिन्द्र एकाकार हो अपने में ही लौट आता । ब्रह्माण्ड के उदर में यत्र-तत्र- सर्वत्र ठसाठस भरा जीवत्व उसके संवेग की वृद्धि में हिस्सेदार हो जाता। आज फिर एकान्त में बैठे उस दिव्यज्ञान दर्पण में चित् उपयोग डूब गया। अहो! कोटि-कोटि योजनों को लांघने पर भी अन्तहीन रज्जू की मापकता तक विस्तृत यह ज्योतिर्लोक आकाश रूपी स्त्री की भुजाओं का श्रृंगार कर रहा है। उसके उपरितल में दूर-दूर तक प्रकीर्णित दिव्यविमान मानो उसकी केशों के गूंथने के गजरे हैं। यह वलयाकार मनुष्य और पशु सम्पदा से व्याप्त तिर्यक् लोक उस करधनी की तरह बीच में लटके हैं, जो पुरुषार्थ से ऊपर या नीचे कहीं भी खिसक सकती है। पाताल लोक की महातमः प्रभा तक की अन्ध यात्रा की अन्तहीन वेदनायें। इस झल्लरी समान लोक में स्वसंवेदन से शून्य मात्र कर्मफल का भोजन करती हुई पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय की संत्रस्तता का वेदन, मैं कैसे समझ सकता हूँ। सकल इन्द्रियों को पाकर भी यह पशु योनि में ताड़न-मारन की असह्य वेदना को लख हृदय स्वयमेव करुणद्रव को बहाने लगता है। मनुष्य योनि पाकर भी जड़ देह से ज्ञान चेतना का संवेदन करने वाला विरला पुरुष ही दीख पड़ता है। इन असंख्य देहों के भीतर से कैसे व्यक्त हो आत्मीय अनुभवन के स्वर। तृष्णा की वह्नि से जाज्वल्यमान हुए देह का एक-एक अणु समुद्र-सा अतृप्त है। एक-एक अणु में अनन्त-अनन्त अधूरी इच्छायें हैं जो प्रतिपल, प्रतिभव नव अभिनव होकर चली आती हैं। विगत का सारा भोग उसी देह के साथ विलग हो जाता है और फिर समाविष्ट हो जाता है दैहिक या ऐहिक जगत् में । कोई विधाता भी अगर इन प्राणियों की अदम्य वासना की पूर्ति करना चाहे तो वह भी विफल हो जाय । गणित यहाँ अपनी सत्ता से दूर है। एक मात्र छोटा-सा लोक है और अतृप्त चेतना का एक-एक प्रदेश उसे अपने में समाहित करना चाहता है। इन अतृप्त चेतनाओं की संख्या भी गणनातीत है। दुःख के अनुषङ्ग से प्राण छटपटाते हैं और सुख के अनुषंग से तृप्ति की तरंग नहीं, फिर सच्चा सुख कहाँ है? किसमें है? किससे मिले? ये प्रश्न भी अनवतरित हैं। क्या कभी भू-खनन के बिना जलस्रोत मिला? क्या अविकल गगन में हाथ मारते हुए कोई उड़ा? क्या कभी श्वान को अस्थि चर्बन से तृप्ति हुई? क्या कभी समुद्र को नदियों के पूर से शान्ति मिली? क्या मोह धनुष पर कामबाणों को चढ़ाते-चढ़ाते कामदेव को कभी तृप्ति मिली? क्या षटखण्ड पर एकदत्त राज्य करने वाले चक्री को विषयों में रस तुष्टि मिली? एक नहीं, दो नहीं, सहस्र विक्रिया करने पर भी क्या एक भोक्ता अपने तन की किसी भी नस से सुख की कोई झंकार पाया? विपरीत पुरुषार्थ में दिग्व्यापी मोह की माया में इसने अपने को ही छला है, अपने को ही ठगा है। इन्द्रियों के विषयों की ज्वाला में यह उसके ऊपर, पहले पतंगे की तरह भ्रमण करता है, तत्पश्चात् उसी में आहूत कर देता है अपना सर्वस्व । नव-नव संकल्प विकल्पों की पूर्ति का अरुक अथक प्रयास यह आत्मा देह की खुजली रोग की तरह जितना मिटाने और दूर करने को करता है, उससे कहीं अधिक पीड़ा के साथ वह फिर अपने को दु:खी ही पाता है। मिथ्याज्ञान, विपरीत तत्त्व का भान, सदा पराश्रित जीवन, चार संज्ञाओं से आच्छादित रहना आदि-आदि ही जीवनचक्र और मरणचक्र का प्रारूप बनाए रखता है। कैसे मिले समीचीन अलख अमूर्त आत्मा का ज्ञान और उसका विश्वास? कैसे जड़ देह की संयुति से सुखाभास का आभास हो? और सोचते-सोचते, देखते-देखते उपयोग की धारा टूट गई। मति और श्रुति के आलम्बन से ज्ञान को आत्मकेन्द्रित कर क्षण भर बैठे रहे, तभी अन्य अहमिन्द्र भी निकट आकर बैठ गए। अपने विशिष्ट शान्त स्वभाव और असाधारण तेज से अन्य सभी देव अहमिन्द्र होकर भी उनकी संगति के क्षण को सराहते। कई सागरों का काल इसी तरह सुखपूर्वक बीत गया। कभी जिनबिम्ब के दर्शन, कभी उन्हीं की स्तुति, स्तवन, कभी सिद्धों के गुणों का चिन्तन, तो कभी संसार के स्वरूप का दिग्दर्शन, कभी देवगोष्ठी में धर्म का बखान और श्रवण।

 

आयु की कलायें अब अत्यन्त क्षीण हो गयी। स्वर्ग से च्युत होने का पूर्वाभास हुआ। न कण्ठ की माला में म्लानता आयी और न परिमल में कुछ कमी। चारों ओर वैभव का विशाल साम्राज्य पर, शान्तमन किसे भोगे? अहमिन्द्र को न भय है न विषाद की लहर । बस, तटस्थ हैं, प्रवाहमान नदी की तरह, काल के अलंघ्य परिणमन की सीमा में। यह सुख शाश्वत नहीं, जो शाश्वत नहीं उसका विरह निश्चित है। जो शाश्वत है वही सुख है और उसी को प्राप्त करने का भाव प्रवर है। इस पर्याय में अधिक पुरुषार्थ सम्भव नहीं, ये बंधन विगलित हों और निर्बन्ध विचरण हो। मैं देख रहा हूँ कितना काल बीत गया इस भरतक्षेत्र में जहाँ अभी भोगों का प्रचुर विलास चला आ रहा है, करोड़ोंकरोड़ों सागर बीत गए, इन संतप्त जीवों को सम्यक् मार्ग नहीं मिला। उत्सर्पिणीकाल के नव कोटि-कोटि सागर बीत गए और इस अवसर्पिणी के भी नव कोटि-कोटि सागर काल बीतने को हैं। इस प्रभूत काल के बीच मोक्ष पुरुषार्थ से वंचित अगण्य प्राणी मानो मुझे बुला रहे हैं। इस कलिकाल के लाखों करोड़ों मानवों, दानवों, पशु पक्षियों का उद्धार का करुणभाव मुझे बुला रहा है। आओ-आओ इस धरा को अब उसका पति चाहिए, आओ-आओ मुझे अब मुक्ति सूत्र चाहिए, अवतरित होओ, होओ, कलि के आद्य कर्णधार, ..............।

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