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नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

1. विराट लकीर विराग की


Vidyasagar.Guru

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आदिम युग के प्रजापति, आदि मानव, आदि तीर्थाधिपति, आदि स्रष्टा वृषभदेव राजा के राज्यमण्डप में प्रतिदिन की भाँति इन्द्र उपस्थित हुआ और प्रभु को भक्ति भाव से प्रणत हो, उनके चित्त को प्रसन्न करने की आज्ञा चाहता है। समुद्र से महा गम्भीर, तीर्थङ्कर की वाणी का मुखरित होना जब युवराज पद में भी दुर्लभ है, अरिहन्त पद हो तो बात ही क्या? पर इन्द्र आया है अपने अनन्य अन्य देवों के साथ, अनेक अप्सराओं को लिए, उसको नाराज करना प्रभु को मुमकिन न था। अरे! जब महापुरुष निर्बल, असहाय, साधारण प्रजा जन के मन को भी प्रसन्न रखते हैं तो फिर यह तो देवलोक का प्रधान इन्द्र है और हमारी प्रसन्नता में ही अपने को भाग्यवान समझता है, शायद यही सोचकर वृषभ राजा मुस्कुराए और इन्द्र ने इस इशारे को स्वीकृति समझा। पर लोग सोचते हैं कि ये उसी भव से मोक्ष जाने वाले हैं और किसी की बात को इतनी जल्दी मंजूरी नहीं देते जितनी कि इन्द्र की। इन्द्र का ही दिया भोजन, आभूषण, वस्त्र आदि स्वीकार करते हैं, इस विशाल भूमण्डल पर भी अनेक सुन्दर ललनाएँ हैं, उनके नृत्य को देखना पसन्द नहीं करते हैं, मात्र इन्द्र की लायी अप्सराओं का ही। अरे! नाभिराज तो कहने के लिए पिता हैं और मरुदेवी जननी मात्र होने से माता। पर इनका सारा ख्याल तो यह इन्द्र और इन्द्राणी रखते हैं, खैर; हमारे लिए तो सौभाग्य की बात है कि हमारे पालन करने वाले वो महामानव हैं कि जिनके जन्म के पहले से रत्न की बरसात होती थी, इन्द्र जन्माभिषेक के लिए मेरुपर्वत पर प्रभु को लेकर गया और प्रतिदिन यह आकाश इन्द्रों की बारात से ऐसा सुशोभित होता है कि लगता ही नहीं कि धरती यहाँ है और आकाश ऊपर है।

 

इधर यह विचारों का द्वन्द और उधर इन्द्र का आदेश, एक साथ वातावरण बदल गया, लोगों को और कुछ सोचने के लिए अवकाश नहीं, सबका चित्त उस लय में लवलीन । अहो यह अलौकिक संगीत है एक साथ करोड़ों वाद्यों का एक लय में बजना प्रत्येक वाद्य की आवाज अलग अलग सुनना चाहें तो वो भी सुन सकते हैं। बस! हमें मन लगाने की जरूरत है, इन ध्वनियों का आरोहण-अवरोहण ऐसा कि मर्त्यलोक के मानवों द्वारा असम्भव है, यह राग का आलाप, पदों की थिरकन, कब, कौन-सा हाथ किस अंग पर पहुँच जाता है पता नहीं, कभी वह पैर कान के पास, तो कभी-कभी पैर आकाश में ऐसे फैलते मानो कि आकाश में बिजली चमकती, लहराती चली गयी हो, समझ से परे यह नृत्य जादूगर की तरह कला बाज है, ललाट का ऊपर उठना, भ्रू का कटाक्ष, नयनों की चंचलता, हेमकलशों का उघड़ना, कटि का घुमाव, नाभिस्थल का हिलोरें लेना, भुजाओं और पदों का अन्तर ही नहीं समझ पाना, ग्रीवा का घूमना, संगीत के अनुरूप भाव, रस और लय की एकाग्रता, यह सब कुछ अलौकिक है, जो लौकिक पुरुष के लिए सम्भव नहीं क्योंकि विक्रिया का यही तो वैभव है। जनमानस की नीली आँखों में वह नीलाञ्जना नर्तकी तो अञ्जन की तरह लगी रही, मानो उस सुरी को देखने के लिए अनिमेष पलक लगाये, ये मनुष्य नहीं सुर ही हैं। उस नृत्य ने भगवान् के मन को अनुरञ्जित कर दिया, भगवान् का मन तो बहुत विशुद्ध है पर राग की लालिमा में भी अवगाहित है। स्फटिक मणि के नीचे जपापुष्प रखा हो और मणि लाल न हो यह तो असम्भव है, उन सरागी प्रभु का यह राग ही तो जनमानस को उनसे अनुराग करने को मजबूर कर देता है और अचानक नर्तकी बदल गयी, सब लोग देख रहे थे, कोई भी न सोच पाया कि नर्तकी विलीन हो गयी इस देवलोक से, धन्य है यह सम्यग्दृष्टि, जो राग के प्रसंग में भी इतना सावधान और सूक्ष्मदृष्टि रखता है, लोगों का आनन्द अजस्र चल रहा है पर वह हल्की-सी रेखा की तरह भंग हुआ असुख भी सहन नहीं हुआ, क्या बदला है, कुछ भी तो नहीं, वही पृथ्वी, वही इन्द्र, वही अप्सरा का विलास, वही दरबार, वही नृत्य का क्रम, संगीत की वही लय, वही रस है, पर उस ज्ञानी के अन्तस् में वह छोटी लकीर, भेदविज्ञान की एक विराट लकीर खींच गयी।

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इन्द्र उस नृत्य को नहीं देख रहा है। वह प्रभु के मनोभाव उनके मुख कमल से जान रहा है, आज पहली बार जन्म के बाद उस मुख कमल को ऐसा देखा जो और लोगों के लिए देख पाना असम्भव। प्रभु का अन्तस् तो सदा एक-सा, पर आज प्रभु ने कुछ अलग ढंग से इन्द्र को देखा और प्रभु इन्द्र के भाव को समझ गए, अरे! इतना प्रयास हमारे लिए करना पड़ा, मैंने आज फिर गलती की, चर्मनेत्र तो खुले के खुले ही रहे पर अन्तस् में अवधिज्ञान का नेत्र स्फुरित हो गया, मैं इन विषय भोगों में ही खो गया, मैं कौन हूँ ? मेरा क्या कार्य है? और मैं क्या कर रहा हूँ ? मुझ जैसे को भी समझाने के लिए यह प्रसंग रचा गया ठीक ही तो है यह इन्द्र का विवेक है, कभी भी महापुरुष को आमने-सामने, तानन-फानन वचनों से नहीं समझाया जाता। महान् आत्मा भी कभी-कभी गलती करते हैं पर उनको समझाने वाले भी महान् होते हैं। असंयम मार्गणा में भी संयमी-सा जीवन जीने वाले उन प्रभु को असंयम के साथ समझाना अविवेक होगा इसीलिए धैर्य धारण कर इन्द्र ने अपने विवेक का परिचय दिया, आज मैं दुनिया की नजरों में भले ही तीन ज्ञान का धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दूरद्रष्टा, आदि नायक हूँ पर मैंने वह गलती अभी भी नहीं सुधारी जो मैंने दश भव पूर्व की थी।

 

हाँ! हाँ! दशभव पूर्व में! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम दिशा की ओर विदेहक्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है, उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा था उसकी स्त्री सुन्दरी थी, उसके दो पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा था और छोटा भाई श्रीवर्मा । यह बड़ापन और छोटापन तो जन्म की अपेक्षा से है वस्तुतः गुणों से व्यक्ति बड़ा और छोटा होता है। छोटा पुत्र सुभग था, जो स्वभाव से ही सबको प्यारा लगता था। उसकी क्रीड़ा भी मन को प्रसन्न करती थी, उसका उत्साह, प्रज्ञा, कमनीयता आदि गुण ऐसे थे जो बड़े भाई में भी न थे। जयवर्मा को लगता था कि माता-पिता श्रीवर्मा का ही ज्यादा ख्याल रखते हैं, उसे ही ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं। परस्पर में कुछ अलग व्यवहार देखकर किसी को ठेस पहुँचती है, तो कोई खुश होता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति अपने आप को निर्गुण नहीं समझता है प्रत्युत दूसरे के गुण भी उसे दोष दिखते हैं और ऐसी स्थिति में मात्सर्य भाव अवश्य पैदा होता है। छोटे भाई के प्रति अनुराग तो था ही ऊपर से पिता ने राज्यपाट भी श्रीवर्मा को दे दिया। जयवर्मा से रहा न गया, वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ घर से निकल गया। संयोग से उसे स्वयंप्रभ नाम के एक निर्ग्रन्थ गुरु मिले। गुरु को देखकर उसे कुछ सम्बल मिला। व्यक्ति को दुःख के समय जिस किसी की सहानुभूति मिले वही उसका परम मित्र होता है। संसार की स्थिति से उसे कुछ वैराग्य तो हुआ पर वह वैराग्य नहीं वस्तुतः जीवन के प्रति निराशा थी। निराशा और वैराग्य में बहुत अन्तर होता है। दोनों में भेद कर पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। मन दोनों में उदास हो जाता है, मुख भी कुछ फीका पड़ जाता है पर बाद में दोनों में क्या अन्तर है यह रहस्य खुलता है। निराशा जब बढ़ती जाती है तो व्यक्ति बेचैन हो जाता है, आलसी हो जाता है और परेशानसा रहता है जब तक कि कोई आशा की किरण न फूटे पर वैराग्य ठीक इससे विपरीत है। वैराग्य जैसे-जैसे बढ़ता है व्यक्ति की सांसारिक कामनाएँ छूटती जाती हैं और नित प्रतिदिन आनन्दित होता हुआ अनाकुल चित्त हो जाता है। वैराग्य के साथ यदि ज्ञान का पुट भी हो तो मुक्ति उसके हाथ में है। उसने गुरु महाराज से दीक्षा ले ली और निर्ग्रन्थ श्रमण बन गया। सच कहता हूँ-गुरुकुल में रहे बिना ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़ नहीं हो सकता और शास्त्रज्ञान बिना भोगों की रुचि नहीं छूट सकती। अभी जयवर्मा नव दीक्षित था; कि एक दिन आकाश में उसने एक विद्याधर को बड़े ठाट-बाट के साथ गमन करते देखा और उसका सोया हुआ भोग रूपी सर्प जाग गया, फल यह हुआ कि उस सर्प ने तात्कालिक वैराग्य को डस लिया, नशा चढ़ गया और भोगों की चित्त में तीव्राकांक्षा हुई, मुझे भी भगवन् ऐसा ही वैभव मिले, विलासता मिले। मन मूर्च्छित हो गया था, निदान बंध हो चुका था। काल की बलिहारी कि, बाहर से भी एक भयंकर सर्प बिल से बाहर निकला और उसके तन को डस लिया। प्राण पखेरू उड गए पर भोग का वह भाव साथ गया और फलित हुआ। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जिस निर्ग्रन्थता को पाकर व्यक्ति तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, इन्द्र जैसे पदों के लिए पुण्य उपार्जन करके मोक्ष को प्राप्त होता है, उससे उसने विद्याधर का पद पाया। अरे! मणि को बेचकर धूल खरीदना कौन आश्चर्य की बात है, प्रत्युत मूढ़ता की बात है। कोई बात नहीं थोड़ी देर के लिए ही सही, कोई भी अच्छा संस्कार, अच्छा भाव ही देता है बशर्ते कि भवितव्यता अच्छी हो। गलती तो हर कोई करता है पर गलती करके सुधर जाने वाला महान् होता है। भगवान् बनने वाली आत्मा भी धीरे-धीरे विकास पथ पर आरूढ़ है।

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