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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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  1. आज सात्विकता समाप्त होने के कारण से ऐसी दशा हो रही है। मान-प्रतिष्ठा के कारण से हम चमक-दमक में फैंसते जा रहे हैं। मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाने में प्रत्येक व्यक्ति लगा हुआ है। सब अपनी चिन्ता में है, देश की चिन्ता किसी को नहीं। भगवान् के स्वरूप को उनके दर्शन से लाखों व्यक्तियों में परिवर्तन आ जाता है। आज भारत की इस धरती पर ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो चारों तरफ शान्ति का वातावरण ला सके। आज हमें ऐसे दीपक की आवश्यकता है, जो इस अन्धकार को दूर कर सके, ऐसे रत्नदीपक की बहुत आवश्यकता है।
  2. चित्त मल क्या है ? यह पहचानना ही कठिन है। और वह कहते हैं कि उसमें क्या बाधा है? वर्तमान में हम यह जो देख रहे हैं वह सारी की सारी चित्तगत मलिनतायें, अशुचितायें ही हैं।
  3. कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है।
  4. विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं, इन सभी धर्मों में एक धर्म वह भी है जो प्राणिमात्र के लिए पतित से पावन बनने का मार्ग बताता है, उस धर्म का नाम है-जैनधर्म
  5. यदि आप मुनि नहीं बन सकते हो, तो कोई बात नहीं, किन्तु 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' के अनुरूप अपनी चर्या तो बना लीजिए।
  6. यह ध्यान रखें तीन दानों के लिए तो पैसों की आवश्यकता पड़ती है पर अभय दान के लिए धन-पैसे की जरूरत नहीं है और न ही शरीर की आवश्यकता है, बस! उज्ज्वल मन की आवश्यकता है और वह मन कहीं से खरीदना नहीं है अपने पास ही है, चाहें तो हम अभय दान कर सकते हैं, मारने वाले अपने अपकारक प्राणी का भी भला करना, उसके उद्धार की बात सोचना अभय दान है।
  7. भारतीय संस्कृति का एक मात्र यही लक्ष्य है, कि स्व को पहिचानो-उसको देखने की चेष्टा करो यद्यपि वह इस स्थिति में देखने के लिए मिलने वाला नहीं है। जानने के लिए भी मिलेगा नहीं, वह वर्तमान में संवेदन के लिए मिलने वाला नहीं है। इसके उपरान्त भी सन्तों की अनुभूति के माध्यम से जो कुछ भी वाणी खिरी है, उससे यह ज्ञात होता है कि ऐसी भी कोई अद्वितीय शक्ति है, जिसके द्वारा यह सारा का सारा संचालन हो रहा है। प्रात:काल से लेकर शाम तक चौबीसों घण्टों तक सारा काम अक्षुण्ण रूप से चलता रहता है। नौ
  8. अधिक से अधिक पाप अनर्थदण्ड के माध्यम से होता है। आप लोग समय का मूल्यांकन करते हुए जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें। समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धन है। आत्म तत्व को पाने के लिए समय का मूल्यांकन करें और अपव्यय से बचने का प्रयास करें तभी देश की, संस्कृति की सुरक्षा संभव है।
  9. जैनधर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैनधर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उस बहती गंगा में अपने जो कुछ भी कषायभाव हैं, उनको फेक सकता है और अपने हृदय को, मन को और तन को भी स्वच्छ-साफ कर सकता है।
  10. संसारी प्राणी भटकता-भटकता मनुष्य योनि में आया है। इसे बोध है किन्तु पर का बोध है, इसे बोध है किन्तु सही बोध नहीं है और जिसे अपने-पराये का बोध नहीं है उसका वह बोध, बोध नहीं बोझ है।
  11. कैसी भी परिस्थिति हों विवेक मत खोओ , सदैव विवेक से काम करों।
  12. स्व अर्थात ब्रह्म में रमना ही ब्रह्मचर्य है।
  13. देव शास्त्र गुरु की पतवार से संसार नैया पार की जा सकती है।
  14. भारतीय किसान कर्ज में जन्मता, जीता व मरता है, यहीं विडंबना है
  15. कीटनाशक भारतीय संस्कृति नहीं है, बल्कि कीटनिरोधक भारतीय संस्कृति है
  16. स्वदेशी अपनाओ स्वावलंबी बनो
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