आज तक किसी पशु की नजर आदमी को नहीं लगी, मनुष्य की नजर बहुत विषैली है, इतनी विषैली कि गाय के स्तनों में भरा दूध भी सूख जाता है, पत्थर कट जाता है-पिघल जाता है। आज आदमी की नजर पशुओं को लगी हुई है, आज आदमी विश्व भक्षी बन गया है।
यदि भारत की पवित्र संस्कृति और सभ्यता को पवित्र रखना चाहते हो तो भारत से मांस का निर्यात बंद कर दी। मांस बेचना भारतीय संस्कृति नहीं, बस! यही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है।
मतदान के बिना लोकतंत्र एकमात्र भार है जिसे आपने उठा रखा है। उसका भीतर से आपको परिचय नहीं है। जो जो मतदान कर रहे हैं वो तो फिर भी कथचित् मतदान देकर के कम से कम लोकतंत्र को जीवित रख रहे हैं।
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आजकल तो फटे कपड़े पहनना फैशन बन गया है। कपड़े फाड़-फाड़ कर पहने जा रहे हैं। समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के बच्चे या राजनेताओं के बच्चे ऐसी वेशभूषा पहनते हैं जिनको देखकर शर्म आ जाए। २-३ जगह कपड़े को फाड़ देते हैं और उसमें या तो थिगड़ा लगा हुआ है या नहीं लगा हुआ है। उसमें कई सारे जेब होते हैं। उनको देखकर लगता है कि ये आखिर क्या दिखाना चाहते हैं?
राजा हमेशा प्रजा के लिए समर्पित भाव से कार्य करता है तो प्रजा भी अपना दायित्व निभाने के लिए तत्पर होती है। मत का मतलब मन का अभिप्राय होता है। लोकनीति लोक संग्रह है, लोभ संग्रह नहीं
भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्तों को पकड़कर रखी उसके अनुसार जीवन बनाओ-जीयो तो गेहूँ की फसल के समान मूल्यवान बने रहोगे फिर कोई फेंकेगा नहीं उपयोग करेगा।
श्रेष्ठता का मापदंड बड़ेपन से नहीं बल्कि बड़प्पन से माना जाता है। जो बड़े होते हुए भी कभी अपने को बड़ा सिद्ध करने की होड़ में नहीं लगते उन्हीं के भीतर से बड़प्पन झलकता है।