संसार शत्रु नहीं है, पाप ही शत्रु है। और पाप जिस आत्मा में उत्पन्न होता है वही आत्मा चाहे तो उस पाप को निकाल भी सकती है। जो पाप का तो आलिंगन करें और धर्म को हेय समझे उसकी प्रज्ञा की कोई कीमत नहीं है। स्वहित करने वालों के लिये पाप से ही लड़ना होगा और धर्म को, रत्नत्रय को, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाना होगा। जिसने इस बात को जान लिया, मान लिया और इसके अनुरूप आचरण को अपना लिया, वही ज्ञाता है।