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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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  1. मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिये साधु पद को अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है।
  2. उपाध्याय परमेष्ठी उपस्थित हों अथवा न हों, उनके लिखे हुए शब्दों का भी प्रभाव पड़ता है। द्रोणाचार्य की प्रतिमा मात्र ने एकलव्य को धनुर्विद्या में निष्णात बना दिया। ऐसे होते हैं उपाध्याय परमेष्ठी। उनको हमारा शत् शत् नमोऽस्तु!
  3. द्रव्यश्रुत आवश्यक है भावश्रुत के लिये। द्रव्यश्रुत ढाल की तरह है और भावश्रुत तलवार की तरह है किन्तु ढाल और तलवार को लेकर रणांगण में उतरने वाला होश में भी होना चाहिए। द्रव्यश्रुत द्वारा वह अपनी रक्षा करता रहे और भाव-श्रुत में लीन रहने का प्रयास करें। यही कल्याण का मार्ग है।
  4. मनुष्य-जीवन आवश्यक कार्य करने के लिए मिला है अनावश्यक कार्यों में खोने के लिये नहीं। जो पाँच इन्द्रियों और मन के वश में नहीं है वह 'अवश' है और 'अवशी' के द्वारा किया गया कार्य 'आवश्यक' कहलाता है।
  5. सत्य की प्रभावना तभी होगी जब तुम स्वयं अपने जीवन को सत्यमय बनाओगे, चाहे तुम अकेले ही क्यों न रह जाओ, चुनाव सत्य का जनता अपने आप कर लेगी।
  6. सन्त लोग एक-एक पंक्ति में सुख का मार्ग प्रदर्शित कर रहे हैं। उनकी एक-एक बात सारभूत है। किन्तु हम उसे छोड़कर निस्सार की ओर दौड़ रहे हैं। हमने उनकी पुकार सुनी ही नहीं। गुरुओं के हृदय में तो करुणा की धारा प्रवाहित होती रहती है, उससे हमें लाभ लेना चाहिए और जाति-द्रोह, वैमनस्य, श्वानचाल छोड़कर मैत्री और वात्सल्य-भाव को अपनाना चाहिए।
  7. कर्म से शरीर रचना होती है, शरीर में इन्द्रियों का निर्माण होता है। इन्द्रियों से स्पशदि विषयों का ग्रहण होता है। इससे नवीन कर्मबन्ध होता है। इस तरह कर्म, नोकर्म और भावकर्म रूप अजीव का, जीव के साथ अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। जब तक इसका लेशमात्र भी सम्बन्ध रहेगा तब तक मुक्तावस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस अजीव तत्व को समझकर इसे पृथक् करने का सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए।
  8. आत्मा को पवित्र कराने वाली सामग्री या रसायन यदि विश्व में कोई है तो वह आत्मा के पास जो शुभ योग है वह है और वही पुण्य है। उस पुण्य के माध्यम से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है लेकिन केवल पुण्य ही होना चाहिए यह भी ध्यान रखना। केवलज्ञान जिस प्रकार है उसी तरह केवल पुण्य, जिस समय आत्मा को प्राप्त होगा उस समय अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त आप केवलज्ञानी बन जाओगे।
  9. वही दान, सच्चा दान कहलाता है जो नीति-न्याय से कमाने के उपरान्त कुछ बच जाने पर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि दूसरे का गला दबाकर, उससे हड़पकर दान कर देना।
  10. जो व्यक्ति मोक्षमार्ग पर चलता है, चलना चाहता है उसके लिए सर्वप्रथम संवर तत्व अपेक्षित है और संवर तत्व को निष्पन्न करने के लिए जो भी समर्थ हैं वे हैं- गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र। ये माला है। इन्हीं मणियों के माध्यम से संवर होगा।
  11. आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा की जाने वाली निर्जरा ही वास्तविक निर्जरा है जो मोक्षमार्ग में कारणभूत है। इसे पाये बिना मोक्ष संभव नहीं है।
  12. प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है इस संसार में जो अपने दोषों को छोड़ने के लिए और स्वयं अपने हाथों दंड लेने के लिए हर क्षण तैयार हो।
  13. अनेकान्त के रहस्य को पहचानना चाहिए। दूसरे का विरोध करने की आदत ठीक नहीं है। कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिए। कहना चाहिए कि हाँ भाई, आपका कहना भी कथचित् ठीक है।' भी' का अर्थ अनेकान्त और 'ही' का अर्थ है एकान्त।
  14. आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है, उन सभी का उत्थान भी होता है।
  15. अध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो, अपने में ही सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को जानो, जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जाएगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम इसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही अहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।
  16. मन, वचन, काय को रोककर रुचिपूर्वक किसी पदार्थ में लीन हो जाना ही ध्यान है। पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन होना आर्त और रौद्रध्यान है और आत्म-तत्व को उन्नत बनाने के लिए अहर्निश प्रयास करना, सब कुछ भूलकर उसी आत्म-तत्व में लीन रहना धर्मध्यान है।
  17. यदि हम वीतरागता को अपना लें तो कर्मबन्ध की प्रक्रिया रुकने लगेगी। संवर और निर्जरा को प्राप्त करके मुक्ति के भाजन बन सकेंगे।
  18. जैसे धर्म और अधर्म एक साथ नहीं रह सकते। अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते। इसी प्रकार परिग्रह के रहते हुए जीवन में अपरिग्रह की अनुभूति नहीं हो सकती।
  19. पापी से नहीं पाप से घृणा करिये। अनादिकाल से चोरी का कार्य जिसने किया है तो भी यदि आँख खुल गई, अब यदि दृष्टि मिल गयी, ज्ञात हो गया कि अभी तक अनर्थ किया है अब उसे छोड़ता हूँ, अब चोरी से निवृत्ति लेता हूँ तो वह अब चोर नहीं है।
  20. कर्म के बंधन तोड़ना इतना आसान भी नहीं है कि कोई बिना पुरुषार्थ किये ही कर ले। बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये यह कार्य आसान नहीं हो सकता । जिसे एक बार रुचि जागृत हो जाये और जो रत्नत्रय की साधना करें उसे ही यह कार्य सहज है, आसान है।
  21. जो बंधन को बंधन समझ लेता है, दुख का कारण जान लेता है और उससे बचने का प्रयास करता है वही आजादी को पाता है। उसे ही मुक्ति मिलती है। ज्ञान होने के उपरांत उस रूप आचरण भी होना चाहिए तभी उस ज्ञान की सार्थकता है।
  22. संसार शत्रु नहीं है, पाप ही शत्रु है। और पाप जिस आत्मा में उत्पन्न होता है वही आत्मा चाहे तो उस पाप को निकाल भी सकती है। जो पाप का तो आलिंगन करें और धर्म को हेय समझे उसकी प्रज्ञा की कोई कीमत नहीं है। स्वहित करने वालों के लिये पाप से ही लड़ना होगा और धर्म को, रत्नत्रय को, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाना होगा। जिसने इस बात को जान लिया, मान लिया और इसके अनुरूप आचरण को अपना लिया, वही ज्ञाता है।
  23. दिव्य आत्मा बनने की शक्ति हमारे पास ही है। हम उसे दिव्य/आदर्श बना सकते हैं। अभी वह मोह के माध्यम से कलुषित हो रही है। इसी मोह को हटाने का पुरुषार्थ करना चाहिए
  24. जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त है। शक्ति-रूप में विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा में शुद्ध होने की शक्ति विद्यमान है।
  25. स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने वाले महान् गुरुदेव के चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं। इस जीवन में और आगे भी जीवन में उन्हीं जैसी शांत-समाधि, उन्हीं जैसी विशालता, उन्हीं जैसी कृतज्ञता, उन्हीं जैसी सहकारिता हमारे भीतर आये और हम उनके बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए धन्यता का अनुभव करते रहें।
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