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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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  1. राजसता का अर्थ है तामसिक गुणों से युक्त। तीन गुण होते हैंसतोगुण रजोगुण और तमोगुण। राजसत्ता का अर्थ 'मूकमाटी' में यही लिखा है कि राजसता भी आ सकती है और राजसत्ता भी आ सकती है।
  2. प्रण लेना चाहिए कि हम समस्त लेखन कार्य मातृ भाषा हिंदी में ही करेंगे
  3. आज के चलते फिरते तीर्थंकर सम आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में शत शत नमन वंदन
  4. जिस प्रकार नदी छोटी होकर के भी समुद्र की ओर ढलती है चूँकि उसकी दिशा है इसलिए वह नदी नियम से एक दिन सागर का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार जिसकी दृष्टि मुक्ति की ओर हो गयी है उसका भी एक दिन ऐसा आयेगा कि वह केवलज्ञान रूपी महान् सागर में समा जायेगा।
  5. किसी के ऊपर यदि आप उपकार नहीं कर पा रहे हैं तो कोई बात नहीं, किन्तु यदि आप दूसरों के पैरों में हुए घावों पर नमक नहीं छिड़कते तो भी समझो आप उसके ऊपर महान् उपकार कर रहे हैं।
  6. खम्मामी सर्वे जीवा, सर्वे जीवा खमन्तु में।
  7. ज्ञान का अभिमान व्यर्थ है। ज्ञान का प्रयोजन तो मान की हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का कोर्ट में दावा होता है। मार्दव धर्म तो ऐसा है कि जिसमें मान की हानि होना आवश्यक है। यदि मान की हानि हो जाती है तो मार्दव धर्म प्रकट होने में देर नहीं लगती।
  8. रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे | उन ही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे |
  9. रत्नत्रय की भावना भाओ जीवन में मधुरता , शुद्धता , परिमार्जता अपने आप आ जाएगी
  10. जो सत्य को जान लेता है वह स्वयं भी लाभान्वित होता है, साथ ही दूसरों को भी उसके माध्यम से सत्य का दर्शन होने लगता है। यही सत्य है और यही सत्य की महिमा भी है।
  11. संयम बिना हमारा जीवन भी बिना ब्रेक के दौड़ने वाली गाड़ी सा हो जाएगा
  12. तपाये बिना सोना भी असली रुप में नहीं आता है
  13. परिग्रह ही समस्त पापो, कषायों की जड़ है
  14. आज परिष्कार की बात तो चलती है लेकिन संस्कार की बात नहीं होती। एक सीप के संस्कार को देखो। कैसा संस्कार डाला भीतर कि वह बाहर का जल जो खारा था, भीतर वही मोती का रूप धारण कर गया।
  15. लोग सनराइज' कहते हैं। 'सनबर्थ' कोई नहीं कहता और सनसेट सभी कहते हैं लेकिन सनडेथ कोई नहीं कहता, यह कितनी अच्छी बात है। यह हमें वस्तुस्थिति की ओर, वास्तविकता की ओर ले जाने में बहुत सहायक है। सनराइज अर्थात् सूर्य का उदय होना और सनसेट अर्थात् सूर्य का अस्त हो जाना। उदय होना, उगना कहा गया, उत्पन्न होना नहीं कहा गया। इसी प्रकार अस्त होना, डूबना कहा गया, समाप्त होना नहीं कहा गया। यही वास्तविकता है। आत्मा का जन्म नहीं होता और न ही मरण होता है। वह तो अजर-अमर है।
  16. वैभव तो वै अर्थात् निश्चय से भव यानि संसार ही है। इसलिए वैभव, वैरागी को नहीं चाहिए। उसे तो भव से दूर होने के लिये चरित्र-वृक्ष की छाँव चाहिए है। ‘स भव विभव हान्यै नोस्तु चारित्रवृक्ष' भव भव की पीड़ा समाप्त जो जाये, इसीलिए चरित्ररूपी वृक्ष का सहारा लिया जाता है।
  17. जैनियों ने कभी 'परस्परोपग्रहो जैनानाम्' नहीं कहा। जैनधर्म में तो 'परस्परोग्रहो जीवानाम्' की बात आती है।
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