एक कहावत तो सभी ने सुनी भी होगी कि- "अधजल गगरी झलकत जाए" । इसका अर्थ भी आप जानते ही होगें कि जो गगरी जल से पूर्ण भरी नहीं होती उसका पानी बाहर छलकता रहता है। ठीक उसी प्रकार जिसके पास थोड़ा-सा ज्ञान होता है वह सभी को बताने का प्रयास करता है एवं दूसरों के सामने अपने आप को विद्वान, लेखक एवं साहित्यकार आदि के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहता है। सभी लोगों से मेरी एक पृथक् पहचान हो ऐसी उसकी प्रबल भावना रहती है।
एक बार आचार्य श्री जी ने कहा कि हम संसारी प्राणियों का ज्ञान जुगनु की भांति है एवं भगवान का ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भांति है। भगवान की दृष्टि (ज्ञान) में तीनों लोकों के चराचर पदार्थ युगपद् झलकते हैं। हमें अपना ज्ञान पदार्थ की ओर ले जाना पड़ता है, जबकि भगवान के ज्ञान में सभी पदार्थ स्वतः ही दर्पण की तरह इालकते हैं। आगे उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति ने एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है "महावीर मेरी दृष्टि में वह इस बात को भूल गए कि भगवान हमारी दृष्टि में नहीं आ सकते, क्योंकि हमारे पास परोक्ष ज्ञान है। इसीलिए" महावीर मेरी दृष्टि में ऐसा न लिखकर "मैं महावीर की दृष्टि में क्या हूँ?" इस पर चिंतन करना चाहिए तब अपनी भूल ज्ञात हो। आगे चलकर हम भी भगवान महावीर जैसी दुष्टि प्राप्त कर सकें ऐसा पुरुशार्थ करें। भगवान की भक्ति करके ही भगवान जैसी दृष्टि (ज्ञान) प्राप्त कर सकते हैं।
इस संस्मरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कलम उठाकर कुछ लिखने से पहले आगे-पीछे सोच लेना चाहिए। बड़ों से सलाह दिशा-बोधलेकर ही एवं इसके परिणाम क्या होंगे यह चिन्तन करने के बाद ही कुछ लिखना चाहिए।