पशु-पालन एवं खेती के बारे में चर्चा चल रही थी। आचार्य श्री जी ने कहा कि- आदिपुराण ग्रंथ में लिखा है कि- वैश्य उन्हें कहा जाता था जो आजीविका का निर्वाह खेती एवं पशु-पालन से किया करते थे। आज व्यापारियों को ही वैश्य की संज्ञा दी जा रही है। और आज भारतीय बीज समाप्त होते चले जा रहे हैं, विदेशी बीजों का उपयोग होने लगा है। जिसमें पैदावार अधिक होती है लेकिन उनमें इतना स्वाद नहीं होता। पहले पशु-पालन एवं खेती को उत्तम माना जाता था। व्यापार को मध्यम एवं नौकरी को जघन्य माना जाता था। आज के युग में यह सब विपरीत हो गया है सभी को नौकरी से प्रेम हो गया है। आज बच्चों को माता-पिता इसलिए पढ़ाते है कि वह नौकरी करेगा, एक अच्छा इंसान बनेगा इसलिए नहीं। तब किसी ने आचार्य श्री से कहा कि- आपको विदेशी बीज न लाया जाए स्वदेशी बीज का ही उपयोग किया जाए इसके बारे में बोलना चाहिए तब आचार्य श्री ने कहा- लोग सब कुछ जानते हैं फिर भी पैसे के लालच में यह सब कर जाते हैं। विषय को पलटते हुए आचार्य श्री जी कहते है कि "सम्यग्दर्शन ही स्वदेशी बीज है बाकी सब विदेशी बीज हैं। इसलिए अपनी मनोभूमि पर सम्यग्दर्शन के बीज बोओ तभी मोक्ष रूपी फसल प्राप्त होगी।"
इस संस्मरण में आचार्य श्री जी ने हम सभी को लौकिक ज्ञान के साथ-साथ मोक्षमार्ग की भी शिक्षा प्रदान की है कि हम सभी को मोक्ष का बीज जो सम्यग्दर्शन है उसे हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए तभी हमें आत्मा का स्वाद आ सकता है एवं मोक्ष सुख की प्राप्ति हो सकती है।