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संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    व्यायाम के अनन्तर ही भोजन कर लेना ठीक नहीं।
    नहीं भोजनानन्तर ही व्यायाम तथा यों गई कही।
    प्रायः निश्चित वेला पर ही भोजन करना कहा भला।
    वरना पाचन शक्ति पर अहो आ धमके गी बुरी बला॥६४॥
     
    बिलकुल कम खाने से शरीर में दुर्बलता है आती।
    किन्तु खूब खा लेने से भी अलसतादि आधि सताती॥
     
    ब्रह्मचारियों का तो भोजन, हो मध्याह्न समय काही।
    शाम सुबह दो बार गेहि लोगों का होता सुखदाई ॥६५॥
     
    किन्तु सुबह के भोजन से, अन्थउ की मात्रा हो आधी।
    ताकि सहज में पच जावे वह, नहीं देह में हो व्याधि ॥
    नहीं किसी के साथ एक भोजन में भी भोजन करना।
    वरना संक्रामकता के वश में होकर होगा मरना ॥६६॥
     
    सीझा हुआ अन्न वासी होने पर ठीक नहीं होता।
    भीजा, सड़ा, गला खाने से भी आरोग्य रहे रोता॥
    निरन्न पानी पीने से नर जलोदरी हो जाते हैं।
    प्यास मारकर खाने से गुल्मादिक रोग सताते हैं ॥६७॥
     
    हाथ पैर एवं मुंह धोकर एक जगह स्थिरता धरके।
    भोजन करो अन्त में मुँह को शुद्ध करो कुल्ला करके॥
    तब फिर सहज चाल से कुछ दूरी तक कदम चला लेना।
    ऐसे इस अपने साथी शरीर को मदु खुराक देना ॥६८॥
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी।
    इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥
    एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है।
    फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥
     
    कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को।
    तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥
    क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है।
    भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥
     
    यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना।
    कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान देना॥
     
    उसके पैरों में तो यद्यपि लडडू भी रुलते डोले।
    खाकर लेट रहे पलङ्ग पर दास लोग पंखा ढोले ॥७१॥
     
    फिर भी उसको चैन है न इस फैसनेविल जमाने में।
    क्योंकि सभी चीजें कल्पित आती हैं इसके खाने में॥
    जहाँ हाथ से पानी लेकर पीने में भी वहाँ है।
    भारी लगता कन्धे पर जो डेढ़ छटांक दुपट्टा है ॥७२॥
     
    कुर्सी पर बैठे हि चाहिये सजेथाल का आ जाना।
    रोचक भोजन हो उसको फिर ठूंस ठूंस कर खा जाना॥
    चूर्ण गोलियों से विचार चलता है उस पचाने का।
    कौन परिश्रम करे जरा भी तुनके हिला डुलाने का ॥७३॥
     
    हो अस्वस्थ खाट अपनाई तो फिर वैद्यराज आये।
    करने लगे चिकित्सा लेकिन कड़वी दवा कौन खाये॥
    यों अपने जीवन का दुश्मन आप अहो बन जाता है।
    अपने पैरों मार कुल्हाड़ी मन ही मन पछताता है ॥७४॥
     
    एक शिकार हुआ यों देखों खाने को कम मिलने का।
    किन्तु दूसरा बिना परिश्रम ही अतीव खा लेने का॥
    बुरा भूख से कम खाने को मिलना माना जाता है।
    वहीं भूख से कुछ कम खाना ठीक समझ में आता है॥७५॥
     
    चार ग्रास की भूख जहाँ हो तो तुम तीन ग्रास खावो।
    महिने में उपवास चतुष्टय कम से कम करते जावो॥
    इस हिस्से से त्यागी और अपाहिज लोगों को पालो।
    और सभी श्रम करो यथोचित ऐसे सूक्त मार्ग चालो ॥७६॥
     
    तो तुम फलो और फूलो नीरोग रहो दुर्मद टालो।
    ऐसा आशीर्वाद बड़ों का सुनलो हे सुनने वालो॥
     
    स्वोदर पोषण की निमित्त परमुख की तरफ देखना है।
    कुत्ते की ज्यों महा पाप यों जिनवर की सुदेशना है॥ ७७॥
     
    फिर भी एक वर्ग दीख रहा शशी में कलंक जैसा है।
    हष्ट पुष्ट होकर भी जिस का भीख मांगना ऐसा है॥
    उसके दुरभियोग से सारी प्रजा हमारी दु:खी है।
    वह भी अकर्मण्यपन से अपने जीवन में असुखी है॥ ७८॥
     
    हन्त सुबह से झोली ले घर घर जा नित्य खड़ा होना।
    अगर नहीं कोई कुछ दे तो फूट फूट कर के रोना॥
    यों काफी भर लाना, खाना बाकी रहे बेच देना।
    सुलफा गांजा पी, वेश्या बाजी में दिलचस्पी लेना॥७९॥
     
    ऐसे लोगों को देना भी काम पाप का बतलाया।
    मांग मांग पर वित्तार्जन करना ही जिनके मन भाया॥
    क्योंकि इन्हीं बातों से पहुँचा भारत देश रसातल को।
    आज हुआ सो हुआ और अब तो बतलायेंगे कल को॥८०॥
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था।
    निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥
    बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था।
    अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥
     
    जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है।
    जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥
    सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था।
    किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥
     
    क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था।
    कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने वाला था।
     
    इसीलिए चोरी जारी का यहाँ जरा भी नाम न था।
    निर्भय होकर सोया करते ताले का तो काम न था ॥८३॥
     
    ईति भीति' से रहित सुखप्रद था इसका कोना कोना।
    कौन उठाने लगा कही भी पड़ा रहो किसका सोना॥
    जनधन से परिपूर्ण यहाँ वालों की मृदुतम रीति रही।
    सदा अहिंसा मय पुनीत भारत लालों की नीति सही ॥८४॥
     
    आज हमारे उसी देश का हाल हुआ उससे उलटा।
    मानो वृद्धावस्था में हो चली अहो नारी कुलटा॥
    दिन पर दिन हो रही दशा सन्तोष भाव में खूनी है।
    अब हरेक की आवश्यकता आमदनी से दूनी है ॥८५॥
     
    इसीलिए बढ़ रही परस्पर लूट मार मदमत्सरता।
    विरले के ही मन में होती इतर प्रति करुणा परता॥
    अतः प्रकृति देवी ने भी अपना है अहो कदम बदला।
    आये दिन आया करती है, यहाँ एक से एक बला ॥८६॥
     
    कही समय पर नीर नहीं तो कही अधिक हो आता है।
    पकी पकाई खेती पर भी तो पाला पड़ जाता है।
    जल का बन्ध भङ्ग हो करके कहीं बहा ले जाता है।
    अथवा आग लग जाने से भस्म हुआ दिखलाता है॥८७॥
     
    हैजा कहीं कहीं मारी या, मलेरिया ज्वर का डर है।
    यों इसमें सब और से अहो, विपल्व होता घर घर है॥
    देश प्रान्तमय प्रान्त नगरमय नगर घरों का समूह हो।
    इसीलिए घर की बावत में इतला देना आज अहो ॥८८॥
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ईंट और मिट्टी चूने आदिक से बना न घर होता।
    वह तो विश्राम स्थल केवल जहाँ कि तनुधारी सोता॥
     
    किन्तु स्त्रीसुत पितादिमय कौटाम्बिक जीवन ही घर है।
    इसमें मूल थम्भ नर नारी वह जिन के आधार रहें ॥८९॥
     
    कल्पवृक्ष की तुल्य घर बना जिस का तना वना नर है।
    नारी जिस की छाया आदिक जिसके ये सुफलादिक है॥
    नारी का हृदयेश्वर नर तो वह भी उसका हृदय रहे।
    वह उसको सर्वस्व और वह उसको जीवन सार कहे॥९०॥
     
    वह उसके हित प्राण तजे तो वह उसका हित चिन्तक हो।
    दोनों का हो एक चित्त स्वप्न में भी विद्रोह न हो।
    प्रशस्यता सम्पादक नर हो मदिर और नारीशम्पा।
    जहाँ विश्व के लिए स्फुरित होती हो दिल में अनुकंपा ॥९१॥
     
    लक्ष्मी किसी भांति भामिनी सदा अतिथि सत्कार करे।
    माधव तुल्य मनुष्य शरण आये के संकट सभी हरे॥
    न दीन होकर रहे मनुज मुक्ता मयता को अपनावे।
    सानुकूलता से सरिता ज्यों जनी सरसता दिखलावे ॥९२॥
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    वह कुलाङ्गना धन्य जो कि हो पति के लिए पुष्वल्ली।
    अगर और का हाथ बढ़े तो वहाँ घोर विष की वल्ली॥
    हो परिणीत कोढिया भी तो कामदेव से बढ़कर हो।
    चिन्चा पुरुष समान पुष्ट होकर भी जिसके पर नर हो ॥९३॥
     
    एक पाणिपरिणीत पुरुष ही जिस के लिए वरद साँई।
    और सभी सर्वदा मनोवाक् तनु से पिता पुत्र भाई॥
    अगर कहीं पति रूठ गया तो, शरण एक परमात्मा की।
    जिसके लिए शेष रह जाती और किसी को क्या झांकी॥९४॥
     
    उन पतिव्रताओं के आगे मस्तक सभी झुकाते हैं।
    जिनके शील गुण प्रभाव से विघ्न सभी टल जाते हैं।।
     
    जहाँ अग्नि का शीतल जल हो साँप सुमन बन जाता है।
    अमृतरूप में विष परिणत हो, करके स्वास्थ्य बढ़ाता है।९५॥
     
    शव के साथ किन्तु जल जाना इसमें नहीं सतीपन है।
    प्रत्युत इसमें हो जाता उत्पथ का सहज समर्थन है॥
    इन्द्रिय दमन मनो निग्रह में, ही आत्मा की बलिहारी।
    देखों मीरां बाई ने कैसी अपनी परिणति धारी ॥९६॥
     
    इसी तरह से पूर्व काल में और अनेकों हुईं सती।
    जिन कुलाङ्गनावों ने जाना जीवन भर में एक पति॥
    सीता मदन सुन्दरी सोमा मनोरमा आदिक सतियाँ।
    पति सेवा में निरत रहीं जब तक गृह में उनकी मतियाँ ॥९७॥
     
    पति एक ही किन्तु पत्नियाँ अनेक भी हो रहती है।
    अन्त समाधि धारि तन छोड़ा जिससे पाई सद्गतियाँ॥
    कुल ललनावों की ऐसी ही अनुकरणीय वनोंवतियाँ।
    यद्यपि अनेक शाखायें एकघ्रिप के हो जाती हैं।
    नहीं एक शाखा अनेक पेड़ों पर तो जम पाती है ॥९८॥
     
    एक पयोनिधि में अनेक नदियाँ हैं आ जाया करती।
    एक नदी क्या कभी अनेक समुद्रों को पाया करती॥
    यों अनेक नारियाँ एक नर के भी हो जा सकती हैं।
    किन्तु एक नारी के अनेक नर यह बात खटकती है॥९९॥
     
    अगर एक नर के नारी भी एक यही ध्रुव नियम बने।
    तो नर से नारी तिगुण संख्या में कैसे काम बने॥
    हाँ नर नर की शय्या होना काम नहीं है नारी का,
    वैसे ही नर का भी अलि हो ना पर की फुलवारी का॥१००॥
     
    है विवाह बन्धन उपयोगी इसीलिए माना जाता।
    जिसके बिना नहीं बन सकता पिता पुत्र आदिक नाता॥
    फिर तो पशुओं के समान लोगों का चलन यहाँ होवे।
    अपनी खाज खुजाने का फिर कौन मदद किसकी होवे ॥१०१॥
     
    इसीलिए श्री ऋषभदेव ने यथा रीति शादी की थी।
    उनको ले आदर्श और, सब ने भी वहीं प्रीति ली थी॥
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पर नर के संयोग वश्य ज्यों नारी अधमा होती है।
    उससे भी कुछ अधिक परस्त्री-रत नर यों समझोती है॥१०२॥
     
    क्योंकि स्त्री का जीवन तो, भूतल पर परवश होता है।
    किन्तु मनुज निजवश होकर भी, ले कल्मष में गोता है॥
    हन्त हन्त हम खुद तो देखो, रावणता को लिए रहें।
    महिलाओं में सीतापन हो, ऐसी सुख से बात कहें ॥१०३॥
     
    तो फिर होगा क्योंकि विश्व में, विप्लव ही हो पावेगा।
    चन्दन में से आगी होकर, जगत् भस्म हो जावेगा॥
    हा हा घर में प्रेम पियारी, मदन सुन्दरी नारी है।
    फिर भी देखो पर अबला पर होती ताक हमारी है॥१०४॥
     
    उसके गूढ़ाङ्गों को लख कर, मनो मुग्ध हो जाते हैं।
    कब कैसे इसका चुम्बन, पावें यों विचार लाते हैं।
    मौका पाकर गुप्ततया, उसके घर में घुसना चाहे।
    भूख प्यास को भुला सतत, सोचा करते उसकी राहें ॥१०५॥
     
    घर का हलवा तज पर का मलवा ही मन को भाता है।
    कुत्ते का ज्यों जूठन खाने को ही जी ललचाता है।
    इस उधेड़ बुन में यदि आई याद कदापि लज्जिका की।
    तो फिर क्या था बड़ी खुशी से लेते राह बंगला की ॥१०६॥
     
    कञ्चनमय भूषण तज कर भाया हार मुलम्मे का।
    हुआ विचार धार तज कर कीचड़ में डुबकी लेने का॥
    पाऊडर परिपूर्ण वदन का पारायण पा जाने में।
    लगी दृष्टि मुग्ध हुआ मानस सरस सुरीले गाने में ॥१०७॥
     
    उसने जहाँ दादरा ठुमरी पीलू कव्वाली गाई।
    एक-एक टप्पे पर फिर तो बाहु बन्द बंगडी आई॥
    घर वाली को चने नहीं इसको बरफी बालूसाई।
    उसको चिथड़ा नहीं यहाँ चिक्कन की बनी साड़ी आई॥१०८॥
     
    कहीं शोरबा चुसकी ली तो मानों त्रिभुवन सुख लूटा।
    किन्तु जहाँ छूटा शरीर पल भर में वहाँ कर्म फूटा॥
    क्योंकि वहाँ बेहूदेपन से खोटा कर्म कमाते हैं।
    उपदंशादिक संक्रामक रोगों के घर बन जाते हैं ॥१०९॥
     
    कहें किसे क्या अपनी करनी यौवन का अभिमान हुआ।
    पैसा गया धर्म भी हारा यों जीवन निस्सार हुआ।
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मूल्यांकन अब घर वाली का वे हजरत कर पाते हैं।
    वहीं एक साथिन जब होती, और दूर भग जाते हैं ॥११०॥
     
    अपनी भूल हुई पर अब तो मन ही मन पछताते हैं।
    जिसे पगरखी तुल्य कही, उसको खुद हृदय लगाते हैं॥
    कहते हैं इस पर ही तो है घर का बोझ भार सारा।
    नर क्या करे बना यह केवल मेहनतिया है बेचारा ॥१११॥
     
    शिशुलालन, पशुपालन, चुल्लीवालन, भिक्षुनिभालन भी।
    ये औरत से ही होते, नहि नर के वश की बात कभी॥
    जबकि हमारे धीठ दिलों में गौरव रहा न औरत का।
    बिना पंख के पक्षी जैसा हाल हमारी सौरत का ॥११२॥
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    महिलाओं को आज भले ही व्यर्थ बता कर हम कोसें।
    नहीं किसी भी बात में रही वे है पीछे मरदों से॥११४॥
     
    जहाँ कुमारिल बातचीत में हार गया था शंकर से।
    तो उसकी औरत ने आकर पुनः निरुत्तर किया उसे॥
    दशरथ राजा का सारथिपन किया कैकेयी रानी ने।
    कैसा लोहा लिया शत्रु से था झांसी की रानी ने॥११५॥
     
    श्रेणिक को सत् पथ पर लाने वाली हुई चेलना थी।
    रहा विपत् में अहो सिर्फ वह नारी ही नर का साथी॥
    बहुत जगह ललनाओं ने है मरदों से बाजी मारी।
    लिखी नहीं जा सकती हमसे उनकी कथा यहाँ सारी॥११६॥
     
    इस संसार मरुस्थल में नीरसता है गुरु कहते हैं।
    खड़े भवाम्बु तीर पर ये सन्ताप जीव सब सहते हैं॥
    मानव और मानवी दोनों तन्दुरुस्त हो चुस्त रहें।
    कुंभ और रज्जू इनमें हम किसको छोटा बड़ा कहें॥११७॥
     
    वह मस्तक है तो वह दिल है इतना ही बस अन्तर है।
    लड़के लड़की पैर तुल्य है समाज के यों याद रहे।
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    बाल बालिकाओं को शिक्षा दिला सुयोग्य बना देना।
    माता-पिता का काम उन्हें व्यसनों से सदा बचा लेना॥११८॥
     
    किन्तु आज रह गया सिर्फ कर देना उनकी शादी का।
    यह ही सबसे पहला कारण समाज की बरबादी का॥
    जो भी हों कर रहे आप से उन्हें वही करने देना।
    अनुशासन का लाड़ चाव में कुछ भी नहीं नाम लेना॥ ११९॥
     
    बालपन है चलो अभी यों कहकर टाल बता देना।
    उनकी बुरी वासनाओं को पहले तो पनपा लेना॥
    जब वे पकड़ गई जड़ तो फिर कैसे कहो दूर होवें।
    यों उनके दुश्मन बन करके अपने आप सदा रोवें॥१२०॥
     
    जननी और जनक कहलाने वालों का विवेक ऐसा।
    लड़के लड़की कहलाने वालों का चाल चलन कैसा॥
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जहाँ बड़ों का विनय न कुछ भी और न अपनी लघुताई।
    कोट बूट पतलून हैट हो और गले में हो टाई॥ १२१॥
     
    खटिया से उठते ही टी हो, फिर मुँह में आवे सिगरेट।
    भगवन्नाम चीज क्या होता गुडमोर्निग जहाँ हो भेट॥
    रोटी खाई फुरसत पाई ताम गज्जफा करने को।
    एक दूसरे के अवगुण कह आपस में लड़ मरने को॥१२२॥
     
    कहा गया यदि कहीं कि बेटे कुछ धन्धा भी देखों ना?
    नहीं समूचा समय चाहिये खेलकूद में ही खोना॥
    तो जवाब मिलता है चट से अब तो तुम जीवित हो ना?
    मर जावोगे तो देखेंगे पहले ही से क्यों रोना॥१२३॥
     
    अपढ़ों की यह बात पठित लोगों की जैसी परम्परा।
    सो भी लिखा जा रहा उस पर ध्यान दीजिये आप जरा॥
    अगर किसी भी विद्यालय में भाग्योदय से दाखिल हो।
    अक्षर रटे पास हो आये तेतीस नम्बर लिए अहो॥१२४॥
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरु सेवा करके शिक्षा पाते थे।
    गुरुजन भी शिष्यों को सुत कहकर निःशुल्क पढ़ते थे॥१२९॥
     
    आज्ञाकारी हो गुरु के चरणों में शीश झुकाते थे।
    बनकर शिष्य हृदय उनका यों वे सब कुछ पा जाते थे॥
    लोकोपकारार्थ ही होता था उनका विद्या पढ़ना।
    उदरपूर्ति के सवाल को तो कभी नहीं उस पर मंढना॥१३०॥
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    हन्त आज हो चली जीविका-साधन विद्यायें सारी।
    इसीलिए परमार्थ भावना दूर गई वह बेचारी॥
    बिना वृत्ति के अध्यापक-जन नहीं पढ़ाना ही जाने।
    वहाँ छात्रगण उन्हें क्यों नहीं अपना ही नौकर मानें॥१३१॥
     
    विप्र क्षत्रिय वैश्य सभी की दृष्टि नौकरी पर आई।
    फिर हम किसको दास कहें यों कौन रहे भू पर साई॥
    नूतन शिक्षे परिहृतदी' तू क्यों भारत में आई।
    पढ़ो बालको करो नौकरी यह फैशन है अपनाई॥१३२॥
     
    और नहीं कुछ काम एक सी ए टी कैट पढ़ा देना।
    अपना घण्टा पर पूरा यों झट पट फीस झाप लेना॥
    कोई उपन्यास की पुस्तक लिखो रसीली जो होवे।
    बिके धड़ाधड़आय बनें यों जो कि गरीबी को खोवे॥१३३॥
     
    अथवा कोई पत्र निकालों उसमें लेख लिखो भाई।
    इधर उधर की गप्प भरो दिखलावों अपनी चतुराई॥
    या आपस में लड़ा भिड़ा कर दावा दायर करा दिया।
    दोनों में से किसी शुल्क देने वाले का पक्ष लिया॥१३४॥
     
    झूठी सच्ची बात बना कर उसको अतिशय तूल दिया।
    बने जहाँ तक विपक्ष वाले से भी यों कुछ ऐंठ लिया॥
    अगर नहीं कोई भी चारा चला रासलीला खेलो।
    उसमें भी सीधे से सीधा पाट विदूषक का लेलो॥१३५॥
     
    आप पतन की ओर चले औरों को भी ले चलने को।
    बने अग्रसर हाय भूमि पर निश्शर्मता उढलने को॥
    क्योंकि रास में सिवा धर पकड़ के न और कुछ भी होता।
    जहाँ कि जाकर भला न कोई शान आपकी को खोता॥१३६॥
     
    फिर भी भोले जीव इन अखाड़ों में खुश हो जाते हैं।
    खाने को भी न हो किन्तु नाटक का टिकट मंगाते हैं॥
    इसी तरह बाजार गर्म हो रहा लफंगेबाजी का।
    जो करता है सदाचार में कार्य दूध में साजी का॥१३७॥
     
    हे धूर्ते दुःशिक्षे तूने कैसा रंग जमाया है।
    बहुत शीघ्र इस दीन देश का रूप अहो पलटाया है॥
    हन्त पिशाचिनि इस भारत का तूने शोणित खूब पिया।
    पापिनि पीछा छोड़ जरा इस पर अब तो करदे सुदया॥१३८॥
     
    प्रायः सारे भारत ही को तूने आड़े हाथ लिया।
    पराराधना में व्यस्त बना यों इसको बेजार किया॥
    था भारत यह हुआ अभारत सम्प्रति अपनी करनी से।
    ऊँचा उठने के बदले वह गया मूल में धरनी से॥१३९॥
     
    क्योंकि इतर देशों की सी बातें करने में ही राजी।
    होता है अपनाई इसने सर्वांश में नकल बाजी॥
    करते थे सब देश जहाँ अनुकरण इसी सुशयाने का।
    आज यही कर रहा यल औरों की रुख में जाने का॥१४०॥
     
    हन्त-हन्त बगला बनने को राज हंस ज्यों ललचाया।
    दूध और मुक्ता तज करके मछली खाने को धाया॥
    किन्तु फूल खाने वाले के शूल पेट में कहाँ पचे।
    मन मसोस के खा लेवे तो बड़ी उदर में व्यथा मचे॥१४१॥
     
    यही हाल है इस भारत का करता अनहोनी चाहें।
    अपनी सुन्दर सड़क छोड़ अपनाता औरों की राहें॥
    चलो मिलो हरिजन लोगों से परिजन एक बनाने को।
    इस भारत पर सारतत्त्व यह एक पना फैलाने को॥१४२॥
     
    जैसा वे करते हों वैसा तुम भी करने लग जाओ।
    तभी संगठन होगा भाई पाक साफ बनने आओ॥
    हमें आज के नेताओं ने क्या ऐसा बतलाया है।
    नहीं किन्तु उनके कहने को समझ न हमने पाया है॥१४३॥
     
    वे कहते हैं तो तुम मानव मानव उनको बतलाओ।
    वे यदि भूल समझना चाहें तो उनको भी समझाओ॥
    घृणा करो न नाम से उनके देख न उन्हें तमक जाओ।
    उनको उनकी बुराइयाँ सीधे वचनों में दिखलाओ॥१४४॥
     
    मद्यपान आदिक की आदत उनकी उनसे छुटवाओ।
    आप रहो मानव के मानव उनमें मानवता लाओ॥
    नेताओं की बातों से तो सबको मिलती है शान्ति।
    किन्तु हमारे ढंगों में दोनों तरफा है उत्क्रांति॥१४५॥
     
    एक निरामिष भोज्यालय में जूता पहने जाने को।
    है तैयार दूसरा तो फिर उसे डाट बतलाने को॥
    नहीं एक दल एक गाँव यों किन्तु एक घर वालों में।
    मचता है संघर्ष सदा भारत-माता के लालों में॥१४६॥
     
    हम हैं बड़े हमारा कहना तुम्हें मानना होगा ही।
    कहता है यों एक वहाँ दूजा करता लापरवाही॥
    अहो कहो ये बड़े बने तो क्या हम हैं दाल भी नहीं।
    आप थम्भ' घर में अवश्य हैं किन्तु यहाँ हम लाल सही॥१४७॥
     
    बात बात में एक दूसरे के शिर यों हम आते हैं।
    कुछ न दूसरे को गिन करके अपनी शान बताते हैं॥
    वो हमने अपने हृदयों में दानवता को अपनाया।
    मानवता को अपनाना तो दूर उसे न जान पाया॥१४८॥
     
    भारतीय लोगों के अब भी अहंकार है नस नस में।
    दलबन्दियाँ बनाकर देखो कलह मचाते आपस में॥
    है यह घर की फूट लूट का बीज देश में बनी हुई।
    इसी हवा से उड़ी जा रही देखो तो सम्पत्ति रुई ॥१४९॥
     
    मैं भी कोई तो हूँ यों तो सभी लोग सोचा करते।
    नहीं अन्य के बिना किन्तु कुछ भी यों याद नहीं करते॥
    देखो तो कि सहाय बिना क्या चुट की भी बजने वाली।
    हल्दी में नींबू के रस से ही तो आती है लाली ॥१५०॥
     
    सब कुटुम्ब के लोग एक दिल होकर यों हम कार्य करें।
    गुदड़ी के धागों की ज्यों मिल कर समता का भाव धरें॥
    पाँचों अंगुली एक बराबर हलकी भारी होकर भी।
    किसी चीज को जहाँ उठने चलती हो मिल जाय सभी ॥१५१॥
     
    अपना अपना कार्य किया करती हैं अपने नम्बर में।
    फिर भी देखो तो मिल जुल ये कैसे रहती हैं कर में॥
    हमको भी यह याद सदा रखना होगा अपने मन में।
    अपने को उत्तीर्ण बनाने चले अगर कर्मठपन में ॥१५२॥
     
    भिन्न देह हो किन्तु एक के अनुशासन में चले सदा।
    प्रत्येक में शक्ति सबकी हो फिर कैसी होवे विपदा॥
    स्वार्थपरायण न हो किसी का भी यह दिल चंचल पाजी।
    किन्तु परोपकार तत्पर हो तब फिर रहे प्रभु राजी ॥१५३॥
     
    मानवपन मण्डप समान यह महापुरुष बतलाते हैं।
    जिसमें आकर तनुधारी विश्राम सुखप्रद पाते हैं॥
    जिसकी चारों ओर चार दरवाजे स्पष्ट दिखाते हैं।
    वर्णि गृहस्थ-त्यागि-तपोधनपन यों नाम सुहाते हैं ॥१५४॥
     
    वर्णिपना एकाकिरूप से रहने को बतलाता है।
    जनता की सेवा करने को सैनिकता सिखलाता है॥
    शस्त्र शास्त्र दोनों विद्याओं में प्रवीण बनाता है।
    जिससे इसका सुजनों का निर्भय करने का नाता है॥१५५॥
     
    भीष्मपितामह जैसों ने इस आश्रम को अपनाया था।
    कला कौशल द्वारा यश अपने को खूब बढ़ाया था॥
    गुरु सुश्रूषा ध्यानाध्यापन आत्म संयमन का कोका।
    वर्णिपने में होता है जिससे न मिले अघ को मौका ॥१५६॥
     
    समताधारी उचिताचारी सत्पथ का अधिकारी हो।
    वह गुरु कहलाता है जग में कथमपि नहीं विकारी हो॥
    उसकी आज्ञा को शिर धरना करना पगचम्पी आदि।
    करना हो यदि अपने चिर के पाप मैल की बरबादी ॥१५७॥
     
    आम्नायाविच्छेदरूप से पढ़ना व्यर्थ नहीं बढ़ना।
    सर्वज्ञोदित आगम में निजमति की सड़क नहीं चढ़ना॥
    हाँ दृष्टेष्ट विरोध जहाँ हो, वह आगम की बात नहीं।
    नव नव तो ठारह होते हैं, ऐसे समझो सही सही ॥१५८॥
     
    बार बार विज्ञों के मुँह से जैसा भी सुन पाया हो।
    जिसको समझ सोच कर फिर निज मानस में बिठलाया हो॥
    पक्षपात के बिना सरलता से जनता के समक्ष में।
    मार्ग प्रभावना करने को रख देना चाहिये हमें ॥१५९॥
     
    निद्रा के बस कभी न होना श्वान की तरह से सोना।
    निर्विकार वस्त्रादि सहित सन्तोषितया दिल मल धोना॥
    सात्विक भोजन एक बार दिन में गृहस्थ से ले लेना।
    करना निज पर का हित ऐसे कष्ट न किसको भी देना॥१६०॥
     
    अब आगे हम बतलाते हैं गृहस्थ लोगों की बातें।
    पर सहायता से ही जिनकी बीता करती हैं रातें॥
    आजीवन, सम्पोषण, योग, क्षेम चार बातें ये ही।
    होती है गृहस्थपन में जिन से सकुशल रहता देही॥१६१॥
     
    निज कुल निज कौशल को लेकर आजीवन को अपनाना।
    बने जहाँ तक उसमें अपनी खूब दक्षता दिखलाना॥
    नहीं किसी सम-धन्धेवाले से मन में ईर्षा लाना।
    और न शोषणभाव चित्त में रखना सौजन्य दिखाना॥१६२॥
     
    घर आये प्राघूर्णिक का स्वागत करना तनु मन, धन से।
    कम से कम आश्वासन देना अन्न-जल तथा सुवचन से॥
    अन्ध पंगु आदिक अपाहिजों की यथेष्ट सेवा करना।
    अपनी कठिन कमाई का फल पाने को मानस धरना॥१६३॥
     
    जो कोई भी मिला उसी से हो जिसका भाईचारा।
    प्रेम पियासा बनकर जो करता है अपना निस्तारा॥
    पिता पुत्र माता भगिनी आदिक सम्बन्ध सुधा धारा।
    बहती रहती जहाँ वही गेही होता जग का प्यारा॥१६४॥
     
    नहीं किसी से भी मेरी अनबन होने पावे कब ही।
    ऐसा करूँ कि जिससे हों मानव मानव मेरे सब ही॥
    ऐसी विचारधारा जिसके मन में पनपा करती हो।
    ऐसे गृहस्थ से समलंकृत धन्य सदा यह धरती हो॥१६५॥
     
    यों प्रेमामृत के बल पर जिसका आंगन सुखदायक हो।
    अन्न और धन जन से निश दिन पूर्ण उसे ही स्वर्ग कहो॥
    जहाँ तनुज तो देव तुल्य पापाशय से परिहीण रहें।
    देवी सी मानवी मनोज्ञा वह ही तो गेहाश्रम है॥१६६॥
     
    मद्यपान मांसाशन चोरी जारी वचन दगाकारी।
    इन्द्रिय लम्पटता में पड़कर जहाँ लोभ लालच भारी॥
    हो विनोद वश पर-प्राणिवध महारम्भ कहलाते हैं।
    जिनके करने वाले नाना दण्ड यहाँ भी पाते हैं॥१६७॥
     
    फिर इन अपने दुष्कृत्यों से नरक भूमि में जाते हैं।
    मारण ताड़न शूलारोपण आदिक दुःख उठाते हैं॥
    रौद्र भाव से मरते हैं। वे घोर रूद्र बन जाते हैं।
    हाय हाय करते वर्षों तक कष्ट सतत ही पाते हैं॥१६८॥
     
    इन्हीं हमारे दुष्कृत्यों को कोई नहीं जान पावे।
    यों कपटाई रखने वाला हो वह पशुगति में जावे॥
    बन्धन ताड़न अति भारारोपण इत्यादिक कष्ट घने।
    भुगता करता जीव वहाँ भी देख रहे हैं सभी जने॥१६९॥
     
    मानवता जो रखता है यद्यपि इन से हट रहता है।
    फिर भी गृहस्था के चक्कर में जो सन्तत बहता है॥
    शान्ति नहीं मिल पाती इसको परिग्रहान्वित होने से।
    अहो समुज्ज्वलता आती मैले कपड़े को धोने से॥१७०॥
     
    देखो भूतल पर चेतन ने जब मानव तनु पाया था।
    क्या कोई भी चीज आपके साथ यहाँ पर लाया था॥
    अहो व्यर्थ ही मेरा मेरा करके रुपया पैसादि।
    संग्रह किये और उस पर से की है ममता से शादी॥१७१॥
     
    श्वान मांस के टुकड़े को जब मुँह में ले करके आया।
    और अनेकों कुत्ते झपटे उसे जहाँ कि देख पाया॥
    मांस पिण्ड को डाल जमीं पर वह तो दूर दौड़ पाया।
    शेष सारमेयों ने उसके पीछे तूफान मचाया॥१७२॥
     
    मतलब यह कि परिग्रह ही है भूरि झंझटों का अड्डा।
    कटा डालता हाथ समय पर पहने हुए जो कि टड्डा॥
    यों विचार जिनके मन में आया निष्कञ्चन बनने का।
    किन्तु न एक एक जहाँ साहस हो सभी विभजने का॥ १७३॥
     
    त्यागिपना अपना करके धीरे-धीरे वे बढ़ते हैं।
    मानों पैण्ड-पैण्ड चल कर नैराश्य शिखर पर चढ़ते हैं॥
    आवश्यकताओं को कम कम करना काम जिन्हों का है।
    तृष्णा नदी पार करने को ली निष्पृहता नौका है॥१७४॥
     
    त्याग मञ्च के भी देखों ये चार मनोहर पाये हैं।
    दान-शील उपवास भावना जिनके नाम बताये हैं॥
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सम्यक्त्वादिक आठ गुणों की स्मृति में आठे पूर्व कहा।
    गुणस्थान मार्गणा स्मरण को, लेकर चतुर्दशी च महा॥
    सभी तरह का धन्धा तजकर अतः वहाँ अनशन करना।
    परमात्म स्मृति पूर्वक अपनी मनोमालिनता को हरना॥१७६॥
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    तीनों संध्याओं में निश्चल चित्ततया भगवान भजे।
    सब जीवों में समता धरकर आर्त रौद्र परिणाम तजे।
    पहले बन पड़ जाने वाले दुष्कृत्यों पर पछताना॥
    आगे को न कभी करने की मनोभावना को माना ॥१७७॥
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पाँचों अणुव्रतों को दूषित कभी नहीं होने देना।
    पाँच तरह के अनर्थ दण्डों की न कभी जागे सेना॥
    पंचेन्द्रिय के वश में होकर कभी न दुर्यश को लेना।
    ऐसा शील भवोदधि में संवरमय दृढ़ नौका खेना ॥१७८॥
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    गेही से त्यागी का जीवन भिन्न जाति का होता है।
    वह होता आराम तलब वह तो विवेक को ढोता है॥
    गेही मखमल के गद्दे युत पलंग ऊपर सोता है।
    त्यागी गुरु के चरणों में भूपर रजनी को खोता है॥१७९॥
     
    गेही तेल फुलेल लगा कर खुशबू से खुश होता है।
    त्यागी रुग्ण मुनिजनों के मल-मूत्र यथोचित धोता है॥
    गेही नाटक और सिनेमा देखा करता खड़े-खड़े।
    त्यागी की तो नजर धूसरित गुरु चरणों पर सहज पड़े॥१८०॥
     
    मृगनयनी के मुँह से ठुमरी दादरादि को सुनता है।
    तो मस्त हुआ गेही मस्ती से मस्तक को धुनता है॥
    गुरु के अनुशासनमय कठोर, वचनों को सुन पाता है।
    त्यागी तो अपने जीवन को तब ही सफल मनाता है॥१८१॥
     
    सरस और सुस्वादु चीज का भोजन फिर फिर करता है।
    गेही, त्यागी तो स्वाद रहित खाद्य से उदर भरता है॥
    गेही खश आदि से सुगन्धित शीतल जल को पीता है।
    त्यागी तो उष्ण किये लघु नीर के सहारे जीता है ॥१८२॥
     
    जिस सब्जी बाणच को गेही कच्चा ही खा जाता है।
    क्योंकि उसे तो ऐसा खाने में ही स्वाद दिखाता है॥
    त्यागी पेट पालने वाला नहीं स्वाद पर जाता है।
    अग्निपक्व होने पर उसकी शाकरूप में आता है॥१८३॥
     
    गेही सोचा करता है मैं अभी नहीं मरने पाऊँ।
    मेरा एक काम बाकी है उसको भी मैं कर जाऊँ॥
    हाय हाय क्या करूँ देह में हुई घोर बीमारी है।
    जो भी इसे मिटा दे उसका यह बन्दा आभारी है ॥१८४॥
     
    कम से कम दो घण्टे तो जीवित रखदे लाचारी है।
    मुँह मांगा देऊँ उसको मुझ पास अहो धन भारी है॥
    त्यागी भी मरता न चलाकर क्योंकि कहा नर देह भला।
    जिसको पाकर चेतन अपनी कर सकता है प्रकट कला ॥१८५॥
     
    किन्तु वहाँ इस तनु के रहने का कोई सदुपाय नहीं।
    नश्वरता इसका स्वभाव यह रोग शोक की स्पष्ट मही॥
    नाशोन्मुख पाता है इसको तो अपने आचारादि।
    गुण रतनों को नहीं बिगड़ने देता वह है स्याद्वादी ॥१८६॥
     
    प्रसन्नता पूर्वक इसको तजता समता को चखता है।
    इस मरने को अमर रूप देने की क्षमता रखता है॥
    तब संन्यास भाव लेकर है वही तपोधन बन जाता।
    जिसके यह कवि तथा भी सारा ही है गुणगाता ॥१८७॥
     
    क्षमा और निष्किंचनता ध्यान स्वाध्याय नाम वाले।
    चार धर्म उसके प्रधान जो निज को निज में सम्भाले॥
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    २३ जून २०१८, कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका. 
    लगभग ४५० लोगों ने कार्यक्रम में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराईऔर सभी का उत्साह देखते बना 
    आचार्यश्री के जीवन पर आधारित वृत्तचित्र(डॉक्यूमेंटरी फिल्म) ने सबका मन मोह लिया! बच्चों का नाटक "विद्याधार से विद्यासागर" हिंदी भाषा में किया गया, उन बच्चों द्वारा जो सिर्फ अंग्रेजी ही जानते हैं  और हिंदी पढ़ भी नहीं पाते!
    आचार्य श्री के चित्र और विभिन्न प्रकल्प  की झांकी लगायी गई | महिलाओं का नृत्य और गरबा भी हुआ
    शुद्ध भोजन, चाय और शाम के भोजन की पूरी व्यवस्था स्वयंसेवकों  ने ही  की,  बाजार से कुछ भी नहीं मंगाया गया|
     
    कार्यक्रम विवरण 
     
    पूजन और अभिषक - ८ से १० बजे तक  नाश्ता - १० से १०:३०  भोजन - १२ से १:३०  सांस्कृतिक कार्यक्रम - १:३० से ५:३०  रास गरबा - ५:३० से ६:३०  सूर्यास्त के पहले शाम का भोजन - ६:३०- से ७:३०  
     
    कार्यक्रम झलकियाँ
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पुरस्कार ? From @Ghar ghar dharmik likhawat
    हथकरघा की चादर(1)
    हथकरघा का योगा मैट(1)
    हथकरघा का हैण्ङ बैग(3)
    @Dr. Aayushi Jain
    @Shravak Jain@ajain9103@gmail.com   @PRAYAG JAIN  @Jyoti Kolhapure
    आप सभी अपना पता मेसेज करें, मोबाइल नंबर प्रोफाइल में अपडेट करें 
     
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    नहीं शत्रु से भर जरा भी नहीं मित्र भी स्नेह मही।
    जीना मरना एक सरीखा यतिपन में समदाम सही ॥१८८॥
     
    अपनी निन्दा में न मलिनता और न खुशी बड़ाई में।
    ऐसी क्षमता भेद न कुछ भी सेवक में या सांई में॥
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    इस दुनियाँ में जड़ चेतन चीजों का जो कुछ डेरा है।
    मैं हूँ ज्ञाता दृष्टा केवल और न कुछ भी मेरा है ॥१८९॥
     
    यह शरीर भी भिन्न चीज है जिसमें लिया बसेरा है।
    सदा अरूपी चेतन मैं यह रूपादिक का डेरा है।।
    और सभी तो भिन्न धरा धन-धाम पुत्र सोदार दारा।
    आदिक दीख रहे हैं देखो इनमें क्या मेरा न्यारा ॥१९०॥
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    रहे अकिञ्चनपन को यों अपना कर यह चेतन प्यारा।
    दूर हटे इसके दिल पर से दुःखद राग रोष सारा॥
    यों अपने में आप आपको पाकर आत्मा राम बने।
    पराधीनता रूप दीनता को पलभर में क्यों न हने ॥१९१॥
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    इसके लिए प्रथम तो जिनवर-वाणी गंगा में गोता।
    इस भोले शरीरधारी को बार-बार लेना होता॥
    ऐसा करने से इसका मानस हो जाता है गीला।
    चिरकालीन कर्म-बंधन भी जिससे हो रहता ढीला ॥१९२॥
     
    दूर हटाई जा सकती आसानी से अघमाया है।
    फिर तो इसको विज्ञवरों ने यों स्वाध्याय बताया है॥
    स्वाध्याय प्रसाद से यदि जो मन में अडोलता आई।
    वहीं ज्ञानभूषणताकर सद्ध्यान कहा जाता भाई ॥१९३॥
     
    ॥ इति शुभम्॥
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