आत्मा मदीय दुखदा तरु शाल्मली है, दाहात्मिका-विषम-वैतरणी नदी है।
किंवा सुनंदन बनी मनमोहनी है, है कामधेनु सुखदा, दुख-हारिणी है ॥१२२॥
आत्मा हि दु:ख सुख रूप विभाव कर्त्ता, होता वही इसलिए उनका प्रभोक्ता।
आत्मा, अनात्म-रत ही रिपु है हमारा, तल्लीन हो स्वयं में तब मित्र प्यारा ॥१२३॥
आत्मा मदीय रिपु है बन जाय स्वैरी, स्वच्छन्द - इन्द्रिय - कषाय -निकाय-वैरी।
जीतूँ उन्हें निज नियंत्रण में रखें मैं, धर्मानुसार चल के निज को लखें मैं ॥१२४॥
जीते भले हि रिपु को रण में प्रतापी, मानो उसे न विजयी, वह विश्वतापी।
रे! शूर वीर विजयी जग में वही है, जो जीतता स्वयं को बनता सुखी है ॥१२५॥
जीतो भले हि पर को, पर क्या मिलेगा? पूछे तुम्हें दुरित क्या उससे टलेगा?
भाई! लड़ो स्वयं से मत दूसरों से, छूटो सभी सहज से भव-बंधनों से ॥१२६॥
अत्यंत ही कठिन जो निज जीतना है, कर्त्तव्य मान उसको बस साधना है।
जो जी रहा जगत में बन आत्म जेता, सर्वत्र दिव्य-सुख का वह लाभ लेता ॥१२७॥
औचित्य है न पर के वध-बंधनों से, मैं हो रहा दमित जो कि युगों-युगों से।
होगा यही उचित, संयम योग धारूँ, विश्वास है, स्वयं पै जय शीघ्र पाऊँ ॥१२८॥
हो एक से विरति तो, रति एक से हो, प्रत्येक काल सब कार्य विवेक से हो।
ले लो अभी तुम असंयम से निवृत्ति, सारे करो सतत संयम में प्रवृत्ति ॥१२९॥
हैं राग-रोष अघकोष नहीं सुहाते, ये पाप कर्म, सबसे सहसा कराते।
योगी इन्हें तज, जभी निज धाम जाते, आते न लौट भव में, सुख चैन पाते ॥१३०॥
लो ज्ञान ध्यान तप संयम साधनों को, हे साधु! इन्द्रिय-कषाय-निकाय रोको।
घोड़ा कदापि रुकता न बिना लगाम, ज्यों ही लगाम लगता, बनता गुलाम ॥१३१॥
चारित्र में जिन समान बने उजाले, वे वीतराग, उपशांत कषाय वाले।
नीचे कषाय उनको जब है गिराती, जो हैं सराग, फिर क्या न उन्हें नचाती? ॥१३२॥
हा! साधु भी समुपशांत कषाय वाला, होता कषाय-वश मंद विशुद्धि वाला।
विश्वासभाजन कषाय अतः नहीं है, जो आ रही उदय में अथवा दबी है ॥१३३॥
थोड़ा रहा ऋण, रहा वृण मात्र छोटा, है राग, आग लघु यों कहना हि खोटा।
विश्वास क्यों कि इनपै रखना बुरा है, देते सुशीघ्र बढ़ के दुख मर्मरा है ॥१३४॥
ना क्रोध के निकट 'प्रेम' कदापि जाता, है मान से विनय शीघ्र विनाश पाता।
माया विनष्ट करती जग मित्रता को, आशा विनष्ट करती सब सभ्यता को ॥१४॥
क्रोधाग्नि का शमन शीघ्र करो क्षमा से, रे मान मर्दन करो तुम नम्रता से।
धारो विशुद्ध ऋजुता मिट जाय माया, संतोष में रति करो तज लोभ जाया ॥१३६॥
ज्यों देह में सकल अंग उपांगकों को, लेता समेट कछुआ, लख संकटों को।
मेधावि- लोग अपनी सब इन्द्रियों को, लेते समेट निज में भजते गुणों को ॥१३७॥
अज्ञान मान वश दी कुछ ना दिखाई- मानो, अनर्थ घटना घट जाय भाई।
सद्यः उसी समय ही उसको मिटाओ, आगे कदापि फिर ना तुम भूल पाओ ॥१३८॥
जो धीर धर्म रथ को रुचि से चलाता, है ब्रह्मचर्य सर में डुबकी लगाता।
आराम-धर्ममय जो जिसको सुहाता, धर्मानुकूल विचरें मुनि मोद पाता ॥१३९॥