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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. “जिन्होंने भविष्य को छोड़ा भवितव्यता पर पर्यायों को छोड़ा उनकी योग्यता पर और संयोगों को छोड़ा उनकी उदय दशा पर” स्वभाव सन्मुख रहती दृष्टि जिनकी उनकी भक्ति से दुविधा मिटती मन की। जब विहार करती हुई जा रही आर्यिकाएँ तभी रात घिरने को आई पर विश्राम को स्थान मिला नहीं कहीं निर्जन वन साँय-साँय की आवाजें... संग न कोई श्रावक व श्राविकाएँ हृदय के देवता को किया प्रणाम... हे गुरूदेव! हमारे प्राणों के प्राण! रक्षा करिये हमारी आप बिन कोई नहीं सहाई। तभी सहसा एक श्वेत वस्त्रधारी नौ-दस फीट जिसकी लंबाई गौर वर्ण,घूंघराये बाल चौड़ा ललाट, सधी चाल एक साथ आश्चर्य हुआ सभी को! बोला विनम्रता से वह बहनजी! किसी परेशानी में हैं आप? निःसंकोच बताइये मुझे ले सकूँ मैं आपकी सेवा का लाभ। कर्नाटक में इतना शुद्ध हिंदी भाषी देखने में सज्जन लगा जैसे हो राजस्थान का वासी, बतलाया उसे- हम हैं साध्वी रात में चलते नहीं क्या यहाँ ठहरने का स्थान है कहीं? तनिक विचार कर कहा उसने हाँ-हाँ निकट में है ईश्वर का मंदिर चलिये मेरे साथ मुझ पर विश्वास कर पचास सोपान चढ़कर मंदिर आ गया सुंदर-सा मंदिर, चौड़ी दहलान जहाँ न कोई व्यक्ति न कोई भगवान, जाते-जाते कहने लगा सुरक्षित है यह जगह आपके लिए, यदि कुछ आवश्यकता हो तो याद कीजियेगा मुझे इतना कहते ही हो गया अदृश्य... ढूंढते रह गये उसे यदि जरूरत हो तो बुलायेंगे कैसे? रात-भर गुरु-नाम का करते रहे जाप बीत गई सानंद रात हुआ सुप्रभात। प्रातः देखा उसे सुद्...र तक नहीं दिखा कोई घर निश्चित था कोई देवता वह! नहीं था सामान्य नर दूर रहकर भी जो रखते शिष्यों का ध्यान ऐसे गुरु चरणों में अनंत प्रणाम... जुबाँ से नहीं जीवन से उपदेश देते जो शब्द से नहीं सम्यक् साधना से समझाते जो इसीलिए समझ में आ जाता शीघ्र शिष्यों को।
  2. गुरु को मानने वाला पाता है स्वर्ग गुरु की मानने वाला पा लेता अपवर्ग गुरु के पवित्र नाम का जाप मिटा देता जन्मों का पाप, ज्ञानधारा ने जान लिया यह इसीलिए हो रही उतावली उसकी लहरें... उन सत्य घटनाओं को लिखने... घटना है दक्षिण विहार की उसकी साक्षी हैं शिष्याएँ गुरुवर की मूडबद्री की ओर जा रहा आर्यिका संघ... अनजाना रास्ता, लम्बा पथ साथ में कोई नहीं श्रावकगण तभी आया एक साईकिल सवार बह रही जिसके सिर से रक्तधार… बोला वह मत जाइये इस रास्ते से पत्थर का ढेर लगाकर बैठा है एक पागल आगे जाकर, आते-जाते पथिकों को कर रहा लहूलुहान वह आर्यिकाएँ पड़ गईं असमंजस में तब... शाम ढल रही थी... जंगल में रूकने की कोई जगह नहीं थी। सोचा तब मन ही मन गुरूवर की छत्रछाया है सदैव साथ फिर डर की क्या बात? स्मरण किया गुरुवर का सुरक्षित रहे संयम-संपदा यह जीवन दिया हुआ है आपका ध्यान रखना इस भक्त का यूँ गुरुवर के हाथों सब सौंपकर गुरू नाम का एक साथ जाप कर… ज्यों ही आये वहाँ त्यों ही श्रीफल से भरा वाहन आया तीन-चार फल फेंके उसने पागल उसे खाने में लग गया सभी ने पथ निर्बाध पार कर लिया... गुरु नाम से साक्षात् चमत्कार हो गया। सुरगुरू भी महिमा गा न सके गुरू की मैं ज्ञान की एक लहर गाऊँ कैसे महिमा उनकी? यूँ सोच रही ज्ञानधारा…
  3. पाया इसे न अबलौं इसको न पाना, मैंने इसे कर लिया, न इसे कराना। ऐसा प्रमाद करते नहिं सोचना है, आ जाय काल कब ओ न हि सूचना है ॥१६०॥ संसार में कुछ न सार असार सारे, हैं सारभूत समतादिक-द्रव्य प्यारे। सोये हुए पुरुष ये बस सर्व खोते, जो जागते सहज से विधि पंक धोते ॥१६१॥ सोना हि उत्तम अधार्मिक दर्जनों का, है श्रेष्ठ 'जागरण' धार्मिक सज्जनों का। यों वत्सदेश नृप की अनुजा जयंती' वाणी सुनी जिनप की वह शीलवंती ॥१६२॥ सोया हुआ जगत में बुध नित्य जागे, जागे प्रबोध उर में सब पाप त्यागे। है काल'काल' तन निर्बल ना विवाद, भेरुण्ड से तुम अतः तज दो प्रमाद ॥१६३॥ धाता अनेक विध आस्रव का प्रमाद, लाता सहर्ष वर संवर अप्रमाद। ना हो प्रमाद तब पंडित मोह-जेता, होता प्रमाद-वश मानव मूढ़ नेता ॥१६४॥ मोही प्रवृत्ति करते नहिं कर्म खोते, ज्ञानी निवृत्ति गहते मनमैल धोते। श्रीमान धीर धरते, धरते न लोभ, ना पाप ताप करते, करते न क्षोभ ॥१६५॥ मोही प्रमत्त बनते, भयभीत होते, खोते स्वकीय पद को दिन-रैन रोते। योगी करें न भय को बन अप्रमत्त, वे मस्त व्यस्त निज में नित दत्तचित्त ॥१६६॥ मोही ममत्व रखता न विराग होता, विद्या उसे न मिलती दिन-रैन सोता। कैसे मिले सुख उसे जब आलसी है, कैसे बने ‘सदय' हिंसक तामसी है ॥१६७॥ भाई सदैव यदि जागृत तू रहेगा, तेरा प्रबोध बढ़ता-बढ़ता बढ़ेगा। वे धन्य हैं सतत जागृत जी रहे हैं, जो सो रहे अधम हैं विष पी रहे हैं ॥१६८॥ है देख, भाल, चलता, उठता, उठाता- शास्त्रादि वस्तु रखता, तन को सुलाता। है त्यागता मल, चराचर को बचाता, योगी अहिंसक दयालु वही कहाता ॥१६९॥
  4. एक बार जब रहली से हुआ विहार रात्रि-विश्राम हेतु कुछ दिखा नहीं स्थान... तभी वहीं दिखा एक किसान... क्या तुम संत को ठहरने दे सकते हो जगह? पूछा भक्त श्रावकों ने… प्रसन्न हो बोला गद्गद् कंठ से मुझ गरीब की कुटिया में पधारें भगवान धन्य हो जाऊँगा मैं दिनभर व्रत और रातभर पूजा करूंगा मैं। गुरुवर ने रात में किया वहीं विश्राम... सामायिक-उपरांत शयन कर रहे मुनिराज और इधर जलाकर अगरबत्ती किसान एक-एक फूल चढ़ाकर करता रहा पूजा सारी रात... सोचा लाखों रुपये खर्च करने पर भी मिल नहीं सकती मुझे यह सौगात!! प्रातः जब विहार करने लगे किसान की आँखों से आँसू बहने लगे, चरणों में साष्टांग नमस्कार किया गुरु ने हृदय की गहराई से आशीर्वाद दिया। प्रतिदिन गुरु की तस्वीर को पूजने लगा उसकी आस्था का अतिशय दिखने लगा, एक वर्ष उपरांत जब वह गुरु-दर्शन को आया हाथ में चाँदी के थाल में पूजन सामग्री लाया, प्रणाम करके कहने लगा सब आपके ही आशीष का फल है, झोपड़ी के स्थान पर अब बन गया महल है!! देखकर यह नज़ारा कहा एक विद्वान् ने यदि बन गया कुटिया से महल तो इसमें अचरज ही क्या! मिल जाए जिसे चरण-रज इनकी हो जाता सभी समस्याओं का हल पा लेता वह संसार की तलहटी से शाश्वत अनुपम मोक्षमहल। तभी गुरूवर विद्वान् की ओर दृष्टि कर बोले आगम भाषा में यदि पाना चाहते हो मोक्षमहल तो शीघ्र दे दो सम्यक्दर्शन का बयाना पश्चात् ज्ञान, चारित्र का देकर पूरा मूल्य मुक्तिमहल पर अधिकार जमाना।
  5. ज्ञानी तभी तुम सभी सहसा बनोगे, संपूर्ण प्राणि वध को जब छोड़ दोगे। है साम्यधर्म वह है जिसमें न हिंसा, विज्ञान संभव कभी न बिना अहिंसा ॥१४७॥ हैं चाहते जबकि ये जग जीव जीना, होगा अभीष्ट किसको फिर मृत्यु पाना? यों जान, प्राणि वध को मुनि शीघ्र त्यागें, निग्रंथ रूप धर के, दिन-रैन जागें ॥१४८॥ हे जीव! जीव जितने जग जी रहे हैं, विख्यात वे सब चराचर नाम से हैं। निग्रंथ साधु बन, जान अजान में ये, मारें कभी न उनको न कभी मराये ॥१४९॥ जैसा तुम्हें दुख कदापि नहीं सुहाता, वैसा अभीष्ट पर को दुख हो न पाता। जानो उन्हें निज समान दया दिखाओ, सम्मान मान उनको मन से दिलाओ ॥१५०॥ जो अन्य जीव वध है वध ओ निजी है, भाई यही परदया, स्वदया रही है। साधु स्वकीय हित को जब चाहते हैं, वे सर्व जीव वध निश्चित त्यागते हैं ॥१५१॥ तू है जिसे समझता वध योग्य वैरी, तू ही रहा 'वह' अरे यह भूल तेरी। तू नित्य सेवक जिसे बस मानता है, तू ही रहा'वह' जिसे नहिं जानता है ॥१५२॥ रागादि भाव उठना यह भाव हिंसा, होना अभाव उनका समझो अहिंसा। त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव हमें बताया, कर्त्तव्यमान निजकार्य किया कराया ॥१५३॥ कोई मरो मत मरो नहिं बंध नाता, रागादि भाव वश ही द्रुत कर्म आता। शास्त्रानुसार नय निश्चय नित्य गाता, यों कर्म-बंध-विधि है, हमको बताता ॥१५४॥ है एक हिंसक तथैक असंयमी है, कोई न भेद उनमें कहते यमी हैं। हिंसा निरंतर नितांत बनी रहेगी, भाई जहाँ जब प्रमाद-दशा रहेगी ॥१५५॥ हिंसा नहीं पर उपास्य बने अहिंसा, ज्ञानी करे सतत ही जिस की प्रशंसा। ले लक्ष्य कर्म क्षय का बन सत्यवादी, होता अहिंसक वही मुनि अप्रमादी ॥१५६॥ हिंसा मदीय यह आतम ही अहिंसा, सिद्धान्त के वचन ये कर लो प्रशंसा। ज्ञानी अहिंसक वही मुनि अप्रमादी, हा! सिंह से अधिक हिंसक हो प्रमादी ॥१५७॥ उत्तुंग मेरु गिरि सा गिरि कौन सा है? निस्सीम कौन जग में इस व्योम सा है? कोई नहीं परम धर्म बिना अहिंसा, धारो इसे विनय से तज सर्व हिंसा ॥१५८॥ देता तुझे अभय पार्थिव शिष्य प्यारा, तू भी सदा अभय दे जग को सहारा। क्या मान तू कर रहा दिन-रैन हिंसा, संसार तो क्षणिक है भज ले अहिंसा ॥१५९॥
  6. जो भी परिग्रह रखें विषयाभिलाषी, वे चोर हिंसक कुशील असत्यभाषी। संसार की जड़ परिग्रह को बताया, यों संग को जिनप ने मन से हटाया ॥१४०॥ जो मूढ़ ले परम संयम से उदासी, धारे धनादिक परिग्रह दास-दासी। अत्यंत दुःख सहता भव में डुलेगा, तो मुक्ति द्वार अवरुद्ध नहीं खुलेगा ॥१४१॥ जो चित्त से जब परिग्रह को मिटाता, है बाह्य के सब परिग्रह को हटाता। है वीतराग समधी अपरिग्रही है, देखा स्वकीय पथ को मुनि ने सही है ॥१४२॥ मिथ्यात्व, वेद-त्रय, हास्य विनाशकारी, ग्लानी,रती-अरति, शोक-कुभीति भारी। ये नोकषाय नव, चार कषायियाँ हैं, यों भीतरी जहर चौदह ग्रंथियाँ हैं ॥१४३॥ ये खेत, धाम, धन, धान्य, अपार राशि, शय्या विमान, पशु वर्तन दास दासी। नाना प्रकार पट, आसन पंक्तियाँ रे! ये बाहरी जड़मयी दस ग्रंथियाँ रे ॥१४४॥ अत्यन्त शांत गतक्लांत नितांत चंगा, हो अंतरंग बहिरंग, निसंग, नंगा। होता सुखी सतत है जिस भाँति योगी, चक्री कहाँ वह सुखी उस भाँति भोगी ॥१४५॥ ज्यों नाग अंकुश बिना वश में न आता, खाई बिना नगर रक्षण हो न पाता। त्यों संग त्याग बिन ही सब इन्द्रियाँ रे! आती कभी न वश में, तज ग्रंथियाँ रे ॥१४६॥
  7. आत्मा मदीय दुखदा तरु शाल्मली है, दाहात्मिका-विषम-वैतरणी नदी है। किंवा सुनंदन बनी मनमोहनी है, है कामधेनु सुखदा, दुख-हारिणी है ॥१२२॥ आत्मा हि दु:ख सुख रूप विभाव कर्त्ता, होता वही इसलिए उनका प्रभोक्ता। आत्मा, अनात्म-रत ही रिपु है हमारा, तल्लीन हो स्वयं में तब मित्र प्यारा ॥१२३॥ आत्मा मदीय रिपु है बन जाय स्वैरी, स्वच्छन्द - इन्द्रिय - कषाय -निकाय-वैरी। जीतूँ उन्हें निज नियंत्रण में रखें मैं, धर्मानुसार चल के निज को लखें मैं ॥१२४॥ जीते भले हि रिपु को रण में प्रतापी, मानो उसे न विजयी, वह विश्वतापी। रे! शूर वीर विजयी जग में वही है, जो जीतता स्वयं को बनता सुखी है ॥१२५॥ जीतो भले हि पर को, पर क्या मिलेगा? पूछे तुम्हें दुरित क्या उससे टलेगा? भाई! लड़ो स्वयं से मत दूसरों से, छूटो सभी सहज से भव-बंधनों से ॥१२६॥ अत्यंत ही कठिन जो निज जीतना है, कर्त्तव्य मान उसको बस साधना है। जो जी रहा जगत में बन आत्म जेता, सर्वत्र दिव्य-सुख का वह लाभ लेता ॥१२७॥ औचित्य है न पर के वध-बंधनों से, मैं हो रहा दमित जो कि युगों-युगों से। होगा यही उचित, संयम योग धारूँ, विश्वास है, स्वयं पै जय शीघ्र पाऊँ ॥१२८॥ हो एक से विरति तो, रति एक से हो, प्रत्येक काल सब कार्य विवेक से हो। ले लो अभी तुम असंयम से निवृत्ति, सारे करो सतत संयम में प्रवृत्ति ॥१२९॥ हैं राग-रोष अघकोष नहीं सुहाते, ये पाप कर्म, सबसे सहसा कराते। योगी इन्हें तज, जभी निज धाम जाते, आते न लौट भव में, सुख चैन पाते ॥१३०॥ लो ज्ञान ध्यान तप संयम साधनों को, हे साधु! इन्द्रिय-कषाय-निकाय रोको। घोड़ा कदापि रुकता न बिना लगाम, ज्यों ही लगाम लगता, बनता गुलाम ॥१३१॥ चारित्र में जिन समान बने उजाले, वे वीतराग, उपशांत कषाय वाले। नीचे कषाय उनको जब है गिराती, जो हैं सराग, फिर क्या न उन्हें नचाती? ॥१३२॥ हा! साधु भी समुपशांत कषाय वाला, होता कषाय-वश मंद विशुद्धि वाला। विश्वासभाजन कषाय अतः नहीं है, जो आ रही उदय में अथवा दबी है ॥१३३॥ थोड़ा रहा ऋण, रहा वृण मात्र छोटा, है राग, आग लघु यों कहना हि खोटा। विश्वास क्यों कि इनपै रखना बुरा है, देते सुशीघ्र बढ़ के दुख मर्मरा है ॥१३४॥ ना क्रोध के निकट 'प्रेम' कदापि जाता, है मान से विनय शीघ्र विनाश पाता। माया विनष्ट करती जग मित्रता को, आशा विनष्ट करती सब सभ्यता को ॥१४॥ क्रोधाग्नि का शमन शीघ्र करो क्षमा से, रे मान मर्दन करो तुम नम्रता से। धारो विशुद्ध ऋजुता मिट जाय माया, संतोष में रति करो तज लोभ जाया ॥१३६॥ ज्यों देह में सकल अंग उपांगकों को, लेता समेट कछुआ, लख संकटों को। मेधावि- लोग अपनी सब इन्द्रियों को, लेते समेट निज में भजते गुणों को ॥१३७॥ अज्ञान मान वश दी कुछ ना दिखाई- मानो, अनर्थ घटना घट जाय भाई। सद्यः उसी समय ही उसको मिटाओ, आगे कदापि फिर ना तुम भूल पाओ ॥१३८॥ जो धीर धर्म रथ को रुचि से चलाता, है ब्रह्मचर्य सर में डुबकी लगाता। आराम-धर्ममय जो जिसको सुहाता, धर्मानुकूल विचरें मुनि मोद पाता ॥१३९॥
  8. ज्ञानी-अज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/gyaanee-agyaanee/
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