जो भी परिग्रह रखें विषयाभिलाषी, वे चोर हिंसक कुशील असत्यभाषी।
संसार की जड़ परिग्रह को बताया, यों संग को जिनप ने मन से हटाया ॥१४०॥
जो मूढ़ ले परम संयम से उदासी, धारे धनादिक परिग्रह दास-दासी।
अत्यंत दुःख सहता भव में डुलेगा, तो मुक्ति द्वार अवरुद्ध नहीं खुलेगा ॥१४१॥
जो चित्त से जब परिग्रह को मिटाता, है बाह्य के सब परिग्रह को हटाता।
है वीतराग समधी अपरिग्रही है, देखा स्वकीय पथ को मुनि ने सही है ॥१४२॥
मिथ्यात्व, वेद-त्रय, हास्य विनाशकारी, ग्लानी,रती-अरति, शोक-कुभीति भारी।
ये नोकषाय नव, चार कषायियाँ हैं, यों भीतरी जहर चौदह ग्रंथियाँ हैं ॥१४३॥
ये खेत, धाम, धन, धान्य, अपार राशि, शय्या विमान, पशु वर्तन दास दासी।
नाना प्रकार पट, आसन पंक्तियाँ रे! ये बाहरी जड़मयी दस ग्रंथियाँ रे ॥१४४॥
अत्यन्त शांत गतक्लांत नितांत चंगा, हो अंतरंग बहिरंग, निसंग, नंगा।
होता सुखी सतत है जिस भाँति योगी, चक्री कहाँ वह सुखी उस भाँति भोगी ॥१४५॥
ज्यों नाग अंकुश बिना वश में न आता, खाई बिना नगर रक्षण हो न पाता।
त्यों संग त्याग बिन ही सब इन्द्रियाँ रे! आती कभी न वश में, तज ग्रंथियाँ रे ॥१४६॥