पाया इसे न अबलौं इसको न पाना, मैंने इसे कर लिया, न इसे कराना।
ऐसा प्रमाद करते नहिं सोचना है, आ जाय काल कब ओ न हि सूचना है ॥१६०॥
संसार में कुछ न सार असार सारे, हैं सारभूत समतादिक-द्रव्य प्यारे।
सोये हुए पुरुष ये बस सर्व खोते, जो जागते सहज से विधि पंक धोते ॥१६१॥
सोना हि उत्तम अधार्मिक दर्जनों का, है श्रेष्ठ 'जागरण' धार्मिक सज्जनों का।
यों वत्सदेश नृप की अनुजा जयंती' वाणी सुनी जिनप की वह शीलवंती ॥१६२॥
सोया हुआ जगत में बुध नित्य जागे, जागे प्रबोध उर में सब पाप त्यागे।
है काल'काल' तन निर्बल ना विवाद, भेरुण्ड से तुम अतः तज दो प्रमाद ॥१६३॥
धाता अनेक विध आस्रव का प्रमाद, लाता सहर्ष वर संवर अप्रमाद।
ना हो प्रमाद तब पंडित मोह-जेता, होता प्रमाद-वश मानव मूढ़ नेता ॥१६४॥
मोही प्रवृत्ति करते नहिं कर्म खोते, ज्ञानी निवृत्ति गहते मनमैल धोते।
श्रीमान धीर धरते, धरते न लोभ, ना पाप ताप करते, करते न क्षोभ ॥१६५॥
मोही प्रमत्त बनते, भयभीत होते, खोते स्वकीय पद को दिन-रैन रोते।
योगी करें न भय को बन अप्रमत्त, वे मस्त व्यस्त निज में नित दत्तचित्त ॥१६६॥
मोही ममत्व रखता न विराग होता, विद्या उसे न मिलती दिन-रैन सोता।
कैसे मिले सुख उसे जब आलसी है, कैसे बने ‘सदय' हिंसक तामसी है ॥१६७॥
भाई सदैव यदि जागृत तू रहेगा, तेरा प्रबोध बढ़ता-बढ़ता बढ़ेगा।
वे धन्य हैं सतत जागृत जी रहे हैं, जो सो रहे अधम हैं विष पी रहे हैं ॥१६८॥
है देख, भाल, चलता, उठता, उठाता- शास्त्रादि वस्तु रखता, तन को सुलाता।
है त्यागता मल, चराचर को बचाता, योगी अहिंसक दयालु वही कहाता ॥१६९॥