ज्ञानी तभी तुम सभी सहसा बनोगे, संपूर्ण प्राणि वध को जब छोड़ दोगे।
है साम्यधर्म वह है जिसमें न हिंसा, विज्ञान संभव कभी न बिना अहिंसा ॥१४७॥
हैं चाहते जबकि ये जग जीव जीना, होगा अभीष्ट किसको फिर मृत्यु पाना?
यों जान, प्राणि वध को मुनि शीघ्र त्यागें, निग्रंथ रूप धर के, दिन-रैन जागें ॥१४८॥
हे जीव! जीव जितने जग जी रहे हैं, विख्यात वे सब चराचर नाम से हैं।
निग्रंथ साधु बन, जान अजान में ये, मारें कभी न उनको न कभी मराये ॥१४९॥
जैसा तुम्हें दुख कदापि नहीं सुहाता, वैसा अभीष्ट पर को दुख हो न पाता।
जानो उन्हें निज समान दया दिखाओ, सम्मान मान उनको मन से दिलाओ ॥१५०॥
जो अन्य जीव वध है वध ओ निजी है, भाई यही परदया, स्वदया रही है।
साधु स्वकीय हित को जब चाहते हैं, वे सर्व जीव वध निश्चित त्यागते हैं ॥१५१॥
तू है जिसे समझता वध योग्य वैरी, तू ही रहा 'वह' अरे यह भूल तेरी।
तू नित्य सेवक जिसे बस मानता है, तू ही रहा'वह' जिसे नहिं जानता है ॥१५२॥
रागादि भाव उठना यह भाव हिंसा, होना अभाव उनका समझो अहिंसा।
त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव हमें बताया, कर्त्तव्यमान निजकार्य किया कराया ॥१५३॥
कोई मरो मत मरो नहिं बंध नाता, रागादि भाव वश ही द्रुत कर्म आता।
शास्त्रानुसार नय निश्चय नित्य गाता, यों कर्म-बंध-विधि है, हमको बताता ॥१५४॥
है एक हिंसक तथैक असंयमी है, कोई न भेद उनमें कहते यमी हैं।
हिंसा निरंतर नितांत बनी रहेगी, भाई जहाँ जब प्रमाद-दशा रहेगी ॥१५५॥
हिंसा नहीं पर उपास्य बने अहिंसा, ज्ञानी करे सतत ही जिस की प्रशंसा।
ले लक्ष्य कर्म क्षय का बन सत्यवादी, होता अहिंसक वही मुनि अप्रमादी ॥१५६॥
हिंसा मदीय यह आतम ही अहिंसा, सिद्धान्त के वचन ये कर लो प्रशंसा।
ज्ञानी अहिंसक वही मुनि अप्रमादी, हा! सिंह से अधिक हिंसक हो प्रमादी ॥१५७॥
उत्तुंग मेरु गिरि सा गिरि कौन सा है? निस्सीम कौन जग में इस व्योम सा है?
कोई नहीं परम धर्म बिना अहिंसा, धारो इसे विनय से तज सर्व हिंसा ॥१५८॥
देता तुझे अभय पार्थिव शिष्य प्यारा, तू भी सदा अभय दे जग को सहारा।
क्या मान तू कर रहा दिन-रैन हिंसा, संसार तो क्षणिक है भज ले अहिंसा ॥१५९॥