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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. अब मुक्त जीवों में परस्पर में भेदव्यवहार का कारण बतलाते हैं- क्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधितज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वतः साध्याः ॥९॥ अर्थ - क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व-इन बारह अनुयोगों के द्वारा सिद्धों में भेद का विचार करना चाहिए। English - The emancipated souls can be differentiated with reference to the region, time, state, sign, type of Arhant, conduct, self-enlightenment, enlightened by others, knowledge, stature, interval, number, and numerical comparison. विशेषार्थ - प्रत्युत्पन्न नय और भूतप्रज्ञापन नय की विवक्षा से बारह अनुयोगों का विवेचन किया जाता है। जो नय केवल वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है अथवा यथार्थ वस्तुस्वरूप को ग्रहण करता है, उसे प्रत्युत्पन्न नय कहते हैं। जैसे ऋजुसूत्र नय या निश्चय नय। और जो नय अतीत पर्याय को ग्रहण करता है, उसे भूतप्रज्ञापन नय कहते हैं। जैसे व्यवहार नय। क्षेत्र में इस बात का विचार किया जाता है कि मुक्त जीव की मुक्ति किस क्षेत्र से हुई। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सिद्ध क्षेत्र में, अपने आत्मप्रदेशों में अथवा जिस आकाश प्रदेशों में मुक्त होने वाला जीव मुक्ति से पूर्व स्थित था, उन आकाशप्रदेशों में मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में से किसी भी कर्मभूमि के मनुष्य को यदि कोई हर कर ले जाये तो समस्त मनुष्य लोक के किसी भी स्थान से उसकी मुक्ति हो सकती है। काल की अपेक्षा यह विचार किया जाता है कि किस काल में मुक्त हुई-सो प्रत्युपन्न नय की अपेक्षा तो एक समय में ही मुक्ति होती है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा सामान्य से तो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालों में मुक्ति होती है। विशेष से अवसर्पिणी काल के सुखमा-दुखमा नामक तीसरे काल के अन्त में जन्मे जीव और दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्में जीव मोक्ष जाते हैं। गति में यह विचार किया जाता है कि किस गति से मुक्ति हुई? सो प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो सिद्धगति में ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा मनुष्य गति से ही मुक्ति मिलती है। लिंग में विचार किया जाता है कि किस लिंग से मुक्ति हुई ? सो प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा तो वेद रहित अवस्था में ही मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा तीनों ही भाव वेदों से मुक्ति होती है। किन्तु द्रव्य से पुल्लिंग ही होना चाहिए। अथवा प्रत्युत्पन्ननय से निर्ग्रन्थ लिंग से ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय से सग्रंथ लिंग से भी मुक्ति होती है। तीर्थ का विचार करते हैं- कोई तो तीर्थंकर होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। कोई सामान्य केवली होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उनमें भी कोई तो तीर्थंकर के विद्यमान रहते हुए मोक्ष जाते हैं, कोई तीर्थंकर के अभाव में मोक्ष जाते हैं। चारित्र में विचार करते हैं कि किस चारित्र से मुक्ति मिलती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो जिस भाव से मुक्ति होती है, उस भाव को न तो चारित्र ही कहा जा सकता है और न अचारित्र ही कहा जा सकता है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा अव्यवहित रूप से तो यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और व्यवहित रूप से सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और जिनके परिहार विशुद्धि चारित्र भी होता है, उनको पाँचों ही चारित्रों से मोक्ष प्राप्त होता है। जो अपनी शक्ति से ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं। और जो पर के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करते हैं, उन्हें बोधितबुद्ध कहते हैं। सो कोई प्रत्येकबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और कोई बोधितबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। किस ज्ञान से मुक्ति होती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो केवलज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा किन्हीं को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पूर्वक केवलज्ञान होता है और किन्हीं की मति, श्रुत और अवधिज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है। किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है, तब मोक्ष जाते आत्मप्रदेशों के फैलाव का नाम अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होती है। मध्यम अवगाहना के बहुत से भेद हैं। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा से इन अवगाहनाओं में से किसी एक अवगाहना से मुक्ति प्राप्त होती है। और प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा इससे कुछ कम अवगाहना से मुक्ति होती है, क्योंकि मुक्त जीव की अवगाहना उसके अन्तिम शरीर से कुछ कम होती है। अन्तर पर विचार करते हैं कि-मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव लगातार भी मुक्ति प्राप्त करते हैं और बीच-बीच में अन्तर दे देकर भी मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि जीव लगातार मोक्ष जायें तो कम से कम दो समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक मुक्त होते रहते हैं। इसके बाद अन्तर पड़ जाता है। सो यदि कोई भी जीव मुक्त न हो तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह माह का अंतर पड़ता है। संख्या पर विचार करते हैं कि-एक समय में कम से कम एक जीव मुक्त होता है और अधिक से अधिक १०८ जीव मुक्त होते हैं। क्षेत्र आदि की अपेक्षा से जुदे जुदे मुक्त जीवों की संख्या को लेकर परस्पर में तुलना करना अल्प-बहुत्व है। सो बतलाते हैं-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सब जीव सिद्धक्षेत्र से ही मुक्ति प्राप्त करते हैं, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा जो किसी के द्वारा हरे जाकर मुक्त हुए, ऐसे जीव थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जन्म सिद्ध हैं। तथा ऊर्ध्व लोक से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उनसे असंख्यात गुणे जीव अधोलोक से मुक्त हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुणे जीव मध्यलोक से मुक्त हुए हैं। तथा समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे कम हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव द्वीप से मुक्त हुए हैं। यह तो हुआ सामान्य कथन। विशेष कथन की अपेक्षा लवण समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव कालोदधि समुद्र से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे जम्बूद्वीप से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे धातकीखण्ड से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे पुष्करार्ध से मुक्त हुए हैं। यह क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व हुआ। काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे अधिक हैं। और बिना उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं; क्योंकि पाँचों महाविदेहों में न उत्सर्पिणी काल है और न ही अवसर्पिणी काल है। फिर भी वहाँ से जीव सदा मुक्त होते हैं। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा एक समय में ही मुक्ति होती है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। गति की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है! भूतप्रज्ञापन नय से तिर्यञ्च गति से आकर मनुष्य हो, मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मनुष्य गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। नरक गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और देवगति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। वेद की अपेक्षा विचार करते हैं कि-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो वेद रहित जीव ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा नपुंसक लिंग से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। स्त्रीवेद से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव संख्यात गुणे हैं। और पुरुषवेद के उदय से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। तीर्थ की अपेक्षा-तीर्थंकर होकर मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। सामान्य केवली होकर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। चारित्र की अपेक्षा-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा भी अव्यवहित चारित्र सबके यथाख्यात ही होता है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। अन्तर सहित चारित्र की अपेक्षा पाँचों चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं और चार चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। प्रत्येकबुद्ध थोड़े होते हैं। बोधितबुद्ध उनसे संख्यात गुणे हैं। ज्ञान की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सब जीव केवलज्ञान प्राप्त करके ही मुक्त होते हैं, अत: अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा दो ज्ञान से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। चार ज्ञान से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। विशेष कथन की अपेक्षा मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मति, श्रुत ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मति, श्रुत और अवधि ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। अवगाहना अपेक्षा से जघन्य अवगाहना से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उत्कृष्ट अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मध्यम अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। संख्या अपेक्षा से एक समय में एक सौ आठ की संख्या में मुक्त हुए जीव थोड़े हैं, एक समय में एक सौ सात से लेकर पचास तक की संख्या में मुक्त हुए जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। एक समय में उनचास से लेकर पच्चीस तक की संख्या में मुक्त हुए जीव असंख्यात गुणे हैं। एक समय में चौबीस से लेकर एक तक की संख्या में मुक्त हुए जीव संख्यात गुने हैं। इस प्रकार मुक्त हुए जीवों में वर्तमान की अपेक्षा तो कोई भेद नहीं है। जो भेद है वह भूतपर्याय की अपेक्षा ही है। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥
  2. अब प्रश्न यह होता है कि जब जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है तो फिर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही क्यों जाता है? आगे क्यों नहीं जाता? इस प्रश्न का समाधान करते हैं- धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ अर्थ - गतिरूप उपकार करने वाला धर्मास्तिकाय द्रव्य लोक के अन्त तक ही है, आगे नहीं है। अतः मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही जाकर ठहर जाता है, आगे नहीं जाता। English - The soul is not able to go beyond the universe since there is no medium of motion.
  3. इसमें दृष्टान्त देते हैं- आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्ड बीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ अर्थ - ऊपर के सूत्र में कहे हुए हेतुओं को और इस सूत्र में कहे गये दृष्टान्तों को क्रम से लगाना चाहिए। जो इस प्रकार हैं - जैसे कुम्हार हाथ में डण्डा लेकर और उसे चाक पर रख कर घुमाता है तो चाक घूमने लगता है। उसके बाद कुम्हार डण्डे को हटा लेता है फिर भी चाक जब तक उसमें पुराना संस्कार रहता है, घूमता है। इसी तरह संसारी जीव मुक्ति की प्राप्ति के लिए बार-बार प्रयत्न करता था कि कब मुक्ति गमन हो। मुक्त हो जाने पर वह भावना और प्रयत्न नहीं रहा फिर भी पुराने संस्कारवश जीव मुक्ति की ओर गमन करता है। जैसे मिट्टी के भार से लदी हुई तुम्बी जल में डूबी रहती है। किन्तु मिट्टी का भार दूर होते ही जल के ऊपर आ जाती है। वैसे ही कर्म के भार से लदा हुआ जीव कर्म के वश होकर संसार में डूबा रहता है। किन्तु ज्यों ही उस भार से मुक्त होता है तो ऊपर को ही जाता है। जैसे एरण्ड के बीज एरण्ड के ढोडा में बन्द रहते हैं। और ढोडा सूखकर फटता है तो उछलकर ऊपर को ही जाते हैं। वैसे ही मनुष्य आदि भवों में ले जाने वाले गति नाम, जाति नाम आदि समस्त कर्मबन्ध के कट जाने पर आत्मा ऊपर को ही जाता है। जैसे वायु के न होने पर दीपक की लौ ऊपर को ही जाती है, वैसे ही मुक्त जीव भी अनेक गतियों में ले जाने वाले कर्मों के अभाव में ऊपर को ही जाता है; क्योंकि जैसे आग का स्वभाव ऊपर की जाने का है, वैसे ही जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन ही है। English - Like the potter's wheel once rotated, keeps rotating, like a gourd with the mud sinks, but comes up once mud is removed, like castor seed goes upwards on the flower-like flame goes upwards, the same way upon liberation from the karmas, the soul goes upwards.
  4. अब ऊपर की जाने का कारण बतलाते हैं- पूर्वप्रयोगादसंगत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ अर्थ - पहले के संस्कार से, कर्म के भार से हल्का हो जाने से, कर्म बन्धन के कट जाने से और ऊपर को जाने का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊपर को ही जाता है। English - As the soul is previously impelled, as it is free from ties or attachment, as the bondage has been snapped and, as it is of the nature of darting upwards, the liberated soul moves upwards.
  5. इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं- तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ अर्थ - समस्त कर्मों से छूटने के बाद ही जीव लोक के अन्त तक ऊपर को जाता है। English - Immediately upon complete destruction of all karmas the soul darts up to the end of the universe.
  6. क्षायिक भाव शेष रहते हैं, सो ही कहते हैं- अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व को छोड़कर अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव हो जाता है। English - Upon liberation infinite faith, infinite knowledge, infinite perception, and infinite perfection are not destroyed. शंका - यदि मुक्त जीव के ये चार ही क्षायिक भाव शेष रहते हैं, तो अनन्त वीर्य, अनन्त सुख आदि भावों का भी अभाव कहलाया ? समाधान - नहीं कहलाया, क्योंकि अनन्त वीर्य आदि भाव अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के अविनाभावी हैं। अर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के साथ ही अनन्त वीर्य होता है। जहाँ अनन्त वीर्य नहीं होता, वहाँ अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन भी नहीं होते। रहा अनन्त सुख, सो वह अनन्त ज्ञानमय ही है; क्योंकि बिना ज्ञान के सुख का अनुभव नहीं होता। शंका - मुक्त जीवों का कोई आकार नहीं है, अतः उनका अभाव ही समझना चाहिए, क्योंकि जिस वस्तु का आकार नहीं है वह वस्तु नहीं ? समाधान - जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस शरीर का जैसा आकार होता है, वैसा ही मुक्त जीव का आकार रहता है। शंका - यदि जीव का आकार शरीर के आकार के अनुसार ही होता है, तो शरीर का अभाव हो जाने पर जीव को समस्त लोकाकाश में फैल जाना चाहिए, क्योंकि उसका स्वाभाविक परिमाण तो लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर बतलाया है ? समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के प्रदेशों में संकोच और विस्तार का कारण नामकर्म था। नामकर्म के कारण जैसा शरीर मिलता था उसी के अनुसार आत्म प्रदेशों में संकोच और विस्तार होता था। मुक्त होने पर नाम कर्म का अभाव हो जाने से संकोच और विस्तार का भी अभाव हो गया। शंका - यदि कारण का अभाव होने से मुक्त जीव में संकोच विस्तार नहीं होता तो गमन का भी कोई कारण न होने से ; जैसे मुक्त जीव नीचे को नहीं जाता या तिरछा नहीं जाता, वैसे ही ऊपर को भी उसे नहीं जाना चाहिए, बल्कि जहाँ मुक्त हुआ है, वहीं सदा उसे रहना चाहिए ? इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं-
  7. अब प्रश्न यह है कि पौद्गलिक द्रव्य कर्मों के नाश से ही मोक्ष होता है या भाव कर्मों के नाश से भी? इसका उत्तर देते हैं- औपशमिकादि-भव्यत्वानां च॥३॥ अर्थ - जीव के औपशमिक आदि भाव तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव के अभाव से मोक्ष होता है। आशय यह है कि औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव तो पूरे नष्ट हो जाते हैं और पारिणामिक भावों में से अभव्यत्व भाव तो मोक्षगामी जीव के पहले से ही नहीं होता, जीवत्व नाम का पारिणामिक भाव मुक्तावस्था में भी रहता है। अतः केवल भव्यत्व का अभाव हो जाता है। English - Emancipation is attained on the destruction of psychic factors also like quietism and potentiality.
  8. अब मोक्ष का लक्षण और मोक्ष के कारण बतलाते हैं- बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ अर्थ - बन्ध के कारणों का अभाव होने से तथा निर्जरा से समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना मोक्ष है। English - Owing to the absence of the cause of bondage and with the functioning of the dissociation of karmas, the annihilation of all karmas leads to liberation. विशेषार्थ - मिथ्यादर्शन आदि कारणों का अभाव हो जाने से नये कर्मों का बन्ध होना रुक जाता है और तप वगैरह के द्वारा पहले बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है। अतः आत्मा समस्त कर्मबन्धनों से छूट जाता है। इसी का नाम मोक्ष है। सो कर्म का अभाव दो प्रकार से होता है। कुछ कर्म तो ऐसे हैं, जिनका अभाव चरम शरीरी के स्वयं हो जाता है। जैसे नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु का सत्त्व चरम शरीरी के नहीं होता, अतः इन तीनों प्रकृतियों का अभाव तो बिना यत्न के ही रहता है। शेष के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। सो चौथे पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय करके जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसके बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़कर नौवें गुणस्थान में क्रम से १६+८+१+१+६+१+१+१+१=३६ (छत्तीस) प्रकृतियों को नष्ट करके दसवें गुणस्थान में आ जाता है। वहाँ सूक्ष्म लोभ संज्वलन को नष्ट करके बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचता है। बारहवें में ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की ६ और अन्तराय की ५ प्रकृतियों को नष्ट करके केवली हो जाता है। इस तरह उसके ३+७+३६+१+१६६३ (तिरेसठ) प्रकृतियों का अभाव हो जाता है जिनमें ४७ घाति कर्मों की और १६ अघाति कर्मों की प्रकृतियाँ हैं। शेष ८५ प्रकृतियाँ रहती है, जिनमें से ७२ प्रकृतियों का विनाश तो अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में करता है। १३ का विनाश उसी के अन्तिम समय में करके मुक्त हो जाता है ॥२॥
  9. अब अन्तिम तत्त्व मोक्ष का कथन किया जाता है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति केवलज्ञान पूर्वक होती है, अत: पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण बतलाते है- मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् ॥१॥ अर्थ - मोहनीय कर्म के क्षय से फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है। सारांश यह है कि पहले मोहनीय कर्म का क्षय करके अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय नाम के गुणस्थान में जीव रहता है। फिर उसके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को एक साथ नष्ट करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इसी से ‘मोहक्षयात्’ पद अलग लिखा है। English - Omniscience (perfect knowledge) is attained on the destruction of deluding karmas, and on the destruction of knowledge and perception-covering karmas and obstructive karmas.
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