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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१८६ २१-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर चारित्र विभूषण चारित्र चक्रवर्ती दादागुरु ज्ञानसागर जी महाराज के श्री चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! जिस तरह आप चारित्र शुद्धि में सजग थे। इसी प्रकार मेरे गुरुवर भी स्वयं तो सजग रहते ही, आचार्य बनने के बाद अपनी जवाबदारी के प्रति भी सजग रहते । वे अपने आचार्यत्व को बखूबी से समझने लगे थे। यही कारण है कि संघस्थ साधुवृन्दों को वात्सल्य पूर्वक व्रतों के प्रति सावधान करते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके अनन्य सेवक भागचंद जी बिलाला ने भीलवाड़ा में बताया- चारित्रशुद्धि में सजगता “आचार्य पद पर आसीन होने के बाद फरवरी माह में एक दिन किसी श्रावक ने आचार्य श्री विद्यासागर जी को बताया कि ऐलक महाराज जी आहार में भष्म लेते हैं। तब आचार्य श्री ने पूछा- ‘कब से ले रहे हैं?' तो श्रावक ने कहा मुझे ज्ञात नहीं। आचार्य श्री के कहने से वह ऐलक जी को बुला लाया। आचार्य महाराज ने बड़े ही प्रेम से पूछा- ‘महाराज! आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या?' ऐलक जी । बोले-‘आचार्यश्री जी बिल्कुल ठीक है।' तब आचार्यश्री ने कहा- आप आहारचर्या में कौन-सी औषधि लेते हैं?' तो उन्होंने कहा-‘महाराज! मुझे भूख नहीं लगती इसलिए मैं आयुर्वेदिक दवा की भष्म लेता हूँ। तो आचार्यश्री जी बड़े ही वात्सल्य भाव से बोले- ‘महाराज! भूख के रोग को मिटाने के लिए ही अपन ने दीक्षा ली है और आपने गृहस्थावस्था में पूजा में क्षुधा रोग विनाशनाय का अर्घ्य भी चढ़ाया होगा। अगर भूख नहीं लग रही है तो अच्छा ही तो है। इसलिए दवा लेना उपयुक्त नहीं है अतः आपको यह दवा बन्द कर देना चाहिए।' तब ऐलक जी बोले- ‘महाराज! मुझे तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने कभी मना नहीं किया।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी बोले- ‘वह तो सही है किन्तु अधिक भस्म नहीं लेना चाहिए। इससे नुकसान हो सकता है क्योंकि ये बहुत गरम होती हैं, साधना में बाधा पड़ सकती है अतः अब आपको नहीं लेना है। इस तरह आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज प्रारम्भ से ही चारित्र शुद्धि के प्रति दृढ़ता एवं सावधानी रखते थे। इस तरह जैसा आपको करते देखा वैसे ही मेरे गुरुवर ने अपने अन्दर आचार्यत्व को जगा लिया था। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में नमस्कार नमस्कार नमस्कार... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१८५ २०-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जैनदर्शन के दार्शनिक, आत्मतत्त्व के द्रष्टा, शुद्धात्मानुभव के भावक, परमाराध्य क्षपक गुरु महाराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में समर्पित भाव से नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर ! एक ज्ञानी का अन्तिम समय कैसा होता है? इसको देखने के लिए सच्चे साधकों की जिज्ञासा होती है और हुआ भी ऐसा। आपने जब नियम सल्लेखना धारण की और जीवन पर्यन्त के लिए अन्न का त्याग किया। आपकी तपस्या साधना के शिखर सोपानों पर चढ़ने लगी। तब समाचारों ने दूर-दूर तक बुद्धिजीवियों के मन में दर्शन की ललक पैदा की। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २६-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- क्षपक गुरुराज के दर्शन को हुआ संत समागम ‘जनवरी १९७३ में पूज्य मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज कुछ दिन दीक्षा गुरु क्षपकराज ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य करके नसीराबाद से विहार कर गए, उनके साथ में क्षुल्लक सुखसागर जी एवं क्षुल्लक विनयसागर जी भी विहार कर गए। उसके बाद अनेक मुनिसंघ साधुवृन्द क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शनार्थ पधारे। परमपूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागर जी मुनिराज ससंघ पधारे। दोनों संघों में नमोऽस्तु प्रतिनमोऽस्तु हुआ। उस समय क्षपकराज ज्ञानसागर जी गुरुदेव की विनय-भक्ति-वात्सल्य देखते ही बनता था। आगन्तुक साधुवृन्दों से रत्नत्रय की कुशलक्षेम पूछना और तत्त्वचर्चा करना ये उनके उपयोग की शुद्ध दशा का प्रतीक है। परमपूज्य सिद्धान्तवारिधि आचार्यकल्प श्री जी (कलकत्ता वाले) एवं परमपूज्य मुनि श्री अजितसागर जी आदि साधु सल्लेखना धारक क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य में संलग्न हो गए। कुछ दिन वैयावृत्य का लाभ लेकर विहार कर गए। लगभग मार्च-अप्रैल माह में दक्षिण भारतीय परमपूज्य मुनि श्री पद्मसागर जी महाराज, परमपूज्य मुनि श्री पार्श्वसागर जी महाराज एवं क्षुल्लक श्री दयासागर जी महाराज आदि ससंघ क्षपक गुरु महाराज ज्ञानसागर जी की वंदनार्थ, वैयावृत्यार्थ पधारे। वे भी कुछ दिन सेवा करके विहार करने लगे तब संघस्थ मुनिराज श्री पार्श्वसागर जी महाराज बोले-मेरी भावना है कि क्षपक मुनिराज की वैयावृत्य कर आत्म संस्कार पाऊँ, यदि आपकी आज्ञा हो तो । तब अग्रज मुनि पद्मसागर जी महाराज बोले- यहाँ रुकने के लिए निर्यापकाचार्य महाराज से अनुमति लीजिए। तब मुनिराज पार्श्वसागर जी महाराज ने निर्यापकाचार्य परमपूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज से निवेदन किया कि मैं क्षपक गुरुराज की सेवा करके अपनी आत्मकल्याण की भावना भाना चाहता हूँ, मुझे आज्ञा प्रदान करें। मैं संघ के नियमों के अनुसार रहूँगा। तब आचार्य महाराज श्री विद्यासागर जी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अनुमति प्रदान कर दी और मुनि श्री पद्मसागर जी महाराज एवं क्षुल्लक श्री दयासागर जी महाराज विहार कर गए। कुछ दिन बाद परमपूज्य आचार्यरत्न भारत गौरव मुनि श्री देशभूषण जी महाराज के शिष्य क्षुल्लक श्री बाहुबलीसागर जी एवं क्षुल्लक चन्द्रभूषण जी आदि त्यागीगण दर्शनार्थ पधारे और १-२ दिन वैयावृत्य करके विहार कर गए। इस तरह आप जीवन के अन्तिम समय तक ज्ञान का प्रकाश फैलाते रहे। आपके पास जो भी आया वह कुछ न कुछ दिशाबोध पाकर गया। आपके जीवन का एक-एक क्षण स्व-पर हित में गुजरा है, यह आपकी प्रवृत्ति में लोगों ने देखा है। ऐसे जिनवाणी के सारस्वत पूत के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१८४ १९-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जन्म-जरा-मृत्यु रोग के भिषगाचार्य परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी दादा गुरु के त्रिकाल पूज्य चरणों की शाश्वत् आरोग्य प्राप्त करने के लिए पूजा-अर्चना करता हूँ... हे गुरुवर ! नसीराबाद में १४ माह का लम्बा प्रवास आपने किया इस दौरान आपका स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता ही जा रहा था। आपके स्वास्थ्य को लेकर आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर काफी चिंतित रहते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के वैद्य अनंतस्नेही जैन (जमोरिया) ने २०१५ भीलवाड़ा में बतलाया- आगमोक्त निर्यापकाचार्य ‘‘क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के स्वास्थ्य को लेकर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से विशेष बातचीत होती थी, तब उस समय आचार्य श्री विद्यासागर जी की गुरु सेवा देखने को मिली। वे औषधोपचार को लेकर बहुत सावधान थे। उनसे बहुत सारी बातें सीखने को मिलीं। मेरे पिता वैद्य श्री लक्ष्मीचंद जैन (जमोरिया), वैद्य नंदकिशोर जी जैन (केकड़ी), वैद्य कृष्णगोपाल शर्मा (केकड़ी) तीनों ही वैद्य मिलकर प्रतिदिन क्षपक ज्ञानसागर जी मुनिराज की नाड़ी देखते और उस हिसाब से औषध तैयार करते । तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज औषधि की पूरी जानकारी लेते । उसकी शुद्धता के बारे में पूछते, उसका नाम पूछते और उस योग में क्या-क्या मिश्रण है? इसके बारे में पूछते । वह कैसे बनती है? किस प्रकार से बनती है? सारी जानकारी लेते । दिगम्बर जैन साधु क्या चीज ले सकते हैं? क्या चीज नहीं? ये वे बताते थे। एक दिन मेरे पिताजी ने आचार्य महाराज को कह दिया कि महाराज यदि कोई कमी या अशुद्धि रह जाती है तो वह पाप हम गृहस्थों को लगेगा, आप विकल्प न करें। तब आचार्य महाराज समझाते हुए बोले- ‘दान वही है जो स्व-पर कल्याणकारी हो, निर्दोष औषधि पवित्र भाव व विनयपूर्वक दी जाये तो ही औषधदान है अन्यथा कड़वा रस मात्र है वह। जिससे शरीर शुद्धि होने वाली नहीं है। जिस प्रकार ८ वर्ष तक के बालक के पालन करने की जवाबदारी माता-पिता की होती है, उसी प्रकार सल्लेखनाधारी की परिचर्या की जवाबदारी सल्लेखना कराने वाले की होती है और फिर विचारकरो असंयमी एवं संयमी के उपचार में क्या अन्तर है। जो संयमी के व्रत नियमों के अनुसार निर्दोष औषधि करता है, वही सही वैद्य है।' तब पिताजी ने कहा- आज से मैं नियम करता हूँ कि कभी भी किसी त्यागी-व्रती साधु-संतों के लिए अशुद्ध दवा का प्रयोग नहीं करूंगा।" इस तरह आपश्री के द्वारा भगवती आराधना का अध्ययन-अध्यापन करने कराने से निर्यापकाचार्य नई-नई दृष्टियाँ पाते रहे और सल्लेखना में किस प्रकार सावधानी वरतनी चाहिए। वह बड़ी गम्भीरता से अनुभूत करते रहे और व्यवहार में उतारते रहे। ऐसे आत्मचिकित्सक गुरु-शिष्य के चरणों में अपना जीवन समर्पित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१८३ १७-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अंतरंग सत्ता की गुफा के अविराम यात्री, चारित्र चक्रवर्ती, दादागुरु के चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आप जब अनन्त की यात्रा पर निष्क्रमण कर गए तब आपके पदचिह्नों पर चलते हुए मेरे गुरु गाँव-गाँव, नगर-नगर आपके द्वारा दी गई श्रमण संस्कृति की ध्वजा को फहराते हुए स्व-पर कल्याण करते हुए बढ़ते रहे। सन् १९७३ से आपकी स्मृति के सहारे वे आज तक चलते जा रहे हैं और मोक्ष मंजिल की दूरियों को कम करते जा रहे हैं। वर्ष १९७३ में १ जून तक आपका और आगे मेरे गुरु का जो कुछ खोज-बीनकर लेखा-जोखा तैयार किया वह आपको प्रस्तुत कर रहा हूँ- इस तरह वर्ष १९७३ से आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर आपको हृदय में विराजमान कर आपसे निर्देशन पाते हुए आज तक मोक्षमार्ग में प्रवर्तन कर रहे हैं। सर्वज्ञदेव, जिनागम और दादा गुरु आपकी आज्ञाओं से बंधकर मेरे गुरु निर्बन्ध स्वतन्त्र विचरण कर रहे हैं। वह प्रसंगवशात सदा यही कहते हैं-गुरु कृपा सदा साथ है, गुरु की छाया बनी हुई है। सब कार्य गुरुदेव की कृपा से हो रहे हैं मैं कुछ नहीं करता। गुरु महाराज कहते थे-‘संघ को गुरुकुल बनाना।' इस प्रकार उनकी हर श्वांस में आपके नाम का संगीत बजता रहता है। और वे आनंदित हो सभी को अनुभूति का रसास्वादन कराते चले जा रहे हैं। आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१८२ १६-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आत्मसाक्षात्कार की गहन समाधि में लीन ज्योतिर्मय दादागुरु चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति चारित्रचक्रवर्ती क्षपक महामुनिराज श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के आदर्श चरणचिह्न स्थापक चरणाचरण को त्रियोग-त्रिभक्तिपूर्वक-त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर ! सन् १९७३ वर्ष आपकी जिन्दगी का वह महत्त्वपूर्ण पड़ाव था जब आप नश्वर देह में भगवान आत्मा के शुद्ध स्वरूप का सम्वेदन कर रहे थे। तब आपके निकटस्थ मेरे गुरु उस भगवत् चेतना का दिव्य बोध स्पर्श पा रहे थे या यूँ कहूँ कि चेतना का परिमार्जन-परिष्कार एवं विकास की कला का प्रयोगात्मक ज्ञान पा रहे थे। हे गुरुवर! आप ज्यों-ज्यों मानवीय चेतना की शिखर यात्रा कर मंजिल के करीब पहुँच रहे थे त्यों-त्यों आपके बाहर में जुड़ा सब छूटता जा रहा था-अन्न, फल, दूध फिर पानी भी । कलिकाल की विपरीतता एवं हीन संहनन के बावजूद मानव जीवन की सफलता को हासिल करना असामान्यअसाधारण महाघटना है जो आप जैसे बिरले महापुरुष ही कर पाते हैं। चेतना की वृत्तियों को निजत्व के लिए सहज-सरल स्वाभाविकता से संपादित संचालित करके आपने अपने जीवन को सम्पूर्ण-समग्र ही नहीं बनाया अपितु अपने लाड़ले शिष्य, प्रिय आचार्य, निर्यापक गुरु को भी चेतना के अद्वितीय रहस्यों को दिखाया है। हे गुरुवर! आपने सहस्राधिक वर्षों के बाद श्रमण संस्कृति के लोक में महाक्रान्ति का जो बीजारोपण किया वह आज वट वृक्ष बनकर सर्वज्ञ कथित संस्कृति की शीतलछाया में सच्चे मुमुक्षुओं को शान्ति आनन्द प्रदान कर रहा है। साथ ही भौतिकता की चकाचौंध में भटकी-अटकी चेतनाओं को इच्छाओं-कामनाओं-वासनाओं एवं अज्ञान अंधकार रूप विदग्ध संसार से निकलने के लिए अक्षय प्रकाश दे हस्तावलंबन प्रदान कर रहा है या यूँ कहूँ कि मिथ्या, असत्य, दु:खदायी, मर्त्य संसार में भव्यात्माओं को महाबेहोशी से उठाकर द्रव्य की महासत्ता से आत्मसाक्षात्कार करा रहा है। हे तात! आपकी महत् कृपा से आज हम शिष्यानुशिष्यों को जो मिला/मिल रहा है वह अनुपमेय अमृत है। निश्चित ही हमारा जीवन एक न एक दिन अजर-अमर-अविनाशी तत्त्वानुभूति करेगा। ददागुरु के चरणों में नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१८१ १५-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अज्ञ अंधकार को ज्ञानप्रभा से भेदने वाले परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल ज्ञानदीप प्रकाशनार्थ नमस्कार नमस्कार नमस्कार... हे गुरुवर ! जैसे ही आपने आचार्यपद का त्याग किया और नियम सल्लेखना व्रत को धारण किया, तब नूतन आचार्य के निर्देशन में आपकी दैनन्दिनी के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ०८-११२०१५ भीलवाड़ा में बताया- क्षपक मुनिराज की दैनन्दिनी ‘‘नियम सल्लेखना व्रत को देने के बाद नूतन आचार्यश्री के निर्देशन में प्रातः ७:३०-९:00 बजे तक आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित परमपूज्य समयसार ग्रन्थराज का स्वाध्याय चलता था। गाथाओं को निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लयबद्ध पढ़ते थे उसका अर्थ गुरुदेव क्षपकराज ज्ञानसागर जी महाराज करते थे। दोपहर में २-४ बजे तक परमपूज्य शिवकोटी आचार्य विरचित पूज्य भगवती आराधना ग्रन्थराज का स्वाध्याय चलता था। जिसकी मूलगाथा एवं संस्कृत टीका को आचार्य महाराज पढ़ते थे और उसका भावार्थ क्षपक मुनिराज समझाते थे एवं बीच-बीच में विशेषार्थ भी बताते थे इस स्वाध्याय में ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक आदिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक सम्भवसागर जी, क्षुल्लक विनयसागर जी, क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर जी और कुछ समय तक ब्रह्मचारिणी दाखाबाई जी, ब्रह्मचारिणी मणिबाई जी, ब्र. सोहनलाल जी छाबड़ा (टोडारायसिंह), ब्र. विकासचंद जी इत्यादि त्यागिगण एवं अनेकों श्रावक-श्राविकाओं के साथ पंण्डित श्री चंपालाल जी जैन विशारद भी नित्यप्रति ज्ञान लाभ लेते थे। शाम की सामयिक के पश्चात् रात्रि में श्रावक लोग वैयावृत्य करने के लिए आ जाते थे। तब श्रीमान् गम्भीरमल जी सेठी आध्यात्मिक भजन सुनाते थे। जिनमें दौलतराम जी, भूधरदास जी, द्यानतराय जी, बनारसीदास जी, भागचंद जी, जिनेश्वरदास जी, बुधचंद जी आदि पुराने कवियों के द्वारा रचित भजन हुआ करते थे। इसी प्रसंग में नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी सेवानिवृत्त आयकर अधिकारी ने भी भीलवाड़ा में बताया- ‘‘हम युवा लोग जिनमें श्री शान्तिलाल जी सोगानी, श्री प्रवीणचंद जी गदिया, श्री रतनलाल जी पाटनी, श्री सीताराम जी गदिया आदि कई लोग उनकी वैयावृत्य करने रात्रि में प्रतिदिन जाते थे। दिन में तो मुनि विद्यासागर जी और संघ के साधु वैयावृत्य करते थे। वैयावृत्य के समय पर श्रीमान् गम्भीरमल जी सेठी पुराने गीत एवं लावनियाँ सुनाया करते थे। कभी-कभी राजकुमार गदिया भी लावनियाँ सुनाया करते थे। तब आचार्य महाराज विद्यासागर जी भी सुना करते थे। एक दिन हम युवाओं ने उनसे पूछा-महाराज! आपको ये लावनियाँ समझ में आ जाती हैं क्या? तो आचार्यश्री बोले- ‘बार-बार सुनने से भाव समझ में आ जाता है और शब्दकोश तैयार हो जाता है। इस प्रकार आपके प्रिय निर्यापकाचार्य आपकी सेवा में चौबीसों घण्टे लगे हुए थे और आपके आध्यात्मिक भजन सुनकर एकत्व-विभक्त्व की अनुभूति में रुचि देखकर वे भी आध्यात्मिक पद लिखते और आपको सुनाते थे।'' इस सम्बन्ध में २१ मार्च २०१८ दोपहर, डिण्डौरी प्रवास में मेरे गुरुवर आचार्यश्री जी ने मेरी जिज्ञासाओं का समाधान देते हुए श्री दीपचंद जी छाबड़ा को बताया- ‘‘गुरु महाराज ने जब सल्लेखना व्रत धारण कर लिया था। तब आध्यात्मिक भजन लिखकर गुरु महाराज को सुनाता था।" इस प्रकार निर्यापकाचार्य अवस्था में मेरे गुरुवर ने जो आध्यात्मिक गीत लिखे थे, वे प्रकाशित होकर आप तक पहुँच चुके हैं किन्तु एक और गीत उनका कमल कुमार जैन, यू.डी.सी. जे.एल.एन. मेडिकल कॉलेज अजमेर की डायरी में मिला जो उन्होंने १९७५ में प्रतिलिपि की है वह आपको बता रहा हूँ- प्रवृत्ति का फल संसार कभी मिला सुर विलास,तो कभी नरक निवास। पुण्य पाप का परिणाम, कभी न मिलता विश्राम ॥१॥ मूढ़ पाप से डरता, अतः पुण्य सदा करता। तो संसार बढ़ाता, भव वन चक्कर खाता ॥२॥ पाप तज पुण्य करेंगे, तो क्या नहीं मरेंगे?। भले ही स्वर्ग मिलेगा, भव दुख नहीं मिटेगा ॥३॥ प्रवृत्ति का फल संसार, निवृत्ति सुख का भण्डार। पहली अहो पराश्रिता, दूजी पूज्य निजाश्रिता ॥४॥ मत बन किसी का दास, पर बन परसे उदास। जिससे कर्मों का नाश, उदित हो वो प्रकाश ॥५॥ अतः मेरा सौभाग्य, मुझको हुआ वैराग्य। पुण्य पाप तो नश्वर, शुद्धात्म ही ईश्वर ॥६॥ सुख दुख में समान मुख, रहे तो, मिले शिव सुख। अन्यथा तो दुस्सह दुःख, ऊर्ध्व, अधो, पार्श्व सम्मुख ॥७॥ स्नान स्वानुभव सर में, यदि हो, तो पल भर में। तन, मन, निर्मल-तम बने, अमर बने मोद घरे ॥८॥ सब पर कर्म परम्परा, यों लख तू स्वयं जरा। निज में धन खूब भरा, अविनश्वर औ खरा ॥९॥ आलोकित लोकालोक, करता वही आलोक। जो मुझ में अव्यक्त रूप, व्यक्त हो, तो सुख अनूप ॥१०॥ क्यों करता व्यर्थ शोक, निज को जान मन रोक। बाहर दिखती पर्याय, अभ्यंतर 'द्रव्य' सुहाय ॥११॥ ‘विद्या' रथ पर बैठकर, मनोवेग निरोध कर। अब शिवपुर है जाना, फिर लौट नहीं आना ॥१२॥ इस प्रकार- २. अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा... ३. पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर... ४. मोक्ष-ललना को जिया! कब वरेगा... ५. भटकन तब तक भव में जारी... ६. बनना चाहता यदि शिवांगना पति... ७. चेतन निज को जान जरा... ८. समकित लाभ... ९. अहो! यही सिद्ध शिला... इन गीतों को पढ़कर एक आत्मा की तड़फन सुनाई देती है। वह भव-भव के कारागार से छूटना चाहती है। इस तरह सन् १९७२ के पन्नों पर सच्चे मुमुक्षुओं का स्वर्णिम इतिहास रचा गया एवं जाते हुए वर्ष ने आगत वर्ष को चेताया! सावधान !! अप्रमत्त रहना !!! दुनियाँ का इतिहास लिखने में चूक हो जाए तो हो जाए किन्तु जो प्राणीमात्र के लिए जीते हैं, सबके हित में सोचते हैं, सर्व सुखी बनने का मार्ग बताते हैं, ऐसे तपस्वी ज्ञानी-ध्यानी साधक महापुरुषों के पल-पल को, उनकी हर श्वांस के अनुभवों को लिखना न भूलना। वही तुम्हारी लेखनी को स्वर्णिम बनाएगी। वर्ष १९७३ कलम ले सावधान हो गया। ऐसे मुमुक्षुओं के चरणों में नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य ज्ञानमूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज को विनम्र श्रद्धाञ्जलि (तर्ज—आ जाओ तड़पते हैं अरमां-चित्र-'आवारा') श्रद्धा से झुका सर चरणों में, मुनिराज को वंदन करते हैं। इन दो नैनों के पैमाने, कर दर्श, हर्ष से छलकते हैं । टेर।। तेज के पुंज, शान्ति शिरोमणि, करुणा के तो ये आगार हैं। हैं परम तपोनिधि, जो जग में, आदर्श अनुपम रखते हैं। श्रद्धा से ।।१।। जन्म लिया ग्राम राणोली, महिमा राजस्थान की बढ़ाई है। प्रकटे कोख से देवी घृतवली की, चतुर्भुज जी के लाल मनभावते हैं ॥२॥ माता-पिता धरा नाम भूरामल, वैराग्य जगा शिशुकाल ही, वर्ष अट्टारा ब्रह्मचर्यधारा, ज्ञान उपार्जन अनुरत रहते हैं। श्रद्धा से ॥३॥ वीरसागर आचार्य सानिध्य पा, क्षुल्लक, ऐलक पद अभ्यस्त हुए, आचार्य शिवसागर से, ज्ञान रवि दीक्षा ले, चारित्र गगन पे चमकते हैं ॥४॥ जिन आगे मदन भी हार गया, माया मोह राग भी दूर हुए। धन्य ऐसे बाल-ब्रह्मचारी मुनि, जो मन इन्द्रिय वश करत हैं। श्रद्धा से ॥५॥ गुणमूल, महाव्रतधारी हैं, निष्परिग्रह, निराभिमानी वैरागी। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सतवक्ता, जो निज पर हित रत रहते हैं। श्रद्धा से ॥६॥ जिनागम के प्रकाण्ड-पण्डित हैं, पूर्ण रत्नत्रय गुण मण्डित हैं, मुनि संघ उपाध्याय रूप में, मानव कल्याण ये करते हैं। श्रद्धा से ॥७॥ ‘प्रभु' ज्ञान के सागर आप हैं और हम तो निरे अज्ञानी हैं, गुण आप बखाने, वो शक्ति कहाँ, फूल श्रद्धा ही अर्पित करते हैं।८।। (श्रद्धा सुमन, रचयिता-प्रभुदयाल जैन, प्रकाशक-श्री दि. जैन आगम सेवा मण्डल, अजमेर, वीर नि. सं. २४९३)
  7. पत्र क्रमांक-१८० १४-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगमोक्त साधक भावलिंगत्वरूप चारित्री परमपूजनीय दादा गुरुवर क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आप शुद्ध रत्नत्रय के सच्चे साधक थे आपने जैसा आगम में देखा वैसा ही आचरण में उतारा और अपने लाड़ले शिष्य प्रिय आचार्य को भी बताया सिखाया। आप दोनों गुरु-शिष्य की यशाःसुरभि दिग्दिगंत फैल गई, जिस कारण भव्यात्मारूपी भौंरे आप द्वय के चरणों में खिचे चले आते। ऐसा ही एक संस्मरण ब्राह्मी विद्या आश्रम जबलपुर की संचालिका ब्रह्मचारिणी मणिबेन जी ने सुनाया। वह आपको बता रहा हूँ- गुरु की खोज पूरी हुई ‘ग्रीष्म ऋतु में चलते हुए पथिक का तन सूरज की उष्म रश्मियों से तप चुका अचानक घने वृक्ष की छाया दिखी और वह विश्राम हेतु ठहर गया। उस समय की सुखानुभूति का वर्णन करना बड़ा कठिन होता है। ठीक वैसे ही इस स्त्री पर्याय से मुक्ति पाने के लिए मोक्षमार्ग में अग्रसर होने हेतु, मैं सच्चे गुरु की खोज कर रही थी। जिनवाणी का पठन-पाठन अध्ययन के साथ-साथ चिंतन-मनन चलता रहता था। मोक्षमार्ग में वस्त्रधारी गुरु तो हो नहीं सकते, ज्ञान-ध्यान में लीन, तपस्वी, वीतरागी, निस्पृही, निरीहवृत्ति वाले आगमानुसार लक्षण वाले गुरु कब मिलेंगे? यह भावना प्रतिदिन भाती रहती थी। पुण्ययोग से ब्रह्मचारी विकासचंद जी से मिलना हुआ उन्होंने कहा-यहाँ सोनगढ़ में सोला-आना मिथ्यात्व है और सही गुरु की जाँच पड़ताल के लिए नसीराबाद जाओ। वहाँ पर वयोवृद्ध, तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आगमोक्त गुरु हैं जो कि तरण-तारण हैं। उनके दर्शन करके संसार में ज्यादा गोता नहीं लगाना पड़ेगा। फिर क्या था? अंधा क्या चाहे-दो नेत्र' अतः चल पड़े सच्चे गुरु की खोज में। मेरे साथ में ब्रह्मचारिणी दराखाबेन, फूलवतीबेन, इन्द्राबेन, ब्रह्मचारी विकासचंद जी भी थे। नसीराबाद पहुँचे और जैसे ही युवा आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन किए एवं पूज्य ज्ञानसागर जी महाराज जिन्होंने आगमानुसार समाधि ले रखी थी। उनके दर्शन किए। आचार्य श्री विद्यासागर जी प्रातः से रात्रि तक गुरु सेवा में ऐसे संलग्न थे मानो उन्हें कोई आनंद की प्राप्ति होती हो। उनकी निर्दोष चर्या गुरु-भक्ति-समर्पण-व्यवहार कुशलता देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। समय पाकर उनसे तत्त्वचर्चा की तब अज्ञान अंधकार दूर हुआ और मन में आया भ्रम कि पंचमकाल में मुनि नहीं होते, दूर हो गया। सच्चे गुरु की खोज पूर्ण हुई । गुरु चरणों में मस्तक झुक गया। परम उपकारी, करुणामयी, वात्सल्यमूर्ति, अनुशासनप्रिय, कुशलवक्ता, आगम व अध्यात्म के सार को आत्मसात् करने वाले, शुद्धोपयोगी, समाधिसम्राट, भव्यजीवों के आराध्य, माँ के समान आत्मबोध कराने वाले, कर्म-नोकर्म से दृष्टि को हटाने वाले, दूरदृष्टा, निर्मोही जीवन जीने एवं मृत्यु की कला सिखाने वाले गुरु को पाकर हम लोग धन्य हो गए।'' इस प्रकार आप गुरुद्वय के चरणों में जो भी नास्तिक आता, वह आस्तिक बने बिना नहीं रहता। जब आप अनन्त की यात्रा पर निकल गए थे। तब मेरे गुरुदेव आपकी स्मृति के सहारे आपके पगचिह्नों पर चलते हुए किशनगढ़ पहुँचे। तब ब्रह्मचारिणी मणीबेन और दराखाबेन दोनों ही पुनः दर्शन के लिए पधारीं इस सम्बन्ध में उन्होंने बताया- आगमनिष्ठ आचार्यश्री “जब जून माह में आचार्यश्री मदनगंज-किशनगढ़ पहुँचे तो मैं दराखाबेन के साथ पुनः दर्शन के लिए गयी क्योंकि गुरु की खोज तो पूरी हो गई थी किन्तु उन्हें अभी गुरु नहीं बनाया था। इसलिए उनकी शिष्या बनने के लिए पहुँच गए उनके चरणों में और अन्तिम कुछ बातें जो मेरे व्रती बनने में बाधक थीं, उन धारणाओं को आचार्य महाराज के सामने रखा। उन्होंने आगम के आलोक में उन गलत धारणाओं को निरस्त कर दिया। तब मन पूर्णत: संतुष्ट होकर समर्पित हो गया। तब हम दोनों ने दर्शन प्रतिमा का संकल्प लेने के लिए निवेदन किया। तो दूरदर्शी-पारदर्शी गुरुदेव ने कहा- ‘दर्शन प्रतिमा की रक्षा के लिए दूसरी व्रत प्रतिमा भी ले लो।' गुरु की कृपादृष्टि से हम दोनों व्रत प्रतिमा का संकल्प लेकर व्रती बन गए और सही मायने में गुरु की शिष्या बन गए। व्रत लेने से भावों में इतनी विशुद्धि बढ़ी कि २-३ दिन बाद हम दोनों ने आर्यिका बनने के भाव रखे। तब आगमचक्षु आचार्य गुरुदेव ने कहा-'हाँ, हाँ! दीक्षा ले लो लेकिन साथ में नहीं रखेंगे।' यह सुनकर हम दोनों का आत्मबल मजबूत न होने से हमारी भावना कोरी रूप ही रह गई। बार-बार निवेदन किया किन्तु आगमनिष्ठ आचार्यश्री जी ने साथ में रखने से मना कर दिया।" इस तरह आगमोक्त चर्या करने वाले आप गुरु-शिष्य को आगम के विपरीत कोई कार्य करते नहीं देखा गया और न ही कोई करा पाया। जिनेन्द्र के ऐसे सच्चे प्रतिरूप गुरुद्वय के चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. पत्र क्रमांक-१७९ ११-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मृत्यु के सम्मुख होकर भी अनुद्विग्न अंतश्चेतन प्राणों में निमग्न चारित्र चक्रवर्ती दादागुरु परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में संख्यातीत प्रणाम अर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! जब आपने अन्तर्यात्रा में बाधक आचार्यपद का त्याग किया और अन्तिमयात्रा की गाड़ी में विराजमान होने हेतु सल्लेखना व्रतरूपी टिकट ग्रहण की तो समाचार चारों ओर फैल गए। इस सम्बन्ध में श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २६-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- छह माह पूर्व किया आजन्म अन्न का त्याग "२२ नवम्बर मगसिर कृष्ण २, वि.सं. २०२९ बुधवार १९७२ को गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्यपद त्याग किया तब नूतन आचार्य श्री विद्यासागर जी से नियम सल्लेखना का व्रत माँगा। तब नूतन आचार्य ने बड़ी गम्भीरता के साथ कहा- ‘बाद में देखेंगे।' फिर २-३ दिन बाद स्थिति-परिस्थिति को समझकर और गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की भावनाओं को समझकर उन्होंने गुरुदेव को नियम सल्लेखना व्रत दे दिया और जैसे ही दिसम्बर १९७२ के प्रथम सप्ताह में अन्न का यावत् जीवन त्याग किया, तब समाचार द्रुतगति से फैल गए। चारों तरफ से दूर-दूर से भक्तगण आने लगे एवं दिगम्बर मुनि आचार्य वीरसागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य प्रकाण्ड विद्वान् तपस्वी वयोवृद्ध मुनि श्री सन्मतिसागर जी महाराज (टोडारायसिंह वाले) एवं उनके शिष्य मुनिराज श्री विमलसागर जी महाराज, क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी के दर्शनार्थ पधारे, तब नूतन आचार्य एवं क्षपक मुनिराज गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने उनकी विनय-भक्ति की, आपस में नमोऽस्तु प्रतिनमोऽस्तु हुआ। कुछ दिन प्रवास किया और क्षपक मुनिराज गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य की तथा संघ के समस्त क्रिया-कलापों में सम्मिलित हुए। तत्त्वचर्चा में भी पूर्ण रुचि रखी। फिर एक दिन विनय-भक्तिपूर्वक क्षपक मुनिराज को नमोऽस्तु कर विहार कर गए।'' इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' १४ दिसम्बर १९७२ की दो कटिंग इन्द्रचंद जी पाटनी ने उपलब्ध करायी, जिसमें अभय कुमार जैन एवं ताराचंद सेठी का समाचार इस प्रकार है- वैयावृत्य के लिए मुनिराज पधारे "दिनांक ०९-१२-७२ को परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ सन्मतिसागर जी तथा विमलसागर जी महाराज ने नसीराबाद की ओर विहार किया। आप परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति की भावना लेकर आचार्य कल्प श्री १०८ श्रुतसागर जी महाराज की आज्ञानुसार नसीराबाद पधारे हैं। आपको भी भावभीनी विदाई दी गई।'' समाधि की ओर "नसीराबाद-परमपूज्य वयोवृद्ध १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने समाधि में अग्रसर होते हुए ४ प्रकार के आहार में से अन्न का त्याग कर दिया है। आप सदैव आत्मस्वरूप में विचरण करते रहते हैं। आपकी तपस्या को देख करके ऐसा अनुभव होता है कि वास्तविक शुद्धोपयोग की अवस्था यही है। दि. १०-१२-७२ रविवार को वयोवृद्ध मुनि श्री १०८ श्री सन्मतिसागर जी, मुनि श्री १०८ श्री विमलसागर जी महाराज का मंगल पदार्पण शाम को हुआ। जिनका भव्य स्वागत अपार जन समुदाय ने गाजे-बाजे सहित किया। शाम को ४ बजे वयोवृद्ध मुनि श्री १०८ श्री सन्मतिसागर जी ने पूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज को समाधि में आरूढ़ होने की प्रवृत्ति को देखकर बहुत हार्दिक प्रशंसा की और कहा कि मैं मेरे शिक्षा गुरु महाराज श्री की सेवा के लिए आया हूँ। बाद में आचार्य श्री १०८ श्री विद्यासागर जी ने उद्बोधन दिया।" इस तरह हे गुरुवर! आप मृत्यु की आहट सुन उसके स्वागत के लिए तैयार हो गए और अपनी सारी वसीयत अपने अन्तेवासीन् वत्स लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को सौंप दी। आपके साहसिक पुरुषार्थ को देखने भक्त श्रावक तो ठीक मुनि गण भी अपने आपको धन्य करने के लिए दर्शनार्थ आने लगे। ऐसे साहसिक पुरुषार्थ को मैं भी कर सकें इस हेतु उसे प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. 23 नवम्बर 2018 पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार आज दोपहर, श्री क्षेत्रपाल मन्दिर ललितपुर से, पंचकल्याणक स्थल, दयोदय गौशाला की ओर हुआ। (दूरी लगभग 10 किमी) कल 24 नवम्बर को घटयात्रा एवम बिभिन्न कार्यक्रम के साथ, पंचकल्याणक महोत्सव आरम्भ होंगे। 21 नवंबर 2018 आचार्य श्री ससंघ का दि. जैन अतिशय क्षेत्र क्षेत्रपाल, ललितपुर, उ.प्र. में हुआ मंगल प्रवेश कल २१ नवम्बर का संभावित विहार कल प्रातः काल बाँसी से विहार होगा▪ ▪कल की आहार चर्या - आदिनाथ डिग्री कॉलेज ▪बिगा महर्रा नेशनल हाईवे▪ कल शाम को जिला ललितपुर में होगी भव्य आगवानी कल का रात्रि विश्राम - ललितपुर के श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र क्षेत्रपला जी मंदिर 20 नवंबर 2018 न्यूज़ अपडेट कल शाम 21 नवंबर को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का ललितपुर नगर में मंगल प्रवेश होगा। 20 नवम्बर 2018 आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का बार से हुआ विहार आज का रात्रि विश्राम - बाँसी (जिला - ललितपुर) 19 नवम्बर दोपहर आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का हुआ विहार मोहनगढ़ से आज का रात्रि विश्राम - (प्राथमिक विद्यालय रमपुरा)संभावित 19 नवम्बर सुबह आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ का हुआ विहार बंधा जी से आज की आहार चर्या - (मोहनगढ़) 17 नवम्बर परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का हुआ मंगल विहार...!! आज रात्रि विश्राम- बम्होरी। कल की आहार चर्या- अतिशय क्षेत्र श्री बन्धा जी। संभावित दिशा- अतिशय क्षेत्र बंधा जी एवम ललितपुर 16 नवम्बर परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का हुआ मंगल विहार, संभावित दिशा- अतिशय क्षेत्र बंधा जी एवम ललितपुर। आज रात्रि विश्राम - झिलमिल गांव म.प्र.(मजना से ९ km) कल शुक्रवार १७/११/१८ को आहार चर्या धामना गांव(झिलमिल से ८ km) (संभावित ) में होगी ---- आचार्य भगवन श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी का हुआ सरकनपुर से विहार आहारचर्या मजना गांव में होने की सम्भवना है विहार दिशा- ललितपुर 15 नवम्बर आचार्य श्री रात्रि विश्राम सरकनपुर 13 नवम्बर, अपरान्ह बेला- पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ- आज मंगल विहार हुआ, छिदारी ग्राम से- ◆ आज रात्रि विश्राम- खैरा ग्राम (11 किमी) ◆ कल की आहार चर्या- खरगापुर (खैराग्राम से 11 किमी) ÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷¡÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷ कल खरगापुर में, परम् पूज्य आचार्यश्री जी ससंघ के पावन सानिध्य में हथकरघा प्रशिक्षण केंद्र का शुभारम्भ होगा। 12 नवम्बर 2018 ◆ आज रात्रि विश्राम- पठादा ग्राम। ◆ कल की आहार चर्या- छितारी ग्राम संभावित (पठादा से 11 किमी) ◆ संभावित दिशा- खरगापुर 21 किमी (छितारी से) 11 नवम्बर 2018 ■आ● भगवन श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी का डेरा पहाड़ी से ससंघ विहार हो चूका है ◆ आज रात्रि विश्राम- डेरी ग्राम, स्कूल। ◆ कल की आहार चर्या- पहाड़ गाँव संभावित ◆ संभावित दिशा- खरगापुर, ललितपुर मुनि श्री योगसागर जी उपसंघ अभी डेरा पहाड़ी छतरपुर में ही विराजमान हैं छतरपुर में हुआ मुनि श्री योगसागर जी से आचार्य श्री का मिलन --- कल सुबह होगा छतरपुर में मुनि श्री योगसागर जी उपसंघ (6 मुनिराज) का आचार्य श्री से मिलन पूज्य गुरुदेव का हुआ मंगल विहार। 10 नवम्बर परम पूज्य आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ- ● गंगाइच से हुआ मंगल विहार। ● आज रात्रि विश्राम- डेरा पहाड़ी क्षेत्र छतरपुर में मंगल प्रवेश आज लगभग 4:30 बजे होगा। आचार्य श्री का खजुराहो से हुआ विहार - 6 मुनिराज उपसंघ का विहार सागर की और दिनाँक :- 09 नवम्बर 2018 खजुराहो विहार की जानकारी सर्वश्रेष्ठ ब्रम्हचर्य के साधक मूकमाटी रचियता आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज का मंगल विहार 09 नवम्बर 2018 को प्रातः 06:30 बजे राजनगर की ओर हुआ_ संभावित विहार दिशा - ललितपुर आहार चर्या - राजनगर संभावित खजुराहो से राजनगर- लगभग 5 किमी आज रात्रि विश्राम विक्रमपुर ज्येष्ठ मुनिश्री योग सागर जी महाराज, मुनि श्री संभव सागर जी, मुनि श्री शैल सागर जी, मुनि श्री निरीह सागर जी, मुनि श्री निस्सीम सागर जी, मुनि श्री शाश्वत सागर जी सहित 6 मुनिराजों का मंगल विहार बमीठा की ओर विहार दिशा - सागर
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