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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१७८ १०-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर ऊध्र्वान्त में सिद्धारूढ़ होने की परमेच्छा के जन्मदाता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...। हे गुरुवर! आचार्य पदारोहण कार्यक्रम होने के बाद प्रथम पाक्षिक प्रतिक्रमण सम्पन्न हुआ। उस वक्त आपका बालकवत् समर्पण के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में बताया नूतन शिष्य ने की : नूतन आचार्य की आँखें बंद “चतुर्दशी का पावन दिन आया पूरे संघ ने उपवास रख करके पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण पूर्ण होने के बाद आचार्य भक्ति पूर्वक आचार्य वंदना की गई। तब वह अद्भुत् नजारा देखकर मेरी आँखों से हर्षाश्रु बहने लगे जब दीक्षा गुरु क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागर जी महा-मुनिराज जी ने अपने स्थान से उठकर संघाधिपति परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में अपना मस्तक रख दिया और फिर दोनों हाथों से तीन बार उनके चरण कमलों का स्पर्शकर चरण रज को अपने मस्तिष्क पर लगाकर पवित्रता का अनुभव करते हुए। बड़ी प्रसन्न मुद्रा में नीचे धरती पर गवासन से बैठकर निर्यापकाचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी मुनिराज से प्रायश्चित्त देने हेतु प्रार्थना की-“ भो गुरुदेव! अस्मिन् पक्षे मम अष्टाविंशतिमूलगुणेषु ..... मम प्रायश्चित्तं दत्वा शुद्धिं कुरु कुरु।' यह सुनकर नूतन आचार्य महाराज ने क्षपक मुनिराज को यथायोग्य प्रायश्चित्त प्रदान किया। हम सभी बड़ी ही उत्सुकता से गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की मानमर्दन भक्ति को देख रहे थे। तब पुनः उन्होंने हम सभी को आश्चर्यचकित कर दिया जब उन्होंने उठकर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दोनों हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिए। उस वक्त नूतन आचार्यश्री जी की श्रद्धा-समर्पण-विनय-वात्सल्य से मिश्रित अनुभूति ने उनकी दोनों आँखें बंद कर दी थीं और हम सभी शिष्यगण हार्दिक प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठे। इतने महान् ज्ञानी सदा शुद्धोपयोग, शुभोपयोग में निर्दोष चर्या करने वाले वयोवृद्ध ८२ वर्षीय क्षपक मुनिराज ने अंतरंग से आचार्य परमेष्ठी परमपूज्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को परम कल्याणकारी निर्यापकाचार्य स्वीकार कर समर्पण कर बालकवत् हो गए। उत्तम मार्दव धर्म की प्रतिमूर्ति : नूतन शिष्य ज्ञानसागर इसके पश्चात् तपस्वीरत्न मुनिवर श्री विवेकसागर जी महाराज अपने स्थान से उठकर खड़े हुए। और दोनों गुरुओं के चरणों के पास बैठकर विनयपूर्वक त्रिबार नमोऽस्तु किया और फिर प्रथम नम्बर पर आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के चरण स्पर्श कर चरणरज को मस्तिष्क पर धारण किया। फिर दीक्षा-गुरुवर क्षपक मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों की रज सिर पर धारण की, तत्पश्चात् आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज से बड़े ही विनयभाव से निवेदन किया कि ‘हे गुरुदेव! दीक्षा के बाद से अब तक जो भी २८ मूलगुणों में दोष लगे हों, आप प्रायश्चित्त देकर मेरे चारित्र को शुद्ध करने की कृपा करें ।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज मौन रहे। तब मुनिराज श्री विवेकसागर जी महाराज ने गुरुदेव श्री ज्ञानसागर जी महाराज से प्रायश्चित्त देने का निवेदन किया। तब क्षपक मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज बड़े ही वात्सल्य भाव से बोले-‘मैंने भी आपके सामने परमपूज्य आचार्य गुरु महाराज से प्रायश्चित्त प्राप्त किया है। आप भी आचार्य महाराज से पुनः समर्पण भाव से निवेदन करो।' तब मुनि विवेकसागर जी महाराज ने आचार्यश्री जी से बड़ी ही विनयपूर्वक निवेदन किया-‘हे महाराज! मुझ पर प्रसन्न होओ और मुझे भी प्रायश्चित्त प्रदान करने की अनुकम्पा करें।' तब आचार्य गुरुमहाराज श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ने उनकी विनय समर्पण को देखते हुए उनको भी यथायोग्य प्रायश्चित्त प्रदान किया और मुनिराज विवेकसागर जी महाराज द्वय गुरुवरों को नमोऽस्तु कर अपने स्थान पर बैठ गए।तत्पश्चात् हम सभी ऐलक, क्षुल्लक ने भी पाक्षिक प्रायश्चित्त देने का निवेदन किया। तब हम लोगों को भी आचार्य महाराज ने यथायोग्य प्रायश्चित्त दिया। इसी प्रसंग में दिल्ली निवासी आपकी अनन्य भक्ता श्रीमती कनक जैन ने बताया- सरलता शुचिता उदारता एवं विनम्रता की प्रतिमूर्ति ‘‘ आचार्य पद त्याग करने के बाद गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज एक आज्ञाकारी शिष्य के रूप में आचार्य विद्यासागर जी के चरणों में पूर्णतः समर्पित हो गए थे और नूतन आचार्य की इतनी विनय करते जैसे उनसे दीक्षित हों। सुबह-दोपहर-शाम उनको जब भी नमोऽस्तु करते तो स्वयं नीचे बैठते और नमोऽस्तु करते वक्त कहते- 'भो गुरुदेव! आशीर्वाद प्रदान करें। इसी प्रकार चतुर्दशी के दिन नूतन आचार्य के चरणारविन्द में बैठकर पाक्षिक प्रायश्चित्त माँगते तो कहते- 'भो गुरुदेव! कृपां कुरु।' जब कोई व्यक्ति कुछ पूछता तो गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज कहते ‘आचार्य परमेष्ठी से पूछो।' उनकी ऐसी विनय देखकर ऐसा लगता कि इतने बड़े ज्ञानी महापुरुषों को देखकर ही शास्त्रों में विनयाचार की बातें लिखी हों।" इस प्रकार हे दादागुरु! आपने आगमोक्त विनयशुद्धि आदि आठों शुद्धियों से अपने चरित्र को निर्मल बना लिया था। ऐसे भावलिंगी शुद्ध चरित्र के धारक गुरुवर के चरणों में त्रिकाल भक्तिभाव से नमोऽस्तु करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
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